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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 13, 2013

क्या हमें अंबेडकर जयंती मनाने का हक है?

क्या हमें अंबेडकर जयंती मनाने का हक है?


पलाश विश्वास


देश विदेश में अंबेडकर अनुयायी सालाना रस्म बतौर अंबेडकर जयंती मनाने की तैयारी में हैं।हमारी आस्था ने उन्हें ईश्वर का दर्जा दे दिया ​​है। किसी ईश्वर की कोई विचारधारा नहीं है। संघ परिवार का हिंदुत्व उन्माद भी कोई विचारधारा नहीं है।लेकिन  कम से कम हिंदुत्ववादी ​​आस्था को आंदोलन में बदलने में कामयाब है और मनुस्मृति की अर्थ व्यवस्था के मुताबिक वर्चस्ववादी सत्ता भी उन्ही की है। हम ​​अंबेडकर की पूजा में हिंदुत्व का ही अनुकरण कर रहे हैं। वरना क्या कारण है कि बहुजनसमाज के निर्विवाद नेता को भारतीय राजनीति में किनारे कर दिया गया, फिर उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी, उन्हीं के आंदोलन की वजह से संसद और विधानसभाओं में पहुंचे ​​बहुजनसमाज के पूना पैक्टी प्रतिनिधि तब से निरंतर खामोशी अख्तियार किये हुए हैं।बिना समुचित जांच पड़ताल के उनकी मृत्यु पर हमेशा के लिए पर्दा डाल दिया गया । आज सूचना के अधिकार के तहत जब प्रश्न किया जाता है तो भारत सरकार टका सा जवाब देती है कि डा. अंबेडकर ​​की कैसे मृत्यु हुई, उसे नहीं मालूम।भारत सरकार के पास डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मौत से जुड़ी कोई जानकारी नहीं है।


आरटीआई ऐक्ट के तहत दायर आवेदन के जवाब में केंद्र के दो मंत्रालयों और अम्बेडकर प्रतिष्ठान ने अपने पास अंबेडकर की मौत से जुड़ी कोई भी जानकारी होने से इंकार किया है। एक मंत्रालय के जन सूचना अधिकारी ने यह भी कहा है कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि मांगी गई सूचना किस विभाग से संबद्ध है।


आरटीआई कार्यकर्ता आर एच बंसल ने राष्ट्रपति सचिवालय में आवेदन दायर कर पूछा था कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मौत कैसे और किस स्थान पर हुई थी? उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या मृत्यु उपरांत उनका पोस्टमॉर्टम कराया गया था। पोस्टमॉर्टम की स्थिति में उन्होंने रिपोर्ट की एक प्रति मांगी थी।


आवेदन में यह भी पूछा गया था कि संविधान निर्माता की मृत्यु प्राकृतिक थी या फिर हत्या। उनकी मौत किस तारीख को हुई थी, क्या किसी आयोग या समिति ने उनकी मौत की जांच की थी?


राष्ट्रपति सचिवालय ने यह आवेदन गृह मंत्रालय के पास भेज दिया जिस पर गृह मंत्रालय द्वारा आवेदक को दी गई सूचना में कहा गया है कि डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु और संबंधित पहलुओं के बारे में मांगी गई जानकारी मंत्रालय के किसी भी विभाग, प्रभाग और इकाई में उपलब्ध नहीं है ।


कहा जाता है कि अम्बेडकर 1948 से मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वे बहुत बीमार रहे इस दौरान वे अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसंबर 1956 को अम्बेडकर की मृत्यु नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गई।


