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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 15, 2013

समझ लें, इस देश में बैंकिंग का क्या होगा क्योंकि बैंकिंग लाइसेंस लेने वालों की लगी लाइन में 100 से अधिक कारपोरेट घराने हैं!

समझ लें, इस देश में बैंकिंग का क्या होगा क्योंकि बैंकिंग लाइसेंस लेने वालों की लगी लाइन में 100 से अधिक कारपोरेट घराने हैं!


सरकार पहले ही अपने राजनीति समीकरण साधने के लिए बैंकों पर आधारकार्ड योजना थोंपने का फैसला कर चुकी है। गैककानूनी ​​आधारकार्ड कारपोरेट योजना भारतीय बैंकिंग का कबाड़ा कर दे, इससे पहले अब कारपोरेट घराने सीधे बैंकिंग में उतरकर सरकारी बैंकों को बाजार से बाहर कर देने की तैयारी में हैं और उनके साथ मजबूती से खड़े हैं प्रणव की ही तरह चिदंबरम भी।




एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


भारत में कारपोरेट मसीहा धर्माधिकारी प्रणव मखर्जी का नाम हर घोटाले में आगे है और उनका कोई बात बांका कर नहीं सकता। उनके ​​उत्तराधिकारी पीचिदंबरम दुनियाभर में घूम घूमकर भारत बेचने में लगे हैं।सरकारी क्षेत्र के स्टेट बैंक  आफ इंडिया समेत तमाम बैंकों का भारतीय जीवन बीमा निगम की तरह बारह बजाकर औद्योगिक और कारपोरेट घरानों को बेंकिंग लाइसेंस देने का प्रस्ताव तो प्रणव मुखर्जी का ही था,​​ उसे अमली जामा पहनाने में चिदंबरम की अति सक्रियता की खबर कोई छुपी नहीं है। इस सिलसिले में ब्याज दर घटाने के निरंतर दबाव ​​के मध्य रिजर्व बैंक को धमकाने की खबरें आती जाती रही हैं। पर जनप्रतिनिधियों का आलम यह है कि कारपोरेट राजनीति में वे कारपोरेट के ही गुलाम हैं और कुछ भी बेसुरा गा नहीं सकते। जो राजनीति नहीं करते और जिनकी हालत एअर इंडिया होने वाली है, वे घोड़े बेचकर सो रहे हैं। तूफान आकर चला जायेगा और उन्हें आंच तक नहीं आयेगी, इस गलतफहमा में अति सुरक्षित सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों के सामने अब तो जब तब सपरिवार आत्महत्या करने की नौबत आ ही गयी है।अब भी वे किस इंतजार में हैं?स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की अगुवाई में कुछ बैंकों ने यूनीक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई ) प्लैटफॉर्म के पक्ष में मौजूदा सिस्टम को खत्म करने पर ऐतराज जताया है।पर सरकार पहले ही अपने राजनीति समीकरण साधने के लिए बैंकों पर आधारकार्ड योजना थोंपने का फैसला कर चुकी है। गैककानूनी ​​आधारकार्ड कारपोरेट योजना भारतीय बैंकिंग का कबाड़ा कर दे, इससे पहले अब कारपोरेट घराने सीधे बैंकिंग में उतरकर सरकारी बैंकों को बाजार से बाहर कर देने की तैयारी में हैं और उनके साथ मजबूती से खड़े हैं प्रणव की ही तरह चिदंबरम भी।


यूआईडीएआई ही आधार नंबर जारी करती है। सरकार लोगों के बैंक अकाउंट्स में वेलफेयर स्कीम्स का पैसा पहुंचाने के लिए आधार नंबर को ही पहचान पत्र बनाना चाहती है। इस विरोध से कैश ट्रांसफर सिस्टम लागू करने की सरकारी योजना खटाई में पड़ सकती है, जिसे 2014 के आम चुनाव के लिए यूपीए के हथियार के तौर पर देखा जा रहा है।यूआईडीएआई प्लैटफॉर्म को पहचान पत्र बनाने के पीछे बैंकों ने दो बड़ी वजहें गिनाई हैं। पहली, बैंक चाहते हैं कि यूआईडीएआई झूठे पहचान से जुड़े सभी लायबिलिटी अपने पर ले। इसका मतलब यह है कि अगर किसी की शिकायत आई कि किसी और ने सही शख्स के बदले बैंक अकाउंट से पैसे निकाल लिए, तो जिम्मेदारी यूआईडीएआई की होगी। एसबीआई में ग्रामीण बिजनेस (आईटी-पीऐंडएसी) के डेप्युटी जनरल मैनेजर एलपी राय ने बताया, 'जब तक यह मसला सुलझ नहीं जाता, तब तक हम इस सिस्टम का इस्तेमाल नहीं कर सकते।'


नए बैंक लाइसेंस देने के लिए नियमों की व्याख्या करने के संबंध में रिजर्व बैंक के पास अनुरोध का ढेर लग गया है जिनमें नए बैंकिंग लाइसेंस संबंधी हाल में जारी दिशा-निर्देशों के विभिन्न उपबंधों की 'अस्पष्टता' दूर किए जाने की मांग है। कुल 100 से अधिक कारपोरेट घरानों ने बैंकिंग लाइसेंस हासिल करने में शुरुआती रुचि दिखाई है। नए बैंकिंग लाइसेंस जारी करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) के दिशानिर्देशों पर स्पष्टीकरण के लिए भी बड़ी संख्या में अपीलें मिली हैं।देश के ज्यादातर बड़े समूहों अनिल अंबानी के नेतृत्व वाले एडीए समूह, एलएंडटी, महिंद्रा, बिड़ला, रेलिगेयर और वीडियोकॉन ने सार्वजनिक रूप से लाइसेंस हासिल करने में रुचि जताई है। श्रीराम समूह, इंडियाबुल्स, इंडिया इंफोलाइन, आइएफसीआइ और पीएफसी सहित कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) भी इसमें रुचि जता चुकी हैं।कई कंपनियों ने लाइसेंस हासिल करने की तैयारी के लिए देश विदेश के पूर्व बैंक प्रमुखों और अन्य सीनियर बैंकरों को सलाहकार नियुक्त किया है। खास बात यह है कि बड़ी संख्या में रीयल एस्टेट कंपनियों ने लाइसेंस के लिए आवेदन करने में रुचि दिखाई है, जबकि उनकी वित्तीय स्थिति पूरी तरह से आरबीआइ के दिशानिर्देशों के अनुरूप नहीं है।


