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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, April 11, 2013

रहिमन हाण्डी काठ की, चढ़े न दूजी बार …!

रहिमन हाण्डी काठ की, चढ़े न दूजी बार …!


जब-जब मन्दिर की, हिन्दुत्व की, हिदुस्तान की चर्चा होगी तब-तब 'जाति -विमर्श'  भी जन-विमर्श के केन्द्र में होगा।

श्रीराम तिवारी

http://hastakshep.com/?p=31394


दुनिया के समाजशास्त्रियों के लिये मध्ययुगीन – गैर इस्लामिक, गैर ईसाइयत और तथाकथित विशुद्ध   भारतीय उत्तर वैदिक कालीन पृष्ठभूमि वाले भारत के सामाजिक ताने-बाने को ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक – वैज्ञानिक क्रमिक विकास के समग्र रूप में समझ पाना अत्यन्त कठिन और जटिल रहा है।   भारत के 'सनातन' हिन्दू समाज, जिसे आजकल हिन्दुत्व से भी इंगित किया जाता है, की इन आन्तरिक  जटिलताओं और उसके 'जातीय' विमर्श के लिये आधुनिक वैज्ञानिक समझ-बूझ के विचारक और चिन्तक भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर तत्सम्बन्धी सत्यान्वेषण कर पाने में असमर्थ रहे हैं। हिन्दू सम्प्रदाय  में वैज्ञानिक तथ्यात्मकता की जगह अंध आस्था की अँधेरी सुरंगों को हमेशा प्राथमिकता दी जाती रही है। विगत दिनों नागपुर में इन्कम टैक्स ट्रिब्यूनल ने अपने एक अद्वितीय और ऐतिहासिक फैसले से उस जातीय और साम्प्रदायिक विमर्श को हवा दे दी जो भारत के 'नव-नाजीवादियों' को न केवल ऐतिहासिक रूप से प्रासंगिक बनाता है अपितु मानवीय विकास के 'जनवादी मूल्यों' को हाशिये पर धकेलकर; सामन्ती दौर के घोर त्रासक अवशेषों को पुनर्जीवित करने का उपक्रम भी करता प्रतीत होता है। हालाँकि ट्रिब्यूनल ने मन्दिरों- और तत्सम्बन्धी ट्रस्टों की सम्पत्ति विषयक आयकर में छूट के मद्देनज़र जो विचार व्यक्त किये वे काबिले गौर हैं। उनके अपने निहतार्थ भी मौजूद हैं। 'हिन्दुत्व' को परिभाषित करने की सामर्थ्य रखने वाले ये भारतीय ब्यूरोक्रेट बाकई तारीफ और इनाम के हकदार हैं! किन्तु वे भूल जाते हैं कि हिन्दुत्व के अश्वमेघ का घोड़ा भारत के जातीयता रूपी 'साठ हजार' सगर पुत्रों' ने बाँध रखा है। जब-जब मन्दिर की, हिन्दुत्व की, हिदुस्तान की चर्चा होगी तब-तब 'जाति -विमर्श'  भी जन-विमर्श के केन्द्र में होगा।

इस जातीयता रूपी विषबेल के फलने-फूलने में विदेशी आक्रमणों की लम्बी श्रंखला, देशी गृह युद्धों और  प्राकृतिक आपदाओं समेत अन्य कई कारकों को जिम्मेदार माना जा सकता है। इनमें से पाँच प्रमुख प्रतिगामी तत्व इस प्रकार हैं :-

[1] सामन्त युग या मध्ययुग में जनता के उस वर्ग का इतिहास न लिखा जाना, जो इतिहास के निर्माण का प्रमुख घटक हुआ करता है अर्थात् श्रमिक-कारीगर या मजदूर-किसान के बारे में कवियों, साहित्यकारों और भाष्यकारों की भारतीय परिदृश्य में कोई उल्लेखनीय रचना उपलब्ध नहीं, जो तत्कालीन वास्तविक सामाजिक संरचना के रूप में ऐसे किसी 'जन-साहित्य' को उजागर करती हो, जो तत्कालीन शोषण की व्यथा को प्रामाणिकता के साथ वर्तमान पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत कर सकने में सक्षम हो।