7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया था।


अंबेडकर कोई मामूली हस्ती तो नहीं थे। संविधान निर्माता थे। वोट की राजनीति में जहां उनके प्रबल​​ प्रतिद्वंद्वी गांधी और संसदीय राजनीति के धुरंधर राम मनोहर लोहिया को सत्तावर्ग ने गैर प्रासंगिक बना दिया है, वहीं अंबेडकर के बिना किसी भी रंग की राजनीति का कम नहीं चलता। बहुजन वोट अंबेडकर आराधना से ही मिल सकता है। इसलिए अंबेडकर आंदोलन और विचारधारा की बजाय​​ दुर्गा पूजा और आईपीएल बतर्ज अंबेडकर जयंती व अंबेडकर निर्वाण उत्सव का प्रचलन हो गय़ा। लोग अंबेडकर की मूर्ति पर मत्था टेककर बहुजन समाज का वोट लूट ले जाते हैं। बहुजनों की आर्थिक संपन्नता, सामाजिक न्याय, समता और  जाति उन्मूलन का एजंडा सिरे से खारिज हो ​​गया। अंबेडकर वाद एटीएम मशीन की तरह सबको नकद भुगतान कर रहा है। इसके अलावा हमने अंबेडकर की कोई प्रासंगिकता नहीं ​​बनाये रखी। मौजूदा सवालों, चुनौतियों और  संकट से मुखातिब हुए बिना हमें क्या हक है कि हम अंबेडकर के नाम अपने निजी हित साधते रहे, अंबेडकर जयंती पर यह सवाल सबसे बड़ा है।


कांग्रेस दलितों के वोटों पर कब्जा करने के लिए अंबेडकर के नाम का जाप करती है तो संघ परिवार भी पीछे नहीं है।मसलन इस वर्ष दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का परचम लहराने के लिए पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों के बाद अब दलितों में पैठ बनाने की दिशा में कई कार्यक्रम शुरु करने की घोषणा की है। भाजपा की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष विजय गोयल ने आज यहां संवाददाता सम्मेलन में कहा कि डा. भीमराव अम्बेडकर के जन्मोत्सव से कई कार्यक्रम शुरु किए जायेंगे। इसकी शुरुआत 14 अप्रैल को डा.अम्बेडकर के जन्म दिन पर दस हजार दलितों के साथ पार्टी के कई बड़े नेता सहभोज में शामिल होंगे।इसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, नितिन गडकरी, वरुण गांधी, रविशंकर प्रसाद, रामलाल, थावरचंद गहलौत और संजय पासवान आदि नेता शामिल होंगे। अंबेडकर के संविधान को खारिज करके खुलेआम मनुस्मृति की व्यवस्था लागू करने की मुहिम में जुटे संघ परिवार जाति उन्मूलन,​​सामाजिक न्याय और समता के विरुद्ध है। लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए कोई भी अंबेडकर का नाम लेकर हमें बेहद आसानी से ठग सकता है, क्योंकि अंबेडकर अनुयायियों को उनकी विचारधारा और आंदोलन के बारे में सही जानकारी नहीं है।


मजे की बात है कि संघ परिवार की तरह वामपंथी भी अब मार्क्स और लेनिन की तस्वीरों के साथ अंबेडकर की तस्वीर भी लगा रहे हैं।लेकिन हिंदुत्व अभियान की तरह वे भी सव्रण हितों से ऊपर उठने में नाकाम हैं।वे सिर्फ अंबेडकर का इस्तेमाल बतौर सोशल इंजीनियरिंग बहुजन समाज का वोट बैंक बनाने में कर रहे हैं। जो राम मनोहर लोहिया ​​भारतीय यथार्थ के संदर्भ में जातिव्यवस्था के वास्तव को संबोधित करने की कोशिश कर रहे थे, उनके  अनुयायी और अंबेडकर अनुयायी अपने अपने वोटबैंक के गणित के मुताबिक जाति अस्मिता के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी की राजनीति करके न सिर्फ सत्ता में शासक वर्ग का ​​आदिपात्य बनाये रखने में मुख्यभूमिका निभा रहे है, बल्कि उनकी जाति अस्मिता की वजह से बहुजन समाज के घटक अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, पिछड़े और अल्पसंख्यक अलग अलग पहचान के जरिये भारत में बहुजन समाज का निर्माण को विलंबित कर रहे हैं।