कॉरपोरेट्स को बैंक लाइसेंस देने पर भी कुछ ऐतराज सामने आए हैं। पूर्व फाइनेंस मिनिस्टर और संसद की स्थायी समिति के चेयरमैन यशवंत सिन्हा भी इसके खिलाफ हैं। उन्होंने कहा था, 'कॉरपोरेट को बैंक लाइसेंस देना बहुत खराब आइडिया है। दशकों पहले इसे खत्म किया गया था और वह फैसला सही था। इस नॉर्म्स में किसी तरह की ढील देने से न सिर्फ हितों का टकराव बढ़ेगा बल्कि फाइनेंशियल सिस्टम के लिए गैर-जरूरी खतरे भी बढ़ेंगे।' आरबीआई के एप्लिकेंट्स के बारे में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट, सीबीआई और एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट से इनक्वायरी कराने का भी समिति के कुछ मेंबर्स ने विरोध किया है।


आरबीआई पहले कह चुका है कि वह बैंकिंग लाइसेंस लेने की ख्वाहिश रखने वालों के फाइनल नॉर्म्स से जुड़े सवालों पर जल्द तस्वीर साफ करेगा। उसने कहा था, 'जिन क्लेरिफिकेशन की मांग की गई है, वे बड़े वर्ग के हित में हैं। इनसे सभी बैंक लाइसेंस एप्लिकेंट्स को फायदा होगा। इसलिए रिजर्व बैंक ने क्लेरिफिकेशन को अपनी वेबसाइट पर डालने का फैसला किया है। सवाल पूछने वालों की पहचान जाहिर नहीं की जाएगी।'


दूसरी ओर,शेल नॉन-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (एनबीएफसी) के टेकओवर की राह में एक बड़ी बाधा खड़ी होने वाली है। ऐसी कंपनियों के अधिग्रहण की मंजूरी और इसका लाइसेंस नए खरीदार को ट्रांसफर करने का अधिकार आरबीआई खुद अपने हाथों में लेने की तैयारी में है। अधिग्रहण करने वाली कंपनियों पर लाइसेंस के गलत इस्तेमाल के आरोप के बाद आरबीआई ने यह योजना तैयार की है।रेगुलेटर के प्रस्ताव की जानकारी रखने वाले एक शख्स ने बताया कि टेकओवर करने वाली ऐसी कंपनियों को ऑपरेशन शुरू करने में एक साल तक का वक्त लग सकता है। फिलहाल, आरबीआई को बताने के बाद यह काम 1 महीने में हो जाता है।फाइनेंस कंपनियों के टेकओवर के लिए सख्त ड्यू डिलिजेंस का प्रस्ताव नए बैंकिंग लाइसेंस जारी करने की आरबीआई की योजना के मद्देनजर आया है, जहां मैनेजमेंट में बदलाव के बाद कई फाइनेंस कंपनियां बैंकिंग लाइसेंस के लिए अप्लाई कर सकती है। इस मामले से जुड़े शख्स ने बताया कि हालांकि, आरबीआई के पास बैंकिंग लाइसेंस जारी करने का सुरक्षित अधिकार है, लेकिन वह छोटे-मोटे मसलों को नजरअंदाज करना चाहता है।


इसी बीच लगता है कि सोने की कीमतों में तेजी का बुलबुला फूटा चुका है। महज दो दिन में अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने की कीमतें 4 फीसदी से ज्यादा गिर चुकी हैं। भारत में सोने और चांदी कीमतें शनिवार को 3.5 फीसदी गिरीं और ज्यादातर विश्लेषक कह रहे हैं कि गिरावट जारी रहेगी।मुंबई के जवेरी बाजार में सोना 13 महीने और चांदी 16 महीने के निचले स्तर पर पहुंच गई है। सोना शनिवार को 1010 रुपये गिरकर 27,880 रुपये और चांदी 1,890 रुपये गिरकर 50,605 रुपये पर बंद हुई। नई दिल्ली के बाजारों में सोना 1,250 रुपये गिरकर 28,350 रुपये प्रति 10 ग्राम पर बंद हुआ। इससे पहले इस स्तर पर सोना 7 अप्रैल को था।वायदा बाजार में एमसीएक्स पर कारोबारियों को गिरावट नजर आ रही है। एमसीएक्स पर पिछले दो दिनों में ओपन इंटरेस्ट 14,184 लॉट से बढ़कर 15,556 लॉट पर पहुंच गया है। ब्रोकरों का कहना है कि गिरावट के इस दौर में  मंदडिय़ों के सौदों में इजाफा हो गया है।


टाटा और बिड़ला समेत तमाम दिग्गज देसी कारोबारी समूह फिलहाल इस मसले पर विचार कर रहे हैं कि बैंकिंग लाइसेंस के लिए आवेदन करते समय प्रवर्तक समूह के ब्रांड का इस्तेमाल किया जाए या नहीं। कारोबारी वकीलों के मुताबिक उद्योग समूहों ने इस मामले में बैंकिंग नियामक की राय भी मांगी है।


