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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, June 22, 2012

सिनी साय और सीमा - दो पीढ़ियों का एक संघर्ष

सिनी साय और सीमा - दो पीढ़ियों का एक संघर्ष



सीमा और सिनी दोनों आपस मे कभी नहीं मिलीं. दोनो की वर्गीय पृष्ठभूमि में भी अन्तर है. सीमा पढ़ी लिखी और शहर में रहने वाली एक मध्यवर्गीय महिला है और सिनी एक अनपढ़, आदिवासी और गांव की औरत, पर दोनो का मकसद एक ही है...

शीरीं

सीमा आजाद को दी गयी आजीवन सज़ा की खबर ने सबको सकते में डाल दिया है. लेकिन इसके पहले एक और घटना घटी जिसको राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं मिली. गत 7 मई को उड़ीसा के जाजनगर की गोबरघाटी की 55 वर्षीय महिला सिनी साय को पुलिस ने माओवादी बता कर गिरफ्तार कर लिया. सिनी साय को पुलिस ने उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह बे्रन मलेरिया का इलाज कराने के लिए एक अस्पताल में भर्ती थी. सिनी एक ऐसी मां है जिसकी आंखों के सामने उसके 25 वर्षीय बेटे भगवान साय को पुलिस ने गोली मार दी थी और उसकी कलाई को काट दिया था.

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सिनी साय और सीमा : संघर्ष से सलाखों तक

यह घटना उस समय की है जब सन 2006 में कलिंगनगर में टाटा द्वारा आदिवासियों की जमीन छीनने के खिलाफ और आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ तथा आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के हक के लिए आन्दोलन चल रहा था. उस प्रदर्शन में स्वयं सिनी साय भी शामिल थी. विस्थापन विरोधी उस प्रदर्शन पर पुलिस ने फायरिंग कर दी और उसमें 14 आदिवासी मारे गए. उन 14 मृत लोगों में उनका जवान बेटा भगवान साय भी शामिल था. पुलिस ने उनकी आंखों के सामने न केवल उसे गोली मारी बल्कि उसकी विरोध में तनी हुयी मुट्ठी को भी काट दिया. जाहिर है पुलिस उस वक्त सरकार और टाटा की रक्षा कर रही थी. 

सिनी साय दो बार अपने गांव गोबरघाटी की सरपंच रह चुकी हैं. सरपंच के रूप में उन्होंने न केवल अपने गांव का नेतृत्व किया बल्कि वह अपने आदिवासी समूह की हक की लड़ाई में भी शामिल हो गयी. उसी लड़ाई को लड़ते हुए वह एक दिन अपने बेटे की कलाई कटी हुयी लाश लेकर घर लौटीं. 

सिनी साय अब एक शहीद की मां भी थीं. उन्होंने  अपने बहते आंसुओं को अपने सीने में ही दफन कर दिया और समाज परिवर्तन की लड़ाई में  कूद पड़ीं. पुलिस फाइल में वह एक माओवादी के रूप में दर्ज हो गयीं. हमें उन कारणों पर विचार करना होगा जिनके कारण एक मां को 50 साल की उम्र में माओवादी होना पड़ा. उनके दूसरे बेटे के अनुसार सरकार, पत्रकार और मीडिया के लिए वह माओवादी हो सकती हैं. लेकिन उनके लिए वह एक मां हैं. उनके लिए अपने बेटे की हत्या का बदला लेने के लिए इसके अच्छा कोई रास्ता नहीं था. 

उनकी गिरफ्तारी के बाद उनसे मिलने गयी एक पत्रकार सारदा लाहंगीर से उन्होंने कहा ''आप जानती हैं कि जमीन की लड़ाई, अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए मेरे बेटे ने अपने सीने पर पुलिस की गोली खाई. मेरे सामने उसे न सिर्फ बेरहमी से मारा गया बल्कि बाद में उसकी लाश के भी टुकड़े कर दिये गए. एक मां यह कैसे बर्दाश्त करती कि जिस बेटे को मैंने नौ महीने अपनी कोख में रखकर जन्म दिया, उसी बेटे को पुलिस वाले बेरहमी से एक लाश में बदल दें.''(देखें-माओवादी सिनी साय की कहानी-रविवार.कॉम पर )

सीमा और सिनी में एक समानता हैं. दोनो अन्याय के खिलाफ लड़ रही थीं. सिनी की तरह ही सीमा आजाद भी जल-जंगल-जमीन के लिए चल रही लड़ाई की समर्थक है. वह भी विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही थी. दोनो की उम्र में फरक हो सकता है. लेकिन दोनो के जज्बे में कोई अन्तर नहीं है. दोनो इस समाज को बदलना चाहती हैं.

सीमा कुल 36 वर्ष की हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए करने के बाद उन्होंने एक ऐसी राह चुनी जो बहुत ही चुनौती पूर्ण थी. सामन्ती समाज की बेडि़यों को तोड़ कर उन्होंने अपना नाम आज़ाद रखा. 

इसी क्रम में शायद उन्हें यह समझ में आया कि व्यक्तिगत आजादी का कोई मतलब इस समाज में नहीं है. जब तक पूरा समाज नहीं मुक्त होता, वह अकेले मुक्त नहीं हो सकती. इसी समझदारी के साथ वह समाज की मुक्ति के लिए चल रही लड़ाईयों के साथ जुड़ीं. सामन्ती बेड़ियाँ से तो वह एक हद तक मुक्त हुयीं लेकिन राज्य की दमनकारी ज़ंजीरों ने उसे कैद कर लिया और उसकी इन्तहां तब हुयी जब लोअर कोर्ट ने उन्हें  आजीवन कारावास की सजा सुना दी. 

सीमा और सिनी दोनो आपस मे कभी नहीं मिलीं. दोनो की वर्गीय पृष्ठभूमि में भी अन्तर है. सीमा पढ़ी लिखी और शहर में रहने वाली एक मध्यवर्गीय महिला है और सिनी एक अनपढ़, आदिवासी और गांव की औरत है. पर दोनो का मकसद एक ही है-अन्याय का प्रतिकार करना. एक बात मुझे नहीं समझ आती अगर अन्याय का प्रतिकार करने का अर्थ है माओवादी होना तो माओवादी होने में क्या गुनाह है?

लेकिन दिक्कत यह है कि यहां की अदालतें न्याय की वही परिभाषा दोहराती हैं जिसे राज्य ने लिख दिया है. और बचाव पक्ष का वकील पूरे समय यही सिद्ध करने में उलझ के रह जाता है कि अभियुक्त माओवादी नहीं है. कानूनी दांव-पंेच की भूल-भुलैया में यह पक्ष कहीं खो जाता है की वह कौन सी परिस्थितियां थीं जिनमें व्यक्ति माओवादी बनता है. 

ऐसे में मुद्दा माओवादी होने या न होने का नहीं है. मुद्दा है अन्याय की वह पृष्ठभूमि जिस पर संघर्ष की कोई भी इबारत दर्ज होती है. मुझे नहीं पता कि सीमा को आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद सीमा की मां के कलेजे में कितने तूफान उठ रहे होंगे और वह इस तूफान को कौन सी दिशा दें. लेकिन सच्चाई यही है कि राज्य दमन के इस दौर में गोर्की की हजारों-हजार मां जन्म लेंगी. ऐसे समय में हम तटस्थ कैसे रह सकते हैं? इतिहास गवाह है कि तनी हुयी मुट्ठियों को काट कर राज्य कभी भी प्रतिरोध की आवाज को खामोश नहीं करा पाया है.  

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