साम्प्रदायिक हिंसा होती नहीं है बल्कि करवायी जाती है – सत्य का अभिलेखीकरण
दक्षिण एशियाई देशों और विशेषकर भारत के लिये साम्प्रदायिक हिंसा अभिशाप बनी हुयी है। इस दर्दनाक परिघटना पर अनेक विद्वतापूर्ण व विश्लेषणात्मक पुस्तकें उपलब्ध हैं। समीक्षाधीन पुस्तकॉ में लेखक ने एक पत्रकार के नज़रिये से विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों का वर्णन किया है तथा लेखक व अन्य विशेषज्ञों के इस विषय पर लेखों का संकलन है, जिनसे साम्प्रदायिक हिंसा की प्रकृति को समझने में मदद मिलती है। एक तरह से, यह पुस्तक साम्प्रदायिक दंगों का समग्र अध्ययन है, जो हमें साम्प्रदायिक दंगों के बदलते स्वरूप से लेखक के स्वयं के नज़रिये से और असगर अली इंजीनियर, विभूति नारायण राय, राजेन्द्र शर्मा व अन्यों के विश्लेष्णात्मक लेखों के ज़रिये परिचित कराता है। यह इस विषय पर अपने-आप में सम्पूर्ण पुस्तक है, जो कि हमारे समाज के इस त्रासद पहलू को समझने में हमारी मदद करती है।
साम्प्रदायिक हिंसा के बदलते स्वरूप और प्रकृति पर लेखक पैनी नज़र डालता है। स्वतन्त्रता के पहले तक, साम्प्रदायिक दंगे, मूलतः दो समुदायों के बीच हिंसक टकराव हुआ करता था, जिनमें पुलिस की भूमिका तटस्थ हस्तक्षेपकर्ता की होती थी। बाद में, शनैः-शनैः, दंगे एकतरफ़ा होने लगे, जिनमें पुलिस खुलेआम हिन्दुओं का साथ देने लगी। यहाँ यह भीजोड़ा जा सकता है कि हाल में, जैसा कि महाराष्ट्र के धुले में हुआ, साम्प्रदायिक हिंसा
ने असहाय मुसलमानों पर पुलिस के हमले का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। लेखक ने पुस्तक में सिक्ख व ईसाई-विरोधी हिंसा को भी शामिल कर, उसे अधिक व्यापक स्वरूप दिया है। लेखक कहते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार मुख्यतः गरीब होते हैं। परन्तु पिछले दो दशकों में देखा गया है कि मध्यम व उच्च वर्ग भी साम्प्रदायिक दंगों के शिकार बन रहे हैं और उनके जानोमाल को भी भारी क्षति पहुँचायी जा रही है।
लेखक का यह कथन बिलकुल ठीक है कि साम्प्रदायिक हिंसा होती नहीं है बल्कि करवायी जाती है और इसके पीछे अधिकतर राजनैतिक व आर्थिक लक्ष्य होते हैं। इस मुद्दे पर हमारे समाज में घोर विभ्रम की स्थिति है। अधिकाँश लोगों का मानना है कि दंगों के पीछे धार्मिक कारक होते हैं। यह सही नहीं है। असल में, धर्म को केवल एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।लेखक सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के एक मार्मिक प्रसंग की चर्चा करते हैं जब यह अपील जारी की गयी थी कि बकर ईद पर गायों ही नहीं भैंसों का वध भी ना किया जाये। बाद में, हिन्दू व मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठनों के उदय के साथ, अंग्रेजों ने अपनी "फूट डालो और राज करो" की नीति के तहत, इन संगठनों को भरपूर प्रोत्साहन दिया। लेखक का साम्प्रदायिक हिंसा का कालानुक्रमिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास सराहनीय है, जिसमें स्वाधीनता आन्दोलन से लेकर नेहरू युग व आज तक का इतिहास शामिल है और भाजपा द्वारा शुरू किये गये राम मन्दिर आन्दोलन की भूमिका का भी वर्णन है।
पुस्तक का सबसे अच्छा पहलू यह है कि इसमें सरकार द्वारा समय-समय पर नियुक्त दंगा जाँच आयोगों की रपटों का विश्लेषण किया गया है। इस विश्लेषण से साफ़ है कि अधिकाँश जाँच आयोगों की रपटों को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। यह विश्लेषण दंगों को भड़काने में साम्प्रदायिक संगठनों की भूमिका को भी रेखांकित करता है। पुस्तक इस दिलचस्प तथ्य पर भी प्रकाश डालती है कि जहाँ 1992-93 के मुम्बई दंगों के दोषी आज भी खुलेआम घूम रहे हैं, वहीँ, उसके बाद, 1993 में हुये मुम्बई बम धमाकों के दोषियों को कानून सजा सुना चुका है! कारण यह कि जहाँ दंगों में अधिकारियों व हिन्दुओं की भूमिका थी वहीं धमाकों में केवल मुसलमान शामिल थे। पुस्तक में दंगों में पुलिस व मीडिया की भूमिका का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। हरदेनिया स्वयं कई दंगों की जाँच में शामिल रहे हैं और ये जाँचें अत्यंत वस्तुपरक व विस्तृत थीं। उनका एक निष्कर्ष यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय, पुलिस तन्त्र में आस्था खो बैठा है।