[2] राजाओं, महाराजों-रानियों, महारानियों और बादशाहों के बारे में बहुत सारा अर्द्ध सत्य, असत्य और कपोल-कल्पित साहित्य रचा गया कि उसमें सच को खोजने के लिये 'भूसे के ढेर में सुई खोजने' जैसा हाल हो गया। राजाओं को ईश्वरीय अवतार तक घोषित कर दिया गया। मेहनतकश – मजदूर किसान को न केवल लूटा गया अपितु उस वर्ग की परेशानियों-कष्टों को दैवीय विधान और कार्य-कारण के सिद्धान्त पर आधारित इनके कर्मफल का परिणाम घोषित कर शोषण की सनातन परम्परा को स्थिर बनाये रखा गया और साहित्य-कला-संगीत केवल 'ब्राह्मण-वैश्य- क्षत्रिय'  के लिये सुरक्षित रखा गया। शेष  80% जनता-जनार्दन को चातुर्वर्ण्य व्यवस्था अन्तर्गत 'शूद्र' नाम से सदियों तक पद-दलित किया गया।

[3] आम जनता को न केवल तथाकथित 'ईश्वरीय ज्ञान'  वेद, पुराण, उपनिषद और सम्पूर्ण संस्कृत वांग्मय से दूर रखा गया बल्कि सामाजिक न्याय, स्त्री विमर्श, आर्थिक असमानता को 'वेद -विहीन' घोषित  किया जाता रहा। वैज्ञानिक अनुसंधान को 'गुप्त', 'वर्जित'  घोषित करते हुये तब तक एकाधिकार में रखा  गया जब तक कि विदेशी आक्रान्ताओं ने उसे 'शैतान की करामात' घोषित कर, उसे नष्ट कर देने का आह्वान नहीं कर दिया या सार्वजनिक करने को बाध्य नहीं कर दिया गया या जड़-मूल से नाश कर देने की घृणित कोशिशों को अंजाम नहीं दे दिया गया।

[4]. पाश्चात्य वैज्ञानिक और भौतिक प्रगति के परिणाम स्वरूप दुनिया में सामाजिक बदलाव जितनी तेजी से हुआ उसका दशमांश भी भारत में परिलक्षित नहीं हुआ जबकि पाश्चात्य रेनेसाँ के ही दौर में  भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भी पुनर्जागरण की लहरें उठने लगी थीं। लोकतन्त्र, समाजवाद और सामाजिक  समानता के मूल्यों को भारत में स्थापित कराने के लिये हालाँकि 'तत्कालीन सभ्रान्त लोक' के ही महानुभावों ने अनथक प्रयत्न किये थे, कुर्बानियाँ भी दी थीं किन्तु भारतीय यथास्थितिवादियों ने न केवल  उस प्रगतिशील लौ को बुझाने की भरपूर कोशिश की अपितु राजा राम मोहन राय जैसे 'समाज सुधारकों'  को तो सिर्फ इसलिये सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा कि उन्होंने 'विदेश यात्रा क्यों की'?

