| Wednesday, 25 January 2012 10:26 |
शंभुनाथ जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अंग्रेजी पुस्तक बाजार की ही एक असरदार सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। पेंग्विन जैसों का व्यापार भारत में बढ़ा है। यह उत्सव सबसे पहले एक बाजार है। अंग्रेजी में भारतीय लेखन से कभी एतराज नहीं है, पर यह तो देखना ही होगा कि विदेशी पंखों वाली भारतीय चिड़िया कैसी है। इसमें मिट््टी की कोई आवाज है या नहीं, यह 'साहित्यिकता कम-मनोरंजन ज्यादा' में कितनी फंसी है, यह किस हद तक अमेरिकी प्रभाव से मुक्त है और किस हद तक नव-औपनिवेशिक सांस्कृतिक लीला का अंग है। आखिरकार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की उपलब्धि क्या है? सलमान रुश्दी हीरो- जयपुर फेस्टिवल जीरो। लगभग पचीस साल बासी कढ़ी में उबाल आया और पूरा मामला पश्चिमी मूल्य बनाम मुसलिम कट््टररवाद- हंटिगटन की सभ्यताओं की टकराहट के जाल में फंस गया। सलमान रुश्दी ने नहीं आकर कायरता का परिचय दिया। अंग्रेजी के चार भारतीय लेखक 'द सैटनिक वर्सेज' से कुछ पंक्तियां पढ़ कर भाग गए, उनमें से एक न्यूयार्क भागा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आंदोलन क्या भगोड़ों की जमात के बल पर चलेगा? कबीर, सूफी, लिंकन, गांधी और गणेशशंकर विद्यार्थी के समय में क्या कम खतरे थे? सरकार और जयपुर फेस्टिवल के आयोजक दोहरे चरित्र के निकले ही, अंग्रेजी के भारतीय लेखकों ने भी बता दिया कि वे मुद्दा उठा सकते हैं, पर लड़ नहीं सकते। सलमान रुश्दी प्रकरण में यह संदेह किया जाना शायद निर्मूल नहीं होगा कि उसका प्रचार पहले आयोजकों ने खुद किया। पिछली दफा उनकी आयद अलक्षित रह गई थी। जितना फायदा एक विवादग्रस्त लेखक से मिलना चाहिए, उतना नहीं मिला। इसलिए इस बार पहले से हल्ला किया गया। आखिर मार्केटिंग वाले युवकों का खेल है। उन्हें बेचने, हल्ला उठाने के तौर-तरीके आते हैं। मीडिया में ''शैतान की आयतें'' लिखने वाले रुश्दी चाहे आएं न आएं, उनका शोर उन्हें इतना प्रचार दे सकता था, जो आज तक किसी नायक-नायिका की शिरकत तक ने नहीं दिया। अगर हमारा यह संदेह गलत है तो पूछा जाना चाहिए कि फिर इतने विवादास्पद लेखक के आने की खबर कोे पिछली बार की तरह पोशीदा क्यों नहीं रखा गया। आयोजकों को बात तब समझ में आई जब बात हाथ से निकल गई। राज्य सरकार से उन्हें आए साल काम पड़ने वाला है। उन्होंने आंखें दिखार्इं और ये डर गए। आखिरी दिन अपनी खाल बचाने के लिए वीडियो वार्ता की योजना बनाई, सरकार ने उसकी इजाजत भी नहीं दी। आयोजक फिर समर्पण की मुद्रा में खड़े हो गए। कायर केवल रुश्दी या भगोड़े लेखक नहीं हैं, आयोजक भी इसी श्रेणी में आ खड़े हुए हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने स्पष्ट कर दिया, यह विराट बड़ा ही तुच्छ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश ठिठक जाएगा। आज हमारे सामने एक मुख्य प्रश्न यह है कि हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर पश्चिम का और अंग्रेजी का जो सांस्कृतिक आक्रमण है, उसका हमारे पास क्या जवाब है। हमें उसका अंग बन जाना है या एक विकल्प देना है? क्या 'भारतीय साहित्य उत्सव' शुरू नहीं किया जा सकता? भारत में अंग्रेजी के बन रहे उपनिवेशों का सामना राष्ट्रीय पुनर्जागरण से ही संभव है। यह सही है कि हिंदी का बौद्धिक मानस बड़ा विभाजित और स्वकेंद्रवादी है। फिर भी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के नव-औपनिवेशिक दुश्चक्र की समझ भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक उत्सव का रूप देने के लिए प्रेरित कर सकती है। इसमें एशिया के लेखकों को विशेष रूप से बुला कर एक नया अर्थ दिया जा सकता है। यह उत्सव तामझाम से नहीं, सार्थक आवाजों से भरा हो। जयपुर फेस्टिवल जैसे अवसरों पर जो अंग्रेजी की जूठन से तृप्त न हो जाते हों, वे इस नई शुरुआत के लिए सोचें। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, January 25, 2012
अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश
अंग्रेजी का साहित्यिक उपनिवेश
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