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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, April 24, 2012

मैदान के पानी से पहाड़ों में लगी आग बुझाना मुश्किल!

मैदान के पानी से पहाड़ों में लगी आग बुझाना मुश्किल!

पलाश विश्वास

नदियां पहाड़ों से निकलकर मैदानों में बहती हैं। मैदानों से निकलकर पहाड़ों में नहीं। इस शाश्वत प्राकृतिक सत्य को अमूमन राजनीति नजरअंदाज​ ​ करती है।पहले पहाड़ों को बाकी देश से काटकर वहां आग लगा दी जाती है और मैदानों के पानी से ही उस आग को बुझाने की कोशिश होती है।​​ हिमालय और उसकी गोद में जीने मरने वालों की त्रासदी यही है। पहाड़ों की जीजिविषा और उसकी अस्मिता बाकी देश के सामने देशद्रोह बतौर पेश करके फिर पहाड़ के जख्मों पर मरहम लगाने का नाटक चलता है। कश्मीर, उत्तराखंड, गोरखालैंड से मणिपुर तक सर्वत्र यही कथा अमृतसमान अनंत है।

कश्मीर और जम्मू और लद्दाख को बांटने वाले भी तो मैदान के लोग हैं। मणिपुर में पहाड़ में बसे नगा जनजातियों के लोगों और घाटी में बसे मतेई जनसमूह के बीच दुश्मनी कौन पैदा कर रहा है?

कोलकाता में आने के बाद गोरखालैंड की समस्या से आग पैदा करके खेलने वाले राजनेताओं को नजदीक से देखने का मौका मिला।कैसे कैसे आंदोलन और नेता तैयार किये जाते हैं और कैसे उसके जरिये सत्ता की राजनीति की जाती रही है, इसको करीब २२ साल से देख रहा हूं।ममता बनर्जी ने सत्ता में आते न आते गोरखालैंड समस्या हल करने का दावा कर दिया । आज हालत यह है कि डुआर्स और पहाड़ में ठन गयी है।​​ वहां ऐसी  आग भड़कने लगी है, जो कभी देखी नहीं गयी। वामो की सरकार में जिस प्रकार गणतंत्र का गला घोंट दिया जाता था, उसी प्रकार परिवर्तन की सरकार में गणतंत्र की परिभाषा ही बदल दी गई।यह ताजा मामला उस वक्त शुरू हुआ जब जॉन बार्ला की अगुवाई वाले जीजेएम समर्थक धड़े की एबीएवीपी से जुड़े स्थानीय निवासियों के साथ जलपाईगुड़ी जिले के बनरहाट इलाके में झड़प हो गई। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस को हवा में गोलियां चलानी पड़ी और आंसू गैस के गोले भी छोड़ने पड़े।कामतापुर ग्रेटर कूचबिहार एसोसिएशन की ओर से सोमवार को एडीएम तपन कुमार को ज्ञापन सौंपा गया।संगठन के सचिव उत्तम चौधरी ने बताया कि कूचबिहार में सहित पूरे उत्तर बंगाल में विदेशी नेपाली अपना पैर फैल रहे हैं। प्रशासन और राज्य सरकार ने इतिहास के साक्ष्यों की अनदेखी कर जीटीए पर हस्ताक्षर किया, अब उनकी नजर तराई और डुवार्स पर है। ज्वाइंट एक्शन कमेटी सहित विभिन्न संगठनों द्वारा जीटीए का विरोध किया जा रहा है।डुवार्स-तराई के 399 मौजे सहित 40 आदिवासी बाहुल्य मौजे को भी गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) में शामिल करना होगा। यदि इसमें से एक भी मौजा जीटीए में छूटा तो डुवार्स-तराई लोग वृहद आंदोलन में उतरेंगे। यह चेतावनी पिछले दिनों बानरहाट धर्मशाला में तराई -डुवार्स ज्वाइंट को-आर्डिनेशन कमेटी की सभा में आविप के विक्षुब्ध नेता जॉन बारला ने दी थी।


