| Wednesday, 04 April 2012 11:35 |
पुष्परंजन चीन, लाओस, थाईलैंड, बांग्लादेश और भारत जैसे पड़ोसियों घिरे इस देश में चार जून 1948 को ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्ति के बाद 1951-52, 1956, 1960 में चुनाव हुए। 1962 में जनरल ने-विन ने तख्ता पलट कर छब्बीस साल तक सत्ता की बागडोर अपने हाथ में रखी। 1988 में एक दूसरे जनरल सॉ माउंग ने राज्य कानून-व्यवस्था पुनर्स्थापना परिषद 'स्लोर्क' बना कर जनरल ने-विन की सत्ता पलट दी। सन 1989 में 'सोशलिस्ट रिपब्लिक यूनियन आॅफ म्यांमा' से इसका नाम बदल कर 'यूनियन आॅफ म्यांमा' रख दिया गया, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कुछ देशों ने इस नए नाम को मान्यता नहीं दी। ये देश अब भी इसे म्यांमा ही बोलते हैं। नवंबर 2005 में नैप्यीदो (बर्मी भाषा में इसे राजाओं का नगर कहते हैं) को राजधानी घोषित कर दिया गया। मई 1990 में एक बार फिर म्यांमा में चुनाव हुआ। तीस साल बाद चुनाव में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) ने निचले सदन 'पिथ्यू ह्लूताओ' की 489 सीटों (अब 440) में से 392 पर जीत हासिल की। 'स्लोर्क' ने इसे चुनाव नहीं माना और एनएलडी को सत्ता नहीं सौंपी। दूसरी ओर, जनरल सॉ माउंग थक चुके थे। 23 अप्रैल 1992 को माउंग ने जनरल थान श्वे को अपनी गद्दी सौंप दी। थान श्वे ने 'स्लोर्क' का नाम बदल कर 'एसपीडीसी' यानी राज्य शांति एवं विकास परिषद रख दिया। 23 जून 1997 को म्यांमा को आसियान की सदस्यता दी गई। उसी साल पेट्रोल की बढ़ी कीमत के विरोध में हुए प्रदर्शनों को बड़ी बर्बरता से कुचला, जिसमें तेरह लोग मारे गए। लगभग छह करोड़ की आबादी वाले म्यांमा में चालीस प्रतिशत लोग एक सौ तीस जनजातीय समूहों से संबंध रखते हैं। 4 लाख 88 हजार की ताकत वाली सेना के तीनों कमान के विरोध में कोई पैंतालीस हजार अलगाववादी बंदूक ताने खड़े थे, जिन्हें सैनिक सरकार ने धीरे-धीरे नरम करना शुरू किया है। थाईलैंड सीमा पर जमे कारेन, मुसलिम रोहिंग्या विद्रोही पूरी तरह झुके नहीं हैं। कारेन नेशनल यूनियन (केएनयू) से भी ताकतवर 'वा देश' की मांग करने वाली 'यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी' है, जिनकी संख्या बीस हजार बताई जाती है। 1989 में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ म्यांमा के पतन के बाद 'यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी' का गठन हुआ था। ये चीन की सीमा पर सक्रिय हैं। हेरोइन और हथियार की तस्करी के लिए कुख्यात 'वा' अतिवादियों के अलावा काचिन इंडिपेंडेंट आर्गनाइजेशन, म्यांमा नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी और शान स्टेट आर्मी, सैनिक शासकों और लोकतंत्र की चाह रखने वालों के लिए स्थायी सिरदर्द हैं। ऐसा नहीं कि पड़ोस की आतंकी गतिविधियों का असर भारत पर नहीं पड़ता। पूर्वोत्तर के आतंकियों के लिए बांग्लादेश, भूटान और म्यांमा पनाहगाह का काम करते रहे हैं। संभव है म्यांमा में लोकतंत्र की पूरी बहाली के बाद, आतंक की तस्वीर बदले। खैर, 2010 के चुनाव में तैंतीस दलों को मान्यता दी गई थी। इनमें काचिन, कारेन, मों, शान, पाओ और पालुंग समुदायों के वे विद्रोही नेता भी शामिल थे, जिन्होंने सैनिक शासन के आगे घुटने टेक दिए थे। इनमें सबसे बड़ी काचिन स्टेट प्रोग्रेसिव पार्टी (केएसपीपी) को आगे बढ़ाने का काम भी सैनिक शासकों ने किया। लेकिन बाद में पश्चिमी देशों का दबाव बना कि सू की की पार्टी को संसद में जैसे भी आने देना है। उसके लिए 2012 का उपचुनाव ही विकल्प था। उम्मीद कर सकते हैं कि इस उपचुनाव में जीत हासिल कर चुकीं सू की चालीस सांसदों के साथ एक आवाज बन कर उभरेंगी। दिल्ली विश्वविद्यालय से आॅक्सफोर्ड तक पढ़ाई कर चुकी सू की अपने दिवंगत विदेशी पति के कारण शासनाध्यक्ष बनने से वंचित ही रहेंगी। क्योंकि म्यांमा के सैनिक शासकों ने कानून बना रखा है कि विदेशी से विवाह करने वालों को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी न दी जाए। शायद सू की के लिए राष्ट्र्रपति बनने का रास्ता प्रशस्त हो। सू की के दोनों बच्चे विदेश में हैं। राजनीति से अब तक उनका लेना-देना नहीं रहा है। फिर भी तमाम भ्रम और अटकलों को पालने से अच्छा तो यही है कि हम 2015 के आम चुनाव का इंतजार करें। इन तीन वर्षों में म्यांमा के मामले में भारतीय कूटनीति की करवट भी देखने लायक होगी! |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, April 4, 2012
म्यांमा की उम्मीद और अंदेशे
म्यांमा की उम्मीद और अंदेशे
No comments:
Post a Comment