यह कटु सत्य है कि गोल मेज सम्मेलन के मौके पर पंजाब के बाल्मीकि समुदाय ने खून से लिखकर एक चिट्ठी ब्रिटिश सरकार को ​​भेजकर अंबेडकर को बारत में दलितों का प्रतिनिधि बताकर गांधी के इस तर्क का खंडन किया था कि अंबेडकर नहीं, गाधी ही भारत में दलितों के प्रतिनिधि हैं,लेकिन बाद में बाल्मीकि गांधी के समर्थक हो गया। विभाजन से पूर्व मुख्यतः महाराष्ट्र के महार और बंगाल के नमोशूद्र दो ​​जातिया ही अंबेडकर के साथ खड़ी थीं। जब कांग्रेस ने अंबेडकर के लिए संविधान सभा में पहुंचने के दरवाजे और खिड़कियां तक बंद कर दी ​​थी, तब जोगेंद्रनाथ मंडल c मुकुन्द बिहारी मल्लिक जैसे मतुआ अगुवाइयों की पहल पर उन्हें जैशोर, खुलना,फरीदपुर, बरिशाल के ​​चुनाव क्षेत्र से पार्टी लाइन तोड़कर नमोशूद्र विधायकों ने ही संविधान सभा में भेजा। इनमे जोगेंद्र नाथ मंडल तो मुस्लिम लीग समर्थित भारत के  के कानून मंत्री थे, लेकिन मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे बाकी  लोग मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर समर्थक थे। इसी वजह से हिंदू बहुल अंबेडकर का पूरा चुनावक्षेत्र पाकिस्तान में बिना किसी जमीनी सर्वे या सुनवाई के पाकिस्तान में डाल दिया गया अंबेडकर वहां की दलित विभाजन पीड़ित अंबेडकर अनुयायी जातियों को शरणार्थी बनाकर भारतभर में बिखेर दिया गया। फिर उनकी नागरिकता छीनने के लिए नागरिकता संशोधन कानून ​​और आधार कार्ड योजना बहुजन सांसदों के समर्तन के साथ सर्वदलीय सहमति से लागू हो गया। इन शरणार्थियों को न मातृभाषा का अधिकार मिला और न आरक्षण का लाभ, लेकिन दलित होने के नाते वे नस्ली भेदभाव के शिकार हैं और बहुजन समाज बी उनके समर्थन में खड़ा नहीं ​​हुआ।


इसके विपरीत जो जातियां अंबेडकर विरोध में सबसे आगे थीं, वे आरक्षण और सत्ता में भागेदारीके जरिये कमजोर अनुसूचितों के ​​हक मार रही हैं।पिछड़े अंबेडकर का सात देते तो हिंदू कोड और पिछड़ों को आरक्षण की मांग लेकर अंबेडकर को भारत सरकार से त्यागपत्र नहीं देना होता और इन पर तत्काल अमल हो जाता।भूमि सुधार और संपत्ति के बंटवारे के बारे में अंबेडकर के प्रस्ताव भी लागू हो जाते। अब हालत यह है कि अंबेडकर की पहल मुताबिक आगे चलकर मंडलकमीशन रपट लागू होने से सत्तावर्ग के णुख्य सिपाह सालार, अनेक राज्यों के ​​मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के लोग हैं।


हिदुत्ववादी कारपोरेट अश्वमेध के रथी महारथी, संघी प्रधानमंत्रित्व के दावेदार नरेंद्र मोदी से लेकर रामजन्मभूमि आंदोलन के सिपाहसालार कल्याणसिंह, उमा भारती , विनय कटियार जैसे लोग पिछड़े वर्ग से हैं। यहीं नहीं, मध्य बिहार और बाकी देश में दलितों के उत्पीड़न में सवर्ण जातियों के बजाय पिछड़ी जातियों की ही प्रमुख भूमिका रही है। लेकिन आरक्षण और सत्ता में भागेदारी के सवाल पर ​​पिछड़ी जातियां अंबेडकर अनुयायी बन गयी हैं, ठीक उसीतरह जैसे वे हिंदुत्व के सबसे प्रबल अनुयायी हैं।


अब मजबूत पिछड़ी जातियों का अंबेडकर आंदोलन का एकमात्र एजंडा अपनी अपनी जाति के लिए आरक्षण हासिल करना है। यह ठीक वैसा ही है जैसे सत्ता से बेदखल ब्राह्ममण उत्तर ​​प्रदेश में बहुजन समाज की राजनीति करते हैं।


अंबेडकरवादी आरक्षण प्रत्याशी ओबीसी की गिनती के सहारे अंबेडकरवादी मिशन को अंजाम देने में लगे हुए हैं और पिछड़ों के नेता संघी मोर्चा का नेतृत्व करते हुए, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिए यज्ञ महायज्ञ करते हुए उनके साथ बने हुए​​ हैं और इसी के जरिये वे कारपोरेट राजनीति में अपनी अपनी पैठ बना रहे हैं।