हम लगातार कहते और लिखते रहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध इलाकों को अशांत बनाये रखने से वहां के जन समुदायों को बाकी देश से​​ अलग थलग करके खुली लूट और भरपेट मुनाफा तय है। मध्य भारत हो या बाकी देश में कहीं भी, आदिवासी इलाके और आदिवासी अलगाव में हैं, यही उनकी सबसे बड़ी समस्या है। उनके नागरिक मानव अधिकारों को नरसंहार संस्कृति की गैस्टापो बूटों तले कुचलकर पांचवी छठीं अनुसूची के तहत संविधान में स्वीकृत जल. जंगल और जमीन पर उनकी मिल्कियत से उन्हें बेदखल कर दिया जाता है।माओवाद को सरकार देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताते नहीं थकती। अगर है तो राष्ट्र के पास सारे इंतजामात है कि उससे वह निपट लें। पर राष्ट्र माओवाद के खिलाफ कुछ नहीं करता, आदिवासियों के​ ​ खिलाफ सर्वत्र रंग बिरंगे नाम से सलवाजुड़ूम चला रहा है।हिमालय के अलग अलग हिस्सों में रह रहे लोगों को मालूम ही नहीं है कि उनके खिलाफ भी एक सलवा जुड़ूम चालू हैं। सर्वत्र पहाड़ पहाड़ के खिलाफ आत्मघाती युद्ध में खत्म हो रहा है और उन्हें मालूम भी नहीं है।माओवाद नहीं होता तो ​​ओड़ीशा और झारखंड से लेकर गुजरात तक समूचे मध्यभारत से आदिवासियों के अभूतपूर्व दमन के जरिये उनकी बेदखली और कारपोरेट इंडिया का ग्लोबल कारोबार असंभव ही होता।


डीएसबी में तब हम एमए इंग्लिश के छात्र थे। हमारे साथ पढ़ते थे भुवाली चर्च के पादरी फादर मस्कारेनस और सेना में रिजर्विस्ट लांसनायक​ ​ जगत सिंह बेड़ी। इसके अलावा नैनीताल कैंट से कपतान  घोष भी हमारे साथ परीक्षा दे रहे थे। हमें बाहर की दुनिया के बारे में यहीं लोग बताते ​​रहते थे।अंग्रेजी में हमें पढ़ाने वाली यूजीसी लेक्चरर इलाहाबाद की श्रीमती मधुलिका दीक्षित भी अक्सर चेतावनी देती रहती थीं।सेंट जोजफ के ​​फादर व्हाइटनस अंग्रेजी विभाग में हमसे सीनियर थे। पर वे कोंकणी के बेहतरीन कवि थे। हमपर उन दिनों कविता हावी थी और कविता की ​​वजह से ही उनसे हमारी थोड़ी अंतरंगता हो गयी थी। वैसे १९७४ में पहलीबार पिताजी के साथ ऩई दिल्ली में जाकर सत्ता के गलियारों की खाक छानने के बाद हमें अच्छी तरह अहसास हो गया था कि नई दिल्ली के सीने में भूगोल के उबड़ खाबड़ इलाके के लिए क्रूरता के सिवाय कुच नहीं है। इंदिरा गांधी के निर्देश पर पिताजी एक बार फिर भारत भर के शरणार्थी उपनिवेशों का दौरा कर आये थे। तब जीआईसी में पहले साल की परीक्षा देकर मैं सीधे पिताजी के लिए इंदिराजी को दी जाने वाली रपट तैयार करने पहुंचा था।पीसी अलेक्जंडर तब इंदिरा गांधी के मुख्य सचिव थे। रपट बनाते हुए विभिन्न मंत्रालयों और दफ्तरों के चक्कर लगाते हुए मुझे कोपत हो रही थी कि कैसे राजनीति हमारे लोगों का इस्तेमाल करती है।उस अनुभव के बाद मैं फिर किसी मंत्रालय नहीं गया।

