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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, April 22, 2012

कार्टून बन गये संघर्ष करनेवाले By पुण्य प्रसून वाजपेयी 8 hours 9 minutes ago

कार्टून बन गये संघर्ष करनेवाले

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कार्टून बन गये संघर्ष करनेवाले
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बंगाल का नया संकट संसदीय राजनीति का वह चेहरा है, जिसे बहुसंख्य तबके ने इस उम्मीद से जीया कि 'लोकतंत्र' आयेगा, लेकिन सत्ता ने उसी जमीन पर अपना सियासी हल चलना शुरु कर दिया जिसने लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ता पाई थी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी संघर्ष के जरिए परिवर्तन के लिए सत्ता में आई थीं लेकिन परिवर्तन के लिए उनके अपने अंदर जो परिवर्तन दिखना चाहिए था वह नहीं दिख रहा है।

अगर बंगाल के सियासी तौर तरीको में बीते चार दशकों को तौलें तो याद आ सकता है कि एक वक्त सिद्रार्थ शंकर रे सत्ता के हनक में नक्सलबाडी को जन्म दे बैठे। फिर नक्सलबाडी से निकले वामपंथी मिजाज ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम तक जो लकीर खिंची उसने ममता के मां,माटी मानुष की थ्योरी को सत्ता के ड्योढी तक पहुंचा दिया। लेकिन इन सियासी प्रयोग में वामपंथ की एक महीन लकीर हमेशा मार्क्स-एंगेल्स को याद करती रही। शायद इसीलिये तीन दशक की वामपंथी सत्ता को उखाडने के लिए ममता की पहल से कई कदम आगे वामपंथी बंगाल ही चल रहा था जिसे यह मंजूर नहीं था कि कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिक एंगेल्स को पढ कर वामपंथी सत्ता ही वामपंथ भूल जाये। लेकिन सत्ता पलटने के बाद वाम बंगाली हतप्रभ है कि अब तो कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ही सत्ता को बर्दास्त नहीं है। वाम विचार से प्रभावित अखबार भी सत्ता को मंजूर नहीं हैं। जिस अतिवाम के हिंसक प्रयोग को वामपंथी सत्ता की काट के लिये मां, माटी, मानुष का नारा लगाकर ममता ने इस्तेमाल किया गया उसी अतिवाम के किशनजी का इनकांउटर कराकर ममता ने संकेत दे दिये कि जब संसदीय सियासत ही लोकतंत्र का मंदिर है तो इसके नाम पर किसी की भी बलि दी ही जा सकती है। इस कड़ी में अस्पतालों में दुधमुंहे बच्चों की मौत के लिये भी पल्ला झाड़ना हो या फिर बलात्कार के मामले में भुक्तभोगी को ही कटघरे में खड़ा करने का सत्ता का स्वाद और इन सबके बीच खुद पर बनते कार्टून को भी बर्दाश्त ना कर पाने की हनक।

यह परिस्थियां सवाल सिर्फ ममता को लेकर नहीं करती बल्कि संसदीय चुनाव की जीत में ही समूची स्वतंत्रता, लोकतंत्र और जनता की नुमाइन्दगी के अनूठे सच पर भी सवाल खड़ा करती है। यह सवाल ऐसे हैं, जो किसी भी राज्य के लिये सबसे जरुरी है। क्योंकि इसी के जमीन पर खड़े होकर किसी भी राज्य को विकास की धारा से जोड़ा जा सकता है। या कहें आम आदमी को अपने स्वतंत्र होने का एहसास होता है। लेकिन जब सत्ता का मतलब ही संविधान हो जाये तो फिर क्या क्या हो सकता है यह बंगाल की माली हालत को देखकर समझा जा सकता है। जहा संसदीय राजनीति के जरीये सत्ता बनाये रखने या सत्ता पलटने को ही लोकतंत्र मान लिया गया। और हर आम बंगाली का राजनीतिकरण सत्ता ने कर दिया। उसकी एवज में बीते तीन दशक में बंगाल पहुंचा कहां यह आज खड़े होकर देखा जा सकता है। क्योंकि कभी साढ़े बारह लाख लोगों को रोजगार देने वाला जूट उघोग ठप हो चुका है। जो दूसरे उद्योग लगे भी उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दोबारा उघोगों को देने के बदले सत्ता से सटे दलालों के जरीये व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरों की नजर इस जमीन पर है। और औसतन वाम सत्ता के दौर में अगर हर सौ कार्यकर्त्ता में से 23 कार्यकर्ता की कमाई जमीन थी। तो ममता के दौर में सिर्फ आठ महीनो में हर सौ कार्यकर्ता में से 32 की कमाई जमीन हो चुकी है।