बिड़ला समूह के एक शीर्ष अधिकारी ने बताया कि समूह के वकीलों ने भारतीय रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों को जिस तरह से समझाया है, उसके बाद समूह अपने मुख्य ब्रांड का इस्तेमाल इस काम में नहीं करने पर विचार कर रहा है। इसीलिए समूहों ने 10 अप्रैल से पहले ही रिजर्व बैंक से इस मसले पर राय मांग ली। बैंक का ब्रांड नाम लाइसेंस के लिए आवेदन करते वक्त ही रिजर्व बैंक के सामने पेश करना होगा। इसकी आखिरी तारीख 1 जुलाई है।


इस बारे में संपर्क करने पर बिड़ला के एक प्रवक्ता ने कहा, 'ब्रांडिंग के बारे में फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगी।Ó समूह से जुड़े लोगों ने बताया कि बिड़ला को एक सर्वेक्षण से पता चला कि 'आदित्य बिड़लाÓ ब्रांड अच्छी विश्वसनीयता, नैतिकता, भरोसे और कॉर्पोरेट गवर्नेंस का प्रतीक है। ऐसे में आरबीआई इस मसले पर अपना रुख साफ कर दे तो समूह इस ब्रांड नाम का इस्तेमाल पसंद करेगा।


बिड़ला की तरह ही टाटा समूह की छवि भी भारतीयों के बीच काफी अच्छी है और समूह बैंकिंग कारेाबार के लिए इसी ब्रांड का नाम का इस्तेमाल करना चाहेगा। हालांकि इस पर फैसला आरबीआई का रुख देखने के बाद ही किया जाएगा। टाटा समूह के एक प्रक्वता ने बताया, 'हम दिशानिर्देश की समीक्षा कर रहे हैं, इसलिए अभी इस पर कुछ नहीं कह सकते।Ó बिड़ला और टाटा के पास पहले से ही गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां हैं, जो समूह के ब्रांड का नाम ही इस्तेमाल कर रही हैं। दिलचस्प है कि शुरुआत में बैंकिंग लाइसेंस पाने वाले उद्योग समूहों में शुमार हिंदुजा ने अपने ब्रांड नाम का इस्तेमाल नहीं किया और बैंक का नाम 'इंडसइंडÓ रखा।


मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज, अनिल अंबानी की रिलांयस कैपिटल, महिंद्रा समूह और वीडियोकॉन समूह भी बैंकिंग लाइसेंस पर नजर रखे हैं।


ब्रांड सलाहकारों का कहना है कि आरबीआई का नए ब्रांडों पर जोर देना बेहतर होगा। नॉबी ब्रांड आर्किटेक्ट्स के संस्थापक और मुख्य कार्याधिकारी नवांकुर गुप्ता ने कहा, 'मेरे विचार से आरबीआई सभी के लिए एकसमान मैदान पसंद करेगा। बड़े कारोबारी घरानों के साथ विरासत जुड़ी होती है और उनका ब्रांड नाम वजनदार होता है। इससे उन्हें छोटी कंपनी के मुकाबले ज्यादा फायदा हो सकता है।Ó हालांकि इंटरब्रांड इंडिया के प्रबंध निदेशक आशीष मिश्रा मानते हैं कि फिजूल का खर्च बचाने के लिए आरबीआई को ब्रांड नाम के इस्तेमाल की इजाजत समूहों को दे देनी चाहिए।


हरीश बिजूर कंसल्टेंट्स के मुख्य कार्याधिकारी हरीश बिजूर ने कहा कि वित्तीय मामलों में ग्राहक भोले-भाले होते हैं, ऐसे में मूल ब्रांड को बैंकिंग कारोबार में लाना खतरनाक हो सकता है। आरबीआई इससे बचना चाहता है। नई कंपनियों को भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए और नए कारोबार में नए ब्रांड के साथ उतरना चाहिए।


इसी के मध्य फाइनेंशियल सेक्टर लेजिसलेटिव रिफॉर्म्स कमीशन (एफएसएलआरसी) रिजर्व बैंक को टेलीकॉम कंपनियों और कुछ दूसरे उद्योगों को लिमिटेड परपस बैंक लाइसेंस देने की सिफारिश कर सकता है। कमीशन का मानना है कि इससे फाइनेंशियल इनक्लूजन को बढ़ावा मिलेगा। मॉर्गन स्टैनली इंडिया के चेयरमैन पी जे नायक की अगुवाई वाले वर्किंग ग्रुप ने बैंकिंग सुविधा से दूर लोगों के लिए बिलकुल नया अप्रोच अपनाने का प्रस्ताव दिया है। इससे इन लोगों को औपचारिक और सुरक्षित पेमेंट सिस्टम मुहैया कराया जा सकेगा। इस ग्रुप को एफएसएलआरसी ने देश के पेमेंट कानूनों में बदलाव करने की सिफारिशें देने का काम सौंपा है। ग्रुप ने पेमेंट और सेटलमेंट सिस्टम में रिजर्व बैंक को रेगुलेशन को भी खत्म करने का प्रस्ताव दिया है।ग्रुप के प्रस्ताव यूपीए-2 सरकार के लिए काफी अहम साबित हो सकते हैं क्योंकि इनके जरिए सरकार के महत्वाकांक्षी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर प्रोग्राम को काफी मदद मिल सकती है। इस प्रोग्राम के जरिए सरकार तकनीक का इस्तेमाल करते हुए स्कीम के लाभार्थियों को सीधे सब्सिडी देना चाहती है। हालांकि, बैंकिंग सेक्टर से जुड़े कुछ लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इसमें कई तरह के जोखिम जुड़े हुए हैं।