कैप्टेन घोष पटना के निवासी थे। निहायत भद्रलोक। उनकी पत्नी और बेटी से बी हमारी अच्छी छनने लगी थी। वे हमारे तेवर को लेकर खास परेशान थे और सलाह देते थे कि बाहर की दुनिया न तो नैनीताल है और न पहाड़। वहां पग पग पर समझौते करने होंगे। हमारी फाइनल परीक्षा से पहले कैप्टेन​ ​ घोष की हवाई दुर्घटना में मौत हो गयी। मिसेज घोष और उनकी बच्ची से हमारी फिर मुलाकात नहीं हो सकी।तब तक मै चिपको आंदोलन और नैनीताल समाचार से काफी हद तक जुड़ चुका था। हालत यह थी कि परीक्षा में बैठने से पहले समाचार के पेज फाइनल करके वहीं नाश्ता करके हम परीक्षा हाल में पहुंचते थे। लेकिन सच बात तो यह है कि जीआईसी के दिनों में हम पहाड़ के बारे में कुछ खास नहीं जानते थे।तब हमारे खास दोस्त थे पवन राकेश और कपिलेश भोज। बीए प्रथम वर्ष में भोज और मैं बंगाल होटल छोड़कर गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के घर मोहन​ ​ निवास में रहने लगे थे और उनके निर्देशन में दुनियाभर का साहित्य, दर्शन, इतिहास,अर्थशास्त्र,मनोविज्ञान वगैरह पढ़ रहे थे। रात रात भर हम​ ​ मालरोड पर हिमपात हो या बरसात या धुंध, टहलते हुए तमाम मुद्दों पर बहस किया करते थे।लेकिन जब गिरदा हमारी टोली में शामिल हो गये और युगमंच के जरिये हमने दुनिया को देखना सीखा, तब हम समझ गये कि हिमालय के बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है और न ही वर्तमान। तब तक​ ​ इतिहासकार शेखर पाठक और अर्थशास्त्री चंद्रेश शास्त्री के साथ हमारी टीम का विस्तार होने लगा था।अल्मोड़ा से लैंड कर चुके थे प्रदीप टमटा और डीएसबी के लंघम हाउस में डेरा डाल चुके थे। छात्र राजनीति में धमाल मचा रहे थे महेंद्र सिंह पाल, शेर सिंह नौलिया, भागीरथ लाल और काशी सिंह ऐरी। राजीव लोचन साह से हम लोग बटरोही​ ​ के कहने पर कालेज पत्रिका के राजहंस प्रेस से मुद्रम के सिलसिले में कबी कभीर मिल लेते थे और उन्हें निहायत कुलीन और बद्र मानकर चलते थे।पर नैनीताल समाचार के प्रकाशन के साथ साथ राजीव के इर्द गिर्द पूरा पहाड़ गिरदा और शेखर की पहल पर एकजुट होने लगा था।अल्मोड़ा से शमशेर सिंह बिष्ट हो या पिर पीसी तिवारी, गढ़वाल से सुंदर लाल बहुगुणा हो या चंडी प्रसाद भट्ट, देहरादून से धीरेंद्र अस्थाना, दिल्ली से आनंद स्वरूप वर्मा और पंकज​​ बिष्ट,लखनऊ से नवीन जोशी, भोपाल से रमेशचंद्र शाह और पंतनगर से देवेन मेवाड़ी , सभी लोग एक सूत्र में बंधकर हिमालय को बाकी देश से जोड़ने की सोचने लगे।उत्तराकंड संगर्ष वाहिनी बन गयी तो काशी सिंह ऐरी, विपिन त्रिपाठी, षष्ठीदत्त, राजा बहुगुमा, नारायम सिंह जंत्वाल, प्रदीप टमटा, चंद्रशेकर भट्ट, बालम सिंह जनौटी, जगत सिंह रौतेला वगैरह भी बेहद सक्रिय होने लगे।​निर्मल जोशी हमारी टीम में शामिल हो चुके ते और हम लोग युगमंच में जहूर आलम की अगुवाई में ेक के बाद एक नाट्य प्रस्तुतियों में लगे थे। नुक्कड़ नाटक और बुलेटिन जनता को साथ जोड़ने के हमारे सबसे कारगर हथियार थे। महिलाएं तेजी से सक्रिय होने लगीं थी, जिन्होंने बाद में उत्तराखंड आंदोलन की बागडोर संभाल रखी थी।
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​इसी दौरान हमने पाया कि मैदान से राजनीति करने वाले पहाड़ी पहाड़ के लिए कुछ नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश के चार चार दिग्गज मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत,सीबी गुप्त,​​ हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी पहाड़ से थे। लेकिन पहाड़ का हाल बेहाल ही रहा।हम लोग जेपी के छात्र आंदोलन में शामिल हुए और जनता पार्टी की सरकार बनते ही उससे मोहभंग हो गया। नैनीताल में वनों की नीलामी के​ ​ खिलाफ नवंबर १९७८ में हुए जोरदार प्रदर्शन, ननीताल क्लब अग्निकांड और लगातार चलने वाली गिरफ्तारियों से पहाड़ उबलने लगा।

