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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, June 13, 2013

डॉ.आंबेडकर:भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ नायक एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-18

डॉ.आंबेडकर:भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ नायक

                        एच एल दुसाध

अंग्रेजों की प्लासी विजय के बाद भारत में लार्ड मैकाले का आगमन शुद्रातिशूद्रों  के लिए शुभ  साबित हुआ.मैकाले ने ही भारत में हिन्दू साम्राज्यवाद से लड़ने का मार्ग प्रशस्त किया.अगर उन्होंने कानून की नज़रों सबको एक बराबर करने का उद्योग नहीं लिया होता  तो शुद्रातिशूद्रों को विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता प्रदर्शन का कोई अवसर नहीं मिलता.जिन हिन्दू भगवानों और शास्त्रों  का हवाला देकर वर्ण-व्यवस्था को विकसित किया गया था,मैकाले की आईपीसी ने एक झटके में उन्हें झूठा साबित कर दिया था.सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वर्ण-व्यवस्था के द्वारा हिन्दू-साम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के हाथ शक्ति के समस्त स्रोतों को हमेशा के लिए आरक्षित करने का जो अर्थशास्त्र विकसित किया गया था ,उसे आईपीसी ने एक झटके में खारिज कर दिया.किन्तु सदियों से बंद पड़े जिन स्रोतों को मैकाले ने वर्ण-व्यवस्था के वंचितों के लिए खोल दिया ,वे किन्तु हिन्दू साम्राज्यवाद में शिक्षा व धन-बल से इतना कमजोर बना दिया गए थे कि वे आईपीसी प्रदत अवसरों का लाभ उठाने की स्थित में ही नहीं रहे.इसके लिए उन्हें जरुरत थी विशेष अवसर की.

मैकाले की आईपीसी ने वर्णवादी अर्थशास्त्र को ध्वस्त कर कागज पर जो समान अवसर सुलभ कराया उसका लाभ भले ही मूलनिवासी समाज नहीं उठा पाया, किन्तु आईपीसी के समतावादी कानून के जरिये कुछ बहुजन नायकों ने ,कठिनाई से ही सही ,शिक्षा अवसर का लाभ उठाकर हिन्दू आरक्षण की काट  के लिए खुद  को विचारों से लैस किया.ऐसे संग्रामी बहुजन नायकों के शिरोमणि बने ज्योतिबा फुले .१९वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिन दिनों श्रेणी समाज के  सर्वहाराओं की मुक्ति  के सूत्रों का तानाबाना  तैयार करने में कार्ल मार्क्स निमग्न रहे ,उन्ही दिनों यूरोप से हजारों मील दूर भारत के पूना शहर में शूद्र फुले जाति समाज के सर्वस्वहाराओं के मुक्ति में सर्वशक्ति लगा रहे थे. जब सामाजिक क्रांति के पितामह ने सामाजिक परिवर्तन की बाधाओं के प्रतिकार में खुद को निमग्न किया तो उन्हें बाधा के रूप में नज़र आई हिन्दू आरक्षण उर्फ़ वर्ण-व्यवस्था.उन्होंने हिन्दू आरक्षण को सामाजिक परिवर्तन की बाधा और मूलनिवासियों की दुर्दशा का मूलकारण समझ उसके प्रतिकार के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था को जन्म देने का मन बनाया.उन्होंने मार्क्स को बिना पढ़े वर्ग-संघर्ष के सूत्रीकरण के लिए जाति/उपजाति  के कई हज़ार समाजों में बंटे  भारतीय समाज को 'आर्य' और 'आर्येतर'दो भागों में बांटने का बौद्धिक उपक्रम तो चलाया ही ,इससे भी आगे बढ़कर कांटे से कांटा निकालने की जो परिकल्पना की ,वह आरक्षण रूपी 'औंजार' के रूप में १८७३ में 'गुलामगिरी' के पन्नों से निकलकर जनता के बीच आई.