आईआईएम बंगलुरु के सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी के मेंबर एम एस श्रीराम का कहना है कि यह रिपोर्ट इनोवेशन और रिस्क के बीच संतुलन स्थापित नहीं करती। इसमें छोटे बचतकर्ताओं के हितों को ताक पर रख दिया गया है। इस मसले पर आरबीआई को रक्षात्मक रुख अख्तियार करना चाहिए। पेपाल, वेस्टर्न यूनियन और केन्या के मोबाइल फोन सर्विस का उदाहरण देते हुए इस वर्किंग ग्रुप का कहना है कि इसी तर्ज पर टेलीकॉम कंपनियों को भी फाइनेंशियल डिपॉजिट हासिल करने की अनुमति दे देनी चाहिए। ग्रुप ने कमीशन से कहा है कि वह आरबीआई को लिमिटेड परपस बैंकिंग लाइसेंस जारी करने की सिफारिश करे। ग्रुप का कहना है कि यदि टेलीकॉम कंपनियों को जमा हासिल करने और उसे अदा करने की अनुमति मिल जाती है तो इससे पेमेंट ट्राजैक्शन के बिजनेस को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही इस फाइनेंशियल इनक्लूजन भी बढ़ेगा।


ग्रुप ने अपनी रिपोर्ट में कहा है , ' डिपॉजिट हासिल करने वाले हरेक संस्थान को बैंकिंग लाइसेंस दिया जाना चाहिए। ऐसा संभव है यदि आरबीआई विभिन्न श्रेणियों के बैंकों , जिनमें टेलीकॉम कंपनियों द्वारा प्रायोजित बैंक या दूसरे उद्योगों द्वारा प्रायोजित बैंक भी शामिल हैं , को मंजूरी दे दे। ' सरकार के फाइनेंशियल इनक्लूजन को बढ़ावा देने के लिए इस रिपोर्ट में कहा है कि स्मॉल - वैल्यू पेमेंट की कुछ श्रेणियों को केवायसी नियमों के बगैर मंजूरी दी जा सकती है। इसका यह भी कहना है कि आधार जैसी परियोजना के पूरे होने के बाद बॉयोमीट्रिक आइडेंडिफिकेशन के जरिए इलेक्ट्रॉनिक केवायसी के साथ पेपर - बेस्ट केवायसी का जमा की जा सकती है।

रिजर्व बैंक ने नए बैंकों के लाइसेंस के लिए इस साल फरवरी में दिशा-निर्देश जारी किए। बैंक खोलने की इच्छुक कंपनियों ने पहल जुलाई, 2013 तक आवेदन जमा करने को कहा गया है। लाइसेंस के इच्छुक लोगों को केंद्रीय बैंक से 10 अप्रैल तक संबंधित किसी मुद्दे पर स्पष्टीकरण के लिए अनुरोध पत्र प्रस्तुत करने का समय दिया गया था।

घटनाक्रम से जुड़े सूत्रों ने कहा कि इस संबंध में रिजर्व बैंक से मांगे गए स्पष्टीकरण संबंधी अनुरोध पत्रों की संख्या को देखते हुए 100 से अधिक कंपनियां लाइसेंस के लिए आवेदन करने की इच्छुक प्रतीत होती हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि हालांकि कुछ ही कपंनियों को बैंक लाइसेंस दिए जाने की संभावना है।

उन्होंने कहा कि रिजर्व बैंक द्वारा 4.5 नई इकाइयों को लाइसेंस दिए जाने की संभावना है.. आरबीआई अधिक से अधिक 8-10 नए लाइसेंस जारी कर सकता है।

उल्लेखनीय है कि अनिल अंबानी की अगुवाई वाला रिलायंस समूह, एलएंडटी, महिंद्रा, बिड़ला, रेलीगेयर और वीडियोकान जैसे कई बड़े उद्योग घरानों ने लाइसेंस के लिए आवेदन करने का अपना इरादा पहले ही जगजाहिर कर दिया है।

वहीं, श्रीराम समूह, इंडियाबुल्स, इंडिया इनफोलाइन, आईएफसीआई और पीएफसी सरीखे कई गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) ने भी बैंकिंग लाइसेंस के लिए आवेदन करने की इच्छा जताई है। बैंकिंग लाइसेंस के लिए कथित तौर पर इच्छुक घरानों में टाटा और मुकेश अंबानी की अगुवाई वाला रिलायंस ग्रुप भी शामिल है।


भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) बैंक लाइसेंस ऑक्शन करने के हक में नहीं है। उसका कहना है कि इससे फाइनेंशियल इनक्लूजन को नुकसान होगा। गवर्नर डी सुब्बाराव ने नए बैंकिंग लाइसेंस पॉलिसी को रिव्यू करने वाली संसदीय समिति से यह बात कही है।


एक सरकारी अधिकारी ने बताया, 'आरबीआई गवर्नर ने कमेटी को यह भी बताया है कि बैंक लाइसेंस की संख्या के बारे में अभी कुछ भी तय नहीं है।' समिति के कुछ मेंबर्स ने नए बैंकिंग लाइसेंस के लिए एप्लिकेंट के सेलेक्शन को ट्रांसपैरेंट बनाने के लिए नीलामी का सुझाव दिया था। आरबीआई गवर्नर ने समिति को बताया कि आज तक सिर्फ एक देश ने ही बैंक लाइसेंस ऑक्शन किए हैं। नए लाइसेंस देने का मकसद फाइनेंशियल इनक्लूजन को बढ़ावा देना है।


आरबीआई की गाइडलाइंस के मुताबिक, नए बैंक के लिए अप्लाई करने वालों को कम से कम 25 फीसदी ब्रांच ऐसे रूरल एरिया में खोलनी होगी, यहां अभी बैंक नहीं हैं। समिति के कुछ सदस्यों ने बैंक एप्लिकेशन की जांच करने के लिए आरबीआई के बाहरी पैनल बनाने पर भी सवाल उठाया। आरबीआई ने इस साल फरवरी में नई बैंक गाइडलाइंस इश्यू की थीं। इसमें उसने कहा था कि लाइसेंस की एप्लिकेशंस को हाई लेवल एडवाइजरी कमेटी के पास भेजा जाएगा। यह कमेटी अपने सुझाव रिजर्व बैंक को देगी। इस बारे में सरकारी अधिकारी ने कहा, 'सुब्बाराव ने समिति को बताया है कि आरबीआई ने अभी हाई लेवल एडवाइजरी कमेटी के बारे में कुछ फाइनल नहीं किया है।'