बेड़ी पर हमारे इन सरोकारों का कोई खास असर नहीं था। वह कहता था कि कुछ भी कर लो, कितना ही उछल कूद मचाओ, कुछ बदलनेवाला नहीं है। पहाड़ से मैदान उतरोगे तो पता चलेगा कि जीवन क्या है।मैदान बीहड़ है और उस बीहड़ में पहाड़ के लोग खप जाते हैं। अता पता नहीं चलता। मैदान पहाड़ की कभी नहीं सुनेगा और पहाड़ की नियति वहीं है, जो मैदान तय करेगा। में बेड़ी की बातों को सुनता था पर बाकी दोस्त उससे परहेज करते थे।​
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​आज इतने दिनों बाद देखता हूं कि बेड़ी हकीकत का बयान ही कर रहा था। उत्तराखंड अलग राज्य जरूर बन गया लगातार आंदोलन और पहाड़ी इजाओं, बैणियों की कुर्बानी से। पर राजनीति तो मैदान से ही चलती है। नीति निर्धारण पहले लखनऊ और नई दिल्ली से होता है, यह हमारी सबसे बड़ी​​ शिकायत थी। अब राजधानी देहरादून है और तबके आंदोलनकारी आज सत्ता में बी शामिल हैं। पर हालात क्या बदले?

सत्तर के दशक में सदियों बाद गढ़वाल और कुमायूं एकजुट था। तराई और पहाड़ एकाकार थे।बंगाली शरणार्थियों के सबसे बड़े मददगार थे पहाड़ ​​के लोग।इसी वजह से बाकी देश में बसाये गये शरमार्थियों के मुकाबले उत्तराखंड की तराई में बसे बंगाली शरणार्थी, बंगाल से भी बेहतर हालत ​​में हैं।अलग राज्य बनने के बाद मैदानों की राजनीति ने तराई और पहाड़, कुमांयू और गढ़वाल को अलग अलग भूगोल में बांट दिया, जिनका एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं।​​अलग अलग समुदायों के बीच अंतरंगता और आस्था का वह सहज वातावरण अब कहां है?

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोमवार को कहा कि तराई और दुआर्स को शामिल करने का फैसला जीटीए समझौते के मुताबिक लिया जाएगा। ममता ने उत्तर बंगाल के तराई-दुआर्स क्षेत्र में बंद समर्थकों और उनके प्रतिद्वंदियों से शांति और सद्भाव कायम रखने की अपील की।गौरतलब है कि गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन अथवा गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) की स्थापना के लिए केंद्र व राज्य की सरकार तथा गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते के बावजूद अलग गोरखालैंड राज्य की मांग पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है, लेकिन ध्यान देने योग्य है कि वह मांग फिलहाल जबानी ही है। आज यदि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग जीटीए करार के बाद भी अलग गोरखालैंड राज्य की मांग नहीं छोड़ने की बात कर रहे हैं तो सिर्फ राजनीतिक विवशता के कारण और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए। वह जानते हैं कि यदि यह मांग उन्होंने छोड़ने की घोषणा कर दी तो उनका भी वही हश्र होगा जो सुभाष घीसिंग का हुआ।

बनर्जी ने एक बयान जारी कर कहा, 'हम हमेशा से पहाड़ी इलाके, तराई और दुआर्स में शांति चाहते रहे हैं। तराई और दुआर्स के लोगों के भी अपने विचार हैं। लेकिन हर चीज गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) समझौते और इसके प्रावधानों के मुताबिक गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सिफारिशों के मुताबिक होगी।' तराई और दुआर्स क्षेत्र में दो अलग-अलग समूहों के विरोधाभासी विचारों को समस्या का कारण बताते हुए बनर्जी ने कहा, 'जीटीए समझौता पहले ही किया जा चुका है। समझौते के मुताबिक एक समिति भी स्थापित की गयी है ताकि कुछ इलाकों को शामिल किए जाने सहित विभिन्न मुद्दों को सुलझाया जा सके।'

