गोलियों से छलनी होता शांतिपूर्ण संघर्ष
एलेन एल लुत्ज इंडिजनस राइट्स अवार्ड से सम्मानित हुयीं दयामनी बारला
आजादी के बाद से आज तक झारखंड में दो करोड़ से ज्यादा आदिवासी-मूलवासी किसान विस्थापित हो चुके हैं. आज ये विस्थापित कहां, किस हालत में हैं ये जानने की फुर्सत किसी के पास नहीं है. उनके सामाजिक मूल्य और सामूहिकता पूरी तरह तार-तार हो गयी है. न तो उनकी भाषा है, न ही संस्कृति...
नीरा सिन्हा
झारखंड में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाली दयामनी बारला को पिछले दिनों न्यूयार्क, अमेरिका में 2013 के एलेन एल लुत्ज इंडिजनस राइट्स अवार्ड से सम्मानित किया गया. अंतरराष्ट्रीय एनजीओ 'कल्चरल सरवाइवल' ने दयामनी बारला को आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए आवाज उठाने और संघर्ष के लिए यह पुरस्कार दिया है.
न्यूयार्क में पुरस्कार ग्रहण करने के दौरान दयामनी बारला ने अपने भाषण में कहा, 'आज देश ही नहीं दुनिया के हर कोने में जल, जंगल, जमीन, नदी, झरने, पहाड़ को बचाने के लिए लोग संघर्ष कर रहे हैं. ये जनता की सामुदायिक धरोहर है. दुर्भाग्य से वैश्विक पूजींवादी अर्थव्यवस्था को संचालित करने वाली ताकतें इन पर कब्जा जमाने की हरसंभव कोशिश में जुटी हैं.
आज अक्सर पूछा जाता है कि तकनीक संचालित दुनिया में आदिवासी समाज, उसके मूल्य, संस्कृति और उसकी विशेषताओं का कोई भविष्य बचा हुआ है या नहीं? यह भी कहा जाता है कि दुनिया की जो मुख्यधारा है और उसके जो उपक्रम है, उसमें आदिवासियों को शामिल हो जाना चाहिए और संस्कृति को इतिहास का विषय बना देना चाहिए, लेकिन बारला पूरी दृढ़ता से अपने अनुभवों और अपनी सीख के आधार पर कहती हैं कि आदिवासी जनसमुदाय के साथ-साथ सभी वंचित जनसमुदायों की एकजुटता से जारी संघर्ष का भविष्य है.
निकट भविष्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट और आर्थिक असमानता के मौजूदा ढांचे को वास्तविक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की कसौटी पर यह संघर्ष कसेगा, जिसमें हर समुदाय की अपनी विविधता, बहुलता और सांस्कृतिक अस्तित्व की गारंटी होगी. उनके मुताबिक आदिवासी जनसमुदायों का भविष्य इसलिए भी है क्योंकि उनकी मौलिक दार्शनिक, सामाजिक और सांस्कृतिक, प्राकृतिक चेतना वैज्ञानिक और निरंतर नये की तलाश के साथ जुटी रही है. यही कारण है कि हजारों सालों के सांस्कृतिक अतिक्रमण और आक्रमण के बावजूद आदिवासी जनसमुदाय अपने संघर्षों से इसकी हिफाजत करते रहे हैं. उसका विकास करते रहे हैं. उन्होंने अपनी मातृभाषा मुंडारी में कहा 'सेनगी सुसुन-काजीगी दुरंग' यानी बोलना ही गीत-संगीत और चलना ही नृत्य है.
