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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 20, 2013

हिन्दू राष्ट्रवादी भी मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह अंग्रेजों को अपना मित्र मानते थे

हिन्दू राष्ट्रवादी भी मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह अंग्रेजों को अपना मित्र मानते थे


दक्षिण एशिया में अल्पसंख्यक

अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक रिअर व्यू मिरर लगाया जिसमें झाँकने पर भूतकाल की हर घटना साम्प्रदायिक रंग में रंगी दिखने लगी।

इरफान इंजीनियर


http://hastakshep.com/?p=31652


दक्षिण एशिया में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने ऐसी नीतियाँ अपनायीं जिनसे आमजन साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक पहचान, अन्य पहचानों-जैसे क्षेत्रीय, भाषायी व लैंगिक-से अधिक महत्वपूर्ण बन गयीं। भारत में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेज शासकों ने सीमित मताधिकार के आधार पर स्थानीय संस्थाओं के चुनाव करवाने शुरू किये। उनका कहना था कि यह देश में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की शुरूआत का प्रयास है। परन्तु इसने देश को विभाजित किया। तत्कालीन समाज पिछड़ा हुआ था व उसकी सोच सामन्ती थी। इस पृष्ठभूमि में, उम्मीदवारों को चुनावों में समर्थन और वोट हासिल करने के लिये धार्मिक पहचान का उपयोग, सबसे आसान रास्ता नजर आया।

यह भाँपकर कि इन चुनावों के जरिये अंग्रेज देश पर अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहते हैं, सर सैय्यद अहमद खान नेभारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पर हिन्दू पार्टी का लेबिल चस्पा कर दिया और मुसलमानों से आव्हान किया कि वे उससे दूर रहें।औपनिवेशिक शासन के प्रति मुसलमानों की कोई सामूहिक रणनीति नहीं थी। बदरूद्दीन तैयबजी और कई अन्य मुसलमानों ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से सम्बंध बनाये रखे और सर सैय्यद के आव्हान को नजरअंदाज कर दिया। तैयबजी तो आगे चलकर काँग्रेस के अध्यक्ष भी बने। सर सैय्यद का प्रयास यह था कि मुसलमानों को उनकी परम्परा-जनित जड़ता से बाहर निकाला जाये और अंग्रेजी शिक्षा को एक हथियार बतौर इस्तेमाल कर, उनमें आधुनिक सोच को बढ़ावा दिया जाये। सर सैय्यद, इस्लाम की पुनर्व्य़ाख्या करना चाहते थे और मुसलमानों के दिमागों में घर कर चुके जालों को हटाना चाहते थे। मुसलमानों के धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग ने पश्चिमी औपनिवेशिक संस्कृति का प्रतिरोध किया और इसके कारण, मुस्लिम समुदाय का झुकाव कट्टरता और परम्परागतता की ओर हो गया। गुजरे हुये वक्त को वापिस लाने के प्रयास में मुस्लिम समुदाय, कुएँ का मेढक बन गया।

मुस्लिम समुदाय में साम्प्रदायिकता व अल्पसंख्यक होने का भाव दो प्रक्रियाओं की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुआ। पहली थी धार्मिक और सामन्ती श्रेष्ठि वर्ग द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध और दूसरी, पश्चिमी शिक्षा हासिल कर औपनिवेशिक शासनतन्त्र में स्थान पाने की इच्छा। पहली प्रक्रिया औपनिवेशिक शासकों के हाथों में सत्ता चले जाने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी जबकि दूसरी, औपनिवेशिक शासन के यथार्थ को स्वीकार कर और उसका हिस्सा बन, समुदाय का सशक्तिकरण करने की रणनीति। विडम्बना यह है कि दोनों का एक ही नतीजा हुआ-अर्थात् मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव का घर कर जाना। 19वीं सदी की शुरूआत में प्रारम्भ हुये वहाबी और फरीजी आन्दोलन, पहली प्रक्रिया के उदाहरण थे अर्थात् ब्रिटिश शासन का प्रतिरोध। सर सैय्यद अहमद खान का अंग्रेजी शिक्षा पर जोर, दूसरी रणनीति का उदाहरण था, जिसका उद्धेश्य था समुदाय के सदस्यों को ब्रिटिश नौकरशाही और सत्ता के ढाँचे में स्थान दिलवाना।

धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग, उलेमा और मौलवियों ने समुदाय को औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करने के लिये गोलबन्द करने के उद्धेश्य से धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक मंचों का इस्तेमाल किया। इस्लामिक पुनरूत्थानवादियों का उद्धेश्य था औपनिवेशिक शासन का विरोध, पश्चिमी संस्कृति का प्रतिरोध और लोगों की रोजाना की ज़िन्दगी पर पश्चिम के प्रभाव को कम करना। इसके लिये वे अन्य ब्रिटिश विरोधी ताकतों और भारतीय राष्ट्रवादियों से हाथ मिलाने के लिये तैयार थे। इस पुनरूत्थानवादी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग को उम्मीद थी कि भविष्य में जो भी व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी उसमें मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने की पूरी आजादी होगी। वहाबी और फरियाजी पुनरूत्थानवादी आन्दोलनों को 19वीं सदी के मध्य तक सख्ती से कुचल दिया गया। इसके बाद, ब्रिटिश शासन के पुनरूत्थानवादी विरोधियों ने इस्लाम की शुद्धता को बनाये रखने और मुसलमानों का धार्मिक मसलों में पथप्रदर्शन करने के लिये देवबन्द में दारूल उलूम की स्थापना की। धार्मिक पुनरूत्थानवादियों का मूल लक्ष्य अंग्रेजी शासन का विरोध था और यही कारण है कि देवबन्द ने हमेशा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का साथ दिया। हाँ,देवबन्द यह आश्वासन अवश्य चाहता था कि भविष्य में जो भी तन्त्र स्थापित होगा उसमें मुसलमानों को धार्मिक आजादी मिलेगी।

इरफान इंजीनियर, लेखक स्तम्भकार एवं Institute for Peace Studies & Conflict Resolution के निदेशक हैं,

मुस्लिम लीग को सर सैय्यद के आधुनिकीकरण और सुधार कार्यक्रमों से लाभ हुआ। पुनरूत्थानवादियों और औपनिवेशिक शासन के उनके प्रतिरोध के विपरीत, सुधारक और आधुनिकतावादी, हिन्दू समुदाय को अपना प्रतियोगी मानते थे। वे यह भी मानते थे कि हिन्दू, सत्ता में भागीदारी हासिल करने की उनकी इच्छा को पूरा करने में बाधक हैं। बीच-बीच में ये लोग सत्ता में अधिक भागीदारी के लिये ब्रिटिश शासकों से हाथ मिला लेते थे तो कभी-कभी शासकों द्वारा नजरअंदाज कर दिये जाने के बाद, वे राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुड़ने की कोशिश करते थे ताकि उनकी माँगें पूरी हो सकें। परन्तु चाहे ब्रिटिश शासकों के साथ मोलभाव हो या राष्ट्रवादी आन्दोलन के साथ-दोनों ने साम्प्रदायिक सोच को बढ़ावा दिया और इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय को एक अलग राष्ट्र कहा जाने लगा। साम्प्रदायिक राष्ट्रवादी हिन्दू समुदाय को अपने लिये एक समस्या बताने लगे और अंग्रेज शासकों से मिलकर अपने लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करने लगे।

मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग में अल्पसंख्यक होने के भाव का उदय और बहुसंख्यक समुदाय को अपना प्रतियोगी और यहाँ तक कि शत्रु मानने की प्रवृत्ति से औपनिवेशिक शासकों को लाभ हुआ। ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव को और बढ़ावा दिया। इसके लिये उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और अतीत को 'मुस्लिम काल' और 'हिन्दू काल' में विभाजित किया। उन्होंने ऐसा साम्प्रदायिक रिअर व्यू मिरर लगाया जिसमें झाँकने पर भूतकाल की हर घटना साम्प्रदायिक रंग में रंगी दिखने लगी। पृथक् मताधिकार और ब्रिटिश शासकों द्वारा लिये गये कई अन्य निर्णयों ने साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया। सन् 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल के विभाजन, जनगणना व धार्मिक परम्पराओं और प्रथाओं के दस्तावेजीकरण सहित कुछ अन्य कदमों के कारण समुदाय में साम्प्रदायिकता के भाव ने और जोर पकड़ा। ब्रिटिश नीतियों ने मुसलमानों में अल्पसंख्यक होने के भाव को बढ़ावा दिया, अल्पसंख्यक अधिकारों पर विमर्श की नींव रखी और अलगाववाद को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, अल्पसंख्यक होने का भाव, ब्रिटिश शासन की देन और उसक प्रतिक्रिया दोनों थीं। इसी तरह, हिन्दुत्व की मूल प्रकृति भी राजनैतिक थी और उसका उदय वी.डी. सावरकर के लेखन से हुआ, जिसमें मुसलमानों व ईसाईयों को विदेशी व हिन्दुओं के हितों का विरोधी निरूपित किया गया और जिसमें हिन्दू राष्ट्रवादियों से आह्वान किया गया कि वे हिन्दू हितों की रक्षा के लिये आगे आयें। मुस्लिम राष्ट्रवादियों की तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी भी ब्रिटिश को अपना मित्र मानते थे।

जैसे-जैसे धर्म, भारतीय उपनिवेश के नागरिकों की पहचान को परिभाषित करने का मुख्य माध्यम बनता गया, दोनों समुदायों में एक साम्प्रदायिक कुलीन वर्ग उभरने लगा जो ब्रिटिश शासकों से अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने की जद्दोजहद में जुट गया। जाहिर है कि इससे औपनिवेशिक शासकों को मान्यता व वैधता मिली। साम्प्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग, जिसके अधिकाँश सदस्य सामन्ती तत्व थे, ने धार्मिक प्रतीकों व धार्मिक विमर्श का इस्तेमाल कर, अपने-अपने धर्मों के लोगों को अपने साथ जोड़ना प्रारम्भ कर दिया। वे साम्प्रदायिक पहचान पर जोर देने लगे व साँझा क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, भाषायी व ऐतिहासिक जुड़ाव की महत्ता को कम करके बताने लगे। इससे रोजमर्रा के जीवन में मानवीय मूल्यों का क्षरण हुआ। अपने-अपने धर्मों को एकसार बनाने के लिये उन्होंने चुनिन्दा धार्मिक परम्पराओं का इस्तेमाल किया।  अन्य परम्पराओं को या तो त्याग दिया गया या उनमें इस प्रकार के परिवर्तन कर दिये गये जिनसे धार्मिक-सांस्कृतिक प्रथाओं को एकसार बनाया जा सके। अपने धर्म के अनुयायियों को एक करने के लिये साम्प्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग ने न केवल अपने धर्म की धार्मिक परम्पराओं और प्रतीकों का इस्तेमाल किया बल्कि ''दूसरे'' समुदायों की सांस्कृतिक परम्पराओं को भी एकसार बताने का प्रयास किया। उन्होंने एक धार्मिक समुदाय की पहचान को दूसरे समुदाय की पहचान की विरोधी और उसके अस्तित्व के लिये खतरा बताना प्रारम्भ कर दिया।

अतः, दक्षिण एशिया में राजनैतिक प्रक्रिया और उपनिवेश के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के प्रयास से धर्म-आधारित धार्मिक पहचानों का उद्भव हुआ। इन पहचानों के हित परस्पर विरोधी हैं, ऐसा प्रतिपादित किया गया। इससे संख्यात्मक दृष्टि से कमजोर समुदाय के श्रेष्ठि वर्ग में अल्पसंख्यक होने के भाव ने घर कर लिया। इस प्रक्रिया से अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक वर्ग दो विरोधी ध्रुव बन गये। अपने-अपने समुदाय की संख्यात्मक शक्ति के आधार पर अधिकारों के लिये मोलभाव होने लगा।