इसी को भौगोलिक और सामाजिक नेटवर्किंग कहा जा रहा है।​​


जबरन चंदा वसूली से आगे अंबेडकर मिशन अंबेडकर के निदन के बाद एक कदम नहीं बढ़ा, तो सिर्फ इसलिए कि जाति अस्मिता से अलग अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को निनानब्वे फीसद जनता के हक हकूक की लड़ाई में प्रासंगिक बनाने की कोई पहल नहीं हुई।अंबेडकर आंदोलन​​ सत्ता में भागेदारी का पर्याय बनकर रह गया। यहीं नहीं, अंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को प्रमुख दुश्मन बताते थे। तो हमने ब्राह्मणों को ​​प्रमुख दुश्मन बताकर आंदोलन को ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों के समर्थन में खड़ा कर दिया।


इसीतरह अलग दलित आंदोलन और अलग पिछड़ा आंदोलन जारी रखकर सत्ता के खेल में िइस्तेमाल होते हुए अंबेडकर अनुयायियों ने​​ इस तथ्य को सिरे सेनजर अंदाज कर दिया कि जाति व्यवस्था तो नस्ली भेदभाव के तहत, वंशवादी शुद्धता के तहत सिर्फ शूद्रों और ​​अस्पृश्यों में हैं। बाकी शासक वर्ग तो वर्णों में शामिल हैं, जिनका उत्पादन प्रणाली से कोई संबंध नहीं हैं। वे या तो पुरोहितहै या फिर भूस्वामी या फिर वणिक। किसान जातियां ही देश के अलग अलग हिस्से में अलग अलग नामकरण के साथ अलग अलग पैमाने के तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जातियां हैं। नस्ली भेदभाव के तहत संपूर्ण हिमालय, पूर्वोत्तर और आदिवासी भुगोल के के दमन और उत्पीड़न को अंबेडकरवादी बहुजन आंदोलन ने सिरे से नजरअंदाज किया और यह भूल गये कि अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन कुल मिलाकर भारत के किसानों और  आदिवासियों के महासंग्राम की निरंतरता की ही परिणति है। साम्राज्यवाद  और पूंजीवाद के विरुद्ध और अधूनातन कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्द दुनियाभर में नस्ली भेदभालव के शिकार अश्वेत आदिवासियों की नेतृत्वकारी बलिदानी भूमिका न सिर्फ हम भूल गये बल्कि इस महाशक्ति​​ को हम अपने आंदोलन की मुख्य शक्ति बनाने  के कार्यभार से चूक गये। इसके विपरीत हिंदू साम्राज्यवाद  ने तो आदिवासी इलाकों को अपना आधार क्षेत्र बना लिया है, माओवादी चुनौती को तोड़ते हुए भी। हालत यह है कि आदिवासी ही आदिवासी के खिलाफ सलवा जुड़ुम में शामिल हैं​ ​ हिदुत्ववादी ग्लोबल साम्राज्यवाद के हित साधते हुए। आदिवासी इलाकों में बहुजन आंदोलन के बहाने अब कुछ अंबेडकरवादी संगठन भी आदिवासियों को आदिवासियों से लड़ाने के खेल में शामिल है। अंबेडकर की हत्या शासकवर्ग ने सही मायने में नहीं की, बल्कि बहुजनसमाज की ​​आत्मघाती प्रवृत्तियों के कारण ही अंबेडकरकी हत्या की प्रक्रिया अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से जारी है। चूंकि इस हत्या में हम स्वयं शामिल हैं,​​ तो प्रतिरोद तो दूर, जांच पड़ताल की माग भी नहीं उठा सकते हम!