भारतीय स्टेट बैंक

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
भारतीय स्टेट बैंक
Type सार्वजनिक (BSENSE:SBI) & (एलएसई:SBID)
उद्योगबैंकिंग
बीमा
पूंजी बाजार और संबद्ध उद्योग
स्थापितFlag of भारत कलकत्ता, १८०६ (बैंक ऑफ़ कैलकटा के रूप मे)
मुख्यालयकोर्पोरेट सेंटर,
मैडम कामा रोड,
मुंबई ४०० ०२१ भारत
प्रमुख लोगप्रतीप चौधरी, अध्यक्ष
उत्पाद ऋण, क्रेडिट कार्ड, बचत, निवेश के साधन, एस बी आई लाइफ (बीमा) आदि
राजस्वGreen Arrow Up Darker.svg US$ १२ अरब (२००९)
Net income Green Arrow Up Darker.svg US$ २.२५ अरब (२००९)[1]
Total assets US$ २०३ अरब
मुंबई में भारतीय स्टेट बैंक का आँचलिक कार्यालय

स्टेट बैंक आफ इंडिया (State bank of India / SBI) भारत का सबसे बड़ी एवं सबसे पुरानी बैंक एवं वित्तीय संस्था है। इसका मुख्यालय मुंबई में है। यह एक अनुसूचित बैंक (scheduled bank) है।

२ जून, १८०६ को कलकत्ता में 'बैंक ऑफ़ कलकत्ता' की स्थापना हुई थी। तीन वर्षों के पश्चात इसको चार्टर मिला तथा इसका पुनर्गठन बैंक ऑफ़ बंगाल के रूप में २ जनवरी, १८०९ को हुआ। यह अपने तरह का अनोखा बैंक था जो साझा स्टॉक पर ब्रिटिश इंडिया तथा बंगाल सरकार द्वारा चलाया जाता था। बैंक ऑफ़ बॉम्बे तथा बैंक ऑफ़ मद्रास की शुरुआत बाद में हुई। ये तीनों बैंक आधुनिक भारत के प्रमुख बैंक तब तक बने रहे जब तक कि इनका विलय इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया (हिन्दी अनुवाद - भारतीय शाही बैंक) में २७ जनवरी १९२१ को नहीं कर दिया गया। सन १९५१ में पहली पंचवर्षीय योजना की नींव डाली गई जिसमें गांवों के विकास पर जोर डाला गया था। इस समय तक इंपिरियल बैंक ऑफ़ इंडिया का कारोबार सिर्फ़ शहरों तक सीमित था। अतः ग्रामीण विकास के मद्देनजर एक ऐसे बैंक की कल्पना की गई जिसकी पहुंच गांवों तक हो तथा ग्रामीण जनता को जिसका लाभ हो सके । इसके फलस्वरूप १ जुलाई १९५५ को स्टेट बैंक आफ़ इंडिया की स्थापना की गई। अपने स्थापना काल में स्टेट बैंक के कुल ४८० कार्यालय थे जिसमें शाखाएं, उप शाखाएं तथा तीन स्थानीय मुख्यालय शामिल थे, जो इम्पीरियल बैंकों के मुख्यालयों को बनाया गया था ।

अनुक्रम

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[संपादित करें]इतिहास

भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में 2 जून 1806 को बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना के साथ हुआ। तीन साल बाद बैंक को अपना चार्टर प्राप्त हुआ और इसे 2 जनवरी 1809 को बैंक ऑफ बंगाल के रुप में पुनगर्ठित किया गया। यह एक अद्वितीय संस्था और ब्रिटेन शासित भारत का प्रथम संयुक्त पूंजी बैंक था जिसे बंगाल सरकार द्वारा प्रायोजित किया गया था। बैंक ऑफ बंगाल के बाद बैंक ऑफ बॉम्बे की स्थापना 15 अप्रैल 1840 को तथा बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना 1 जुलाई 1843 को की गई। ये तीनो बैंक 27 जनवरी 1921 को उनका इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया के रुप में समामेलन होने तक भारत में आधुनिक बैंकिंग के शिखर पर रहे।

मूलत: एंग्लो-इंडियनों द्वारा सृजित तीनों प्रसिडेंसी बैंक सरकार को वित्त उपलब्ध कराने की बाध्यता अथवा स्थानीय यूरोपीय वाणिज्यिक आवश्यकताओं के चलते अस्तित्व में आए न कि किसी बाहरी दबाव के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए इनकी स्थापना की गई। परंतु उनका प्रादुर्भाव यूरोप तथा इंग्लैंड में हुए इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरुप उभरे विचारों तथा स्थानीय व्यापारिक परिवेश व यूरोपीय अर्थव्यवस्था के भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ने एवं विश्व-अर्थव्यवस्था के ढांचे में हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित था।

[संपादित करें]स्थापना

बैंक ऑफ बंगाल की स्थापना के साथ ही भारत में सीमित दायित्व व संयुक्त-पूंजी बैंकिंग का आगमन हुआ। बैंकिंग क्षेत्र में भी इसी प्रकार का नया प्रयोग किया गया। बैंक ऑफ बंगाल को मुद्रा जारी करने की अनुमति देने का निर्णय किया गया। ये नोट कुछ सीमित भौगोलिक क्षेत्र में सार्वजनिक राजस्व के भुगतान के लिए स्वीकार किए जाते थे। नोट जारी करने का यह अधिकार न केवल बैंक ऑफ बंगाल के लिए महत्त्वपूर्ण था अपितु उसके सहयोगी बैंक, बैंक ऑफ बाम्बे तथा मद्रास के लिए भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण था अर्थात इससे बैंकों की पूंजी बढ़ी, ऐसी पूंजी जिसपर मालिकों को किसी प्रकार का ब्याज नहीं देना पड़ता था। जमा बैंकिंग अवधारणा भी एक नया कदम था क्योंकि देशी बैंकरों द्वारा भारत के अधिकांश प्रांतों में सुरक्षित अभिरक्षा हेतु राशि (कुछ मामलों में ग्राहकों की ओर से निवेश के लिए) स्वीकार करने का प्रचलन एक आम आदमी की आदत नहीं बन पाई थी। परंतु एक लंबे समय तक, विशेषकर उस समय जब तक कि तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को नोट जारी करने का अधिकार नहीं था बैंक नोट तथा सरकारी जमा-राशियाँ ही अधिकांशत: बैंकों के निवेश योग्य साधन थे।