लेखक ने देश में हुये दो प्रमुख दंगों — मुंबई (1992-93) और गुजरात (2002) – का विस्तृत विश्लेषण किया है। श्रीकृष्ण आयोग की रपट, जो कि एक अर्थ में देश में दंगों की जाँच में मील का पत्थर बन गयी है, को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि यह रपट सार्वजनिक है फिर भी इसमें उद्घाटित कई महत्वपूर्ण तथ्यों से आमजन अब भी अनभिज्ञ हैं। पुस्तक की विशेषता यह है किइसमें दंगा जाँच आयोगों की रपटों को सहज-सरल भाषा में पाठकों के लिये प्रस्तुत किया गया है। रपटों से स्पष्ट है कि देश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। साथ ही, यह भी साफ़ है कि हिंसा से निपटने में प्रशासनिक तन्त्र असफल साबित हुआ है। यह आखिरी मुद्दा इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा पर नियन्त्रण के लिये एक नया कानून बनाने का वायदा किया था परन्तु इस कानून का अब तक कोई अता-पता नहीं है। मूल मुद्दा यह है कि सरकारी तन्त्र में जवाबदेही का अभाव है और जो अधिकारी अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं करते, उन्हें कोई सज़ा नहीं मिलती। देश को एक ऐसे कानून की ज़रूरत है जिससे दंगा करने वालों को तो सजा मिले ही, उन्हें भी मिले जो दंगा भड़काते हैं, हिंसा करवाते हैं और उन्हें भी, जो हिंसा पर नियंत्रण करने के अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करते।
पुस्तक में साम्प्रदायिक हिंसा पर डाक्टर वी. एन. राय द्वारा किये गये उत्कृष्ट शोध के निष्कर्षों का समावेश भी किया गया है। अपने डॉक्टोरल शोध प्रबन्ध में डॉक्टर राय लिखते हैं कि पुलिस कर्मियों में मुसलमानों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह हैं। यद्यपि डाक्टर राय का शोध पुराना है तथापि वह अब भी प्रासंगिक है। बल्कि, पूर्वाग्रहग्रस्त पुलिसकर्मियों के मामले में तो हालात और खराब हुये हैं। सन् 2005 व 2006 में हुये साम्प्रदायिक दंगों के डॉक्टर असगर अली इंजीनियर द्वारा किये गये अध्ययनों को भी पुस्तक में शामिल किया गया है। डॉक्टर इंजीनियर कई दशकों से साम्प्रदायिक हिंसा पर वर्षवार रपटें प्रकशित करते आ रहे हैं। बेहतर होता कि लेखक / संकलनकर्ता उनकी ताज़ा रपटों को पुस्तक में प्रकशित करते, उदाहरणार्थ पिछले दो वर्षों में हुये दंगों की।
इस गौण कमी के अतिरिक्त, पुस्तक में सन 2012 में हुयी साम्प्रदायिक हिंसा की अद्यतन जानकारी भी होनी चाहिये थी। पिछले कुछ वर्षों के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की बदलती प्रवृति का संक्षिप्त वर्णन, पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि करता।
कुल मिलाकर, पुस्तक साम्प्रदायिक हिंसा के चरित्र, पुलिस के नज़रिये, मीडिया की भूमिका, कानूनों में कमियों व एक बेहतर समाज के निर्माण के लिये साम्प्रदायिक हिंसा पर नियन्त्रण की आवश्यकता आदि पर मूल्यवान सामग्री उपलब्ध कराती है। श्री हरदेनिया इसके लिये बधाई के पात्र हैं। यह पुस्तक कई लोगों की आँखें खोलेगी और हममें से अधिकाँश के साम्प्रदायिक हिंसा के बारे में मिथकों और भ्रमों का निवारण करेगी।
शीर्षक: साम्प्रदायिक दंगों का सच
लेखक व संकलनकर्ता: एल. एस. हरदेनिया
प्रकाशक: भारत ज्ञान विज्ञान समिति, नई दिल्ली
पृष्ठ: 200
कीमत: रुपये 200
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