बनर्जी ने कहा, 'गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का अनुरोध मानते हुए हमने गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) के चुनाव टाल दिए हैं। जीटीए समझौते के नियमों के तहत बनायी गई समिति स्वतंत्र है। समस्या के समाधान के लिए यह अपनी रिपोर्ट जरूर देगी।' बनर्जी ने राज्य सचिवालय में कहा, 'मैं दोनों पक्षों के नेतृत्व से शांति और सद्भाव कायम रखने, झड़पों से दूर रहने और तराई-दुआर्स क्षेत्र में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की अपील करती हूं।' मुख्यमंत्री ने यह भी कहा, 'किसी पार्टी को राजनीतिक फायदे के लिए हालात का दोहन करने नहीं दिया जाएगा। हम किसी को माहौल खराब करने और दुष्प्रचार की इजाजत नहीं देंगे।'

इस बीच जीटीए में डुवार्स के गोरखा बहुल मौजा को शामिल किए जाने और नागराकाटा में जनसभा की अनुमति की मांग को लेकर ज्वाइंट एक्शन को-आर्डिनेशन कमेटी के नेतृत्व में शुरू हुए बेमियादी बंद को बुधवार से दो दिनों के लिए स्थगित कर दिया जाता है। मंगलवार को जयगांव के एक होटल में संयुक्त प्रेस वार्ता में कमेटी के चेयरमैन जॉन बारला और गोजमुमो प्रमुख विमल गुरूंग ने घोषणा की। इन नेताओं ने सोमवार और मंगलवार की हिंसक घटनाओं के लिए प्रशासन की निष्क्रियता और विरोधी पक्ष की जिद को जिम्मेदार बताया है। उन्होंने कहा कि यदि प्रशासन ने शुरू में ही कड़ाई की होती तो हालात इस तरह का पैदा ही नहीं होता। राज्य सरकार ने गोरखा एवं आदिवासी समुदायों के प्रति कपट की नीति अपनाई है। हमारी मांग अलग राज्य के लिए नहीं है बल्कि त्रिपक्षीय समझौते के अनुरूप हुए जीटीए समझौते के कानूनी रूप को अमली जामा पहनाने के लिए ही मुहिम चलाई जा रही है। सरकार दो तरह की नीति अपना रही है। एक तरफ वह विरोधी पक्ष को बंद व सभा करने की अनुमति देती है तो हमारे मामले में लोकतंत्र के सिद्धांत को ही ताक पर रख देता है। जनता सरकार की इस चाल को समझ गई है। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में हम फिर बंद बुलाएंगे। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की शांति की अपील पर हमने बंद को स्थगित किया है। इन नेताओं ने राज्य सरकार से पिछली सरकार से सबक लेते हुए निष्पक्ष नीति अवलंबन करने की सलाह दी। साथ ही जयगांव की जनता को निषेधाज्ञा की परवाह नहीं कर हजारों की संख्या में रैली निकालने के लिए धन्यवाद दिया। जॉन बारला ने कहा कि यदि व्यवसायी दुकानें बंद रखते तो हिंसा से बचा जा सकता था। उन्होंने कहा कि आगामी 25, 26 और 27 अप्रैल को वृहद रूप में बंद आयोजित किया जाएगा। गोजमुमो के सह सचिव विनय तामंग ने बंद को सफल बनाने के लिए व्यवसायियों, वाहन चालकों एवं समर्थकों के प्रति आभार प्रकट किया है।

डुवार्स क्षेत्र के नागरकाटा में सभा करने की अनुमति नहीं मिलने के विरोध में गोरखा जनमुक्ति मोरचा (गोजमुमो) व अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (जान बारला गुट) द्वारा गठित तराई-डुवार्स को-ऑर्डिनेशन कमेटी की ओर से बुलाये गये अनिश्चितकालीन बंद के दौरान डुवार्स क्षेत्र में व्यापक हिंसा हुई। बंद समर्थकों ने यात्री वाहनों में तोड़फोड़ की। डुवार्स इलाके में रेल सेवा भी प्रभावित हुई। कई वाहनों तथा 15 से ज्यादा दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया. सैकड़ों बंद समर्थकों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है।सोमवार से तराई-डुवार्स इलाके में तराई-डुवार्स को-ऑर्डिनेशन कमेटी के अनिश्चितकालीन बंद के दौरान बंद समर्थकों व स्थानीय लोगों के बीच संघर्ष से आज दिनभर तराई-डुवार्स के बानरहाट व उदलाबाड़ी समेत विभिन्न क्षेत्रों में उत्तेजना का माहौल बना रहा। सुबह से विभिन्न इलाकों में बंद के समर्थन में पिकेटिंग कर रहे बंद समर्थकों ने यात्री वाहनों में तोड़फोड़ की. एक पुलिस वाहन को भी आग के हवाले कर दिया।बंद का विरोध कर रहे कुछ लोगों ने जान बारला के कार्यालय में आग लगा दी। 11 से ज्यादा दुकानों में भी आग लगा दी गयी। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को हवाई फायरिंग व लाठीचार्ज का सहारा लेना पड़ा। इसमें दो लोगों के घायल होने की खबर है। मोरचा नेता विमल गुरूंग ने कहा है कि उनके बयान को गलत रूप से पेश किया गया है।उन्होंने मंत्रियों के पहाड़ में प्रवेश पर नहीं, बल्कि पहाड़ पर सरकारी कार्यक्रमों को रद्द करने की बात कही है। उन्होंने बताया कि मोरचा सभा के जरिये तराई-डुवार्स क्षेत्र में जीटीए के संबंध में लोगों को अधिक से अधिक जानकारी देना चाहता है। मोरचा महासचिव रोशन गिरि एवं मंच के संयोजक जॉन बारला ने कहा है कि तराई-डुवार्स में उनका भारी समर्थन है।

