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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 20, 2013

स्त्रीदेह को बेचने वाले एक रात में हुए स्त्रीवादी

स्त्रीदेह को बेचने वाले एक रात में हुए स्त्रीवादी


मीडिया के दोनों हाथ में लड्डू

दुखद बात ये है कि जो भीड़ बलात्कार या किसी तरह के अपराध के खिलाफ आवाज उठाती है वो कभी इस चांडाल चौकड़ी के सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाती है. इस घिनौने गठजोड़ का सबसे गंदा चेहरा हमारा मीडिया खुद है...

संजय जोठे


अभी कल से ही दिल्ली में बलात्कार के मुद्दे पर फिर से एक जन सैलाब उमड़ रहा है. जनता तो रोष में है ही, हमारे सारे अखबार और न्यूज़ चेनल्स भी अपनी सारी ताकत के साथ मैदान में कूद पड़े हैं. एक तरफ जनता है जो अपराध और मीडिया दोनों को झेलती है और दूसरी तरफ हमारा मीडिया है जो बहुत तरह से अपराध की प्रेरणा भी देता है और समाज को सदाचारी होने का पाठ भी पढाता रहता है.

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ये न्यूज़ चैनल्स और ये अखबार साल भर फूहड़ विज्ञापन और नंगाई बेचते हैं. कोई नया डियो डेरेंट हो, नयी कार हो, मोटर बाइक हो या चाकलेट हो - हर चीज़ जब तक ये साबित ना कर दे की इससे औरते मतवाली हो जाती है - तब तक वो बिकती ही नहीं. चीज़ कोई भी हो उसका निशाना औरतों की तरफ ही होता है.

फ़िल्में हो या विज्ञापन इनमें तो खुल्लम खुल्ला इस मनोविज्ञान का दुरुपयोग होता ही है. लेकिन हमारा मीडिया- जिसे इस देश को सारे षडयंत्रों से दूर रखने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए - वो भी इस षड्यंत्र में शामिल है. नारी देह को वस्तु बनाने वाले विज्ञापन दिखाकर हमारा मीडिया पैसे कमाता है और नारी की सुरक्षा और सम्मान के लिए बहस भी आयोजित करता है. इस तरह दोनों हाथों से लड्डू खाता है.

क्या ऐसे मीडिया को नैतिकता, सदाचार और समानता की बात करने का हक़ है? ये चैनल्स और अखबार जो पूरे मुल्क को बरसों से खबरें परोस रहे हैं क्या इतने भर से उन्हें नीति नियम और शील को परिभाषित करने का हक़ मिल जाता है ? हमारा मीडिया सिर्फ एक ब्रह्म वाक्य के आसपास घूमता है - जो दिखता है वो बिकता और जो बिकता है वो दिखता है. ये हमारे लोकतंत्र के स्वनामधन्य चौथे खम्भे की हकीकत है.

मुद्दा कोई भी हो, इनके बड़े मुंह वाले पत्रकार और सुन्दर लड़कियां अपने मोहक शब्दों और आंकड़ों का जाल लिए इस शैली में बात करने के लिए पिल पड़ते हैं जैसे कि इस विषय की सारी टेक्स्ट बुक इन्ही ने लिखी हैं. हर चैनल हर अखबार एक सनसनी की तरह खबरों को पेश करता है, बगैर इस बात की चिंता किये कि उनका ये "प्रदर्शन" स्वयं उनके उठाये गए मुद्दे को ही मजाक बना डालता है. और जितना गंभीर कोई मुद्दा होता है उसके साथ उतना बुरा व्यवहार किया जाता है. हर एक मुद्दे पर ये बाते बहुत फूहड़ता और जल्दीबाजी में रखी जाती है. सप्ताह के अंत में किसी एक दिन में सारी बहसें करके रविवार तक सारे चेनल सतयुग में पहुच जाते हैं. फिर सोमवार से वो ही धंधा शुरू हो जाता है. 

बलात्कार के मुद्दे पर अपनी चिंताओं को जाहिर करने में सभी चैनल्स और अखबारों में जंग छिड़ी हुई है. खबरें और बहस ख़त्म होते ही वे बातें दिखाई जाने लगती हैं जो इस तरह के व्यवहार को प्रोत्साहित करता है. कभी कभी तो गज़ब हो जाता है. नारी के सम्मान और बराबरी पर बहस हो रही होती है और बीच में एड ब्रेक में इमरान हाशमी या नील नितिन एक डियो की बाटल लेके प्रकट होते हैं और एक गंध फैलाकर कई औरतों को दीवाना बनाकर चले जाते हैं. इस तरह वे बहस के आयोजकों की असलियत भी खोल देते है. हमारे चैनल्स और अखबार साल भर फूहड़ विज्ञापनों में औरतों को एक डियो की गंध पर या महंगी कार की चमक पर मर मिटने वाली "वस्तुएं" सिद्ध करते हैं और साल में दो चार बार नारीवादी नारे उछालकर समाज पर एहसान भी करते रहते हैं. 