बहुजन समाज का निर्माण उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के एकीकरण के बिना असंभव है, इस हकीकत को सिरे से नजरअंदाज किया जा रहा है। अपढ़ ​​बहुसंख्य वंचित शोषित जनता की कौन कहें, अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन की वजह से जो अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग हैं, बेहतरीन ​​ओहदों पर हैं और अंबेडकर विचारधारा के घोषित विशेषज्ञ हैं, वे भारतीय जनता और खासतौर पर बहुजनसमाज के मौजूदा संकट से मुखातिब होने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। मेरे दिवंगत पिता कहा करते थे कि किसी भी विचारधारा की सही प्रासंगिकता जनता के अस्तित्व के लिए खतरनाक संकटों के समाधान की कसौटी से है, व्यक्ति से नहीं। दुनियाभर में कोई भी विचारधारा जस की तस जड़ नहीं है। वामपंथी आंदोलन पृथ्वी के​​ विभिन्न हिस्सों में देश काल परिस्थिति के मुताबिक बदलता रहा है।जाहिर है कि अंबेडकर के निधन से पहले कारपोरेट साम्राज्यवाद, एकध्रूवीय विश्व और मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था जैसी परिस्थितियों नहीं​​थी। ऐसा मर्क्स, लेनिन और माओ के जीवनकाल में भी नहीं था। पर दुनियाभर में वामपंथ के समर्थक इन प्रश्नों औरचुनौतियों के समाधान के रास्ते निकालने में लगे हैं। वे संशोधनवादी और क्रांतिकारी दोनों किस्म के लोग हैं। लेकिन इसके नतीजतन साठ और सत्तर दशक के वामपंथी​​ आंदोलन और वैश्विक व्यवस्था के मुताबिक के अलग अलग देशों में वामपंथी आंदोलन के अलग अलग रुप सामने आये हैं। पर हमारे लोग तो अंबेडकर के उद्धरणों के दिवाने हैं, उससे इतर हम कुछ भी विचार करने को असमर्थ हैं।हम तो अंधे भक्तों की जमात हैं।ईश्वरों और अवतारों के अनुयायी। आस्था ही हमारा संबल है। विचारधार और आंदोलन नहीं।इसलीलिये अंबेडकरवादी होते हुए हम कब संघी एजंडा के मुताबिक हिंदुत्ववादी हो जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता।


भारत में किसान आंदोलनों का इतिहास, उत्पादन ​​संबंधों के बदलते स्वरूप और आदिवासी विद्रोह के कारण गौतम बुद्ध के समय से वर्चस्ववादी वैदिकी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निरंतर जो​​ जनविद्रोह हुए, उसमें सूफी  संतों, आदिवासी किसान विद्रोहों के महानायकों, मतुआ आंदोलन के जनक हरिचांद ठाकुर और उनके​​ उत्तराधिकारी गुरुचांद ठाकुर, महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार रामस्वामी और नारायण गुरु सबकी अपनी अपनी भूमिका है। उनलोगों ने अपने अपने ढंग से  अपने अपने देस काल को संबोधित करने की कोशिश की। डा. अंबेडकर ने किसी को खारिज नहीं किया । बल्कि सभी विचारधाराओं के सम्यक अध्ययन के तहत अपना खास रास्ता चुना, जो पूर्वजों के आंदोलन का जस का तस अनुकरण तो कतई नहीं है।


अगर अंबेडकर विचारधारा ​​के मुताबिक कुछ प्रश्न  अनुत्तरित भी रह जाते हैं, तो उनकी ऐतिहासिक भूमिका खारिज नहीं हो सकती। हमें उन अनुत्तरित सवालों का जवाब खोजना चाहिए। दलित पैंथर आंदोलन ने एक अच्छी क्रांतिकारी शुरुआत की थी, लेकिन वह आंदोलन  भी बाकी बहुजन आंदोलन की तरह भटक ​​गया। पर आनंद तेलतुंबड़े जैसे लोग जो न तो संसोधनवादी हैं और न कट्टर अनुयायी, लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये सवालों से उलझ रहे हैं।


कुछ लोग जरुर इस कवायद में लगे हैं। लेकिन बाकी लोगों में तो अवतारवाद और आस्था का इतना ज्यादा असर है कि वे कतई यह मुश्किल कवायद नहीं करनाचाहते , जिसक जरिये अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को भारतीय जनता के समक्ष हिंदू साम्राज्यवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद​​ से निपटने के लिए राष्ट्रव्यापी जनांदोलन और प्रतिरोध का हथियार बनाया जा सकें, जो अंबेडकर की प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिए​ ​ बेहद जरुरी है।