सन् 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे में नई सीमायें खींचने से अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ-न सीमा के इस पार और न उस पार। बल्कि उनकी समस्यायें बढ़ी हीं। नक्शे में नई रेखायें खींचने से भड़की हिंसा ने सीमा के दोनों ओर लाखों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया। एक देश के बहुसंख्यक, दूसरे देश में अल्पसंख्यक बन गये। दक्षिण एशिया के देशों का अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार के मामले में रिकार्ड कोई बहुत अच्छा नहीं रहा है। अल्पसंख्यक समुदायों पर बहुसंख्यक विश्वास नहीं करते, उनके साथ राज्य व उसके अधिकारी भेदभाव करते हैं, उन्हें उनके धर्म का पालन करने से रोका जाता है और उन्हें सिर्फ इसलिये प्रताड़ित किया जाता है क्योंकि वे बहुसंख्यकों से अलग हैं। पाकिस्तान में ईसाई, हिन्दू, अहमदिया और शिया हिंसा के शिकार बन रहे हैं। शियाओं को मस्जिदों के अन्दर मौत के घाट उतारा जा रहा है, अहमदियों पर असंख्य अत्याचार हो रहे हैं, हिन्दुओं को जबरन धर्मपरिवर्तन करने पर मजबूर किया जा रहा है। हिन्दू महिलाओं की जबर्दस्ती शादी कर उन्हें इस्लाम कुबूल करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। ईसाईयों को ईशनिन्दा कानून के फंदे में लेकर, उनके बच्चों तक को मौत की सजायें सुनाई जा रही हैं।

भारत में, मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ बेजा हिंसा हो रही है। उन पर राज्य तन्त्र भी अत्याचार कर रहा है। उन्हें राष्ट्रविरोधी, आतंकवादी व विश्वासघाती बता कर सुरक्षा एजेन्सियाँ उन पर निशाना साध रही हैं। सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों में 4000 से अधिक सिक्खों की जान ले ली गयी और लाखों घायल हुये। सच्चर समिति की रपट से साफ है कि सरकारी नौकरियों, शिक्षा, बैंकों से कर्ज, सरकारी ठेकों व राजनीति के क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो रहा है।

बांग्लादेश में भी दक्षिणपंथी, खुलेआम हिन्दू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार कर रहे हैं और उन्हें भारत में शरण लेने पर मजबूर कर रहे हैं। श्रीलंका में तमिल अल्पसंख्यकों के विरूद्ध चले लम्बे युद्ध के दौरान उनके मानवाधिकारों के खुलेआम उल्लंघन के आरोप हैं। एलओसी के दोनों ओर रह रहे कश्मीरी, दो राष्ट्रों के बीच दशकों से चल रहे संघर्ष का नतीजा भोग रहे हैं।

दक्षिण एशिया को अल्पसंख्यक अधिकारों के एक घोषणापत्र की आवश्यकता है। इससे सभी देशों के नागरिक लाभान्वित होंगे क्योंकि जो समुदाय एक देश में बहुसंख्यक है वह दूसरे देश या देशों में अल्पसंख्यक है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों का एक सर्वमान्य चार्टर तैयार करने से सभी समुदायों को लाभ होगा। दक्षिण एशिया, अल्पसंख्यकों को प्रजातान्त्रिक हक देने के मामले में दुनिया के लिये एक मॉडल बन सकता है। पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों को तीन श्रेणियों के अधिकारों की आवश्यकता पड़ती है। पहला, साम्प्रदायिक या नस्लीय आधार पर भेदभाव से मुक्ति और सुरक्षा का अधिकार। दूसरा, अपने धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार, अपनी भाषा व अपनी संस्कृति का ज्ञान अपनी अगली पीढ़ियों को देने का अधिकार व तीसरा, राज्य द्वारा भेदभाव नहीं किये जाने का अधिकार। नस्लीय अल्पसंख्यकों को अपना शासक चुनने की भी सीमित स्वतन्त्रता होनी चाहिए। ये अधिकार अल्पसंख्यकों को तभी उपलब्ध करवाए जा सकते हैं जब हम बहुसंस्कृतिवाद को आदर्श बतौर स्वीकार करें और यह भी स्वीकार करें कि राज्य को उसके नागरिकों के सांस्कृतिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।

हमारे सामने लियाकत-नेहरू संधि का उदाहरण है जो विभाजन के बाद हुये भयावह दंगों के बीच, सन् 1950 में भारत और पाकिस्तान के बीच हस्ताक्षरित की गयी थी। लियाकत-नेहरू संधि एक द्विपक्षीय संधि थी जिसका उद्धेश्य था दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी और दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावना को समाप्त करना। दक्षिण एशिया के सभी देशों के बीच इस तरह की संधि की जरूरत है।

(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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