तीनों बैंक रायल चार्टर के दायरे में कार्य करते थे, जिन्हें समय समय पर संशोधित किया जाता था। प्रत्येक चार्टर में शेयर-पूंजी का प्रावधान था जिसमें से पाँच-चौथाई निजी तौर पर दी जाती थी और शेष पर प्रांतीय सरकार का स्वामित्व होता था। प्रत्येक बैंक के कामकाज की देख-रेख करने वाले बोर्ड के सदस्य, ज्यादातर स्वत्वधारी-निदेशक हुआ करते थे जो भारत में स्थित बड़ी यूरोपीय प्रबंध एजेंसी गृहों का प्रतिनिधित्व करते थे। शेष सदस्य सरकार द्वारा नामित प्राय: सरकारी कर्मचारी होते थे जिनमें से एक का बोर्ड के अध्यक्ष के रुप में चयन किया जाता था।

[संपादित करें]व्यवसाय

प्रारंभ में बैंकों का व्यवसाय बट्टे पर विनिमय बिल अथवा अन्य परक्राम्य निजी प्रतिभूतियों को भुनाना, रोकड़ खातों का रख-रखाव तथा जमाराशियाँ प्राप्त करना व नकदी नोट जारी व परिचालित करना था। एक लाख रूपए तक ही ऋण दिए जाते थे तथा निभाव अवधि केवल 3 माह तक होती थी। ऐसे ऋणों के लिए जमानत सार्वजनिक प्रतिभूतियाँ थीं जिन्हें सामान्यतया कंपनी पेपर, बुलियन, कोष, प्लेट, हीरे-जवाहरात अथवा "नष्ट न होने वाली वस्तु" कहा जाता था तथा बारह प्रतिशत से अधिक ब्याज नहीं लगाया जा सकता था। अफीम, नील, नमक, ऊनी कपड़े, सूत, सूत से बनी वस्तुएँ, सूत कातने की मशीन तथा रेशमी सामान आदि के बदले ऋण दिए जाते थे परंतु नकदी ऋण के माध्यम से वित्त में तेजी केवल उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक से प्रारंभ हुई। सभी वस्तुएँ जिनमें चाय, चीनी तथा पटसन बैंक में गिरवी अथवा Òष्टिबंधक रखा जाता था जिनका वित्त-पोषण बाद में प्रारंभ हुआ। मांग-वचन पत्र उधारकर्ता द्वारा गारंटीकर्ता के पक्ष में जारी किए जाते थे जो बाद में बैंक को पृष्ठांकित कर दिए जाते थे। बैंको के शेयरों पर अथवा बंधक बनाए गए गृहों, भूमि अथवा वास्तविक संपत्ति पर उधार देना वर्जित था।

कंपनी पेपर जमा करके उधार लेने वालों में उधारकर्ता मुख्यतया भारतीय थे जबकि निजी एवं वेतन बिलों पर बट्टे के व्यवसाय पर मूल रुप से यूरोपीय नागरिकों तथा उनकी भागीदारी संस्थाओं का लगभग एकाधिकार था। परंतु जहाँ तक सरकार का संबंध है इन तीनों बैंको का मुख्य कार्य समय-समय पर ऋण जुटाने में सरकार की सहायता करना व सरकारी प्रतिभूतियों के मूल्यों को स्थिरता प्रदान करना था।

[संपादित करें]स्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन

बैंक आफ बंगाल, बॉम्बे तथा मद्रास के परिचालन की शर्तों में 1860 के बाद महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 1861 के पेपर करेंसी एक्ट के पारित हो जाने से प्रेसिडेंसी बैंकों का मुद्रा जारी करने का अधिकार समाप्त कर दिया गया तथा 1 मार्च 1862 से ब्रिटेन शासित भारत में कागज़ी मुद्रा जारी करने का मूल अधिकार भारत सरकार को प्राप्त हो गया। नई कागजी मुद्रा के प्रबंधन एवं परिचालन का दायित्व प्रेसिडेंसी बैंको को दिया गया तथा भारत सरकार ने राजकोष में जमाराशियों का अंतरण बैंकों को उन स्थानों पर करने का दायित्व लिया जहाँ बैंक अपनी शाखाएँ खोलने वाले हों। तब तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की कोई शाखा नहीं थी (सिवाय बैंक आफ बंगाल द्वारा 1839 में मिरजापुर में शाखा खोलने के लिए किया गया एक मात्र छोटा सा प्रयास ) जबकि उनके संविधान के अंतर्गत उन्हें यह अधिकार प्राप्त था। परंतु जैसे ही तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों को राजकोष में जमाराशियों का बिना रोक-टोक उपयोग करने का आश्वासन मिला तो उनके द्वारा तेजी से उन स्थानों पर बैंक की शाखाएँ खोलना प्रारंभ कर दिया गया। सन् 1876 तक तीनों प्रेसिडेंसी बैंकों की शाखाएँ, अभिकरण व उप-अभिकरणों ने देश के प्रमुख क्षेत्रों तथा भारत के भीतरी भागों में स्थित व्यापार केंद्रो में अपना विस्तार कर लिया। बैंक ऑफ बंगाल की 18 शाखाएँ थीं जिसमें उसका मुख्यालय, अस्थायी शाखाएँ, तथा उप-अभिकरण शामिल हैं जबकि बैंक ऑफ बॉम्बे एवं मद्रास प्रत्येक की 15 शाखाएँ थीं।