अगर अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को हम बहुसंख्य भारतीय बहिस्कृत जनता  ही नहीं, इस उपमहाद्वीप और उससे बाहर ग्लोबल हिंदुत्व और जायनवादी वैश्विक कारपोरेट व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ा नहीं कर सकते , तो अंबेडकर चर्चा अंततः वैदिकी संस्कार में ही निष्णात हो जाना है जो हो भी रहा है। क्योंकि जाति अस्मिता और सत्ता में भागेदारी का जो अंबेडकर आंदोलन का प्रस्थानबिंदू हमने बना दिया है, उससे जीवन के किसी भी क्षेत्र में शासक वर्ग का वर्चस्व तनिक कम नहीं हुआ बल्कि बहुजनों के हितों के विरुद्ध बहुजन समाज हुंदू साम्राज्यवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद की पैदल सेना में तब्दील है। इस यथार्थ के महिमामंडन से मौजूदा संकट के मुकाबले हम न अंबेडकर विचारधारा और न अंबेडकर आंदोलन को सार्थक और सकारात्मक बनाने में कोई कामयाबी हासिल कर सकते हैं।


राष्ट्रीय वनजन श्रमजीवी मंच का यह दृष्टिकोण बिल्कुल सही है कि बाबा भीमराव अम्बेडकर ने जो सामाजिक क्रांति की विचार रखे थे वेा सभी शोषित और पिछड़े वर्गो के लिए थे न कि केवल एक जाति के लिए, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारे शासक वर्ग और राजनैतिक नेतृत्व ने उनको जाति विशेष के साथ जोड़ने की साजिश की ताकि उनके विचारों को जातिगत दायरे में ही बांध कर रखा जा सके। उन्हें ये डर है कि अगर बाबा साहब के विचार पूरे समाज में फैलेगें तो अंतोगतवा सामाजिक बराबरी के आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन तक पहुंच जाएगी। इसलिए उनके परिनिर्वाण के बाद उनके विचारों को व्यापक समाज में जाने से रोकने के लिए तरह तरह के योजनागत तरीके से कोशिश की गई। और काफी समय तक इसमें वो कामयाब भी हुए। लेकिन 70 के दशक के बाद और खासकर के 80 के दशक के बाद उनकी रचनाओं का व्याप्क प्रचार फिर से शुरू हुआ। और वो व्यापक समाज तक फैला। फिर भी प्रक्रियावादीयों द्वारा आज भी बाबा साहब को जातिगत सोच के दायरे में रखने की कोशिश ज़ारी है। इसलिए हर प्रगतिशील मेहनतकश तबके व वंचित सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं की की यह जिम्मेदारी है कि उनके विचारों को सही रूप से अध्ययन करें व व्यापक रूप से प्रसारित करे।  


इसी तरह अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को प्रासंगिक बनाने की ओर से न दलितों की ओर से और न  ही पिछड़ों की ओर से, बल्कि ​​भारत के आदिवासी समाज, जो किसी भी जनप्रतिरोध के स्वाभाविक नेता है, की  ओर से सबसे सकारात्मक पहल हुई है, संविदान बचाओ आंदोलन के तहत। भाबसाहेब के संविधान के तहत बारतीय आदिवासी समाज न सिर्फ मौलिक अधिकारों, पांचवीं और छढी अनुसूचियों, धारा ३९ बी , धारा ३९ सी के तहत हासिल रक्षाकवच को लागू करने की मांग कर रहे हैं, बल्कि वे बहुजन आंदोलन को जल जंगल जमीन आजीविका, नागरिकता नागरिक  मानवाधिकारों से जोड़ते हुए साधन संसाधनों पर मूलनिवासियों के हक हकूक का दावा पेश करते हुए पूना समझौते के तहत चुने गये तथाकथित जनप्रतिनिधियों के कारपेरेट नीति निर्धारण और उनके बनाये कारपोरेट हित साधने वाले कानून के विरुद्ध महासंग्राम का ऐलान कर रहे हैष अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन के लिए आगे का रास्ता दरअसल इतिहास के खिलाप भूगोल के इस महायुद्द से ही तय होना है। अब सिर्प अंबेडकरवादियों को ही नहीं, लोकतांत्रिक व धपर्मनिरपेक्ष गैर अंबेडकरवादियों  को भी तय करना है कि हम किस तरफ हैं।



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