मूलनिवासी शुद्रातिशूद्रों की दशा में बदलाव के लिए फुले ने आरक्षण नामक जिस औंजार का इजाद किया ,उसे 26 जुलाई 1902 को एक्शन में लाया शुद्र राजा शाहूजी महाराज ने.लेकिन पेरियार ने तो हिन्दू आरक्षण के ध्वंस और बहुजनवादी आरक्षण  के लिए संघर्ष चलाकर दक्षिण भारत का इतिहास ही बदल दिया.'दक्षिण एशिया के सुकरात' और 'वाइकोम के वीर'जैसे खिताबों से नवाजे गए 'थान्थई' पेरियार  ने हिन्दू  आरक्षण  में संपदा,संसाधनों और मानवीय आधिकारों से वंचित किये गए लोगों के लिए जो संघर्ष चलाया ,उससे आर्यवादी सत्ता का विनाश और पिछड़े वर्गों को मानवीय अधिकार प्राप्त हुआ.मद्रास प्रान्त में उनकी जस्टिस पार्टी के तत्वावधान में 27 दिसंबर 1929 को पिछड़े  वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत भागीदारी का सबसे पहले अध्यादेश  जारी हुआ.यह अध्यादेश तमिलनाडु के इतिहास में 'कम्युनल जी.ओ.' के रूप में दर्ज हुआ.उसमें  सभी जाति /धर्मों के लोगों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान था.भारत में कानूनन आरक्षण की वह पहली व्यवस्था थी.

अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है तो मानना ही पड़ेगा कि डॉ.आंबेडकर भारतीय इतिहास के महानतम नायक रहे.उनका सम्पूर्ण जीवन ही इतिहास निर्माण के संघर्ष की महागाथा है.उन्होंने हिन्दू आरक्षण के खिलाफ स्वयं  असाधारण रूप से सफल संग्राम चलाया ही,इसके  लिए वैचारिक रूप से वर्ण-व्यवस्था के वंचितों को लैस करने के लिए जो लेखन किया वह सम्पूर्ण भारतीय मनीषा के चिंतन पर भारी पड़ता है.वैदिकों ने मूलनिवासियों पर हिन्दू आरक्षण शस्त्र नहीं,शास्त्रों के जोर पर थोपा था.शास्त्रों के चक्रांत से ही मूलनिवासी दैविक दास(divine slave ) में परिणत हो .दैविक  (divine-slavery)के कारण कर्म-शुद्द्धता का स्वेच्छा से अनुपालन करनेवाले शुद्रातिशूद्र जहाँ संपदा,संसाधनों पर हिन्दू साम्राज्यवादियों के एकाधिकार को दैविक अधिकार समझकर प्रतिरोध करने से विराट रहे ,वहीँ  अपनी वंचना को ईश्वर का दंड मानकर चुपचाप पशुवत जीवन झेलते रहे.डॉ.आंबेडकर ने कुशल मनोचिकित्सक की भाँती मूलनिवासियों की मानसिक व्याधि (दैविक दासत्व)के दूरीकरण के लिए विपुल साहित्य रचा.चूँकि हिन्दू धर्म में रहते हुए शुद्रातिशूद्र अपनी वंचना के विरुद्ध संघर्ष का नैतिक अधिकार खो चुके थे थे,इसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर उस धर्म के अंगीकरण का उज्जवल दृष्टान्त स्थापित किया जिसमे मानवीय मर्यादा के साथ रूचि अनुकूल पेशे चुनने का अधिकार रहा सबके लिए सामान रूप से सुलभ रहा है.विद्वान् के साथ राजनेता आंबेडकर का संघर्ष भी उन्हें भारतीय इतिहास के श्रेष्ठतम नायक का कद प्रदान करता है.  

बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि भारत में 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार'के प्रणेता बाल गंगाधर तिलक और उनके बंधु -बांधवों का कथित  स्वतंत्रता संग्राम वास्तव में 'हिन्दुराज'  के लिए संघर्ष था.अगर स्वतंत्रता  संग्राम का लक्ष्य  वास्तव में हिन्दुराज था तो मानना आज के साम्राज्यवाद विरोधियों के स्वतंत्रता सेनानी पुरुखे पुनः उस आरक्षण के लिए ही संघर्ष कर रहे थे जो आईपीसी लागु होने के पूर्व उन्हें हिन्दू आरक्षण उर्फ़ वर्ण-व्यवस्था में सुलभ था.लेकिन एक तरफ सवर्ण जहाँ हिन्दुराज के लिए संघर्ष कर  रहे थे ,वहीँ उनके प्रबल विरोध के मध्य डॉ.आंबेडकर का  साइमन कमीशन के समक्ष साक्षी से लेकर गोलमेज़ बैठकों,पूना पैक्ट और अंग्रेजों के अंतरवर्तीकालीन सरकार में लेबर मेंबर बनने तक उनका सफ़र आरक्षण पर संघर्ष के एकाल्प्र्यास की सर्वोच्च मिसाल है.सचमुच भारत का स्वतंत्रता संग्राम आरक्षण के मुद्दे पर आम्बेडकर बनाम शेष भारत के संघर्ष का ही इतिहास है.

मित्रों! उपरोक्त तथ्यों के आईने में हम निम् शंकाएं आपके समक्ष रख रहे हैं है-

1-अगर अंगेजों ने आईपीसी के द्वारा कानून की नज़रों में सबको एक बराबर तथा शुद्रातिशूद्रों को भी शिक्षा के अधिकार से लैस नहीं किया होता,क्या फुले,शाहूजी,पेरियार,बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर इत्यादि जैसे बहुजन नायकों का उदय हो पाता?

2-अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर केन्द्रित संघर्ष का इतिहास है तो क्या यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि डॉ.आंबेडकर भारितीय इतिहास के सबसे बड़े नायक रहे ?

3-ब्रिटिश राज के दौरान गाँधीवादी ,राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी खेमे के नेता जहाँ  'ब्रितानी साम्राज्यवाद' के खिलाफ संघर्षरत थे,वहीँ डॉ आंबेडकर ने बहुजनों को 'हिदू साम्राज्यवाद' से मुक्ति दिलाने में सर्वशक्ति लगाया.तब साम्रज्यवाद विरोधी लड़ाई में शिरकत न करने के लिए मार्क्सवादियों ने उन्हें ब्रिटिश डॉग,अंग्रेजों का दलाल इत्यादि कहकर धिक्कृत किया था.अगर आंबेडकर उस समय मार्क्सवादियों के बहकावे में आकर 'साम्रज्यवाद विरोधी लड़ाई'में ही अपनी सारी ताकत झोक दिए होते तब आज के बहुजन ,विशेषकर दलित  समाज का चित्र कैसा होता?

4-आज जबकि शक्ति के सभी स्रोतों पर 21 वीं सदी के साम्राज्यवाद विरोधियों के सजातियों  का 80-85 % कब्ज़ा है,बहुजनों को अपनी उर्जा अदृश्य साम्राज्यवाद विरोध में लगानी चाहिए या शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्यवादियों से अपनी हिस्सेदारी हासिल करने में ?  

5-1942-45  तक कम्युनिस्ट जर्मनी और जापान के सहयोग से ब्रितानी साम्राज्य के खिलाफ सक्रिय सुभाष बोस और उनके अनुयायियों के कट्टर विरोधी रहे.उन्होंने अंग्रेजों  के कट्टर विरोधी नेताजी सुभाष को जयचंद भी कहने में संकोच नहीं किया.ऐसा करके एक तरह से उन्होंने खुद को साम्राज्यवाद समर्थको की पंक्ति में खड़ा कर लिया था.बहरहाल वर्षो बाद उन्हें अपनी उस ऐतिहासिक भूल का एहसास हुआ और नेताजी को देशद्रोही कहने के लिए माफ़ी भी माँगा.किन्तु भारत रत्न डॉ.आंबेडकर को ब्रिटिश डॉग कहने के लिए माफ़ी नहीं माँगा.आखिर क्यों?

तो मित्रो अभी इतना ही.मिलते हैं फिर कुछ और नई शंकाओं के साथ   

दिनांक :12 जून, 2013


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