बंगाल का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारीख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर क उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बड़ी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलैक्ट्रिकल की इंडस्ट्री बंगाल में थी। फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए। कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था। जहां लॉकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है। जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है। लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्चरिंग युनिट रोजगार की जरुरत है। लेकिन बंगाल की राजनीति ने नैनो के जरीये किसान की राजनीति को उभार कर यह संकेत तो दिये कि हाशिये पर उत्पादन को नहीं ले जाया जा सकता है लेकिन जो रास्ता पकड़ा उसमें उदारवादी अर्थव्यवस्था के उन औजारों को ही अपनाया जो उत्पादन नहीं सर्विस दें। क्योंकि सर्विस सेक्टर का मतलब है नगद फसल। इसीलिये राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं और शिक्षण सस्थानों का मतलब या उनसे पढ़कर निकलने वाले छात्रों के ज्ञान का मतलब कम्प्यूटर ट्रेनिंग ही ज्यादा हो चला है। इसीलिये कोलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट का मतलब अब किताब, चर्चा या सामाजिक-आर्थिक बदलाव के लिये राजनीति चिंतन नहीं बल्कि बीपीओ का जमघट है। जहा नशा भी है और चकाचौंध भरी थिरकन भी। इसलिये बंगाल में मां,माटी और मानुष नयी परिभाषा भी गढ़ रही है और किसाम-मजदूर का सवाल उठाकर विकास की बाजारु लकीर खींच कर उन्हें खत्म भी किया जा रहा है।

नयी जमीन जिन उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है,जो वाम समझ की परिभाषा तले उत्पादन करते लोगों को कभी नही किया गया है। खेती का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर समूचे बंगाल में आज बी नहीं है। मछुआरों के लिये कभी कोई योजना बनायी नहीं गई। बुनकरो के हुनर को श्रमिक मजदूर में बदल कर रोजगार देने का तमगा जरुर इस नये दौर में लगाया जा रहा है। अगर बंगाल को सडक से ही नाप लें तो ग्रामीण इलाकों में बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक गायब मिलेगी। बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है। यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्फ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये। खेत की उपज बड़े बाजार तक कैसे पहुंचे या दूसरे राज्यों में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये,जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है। चूंकि मुनाफा शब्द बंगाल के काले जादू सरीखा हो चला है तो समूची राजनीति ही इस काले जादू को अपना कर पूर्व के छह राज्यों की जिन्दगी बंगाल से जोड़ रही है।

ममता अपनी राजनीति को पंख देना चाहती है और सत्ता इस पंख में मुनाफे की सांस अटका रही है। पूर्वी राज्यों में जाने वाला हर सामान बंगाल के सत्ताधारियों की अंटी में फंसे नोटो के लाइसेंस में फंसा है। आम बंगाली इसे देख भी रहा है और आक्रोश भी उपजा रहा है। फिर नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल खड़ा हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह कल वामपंथी थे तो आज कांग्रेस के साथ खड़ी तृणमूल है। जिसने सत्ता में आने के लिये नक्सलवादियों की लकीर को पकड़ा जरुर लेकिन सत्ता पाने के बाद उन नीतियों से परहेज नहीं किया, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही। लेकिन किसान और मजदूर को राजनीतिक सत्ता के पैकेज पर टिकाये रखकर बंगाल की वाम मानसिकता से खुद को जोड़े रखने का फ्राड भी सियासी सौदेबाजी की जरुरत बन गई। यानी बंगाल जिस संघर्ष को बीते चार दशको से आक्सीजन मानता रहा ममता के राज में वही संघर्ष सत्ता का पर्यायवाची बना दिया गया। नया सवाल भी यही है कि 1964 से 1977 तक बंगाल की राजनीति ने किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और 1977 से लेकर 1991 तक बंगाल की सत्ता ने जिस तरह भूमि सुधार से लेकर आम बंगाली के लिये भी सामाजिक मान्यता सामाजिक तौर पर और सत्ता के भीतर भी बनायी रखी । वह 1997 से 2010 तक जिस तेजी से खत्म हुई उसे बदलने के लिये पहली बार 2011 में वाम बंगाल ने जिस सियासत को हवा दी वह सत्ता बरस भर के भीतर ही कागजी कार्टून में बदल गई। लेकिन कार्टून के आसरे सिर्फ ममता को परखना सही नहीं नही होगा ।

जरुरी है बंगाल की उस नब्ज को पकडना जो बीते चार दशको से अपने प्रयोगों के जरीये ही खुद खून भी बहाती है और सत्ता के प्यादो को यह एहसास भी कराती है कि उनकी भोथरे राजनीतिक प्रयोग में भी धार है। शायद इसीलिये सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था। उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार नेनक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा। चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था,बल्कि राजसत्ता के लिये था। सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने इसलिये पकड़ा क्योंकि आम बंगाली ऐसा सोच रहा था और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा जा सकता है, इसे सीपीएम ने माना था। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे वामपंथी यह कहने से नही चूकते कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है। लेकिन नयी परिस्थितयों में ममता की राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर सत्ता के नारे को लगाने से नहीं चूक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों और राजनीतिक सौदेबाजी के ही दायरे में सिमट चुका है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में घूम कर सत्ता के बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार कभी भी नागरिकों को नहीं देखता उसे उपभोक्ताओं की जरुरत होती है। और ममता यह समझ चुकी हैं कि संसदीय राजनीति से बड़ा बाजार इस देश में कुछ है नहीं तो वह नागरिको के कार्टून को बर्दाश्त कर नहीं सकती और सत्ता के लिये खुद को बिना कार्टून बनाये रह नहीं सकती।

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