| Friday, 27 January 2012 10:42 |
अजेय कुमार भारतीय मीडिया के एक हिस्से ने डरबन में भारत की पर्यावरण मंत्री की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आश्चर्य है कि एक गैर-सरकारी संगठन विज्ञान और पर्यावरण केंद्र की सुनीता नारायण ने भी एक टीवी कार्यक्रम में भारत के सरकारी प्रतिनिधियों की प्रशंसा की है। जयंती नटराजन ने शुरू में जलवायु नियंत्रण के लिए एक 'साझी, पर अलग-अलग जिम्मेदारी' की बात कही। यानी जिन्होंने अतीत में अधिक प्रदूषण फैलाया है, उन्हें इसे दूर करने के लिए अधिक भार उठाना होगा। चीन और कई विकासशील देशों ने उनका समर्थन किया। मजेदार बात यह थी कि यूरोपीय संघ भी कुछ आनाकानी करके उनके साथ जाने को तैयार था। मगर ऐन उस वक्त जब डरबन प्रस्ताव के मसविदे में 'समानता' और 'साझा पर अलग-अलग जिम्मेदारी' की बात शामिल करने का मुद्दा आया, जयंती नटराजन ने अपने कदम खींच लिए। यह ऐसा मौका था जब अमेरिका पूरी तरह अलग-थलग पड़ सकता था, पर हमारे शासकों को यह मंजूर न था। डरबन समझौते में इन धाराओं का न होना आगामी जलवायु वार्ताओं के लिए रुकावटें पैदा करेगा। क्योतो करार में यह लक्ष्य रखा गया था कि विकसित देश अपने उत्सर्जन में1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत की कमी लाएंगे। और 2010 में हम पाते हैं कि यह कमी नौ प्रतिशत हो गई। इसका मुख्य कारण यह है कि 1990 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं ढह गर्इं। बिना किसी सरकारी पहल के, उत्पादन गिरने से उत्सर्जन भी कम हो गया। पहले विकसित देशों में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश भी आते थे। अब उनके पाला पलटने से ऐसा मालूम होता है कि विकसित देशों के उत्सर्जन में कमी आई है, जबकि ऐसा नहीं है। अगर पूर्व सोवियत संघ के भूभाग और पूर्वी यूरोप को निकाल दिया जाए तो शेष विकसित देशों के उत्सर्जन में 1990 के मुकाबले 1.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी ही दर्ज की गई है। आस्ट्रेलिया में यह मात्रा 1990 के मुकाबले 45.9 प्रतिशत बढ़ गई है। अमेरिका और अन्य विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन में कमी लाने के लक्ष्य पर डरबन में कोई अर्थपूर्ण विस्तृत बहस नहीं होने दी, बल्कि इसकी समीक्षा करने के नाम पर अधिक समय-अवधि मांगने और उसे हासिल करने में कामयाब हो गए। साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि जब तक भारत और चीन अपने उत्सर्जन को कम नहीं करते, विकसित देशों से कोई कदम उठाने की उम्मीद न रखें। यानी विकसित देशों को तो प्रदूषण फैलाने का अधिकार है, पर विकासशील देशों को विकास करने का अधिकार नहीं। विकसित देशों का तर्क है कि आगामी वर्षों में उनका कुल उत्सर्जन भारत और चीन के मुकाबले कम होने जा रहा है। इसलिए इन देशों को भी अपनी जिम्मेदारी उठानी होगी। अफसोस कि दो सम्मेलनों के बीच की अवधि में हमारी सरकार, हमारी वैज्ञानिक और अकादमिक संस्थाएं और स्वतंत्र सोच रखने वाले गैर-सरकारी संगठनों को मिल कर भारत के दावों को मजबूत करने के लिए जो विशेष अध्ययन और नई तकनीकी जानकारियां हासिल करनी चाहिए, उनके लिए उन्हें जितनी जद्दोजहद करनी चाहिए, वे नहीं करतीं। जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्राजील और चीन पूरी तैयारी के साथ इन सम्मेलनों में शिरकत करते हैं। पर्यावरण पर जितना अकादमिक-तकनीकी काम ये लोग करते हैं, भारत नहीं करता। इसका नतीजा यह हुआ कि डरबन में भारत के स्वाभाविक सहयोगी ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका तक यूरोपीय संघ के साथ हो लिए। चीन तो विकसित देशों की नीतियों पर कभी आक्रामक तेवर नहीं अपनाता, उसे मालूम था कि फिलहाल कोई लक्ष्य तय नहीं हुए हैं, इसलिए टकराहट से कोई फायदा नहीं होगा। लिहाजा, डरबन में भारत अलग-थलग पड़ गया। डरबन में विकसित देशों में हर देश के लिए कोई लक्ष्य नहीं रखा गया है। कुल मिला कर इन देशों को 2020 तक 1990 के मुकाबले उत्सर्जन में पचीस से चालीस प्रतिशत की कमी लाने की बात है। ये सभी लक्ष्य तभी पूरे होंगे जब हरित जलवायु कोष में कोई धन देगा। 2009 में कोपेनहेगन में इस कोष की बात की गई थी। कानकुन में इस कसम को दोहराया गया। डरबन में इसके लिए कार्यकारिणी बनाने आदि पर कुछ सहमति हुई। मगर जो सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा था कि इस कोष में कौन देश कितना धन देगा उस पर कोई विशेष बात नहीं हुई। विश्व बैंक को इस कोष का प्रबंधक बनाने का सुझाव खारिज हो चुका है। डरबन में जब इस पर थोड़ी चर्चा हुई तो प्राय: विकसित देशों ने अपनी डावांडोल आर्थिक स्थिति और मंदी का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया। ऐसा नहीं है कि यह सब यों ही हो गया। यह एक सोची-समझी नीति के तहत हो रहा है। विश्व के जलवायु-संकट की चिंता इन्हें नहीं है। दरअसल, जलवायु-वार्ताओं में अमीर देशों का रवैया प्राय: सच को छिपाने, उससे बचने और अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर डालने का रहा है। इस प्रवृत्ति के चलते नुकसान इस धरती के बाशिंदों का होगा- वे इंसान हों या पशु-पक्षी। |
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