ऐसा एक भी चैनल नहीं है जो नारी देह को केंद्र में रखकर किसी न किसी प्रोडक्ट को ना बेच रहा हो. प्रोडक्ट बेचते बेचते अब अगर नारी ही प्रोडक्ट बन गयी है तो इसमें क्या मीडिया का दोष नहीं माना जाएगा? और जब ये ही मानसिकता अँधेरी सड़कों में और सुनसान बसों में बालिग़ नाबालिग की सीमा तोड़कर कोई अपराध कर जाती है, तब ये ही चैनल्स वहां कैमरे लेकर चौबीस घंटे सातों दिन हल्ला मचाने के लिए पहुँच जाते हैं.

इसे कहते हैं साल भर खेत सींचना और दो चार बार फसल काटना. इस तरह खूब धंधा चलता है. फिर वे सारे मंत्री, अभिनेता और उद्योगपति जो इस फसल के साझीदार है वो भी प्रवचन पिलाने लगते हैं. प्यास से तड़प रही जनता को पेशाब परोसने वाले नेता हों या बेरोजगार युवाओ को महंगी कारों के स्टंट दिखाने वाले वाले अभिनेता हो या फिर इन दोनों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगपति हो - ये सब इस मीडिया के साथ मिलकर एक नारकीय गठजोड़ बनाते हैं. 

सबसे ज्यादा दुखद बात ये है कि वो भीड़ जो बलात्कार या किसी तरह के अपराध के खिलाफ आवाज उठाती है वो कभी इस चांडाल चौकड़ी के सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाती है. इस घिनौने गठजोड़ का सबसे गंदा चेहरा हमारा मीडिया खुद है. राजनेताओं, अभिनेताओ और उद्योगपतियों को तो माफ़ किया जा सकता है. वे अनिवार्य रूप से लालची और अपराधी होते हैं और इसे हम सब अंगीकार कर चुके हैं. लेकिन ये मीडिया जो कि सच्चाई की आवाज बुलंद करने की कसम खाए बैठा है - वो जब षड्यंत्र करता है तो इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं है. कोई भी मीडिया घराना जो समाज को सदाचार का पाठ पढ़ा रहा हो - उसके विज्ञापनों पर गौर करना चाहिए. उनकी खबर में या स्टोरी में जो होता है वो सिर्फ लफ्फाजी है, वो क्या बेचते हैं और कैसे बेचते हैं इससे उनकी असलियत पता चलती है. 

अधिकाँश न्यूज़ चेनल प्रगतिशीलता, बराबरी और लोकतंत्र की बातें करते हैं और साथ में लाल किताब, काली किताब, चमत्कारी ताबीज और सिद्ध वशीकरण मन्त्र भी बेचते जाते हैं. ऐसे कार्यक्रमों में अक्सर फैशन से बाहर हो चुके पुराने अभिनेता और अभिनेत्रिया धड़ल्ले से पैसा बना रहे होते हैं.

दुनिया भर के नीम हकीम, बाबा और सिद्ध - उन सबसे मोटा माल लेकर ये चेनल्स और अखबार खूब कमाते हैं. फिर जब इन्ही में से किसी की पोल खुलती है तो उसपर स्टोरी बना कर और विशेष रिपोर्ट बनाकर या बहसे करवाकर दुबारा पैसा कमाते हैं. इसे कहते है ज़िंदा मुर्गी के अंडे बेचना और उसके मर जाने पर उसी की दावत उड़ाना. ये सब हमारे मीडिया की हकीकत है और उसपर भी गज़ब ये कि सारे चैनल्स और मीडिया हाउस इस गोरखधंधे में एक दूसरे की मदद करते हैं.

sanjay-jotheसंजय जोठे सामाजिक मसलों के विश्लेषक हैं.  

सम्बन्धित खबर : औरतों की औकात बताते दरिंदे

http://www.janjwar.com/society/1-society/3926-strideh-ko-bechane-vale-hue-ek-raat-men-strivadi

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