[5] विज्ञान, तकनीक और सूचना सम्पर्क क्रान्ति के आधुनिक युग में भारत की पुरातन जातीय व्यवस्था  अप्रासंगिक हो जाने के बाद भी धार्मिक कट्टरता और सामन्ती मानसिकता के कारण विभिन्न समाज अपने-अपने जन्मगत जातीय संस्कारों की अप्रासंगिक मरू-मरीचिका में भटक रहे हैं। कुछ जातीय, साम्प्रदायिकतावादी भाषाई और क्षेत्रीयतावादी तो न केवल भारत की 'अखण्डता' को ही चुनौती दे रहे हैं बल्कि 'धरती पुत्र' की अवधारणा को अमली जामा पहनाने की निरन्तर कोशिश भी कर रहे हैं।

वर्तमान चुनावी प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया में अधिकाँश राजनैतिक दल [वामपंथ को छोड़कर] जातीयता, साम्प्रदायिकता, भाषा, क्षेत्रीयता की विषैली खरपतवार को सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में इस्तेमाल कर ने को बेताब हैं। वे जाने-अनजाने राजनैतिक पथ पर राष्ट्र सेवा करने के बजाय निहित स्वार्थ वश महा अंधकूप में कूद पड़ते हैं। इस दौर में जबकि किसी भी राष्ट्रीय दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पा रहा है, ये क्षेत्रीय-साम्प्रदायिक और जातीयतावादी ताकतें देश के सत्ता प्रतिष्ठान से 'ब्लैक मेलिंग' जैसा व्यवहार करती प्रतीत हो रही हैं। जगह-जगह विभिन्न समाजों, जातियों, सम्प्रदायों और खापों के सम्मलेन होने लगे हैं। पूँजीवादी, सम्प्रदायवादी, क्षेत्रीयतावादी और जातीयतावादी दलों के नेताओं को आगामी आम चुनाव में जीतने के लिये बहुमत चाहिये। जिस जाति, सम्प्रदाय या भाषा-क्षेत्र से जिसका वजूद है वो उसी  के विकास का नारा देकर महाकवि रहीम का ये दोहा सुनाता फिर रहा है :-

रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठें सौ बार ..!

रहिमन पुनि-पुनि पोईये, टूटे मुक्ता हार …!!

किसी को अब अयोध्या में श्रीराम लला के मन्दिर की, किसी को किसानों की आपदा और तत्सम्बन्धी आत्महत्याओं की, किसी को कश्मीर की, किसी को भ्रष्टाचार से मुक्ति की, किसी को राष्ट्र के कर्ज उतारने की और किसी को युवा भारत के निर्माण की चिन्ता सता रही है। चूँकि इन मुद्दों पर चुनावी जीत के लिये रहीम कवि कह गये हैं :-

रहिमन हाण्डी काठ की, चढ़े न दूजी बार …!

विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की यह बिडम्बना है कि 'जातिवाद' के बिना किसी भी देशभक्त और ईमानदार प्रत्याशी का चुनाव जीत पाना अब न केवल कठिन अपितु असम्भव सा होता जा रहा है। जो लोग क्षेत्रीयता को हवा देकर अपनी राजनैतिक ताकत बनाये रखने बनाम सत्ता की दलाली करते रहने में तीस मार खाँ बने फिरते हैं वे विदेशी घुसपैठियों, आतंकवादियों और दुराचारियों के निरन्तर भारत विरोधी कारनामों पर केवल

श्रीराम तिवारी ,

श्रीराम तिवारी , लेखक जनवादी कवि और चिन्तक हैं. जनता के सवालों पर धारदार लेखन करते हैं.

अरण्यरोदन करते रहते हैं। केवल सरकार को या विदेशी ताकतों को कोसने के लिये ख्यात इन जातीयतावादियों और क्षेत्रीयतावादियों को नहीं मालूम कि वे न केवल देश के साथ बल्कि स्वयं अपने साथ और अपनी भावी पीढ़ियों के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। दुर्भाग्य से तथाकथित तीसरे मोर्चे के हिस्से में आने वाला वर्ग इन्ही 'गैर जिम्मेदार' निहित स्वार्थियों से भरा पड़ा है।