गौरतलब है कि दयामनी बारला लंबे समय से झारखंड की समस्याओं को लेकर आंदोलनरत रही हैं. वो कहती हैं, झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है. इतिहास गवाह है कि यह इलाका बीहड़ जंगलों से पटा हुआ था. आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छू से सघर्ष कर इस राज्य को आबाद किया. यही कारण है कि झारखंड के आदिवासी समुदाय को अपने आबाद किए गए जमीन, जंगल पर सीएनटी एक्ट, 1908 और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम के तहत जमीन, जंगल रक्षा संबंधित विशेष अधिकार मिला हुआ है, लेकिन सरकार, कारपोरेट घराने, भू-माफिया, सरकार की किसान विरोधी नीतियां और पुलिस प्रशासन द्वारा मिलकर कानून का उल्लंघन कर पूरे राज्य के आदिवासी-मूलवासी किसानों को बेघरबार किया जा रहा है.
आजादी के बाद से आज तक झारखंड में दो करोड़ से ज्यादा आदिवासी-मूलवासी किसान विस्थापित हो चुके हैं. आज ये विस्थापित कहां हैं, किस हालत में हैं ये जानने की फुर्सत किसी के पास नहीं है. विस्थापित आदिवासी समुदाय आज अपनी पहचान खो चुके हैं. सामाजिक मूल्य और उनकी सामूहिकता पूरी तरह तार-तार हो गयी है. न तो उनकी भाषा है और न ही संस्कृति.
झारखंड के पृथक राज्य बनने के 12 सालों के भीतर राज्य सरकार 104 औद्योगिक घरानों के साथ एमओयू कर चुकी है. इसमें से 98 प्रतिशत माइनिंग कंपनियां हैं. यदि सभी कंपनियों को सरकार माइंस के लिए जमीन देती है, तो झारखंड पूरी तरह से पर्यावरणविहीन और बंजर भूमि में तब्दील हो जाएगा. आजादी के बाद आज तक जितनी आबादी विस्थापित नहीं हुई है उससे चौगुनी आबादी सिर्फ दस वर्षों के भीतर यहां से उजड़ जायेगी.
वारला कहती हैं, मानवाधिकारों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं. पूरे झारखंड में जल-जंगल-जमीन-पर्यावरण संरक्षण के लिए जनांदोलन चल रहे हैं. देश की कल्याणकारी सरकार आदिवासी-मूलवासी को असामाजिक तत्व, उग्रवादी और माओवादी घोषित कर उन पर दर्जनों झूठे केस डाल उन्हें जेलों में ठूंस रही है. हमारे पूरखों ने वर्चस्व की संस्कृति को हमेशा से चुनौती दी है, क्योंकि आदिवासियों का विश्वास 'सांस्कृतिक विविधता एवं सामूहिकता' में है.
हम सभी संस्कृतियों के सम्मान के साथ नया समाज चाहते हैं. हमारे देश में इस समय एक सांस्कृतिक वर्चस्व का राजनीतिक अभियान जोरों से जारी है, जिसने एकात्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक एवं सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को खतरे में डाल दिया है. यह अजीब विडंबना है कि इस दौर में भी पुराने सामंती मूल्य नवउदारवाद के प्रचार-प्रसार के आधार बनाये जा रहे हैं. पिछले 20 सालों में कारपोरेट लूट और उसकी हिफाजत के लिए जितनी कार्रवाईयां की गयी हैं उनसे आंदोलन कमजोर नहीं हुए, बल्कि और मजबूती से सभी वंचित जनसमुदायों को एक साथ एक मंच पर ला रहे हैं.
लगभग 100 वर्षों के संघर्ष के बाद झारखंड एक प्रांत के रूप में अस्तित्व में आया, तो जंगल झूम उठे थे, लेकिन हमारी खुशी क्षणिक साबित हुयी. राज्य गठन के मात्र कुछ महीनों बाद ही 30 सालों से जो आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से कोयले और कारो नदियों के प्रवाह को बचाए रखने के लिए संघर्षरत था, उसे प्रशासनिक अधिकारियों ने गोलियों से छलनी कर दिया था.
घरेलू जिम्मेदारी संभाल रहीं नीरा सिन्हा सामाजिक मसलों पर लिखती हैं.
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