| Monday, 23 April 2012 11:48 |
विजय विद्रोही गरीब बच्चों की फीस का खर्च राज्य सरकार उठाएगी। यहां कानून में कहा गया है कि राज्य सरकार की तरफ से स्कूल-विशेष को प्रति बच्चा दिया जाने वाला अनुदान या फिर बच्चे की तरफ से दी गई असली फीस की रकम (जो भी कम हो) स्कूल को दी जाएगी। ऐसे में निजी स्कूल वालों का कहना है कि सरकार की तरफ से भरपाई की जो राशि मिलेगी वह उनकी फीस से बेहद कम होगी और इसका खमियाजा अन्य बच्चों को उठाना पडेÞगा। उदाहरण के लिए, मध्यप्रदेश में सहायता-प्राप्त स्कूलों को सरकार 2607 रुपए प्रति बच्चे के हिसाब से देती है, लेकिन वहां निजी स्कूलों की फीस इसके तीन गुने से कम नहीं है। ऐसे में भरपाई की साफ व्यवस्था कानून में नहीं की गई है। सरकार का कहना है कि सरकारी स्कूल और केंद्रीय विद्यालय में एक बच्चे पर होने वाले सरकारी खर्च का औसत ही इसका आधार बनेगा। यह खर्च एक हजार से डेढ़ हजार रुपए के बीच है, जबकि निजी स्कूलों का दावा है कि वे हर बच्चे पर दो से तीन हजार के बीच खर्च करते हैं। यानी साफ तौर पर अभी से धमकी दी जा रही है कि निजी स्कूल फीस बढ़ाएंगे ताकि एक चौथाई सीटें गरीबों को देने से हुए नुकसान की भरपाई कर सकें । इस संकट से सरकार कैसे पार होगी इसकी कम से कम कानून में तो कोई व्यवस्था नहीं की गई है। अलबत्ता शिक्षा अधिकार कानून में यह जरूर कहा गया है कि सरकार नियमों के विपरीत जाने वाले स्कूलों की मान्यता रद्द कर सकती है। हमारे यहां स्कूलों को किस तरह मान्यता मिलती है, किस तरह नियमों की अवहेलना होती है, अनुदान का दुरुपयोग होता है या शिक्षकों की तनख्वाह के चैक में जो रकम दर्ज होती है और वास्तव में कितना पैसा उनके हाथ में आता है यह हर कोई जानता है। ऐसे में निजी स्कूल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तोड़ निकालने की कोशिश करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। शिक्षा अधिकार कानून को सफल बनाने के लिए देश में स्कूलों का ढांचा सुधारने की भी जरूरत है। आंकड़े यहां भयावह मंजर पेश करते हैं। देश में प्रति स्कूल केवल साढ़े चार कमरे हैं। केवल तैंतालीस फीसद स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था है। और जहां ऐसी व्यवस्था है भी, वहां साठ प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के अलग से शौचालय हैं। आज भले उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में विद्यार्थियों को मुफ्त में कंप्यूटर दिए जाने की बात की जा रही हो, लेकिन देश में केवल 18.70 फीसद स्कूलों में कंप्यूटर हैं। करीब पचपन प्रतिशत स्कूलों में ही चारदीवारी बनी हुई है, सिर्फ तैंतालीस फीसद स्कूलों में बिजली की व्यवस्था है। प्रति स्कूल शिक्षक की उपलब्धता पांच से कम है। इनकी संख्या बढ़ाना यानी छात्र-शिक्षक अनुपात सुधारना बेहद जरूरी है। यह कानून कहता है कि देश को करीब बारह लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की जरूरत अगले पांच सालों में पडेÞगी। इनके प्रशिक्षण का खर्च केंद्र सर्व शिक्षा अभियान के तहत उठाएगा। यह अच्छी बात है, लेकिन कानून में आगे कहा गया है कि प्रशिक्षित शिक्षक की योग्यता का निर्धारण एक अकादमिक प्राधिकरण करेगा। और कानून लागू होने के पांच साल तक अप्रशिक्षित शिक्षकों का इस्तेमाल होता रहेगा। कानून में अप्रशिक्षित शिक्षकों पात्रता के पैमाने में, उनकी नियुक्ति में नियमों को लचीला बनाए रखने की भी व्यवस्था की गई है। इससे समझा जा सकता है कि सरकार शैक्षणिक तकाजों को लेकर कितनी संवेदनशील या गंभीर है। ऐसे में शिक्षा अधिकार कानून का हासिल क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इस कानून में बच्चों की स्कूल में अस्सी फीसद उपस्थिति जरूरी बताई गई है, लेकिन बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले अभिभावकों के खिलाफ क्या कोई कार्रवाई की जाएगी इस पर कानून खामोश है। पहले ऐसे अभिवावकों के लिए 'सोशल सर्विस' करने की बात कही गई थी, लेकिन बाद में इसे हटा लिया गया। ऐसे में शिक्षाविद अनिल सदगोपाल की टिप्पणी सटीक लगती है कि यह कानून न तो मुफ्त में शिक्षा की व्यवस्था करता है और न ही शिक्षा को अनिवार्य बनाता है। |
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Monday, April 23, 2012
हक बनाम हकीकत
हक बनाम हकीकत
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