आगामी आम चुनाव में यदि किसी कारण से तीसरा मोर्चा सत्ता में आता है तो देश का सोना फिर से गिरवी रखकर देश चलाने की नौबत आ सकती है। देश के दस-बीस साल पीछे चले जाने से इनकार नहीं  किया जा सकता। देश की जनता को सिर्फ तीन राजनीतिक केन्द्रों से ही देशभक्ति – जनहित की उम्मीद करनी चाहिये  [1] कांग्रेस नीति गठबंधन [संप्रग] [२] भाजपा नीति गठबंधन [राजग], [3] माकपा नीति गठबंधन [वाम मोर्चा] …! इसके अलावा जितने भी राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक और भीड़ जुगाडू  अपवित्र शक्ति केन्द्र हैं वे नितान्त गैर-जिम्मेदार और ढपोरशंखी मात्र हैं उनमें वे मुख्यमन्त्री भी शामिल हैं जो क्षेत्रीयता के रथ पर सवार होकर नीतिविहीन-कार्यक्रम विहीन होकर केवल क्षेत्रीयता, साम्प्रदायिकता या भाषा के नाम पर सत्ता सुख भोग रहे हैं। नितीश कितने ही बड़े समाजवादी, लोहियावादी या जेपी भक्त हों किन्तु वे भारत राष्ट्र की नैया पार लगाने में किस अर्थशास्त्र का प्रयोग करेगे? ये न वे जानते हैं और न कभी जानने की कोशिश ही की है। क्या वे चन्द्रशेखर का, गुजराल का या देवेगौड़ा का अर्थशास्त्र लागू करेंगे जो केवल देश को शर्मिन्दगी ही दे सकता है?  या मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र मानेंगे? जैसा कि भाजपा और राजग ने साबित कर दिखाया कि वे मनमोहन सिंह जी के अर्थशास्त्र को ही लागू कर सकते हैं क्योंकि उनका अपना कोई अर्थशास्त्र है ही नहीं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी से ज्यादा अमेरिका परस्त तो डॉ. मनमोहन सिंह जी भी नहीं हैं। यानी बात साफ़ है कि भाजपा नीति गठबंधन सत्ता में आया तो चाहे वे आडवाणी हों, मोदी हों, सुषमा स्वराज हों या राजनाथ सिंह, प्रधानमंत्री हों उनके पास डॉ. मनमोहन सिंह जी की अर्थशास्त्रीय फोटो कापी मौजूद है। नो प्रॉब्लम…!  देश का जो होगा अच्छा या बुरा-देखा भला ही होगा।

मुलायम सिंह किस अर्थशास्त्र के दम पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे ? ममता, मायावती, जय ललिता ने आज तक अपने श्री मुख से ये नहीं बताया कि वे अपने राज्य या क्षेत्र से  ऊपर उठकर 'भारत राष्ट्र' या वैश्विक चुनौतियाँ के बरक्स कौन सा अर्थशास्त्र और तद्नुरूप नीतियाँ -कार्यक्रम लागू करेंगे ?  क्या केवल  मुस्लिम +यादव +पिछड़ा =मंडल बनाम मायावती बहिन के दलित वोट बैंक +सोशल इन्जिनिय्रिंरिंग + ब्राह्मण = जातीयता का उभार से नये भारत राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा ? क्या केवल तमिल, तेलगु, तेलंगाना या मराठावाद या साम्प्रदायिकतावाद से दुनिया की श्रेष्ठ अर्थ व्यवस्थाओं का मुकाबला किया जा सकता है ? क्या ये क्षेत्रीय क्षत्रप जानते हैं कि वे जिस जातिवाद,  सम्प्रदायवाद से वोट कबाड़ कर कुछ सांसद जिताकर संसद में अपनी गुजारे लायक हैसियत पा तो सकते हैं किन्तु वे मात्र इतनी सी नकारात्मक योग्यता के दम पर चीन के प्रधान मन्त्री "सी जिनपिंग" के सामने, अमेरिकी राष्ट्रपति 'ओबामा' के सामने या रूस के राष्ट्रपति 'पुतिन' के सामने उतनी तेजस्विता से खड़े नहीं हो सकते जिस आत्मविश्वास से डॉ. मनमोहनसिंह ने ब्रिक्स सम्मलेन में या अन्य अवसरों पर अपनी प्रचण्ड योग्यता प्रदर्शित कर न केवल चीन बल्कि दुनिया के कई राष्ट्र प्रमुखों को तेज विहीन किया है।