याद करें कि  दार्जिलिंग मसले पर दो दशकों की अनिश्चतता खत्म करते हुए त्रिपक्षीय समझौते  के तहत ज्यादा अधिकार वाली एक नई काउंसिल बनाने पर सहमति बनी है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य का विभाजन किए जाने से इनकार किया है। हालांकि इस समझौते के विरोध में तराई और मैदानी इलाकों के चाय बागानों वाले इलाके में 48 घंटे के बंद का आह्वान किया गया। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के अध्यक्ष बिमल गुरुंग की मौजूदगी में गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के लिए यह समझौता संपन्न हुआ। समझौते पर दस्तखत पश्चिम बंगाल के गृह सचिव जी.डी. गौतम, केंद्रीय गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव के.के. पाठक और जीजेएम महासचिव रोशन गिरि ने किए। ममता ने वादा किया था कि सत्ता संभालने के तीन महीने के अंदर वह दार्जिलिंग मसले को हल कर देंगी, इस समझौते के जरिए उन्होंने अपना वादा निभाया। समझौते से ठीक पहले गुरुंग की पत्नी आशा ने कहा कि अग्रीमेंट में गोरखालैंड शब्द शामिल किए जाने से हम खुश हैं। इसका आखिरी मकसद गोरखालैंड राज्य का गठन ही है। हालांकि ममता बनर्जी का कहना था कि पश्चिम बंगाल के विभाजन का सवाल ही नहीं है। मुख्यमंत्री ने कहा कि जीटीए को पूरा आर्थिक पैकेज दिया जाएगा। संविधान, केंद्र और राज्य सरकारों के कानूनी दायरे के तहत जितना संभावित स्वायत्ता संभव थी, वह इस समझौते के जरिए दी गई है। चिदंबरम ने इस मौके को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा कि केंद्र और राज्य की सरकारें जीटीए को पूरा समर्थन देंगी। जीटीए के तहत बनने वाली नई काउंसिल 1988 में बनी दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल की जगह लेगी। जीटीए अग्रीमेंट समग्र विकास सुनिश्चित करेगा। ममता ने बताया कि नई काउंसिल राज्य सरकार के कानून के तहत बनेगी। हालांकि इसके पास विधायिका और टैक्स लगाने की शक्तियां नहीं होंगी। इसका अधिकार क्षेत्र दार्जिलिंग, कलिमपोंग और कुरसियॉन्ग सब डिविजन तक सीमित रहेगा। गोरखा बहुल इलाकों को जीटीए में शामिल करने की मोर्चा की मांग पर कमिटी के एक्सपर्ट विचार करके छह महीने में अपनी सिफारिशें देंगे। जीटीए के 45 सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया छह महीने में पूरी हो जाएगी। इस घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया देते हुए लेफ्ट फ्रंट के अध्यक्ष बिमान बोस ने कहा कि इतने संवेदनशील मसले पर एकतरफा फैसला लेना ठीक नहीं है। जीजेएम के बौद्धिक मंच के सदस्य टी. अर्जुन ने कहा कि गोरखालैण्ड की मांग अभी खत्म नहीं हुई है। जीटीए स्थायी समाधान नहीं है।

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