[संपादित करें]प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट

1 मई 1876 से लागू प्रेसिडेंसी बैंक्स एक्ट के द्वारा व्यवसाय पर एकसमान प्रतिबंधों के साथ तीन प्रेसिडेंसी बैंकों को एक समान कानून के अंतर्गत लाया गया। तथापि, तीन प्रेसिडेंसी नगरों में लोक ऋण कार्यालयों तथा सरकार की जमाराशियों के एक भाग की अभिरक्षा का कार्य बैंकों के पास होने के बावजूद सरकार का मालिकाना संबंध समाप्त कर दिया गया। इस एक्ट द्वारा कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास में तीन आरक्षित कोषों के सृजन का प्रावधान किया गया जहाँ प्रेसिडेंसी बैंकों को केवल उनके प्रधान कार्यालयों में रखने के लिए निर्धारित न्यूनतम राशि से अधिक की जमाराशियाँ रखी जाती थीं। सरकार इन आरक्षित कोषों से प्रेसिडेंसी बैंकों को ऋण दे सकती थी परंतु ये बैंक उसे अधिकार के बजाय अनुग्रह के रुप में देखते थे।

प्रेसिडेंसी बैंकों के सामान्य नियंत्रण के बाहर आरक्षित कोषों में अतिरिक्त जमाराशियों को रखने के सरकार के निर्णय तथा उन नए स्थानों पर जहाँ शाखाएँ खोली जानी थी, सरकार की न्यूनतम जमाराशियों की गारंटी न देने के उससे जुड़े निर्णय से वर्ष 1876 के बाद नई शाखाओं की वृद्धि काफी बाधित हुई। पिछले दशक में हुए विस्तार की गति बहुत धीमी पड़ जाने के बावजूद बैंक ऑफ मद्रास के मामले में निरंतर मामली वृद्धि होती रही, क्योंकि इस बैंक को मुख्यतया प्रेसिडेंसी के बंदरगाह से लगे कई शहरों एवं देश के भीतरी केंद्रों के बीच होने वाले व्यापार से ही लाभ होता था।

भारत का रेल नेटवर्क देश के सभी प्रमुख क्षेत्रों तक विस्तारित होने के कारण 19वीं सदी के अंतिम 25 वर्षों में यहॉ पर तेजी से वाणिज्यीकरण हुआ। मद्रास, पंजाब तथा सिंध में नए सिंचाई नेटवर्कों के कारण निर्वाह फसलों को नकदी फसलों के रुप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा। इन नकदी फसलों में से कुछ हिस्से को विदेशी बाजारों को भेजा जाने लगा। चाय तथा कॉफी के बागानों के कारण पूवी तराई के बड़े क्षेत्र, असम एवं नीलगिरी के पर्वत उत्कृष्ट स्थावर कृषि क्षेत्र के रुप में रुपांतरित हो गए। इन सभी के परिणामस्वरुप, भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में छह गुना विस्तार हुआ। तीनों प्रेसिडेंसी बैंक उप-महाद्वीप के प्रत्येक व्यापार, विनिर्माण एवं उत्खनन की गतिविधि के वित्तपोषण में व्यावहारिक रुप से सम्मिलित हो जाने के कारण ये बैंक वाणिज्यिकरण की इस प्रक्रिया के लाभाथी एवं प्रवर्तक दोनों रहे। बंगाल एवं बंबई के बैंक बड़े आधुनिक विनिर्माण उद्योगों के वित्तपोषण में लगे थे, जबकि बैंक ऑफ मद्रास लघु उद्योगों का वित्तपोषण करने लगा जैसे अन्यत्र कहीं भी होता नहीं था। परंतु इन तीनों बैंकों को विदेशी मुद्रा से जुड़े किसी भी व्यवसाय से अलग रखा गया। सरकारी जमाराशियों को रखने वाले इन बैंकों के लिए ऐसा व्यवसाय जोखिम माना गया साथ ही यह भय भी महसूस किया गया कि सरकारी संरक्षण प्राप्त इन बैंकों से उस समय भारत में आए विनिमय बैंकों के लिए एक अनुचित प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। वर्ष 1935 में भारतीय रिज़र्व बैंक का गठन होने तक इन बैंकों को इस व्यवसाय से अलग रखा गया।

[संपादित करें]बंगाल के प्रेसिडेंसी बैंक

बंगाल, बंबई एवं मद्रास के प्रेसिडेंसी बैंकों को उनकी 70 शाखाओं के साथ वर्ष 1921 में विलयन कर इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। इन तीनों बैंकों को एक संयुक्त संस्था के रुप में रुपांतरित किया गया तथा भारतीय वाणिज्यिक बैंकों के बीच एक विशाल बैंक का प्रादुर्भाव हुआ। इस नए बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों, बैंकरों के बैंक एवं सरकार के बैंक की तिहरी भूमिकाएँ निभाना स्वीकार किया।

परंतु इस गठन के पीछे भारतीय स्टेट बैंक की आवश्यकता पर वर्षों पहले किया गया विचार-विमर्श शामिल था। अंत में एक मिली-जुली संस्था उभर कर सामने आई जो वाणिज्यिक बैंक एवं अर्ध-केंद्रीय बैंक के कार्य निष्पादित करती थी।

वर्ष 1935 में भारत के केंद्रीय बैंक के रुप में भारतीय रिज़र्व बैंक के गठन के साथ इंपीरियल बैंक की अर्ध-केंद्रीय बैंक की भूमिका समाप्त हो गई। इंपीरियल बैंक भारत सरकार का बैंक न रहकर ऐसे केंद्रों में जहाँ केंद्रीय बैंक नहीं है, सरकारी व्यवसाय के निष्पादन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक का एजेंट बन गया।