भारत के कुछ नौजवान फेस बुक पर और विभिन्न मीडिया माध्यम डॉ. मनमोहन सिंह के कम बोलने  पर कार्टून बनाते हैं, कुछ शिक्षित युवा वर्ग – उन्हें केवल उसी चश्मे से देखता है जो विरोधी दलों ने या मीडिया ने लोगों को पहनाया है। ऐसा करते वक्त ये युवा वर्ग भूल जाता है कि उसके राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकार अब आधुनिकतम सूचना तकनीक, डिजिटल नेटवर्क और इंटरनेट के क्रन्तिकारी युग  से संचालित और परिभाषित हो रहे हैं। अब राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक समझ का मूल्याँकन  वैश्विक मूल्यों पर आधारित होगा न कि बाबा रामदेव, केजरीवाल, अन्ना हजारे जैसे गैर जिम्मेदार लोगों  के ढपोरशंखी दुष्प्रचार में शामिल होकर आम आदमी द्वारा जाने-अनजाने अपने देश के ही खिलाफ उलटा सीधा बकते रहने से भारत में कोई क्रान्ति नहीं होने वाली

कुछ अप्रिय घटनाओं [गैंग रेप] इत्यादि से और पड़ोसी राष्ट्रों की नितान्त दुष्टतापूर्ण हरकतों से भारत को दुनिया में किन-किन शर्मनाक मंज़िलों से गुजरना पड़ रहा है? ये बातें उन लोगों को पहले समझ लेनी  चाहियें जो भावी चुनाव उपरान्त देश की बागडोर सम्भालने जा रहे हैं। कांग्रेस का अर्थात् संप्रग का  कुशासन और उसका पूँजीवादी, महँगाई बढ़ाने वाला अर्थशास्त्र सबको मालूम है। फिर भी आज विदेशी मुद्रा भण्डार अपने चरम पर है। देश में अमन है, शांति है, सकल राष्ट्रीय आय और जीडीपी भी कमोवेश सुधार पर है। देश में गरीबी बढ़ी है, पूँजीपतियों के मुनाफे बढे हैं, भ्रष्टाचार हुआ है और उस पर नियन्त्रण अभी भी नहीं है। गठबंधन के दौर में कोई और गठबंधन भी यदि केन्द्र की सत्ता में होता तो शायद इससे बेहतर तस्वीर देश की न होती। भाजपा नीत राजग के पास डॉ. मनमोहनसिंह से बेहतर वैकल्पिक आर्थिक नीति या कार्यक्रम ही नहीं है वे स्वयं अमेरिकापरस्त और उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण के सबसे बड़े अलमवरदार हैं। 1999 से 2004 तक के फील गुड और इंडिया शाइनिंग वाले दौर में देश की अधिकाँश सम्पदा सरमायेदारों को लगभग मुफ्त में बाँटने वाले भाजपाई अब कौन सा नया अर्थशास्त्र लेकर श्री नरेन्द्र मोदी को पढ़ाने वाले हैं और कौन सा अर्थशास्त्र मोदी जी ने देश के लिये तय कर रखा है कहीं वही तो नहीं जो टाटाओं-अम्बानियों, बजाजों और मित्तलों तथा अमेरिका-यूरोप-इंग्लैंड को भा  रहा है।

अतीत में भी इन्ही ताकतों ने भारत के सांस्कृतिक, आर्थिक और प्राकृतिक वैभव की प्रचुरता के बावजूद   उसे जमींदोज़ किया है। भारत के आन्तरिक बिखराव और एकजुटता की प्रक्रिया के अभाव में एक साथ और विपरीत दिशा में परिगमन के परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिम और मध्यपूर्व से यायावर-हिंसक लुटेरों और बर्बर-असभ्य कबीलों ने न केवल बुरी तरह लूटा बल्कि युगों के सुदीर्घ अनुभवजन्य आयुर्वेद जैसी  वैज्ञानिक उपलब्धि को, ग्राम्य आधारित मज़बूत अर्थ-व्यवस्था को और परिष्कृत मानवीय मूल्यों-अहिंसा, समता, क्षमाशीलता को ध्वस्त करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। वैज्ञानिक नज़र से इस विषय को   अनुसंधान और अन्वीक्षित करने के इच्छुक शोधार्थियों को न केवल भारतीय पुरातन उपलब्ध साहित्य अपितु हमलावर जातियों का भी साहित्य अवश्य पढ़ना चाहिये। आशा की जाती है की अतीत के 'अंधकारमय' पक्ष के रूप में इस सनातन चुनौती से नई पीढ़ी को निजात दिलाने में 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद  और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद' अवश्य मददगार साबित हो सकता है बशर्ते कि प्रत्येक दौर की नई पीढ़ी  भारतीय स्वाधीनता संग्राम समेत तमाम वैश्विक क्रान्तियों के बेहतरीन मूल्यों को हृदयगम्य करती रहे।

जातीय -विमर्श हेतु समाज शास्त्रियों को अतीत के काल्पनिक, मिथकीय व्यामोह से मुक्त होकर न  केवल अतीत के भारतीय सामाजिक उत्थान-पतन अपितु आज के झंझावातों और भविष्य के निर्माण को भी मद्देनज़र रखना चाहिये। किन्तु इन दिनों लगता है कि उस सामन्तयुगीन काल्पनिक और मिथकीय   व्यामोह को भी बाजारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में एक आकर्षक 'उत्पाद'  के रूप में 'ओल्ड इज  गोल्ड' के बहाने पुनर्स्थापित किया जा रहा है। जिसके भयावह परिणाम सामाजिक विषमता के गर्भ में   विकसित हो रहे हैं, जो देश को गृह युद्ध की दावानल में झोंकने के निमित्त बन सकते हैं।

आज कल भारत में कहीं 'राजपूत या क्षत्रीय -समाज' कहीं 'अग्रवाल समाज' कहीं 'जैन समाज' कहीं 'यादव-अहीर समाज 'कहीं 'जाट-विश्नोई समाज' और कहीं दलित- पिछड़े समाज के बैनर यत्र-तत्र टँगे दिखने लगे हैं। हालाँकि बौद्धों, जैनों और लोकायतों के तो दो हजार साल से ज्यादा पुराने संगठनों के  बनने-बिगड़ने-दो-फाड़ होने और अपने ही सिद्धान्तों को पद दलित किये जाने का भी इतिहास है। सिखों का पाँच सौ साल पुराना इतिहास है जो उनके सामाजिक-धार्मिक तौर पर संगठित होने और धर्म-राजनीति के घालमेल के रूप में संविधानेतर सत्ता केन्द्र स्थापित करने की नाकाम कोशिशों के रूप में भारतीय  इतिहास में दर्ज हो चुका है। विगत 2004 से देश के प्रधानमन्त्री का पद एक सिख को सिर्फ इसलिये दिया जाता रहा है कि उस कौम के अलगाववादियों के अहम् और तथाकथित उन्नीस सौ चौरासी के दंगों में आहत हुये सिखों को संतुष्ट किया जा सके। यह न केवल कांग्रेस बल्कि देश हित में उठाया कदम हो सकता था बशर्ते 'अकाल तख़्त' और संगठित सिख कौम का सरदार मनमोहनसिंह को समर्थन मिलता किन्तु एक समाज के रूप में एक पंथ के रूप में मनमोहनसिंह जी को रत्ती भर भी सहयोग 'शिरोमणि अकाली दल' की ओर से कभी नहीं मिला। इसी तरह से भारत में जितने भी जातीय-साम्प्रदायिक और क्षेत्रीतावादी संगठन हैं या थे सभी ने कमोवेश 'भारत राष्ट्र' को ब्लैक मेल करने अथवा अपना उल्लू  सीधा करने को ही प्राथमिकता दी है।