परंतु वह करेंसी चेस्ट एवं छोटे सिक्कों के डिपो का तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित शर्तों पर अन्य बैंकों एवं जनता के लिए विप्रेषण सुविधा योजना परिचालित करने का कार्य निरंतर करता रहा। वह बैंकरों का अतिरिक्त नकद अपने पास रखकर तथा प्राधिकृत प्रतिभूति पर उन्हें ऋण देकर उनके बैंक के रुप में भी कार्य करने लगा। ऐसे कई स्थानों पर बैंक समाशोधन गृहों का प्रबंधन भी करता रहा जहाँ पर भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्यालय नहीं थे। यह बैंक सरकार की तरफ से रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित राजकोषीय बिल नीलामियों में सबसे बड़ा निविदाकर्ता भी रहा।

रिज़र्व बैंक की स्थापना के बाद इंपीरियल बैंक को एक वाणिज्यिक बैंक के रुप में परिवर्तित करने के लिए उसके संविधान में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए। उसके व्यवसाय पर पूर्व में लगाए गए प्रतिबंधों को हटाया गया तथा पहली बार बैंक को विदेशी मुद्रा व्यवसाय करने तथा निष्पादक एवं न्यासी व्यवसाय करने की अनुमति दी गई।

[संपादित करें]इंपीरियल बैंक

इंपीरियल बैंक ने अपने अस्तित्व के बाद से साढ़े तीन दशकों के दौरान कार्यालयों, आरक्षित निधियों, जमाराशियों, निवेशों एवं अग्रिमों के रुप में बहुत ही प्रभावशाली वृद्धि दर्ज की। कुछ मामलों में यह वृद्धि छह गुना से भी अधिक रही।

पूर्ववर्तियों से विरासत में प्राप्त वित्तीय स्थिति और सुरक्षा व्यवस्था ने असंदिग्ध रुप से बैंक को एक ठोस और मजबूत प्लेटफार्म प्रदान किया। इंपीरियल बैंक ने बैंकिंग की जिस गौरवपूर्ण परंपरा का नियमित रुप से पालन किया तथा अपने परिचालनों में जिस प्रकार की उच्च स्तरीय सत्यनिष्ठा का प्रदर्शन किया उससे जमाकर्ताओं में, जिस तरह का आत्मविश्वास था उसकी बराबरी उस समय के किसी भी भारतीय बैंक के लिए संभव नहीं थी। इन सबके कारण इंपीरियल बैंक ने भारतीय बैंकिंग उद्योग में अति विशिष्ट स्थिति प्राप्त की तथा देश के आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान भी प्राप्त किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इंपीरियल बैंक का पूंजी-आधार आरक्षितियों सहित 11.85 करोड़ रूपए था। जमाराशियाँ और अग्रिम क्रमश: 275.14 करोड़ रूपए और 72.94 करोड़ रूपए थे तथा पूरे देश में फैला 172 शाखाओं और 200 उप कार्यालयों का नेटवर्क था।

[संपादित करें]प्रथम पंचवषीय योजना

वर्ष 1951 में जब प्रथम पंचवषीय योजना शुरु हुई तो देश के ग्रामीण क्षेत्र के विकास को इसमें सवाóच्च प्राथमिकता दी गई। उस समय तक इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया सहित देश के वाणिज्यिक बैंकों का कार्य-क्षेत्र शहरी क्षेत्र तक ही सीमित था तथा वे ग्रामीण क्षेत्रों के आर्थिक पुनर्निर्माण की भावी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। अत: सामान्यत: देश की समग्र आर्थिक स्थिति और विशेषत: ग्रामीण क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सवóक्षण समिति ने इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का अधिग्रहण कर उसमें सरकार की भागीदारी वाले और सरकार द्वारा प्रायोजित एक बैंक की स्थापना करने की सिफारिश की जिसमें पूर्ववती राज्यों के स्वामित्व वाले या राज्य के सहयोगी बैंकों का एकीकरण करने का भी प्रस्ताव किया गया। तदनुसार मई 1955 में संसद में एक अधिनियम पारित किया गया तथा 1 जुलाई 1955 को भारतीय स्टेट बैंक का गठन किया गया। इस प्रकार भारतीय बैंकिंग प्रणाली का एक चौथाई से भी अधिक संसाधन सरकार के सीधे नियंत्रण में आ गया। बाद में, 1959 में भारतीय स्टेट बैंक (अनुषंगी बैंक) अधिनियम पारित किया गया जिसके फलस्वरुप भारतीय स्टेट बैंक ने पूर्ववती राज्यों के आठ सहयोगी बैंकों का अनुषंगी के रुप में अधिग्रहण किया (बाद में इन्हें सहयोगी बैंक का नाम दिया गया) इस प्रकार भारतीय स्टेट बैंक का प्रादुर्भाव सामाजिक उद्देश्य के नए दायित्व के साथ हुआ। बैंक के कुल 480 कार्यालय थे, जिनमें शाखाएं, उप कार्यालय तथा इंपीरियल बैंक से विरासत में प्राप्त तीन स्थानीय प्रधान कार्यालय भी थे। जनता की बचत को जमा करना और ऋण के लिए सुपात्र लोगों को ऋण देने की परंपरागत बैंकिंग की जगह प्रयोजनपूर्ण बैंकिंग की नई अवधारणा विकसित हो रही थी जिसके तहत योजनाबद्ध आर्थिक विकास की बढ़ती हुई और विविध आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करना था। भारतीय स्टेट बैंक को इस क्षेत्र में अग्रदूत होना था तथा उसे भारतीय बैंकिंग उद्योग को राष्ट्रीय विकास के रोमांचक मैदान तक ले जाना था।

[संपादित करें]सहयोगी बैंक

[संपादित करें]संदर्भ

[संपादित करें]वाह्य सूत्र


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