मंडल कमीशन और उसकी राजनीति के दूरगामी परिणामों का दंश देश अभी भी भोग रहा है बाबा साहिब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जिन्हें फर्श से अर्श पर बैठाया, मान्यवर कांसीराम जी ने जिन्हें राजनीति में   ककहरा सिखाया वे 'बाबा साहिब' और कांसीराम जी की जय-जय कार तो करते हैं लेकिन उनके सिद्धान्तों और सूत्रों को भूलकर अपने वंशानुगत स्वार्थों के लिये कुख्यात हो चुके हैं।मायावती और उनके रिश्तेदारनव धनाड्यों में शुमार हो चुके हैं जबकि देश की 9 0 % एससी/ एस टी जनता आज भी गरीबी की रेखा के नीचे सिसक-सिसक कर घिसट रही है। वे इस व्यवस्था में जातीय आधारित संगठन या राजनैतिक   पार्टी बनाकर इससे ज्यादा कुछ हासिल कर भी नहीं सकते। सत्ता में आने के लिये भी उन्हें उन्हीं  ब्राह्मणों को पटाने की सोशल इंजीनियरिंग करनी पड़ती है जिन्हें वे कभी -तिलक तराजू और तलवार ….इनको मारो… जूते  चार …. से स्मरण किया करते थे। जाटों, ठाकुरों, बनियों ने अपने-अपने संघ बना लिये हैं। अब सुना है कि ब्राह्मणों को भी संगठित होने का 'इल्हाम' हुआ है सो हर जगह-जय परशुराम का उद्घोष सुनायी देने लगा है।

मेरी कालजयी वैज्ञानिक और वैश्विक वैचारिक समझ, मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती कि मैं किसी तरह के जातीय-भाषाई-साम्प्रदायिक सरोकारों वाले इस तरह के व्यक्ति, समाज, संगठन के उस विमर्श से रिश्ता रखूँ या शिरकत करूँ जो सिर्फ अतीत की  झण्डाबरदारी के आधार पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की हास्यापद चेष्टा करता है और मानव-मानव में नस्ल, जाति, मज़हब, भाषा या कौम के आधार पर पृथक्करण या वर्चस्व को वैधता प्रदान कराने की चेष्टा करता है। किसी भी ऐतिहासिक रचना, साहित्यिक धरोहर या लोक-परम्परावादी काव्यांश को विकृत रूप में पेश किये जाने से मैं हस्तक्षेप के लिये बाध्य हूँ। यह मेरा उत्तरदायित्व भी है कि प्रत्येक प्रतिगामी और गुमराह कदम को न केवल बाधित करूँ अपितु अपना और 'प्रगतिशील' समाज का पक्ष प्रस्तुत करूँ। अभी तक देश और दुनिया में जिन – जिन सम्प्रदायों, पंथों-जातियों और उपजातियों को संगठित होते हुए देखा-सुना है उनमें साम्प्रदायिक आधार पर- बौद्ध, जैन इस्लामिक, ईसाई, यहूदी, आर्य-समाजी, सिख और पारसी ही संगठित थे। फ्रांसीसी क्रान्ति, वोल्शैविक-महान अक्तूबर क्रान्ति और चीनी सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद दुनिया ने साम्प्रदायिक चश्मा उतार फेंका और 'मानवीय मूल्यों' से युक्त स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारे को आधुनिक बेहतरीन युग निर्माण और व्यक्ति निर्माण के उद्देश्य से आविष्कृत किया था। सारे संसार के तथाकथित सम्प्रदाय और धर्म-मज़हब जो अवैज्ञानिकता की घुट्टी पीकर पोषित हुये थे, उनके केन्द्रीय विचारों में बेहतरीन मानवीय  मूल्यों की बुनावट के वावजूद वे सब के सब अपने-अपने मठाधीशों द्वारा तत्कालीन शासक वर्ग के हितों की पूर्ति और आम जनता पर निर्मम अत्याचारों के लिये कुख्यात रहे हैं। मानव इतिहास ने जितने भी दैवीय आस्था के केन्द्रों को जन्म दिया है उनमें से कुछ ने अवश्य ही मानवता की बड़ी सेवा की है, त्याग किया है,  कुर्बानियाँ दीं हैं, मनुष्य को उसकी आदिम पाषाण युगीन अवस्था से उसके यूटोपियाई काल्पनिक  दैवीय रूपान्तरण के प्रयाण पथ पर; इन चंद अपवादों- शहादतों और बलिदानों ने निसंदेह बेहतरीन भूमिका अदा की है। सम्भवतः इन्ही कारणों से आर्यों में ब्राह्मणों को जातीय श्रेष्ठता का भान' हुआ होगा,  कुछ इसी तरह  ईसाइयों में रोमन कैथोलिक को, इस्लाम में कुरैश कबीले को,  बौद्धों में लिच्छवियों को  शंकराचार्यों में नाम्बूदिरियों को परम्परागत सम्मान मिला होगा। किन्तु इन पंथ-मज़हब या सिद्धान्त के स्थापकों के बेहतरीन बलिदानों का उनके उत्तर अनुवर्तियों को प्राप्त सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक  विशेषाधिकार सदियों तक सारे संसार में अपने अहंकार, ऐश्वर्य, तेजस और प्रभुत्व का प्रचण्ड ताण्डव कर  न केवल समाज और राष्ट्र का बल्कि स्वयं अपने ही बँधू-बांधवों सजातीय-स्वधर्मियों का भी बेड़ा गर्क  करता रहा है। इस जातीय या कबीलाई दुनिया के विभिन्न देशों में लगभग एक जैसी भारतीय उपमहाद्वीप  में आर्यों [प्रारम्भ में आर्यों में केवल तीन वर्ण ही थे, ब्राह्मण- क्षत्रीय, वैश्य बाद में जब आर्यों ने भारत में 'वैदिक काल' की व्यवस्था कायम की तब पराजित स्थानीय मानव समूह को 'दास' गुलाम और अन्त में 'मनु महाराज ने तो इन 'धरती पुत्रों' को शूद्र ही घोषित कर दिया'] के स्थापित होने के हजारों साल बाद विदेशी आक्रमणकारियों, विदेशी यायावरों, बंजारों और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से विस्थापित होकर आते रहे 'जन-समूहों ने आर्यों को अधिक समय तक "कृण्वन्तो विश्वं आर्यम्" का उद्घोष नहीं करने दिया। भारत पर विदेशी आक्रमणों का इतिहास जितना पुराना और व्यापक है उतना विश्व में अन्यत्र दूसरा कोई उदाहरण नहीं है। इन में कुछ अत्यंत बर्बर खूरेंजी शकोंहूणों, चंगेजों, मंगोलों, अरबों, तोर्मानो, यवनों, तुर्कों,अफगानों, पठानों, मुगलों, यूरोपियनों और खासकर अंग्रेज संगठित सैन्य आक्रान्ताओं ने यहाँ के तत्कालीन बेहतरीन सामाजिक -आर्थिक और प्रशासनिक ताने-बाने को ध्वस्त कर उनके अपने अनुरूप सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक,राजनैतिक और व्यापारिक मूल्य स्थापित किये जो उनके लिये वरदान थे और भारत के लिये अभी तक अभिशाप हैं।

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