Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, May 14, 2012

किसी गरीब बच्चे को किस तरह से न पढ़ाया जाय

http://hastakshep.com/?p=19069

किसी गरीब बच्चे को किस तरह से न पढ़ाया जाय

किसी गरीब बच्चे को किस तरह से न पढ़ाया जाय

By  | May 14, 2012 at 11:07 am | No comments | हस्तक्षेप

(सबके लिए प्राथमिक शिक्षा कानून बन जाने के बावजूद गरीब बच्चों की शिक्षा सरकारी उपेक्षा और दुर्दशा का शिकार है. देश के पांच प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों का यह खुला पत्र हिन्दुस्तान टाइम्स अखबार द्वारा गरीब बच्चों की शिक्षा का मजाक उड़ाने के खिलाफ तो है ही,यह बाल शिक्षण से सम्बंधित कुछ बुनियादी सैद्धान्तिक बिंदुओं को भी बहुत ही गंभीरता से उठाता है और विचार-विमर्श का आधार प्रदान करता है.)

खुला पत्र

सेवा में,
प्रधान सम्पादक
दि हिन्दुस्तान टाइम्स
दि हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा की गयी इस घोषणा ने हम सब को आकर्षित किया कि वह अपनी हर प्रति की बिक्री से प्राप्त आय में से 5 पैसा गरीब बच्चों की शिक्षा पर खर्च करेगा। हालाँकि हमें यह नहीं बताया गया कि इस पैसे को कैसे खर्च किया जायेगा। यह महत्त्वपूर्ण है कि किसी बच्चे की शिक्षा चलताऊ ढ़ंग से किया जाने वाला काम नहीं है। स्कूली शिक्षा कई तरह के घटकों से युक्त एक समग्रतावादी अनुभव है जिसकी पहचान और चुनाव पाठ्यक्रम के प्रारूप द्वारा की जाती है और जिसका उद्देश्य शिक्षा का वह लक्ष्य हासिल करना होता है जिसे समाज समय-समय पर अपने लिए निर्धरित करता है।
हिन्दुस्तान टाईम्स ने 19 अप्रैल, 2012 को हिन्दी और अंग्रेजी में चित्रमय बारहखड़ी भी प्रकाशित की थी। अपने पाठकों से उसने कहा था कि इस सभी पन्नों को काटकर उन्हें एक साथ मिलाकर स्टेपल कर के वर्णमाला की किताब बनायें और उन्हें किसी गरीब बच्चे को देकर उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। इसका मकसद नेक लगता है। जबकि साफ तौर पर यह एक नासमझी भरा, दिशाहीन और निरर्थक निवेश है जिससे किसी गरीब बच्चे की कोई मदद नहीं होती। ऐसा कहने के पीछे सामाजिक व शैक्षिक कारण हैं। शिक्षा का अधिकार विधेयक के अनुसार शिक्षा पाना एक अधिकार है, जिसका हकदार भारत का हर एक बच्चा है। इस लक्ष्य को कुछ सदासयी लोगों द्वारा किये जाने वाले परोपकार द्वारा नहीं पाया जा सकता। यह समानता के सिद्धांत पर आधारित है जिसका अर्थ यह है कि बच्चा एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा का हकदार है। इसका कार्यान्वयन एक सुपरिभाषित संस्थागत तौर-तरीके से किया जाना चाहिए। हिन्दुस्तान टाईम्स ने जो किया है वह यह कि उसने अपने पाठकों की अंतरात्मा से विनती की है, ताकि उसके पाठक गरीब बच्चों के साथ सहानुभूति के कारण इन पन्नों को फाड़कर उन्हें स्टेपल करके उनके लिये भाषा की पहली किताब बनाने के लिए थोड़ा समय निकालें। यह एक तरह से उनके ऊपर तरस खाना है जिसे कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। इस अभियान की रूपरेखा बनाने वालों को अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए- क्या वे अपने बच्चों के साथ ऐसा करेंगे? अगर नहीं, तो एक गरीब बच्चे के साथ ऐसा करना कैसे ठीक है? अभियान प्रबंधकों के लिए यह भी रुचिकर होगा कि वे एक सर्वे करके पता करें कि इस परोपकार में उनके कितने पाठक सचमुच शामिल हुए।
समता और समानता को लेकर अपनी असंवेदनशीलता के अलावा आज शिक्षाशास्त्र के दृष्टिकोण से भी यह अभियान गलत है। 2012 में कोई भी भाषा शिक्षक वर्णमाला की किताब को भाषा सीखने के लिए शुरूआती उपकरण के रूप में नहीं सुझाएगा. भाषा शिक्षा शास्त्र उस ज़माने से बहुत आगे निकल गया है  जब अक्षर ज्ञान कराना भाषा सीखने की दिशा में पहला कदम हुआ करता था। अगर अभियान कर्ताओं ने राष्ट्रीय पाठ्क्रम रूपरेखा 2005 और भाषा सीखने पर केन्द्रित समूह के सुझावों पर ध्यान दिया होता तो शायद वे समझ जाते कि अब भाषा सीखना बहुत ही विवेकपूर्ण शिक्षण विधि हो गया है। अगर उनका तर्क यह है कि जो बच्चे भाषा सीखने के आधुनिक तरीकों से वंचित हैं, उन्हें कम से कम इतना तो मिल ही जाना चाहिए, तो यह एक बार फिर समानता के संवैधानिक सिद्धान्त की अवहेलना है।
काफी अधिक प्रयासों के बाद हम 'क से कबूतर' के जरिये भाषा सीखाने की बेहूदगी से आगे निकल पाये हैं और यह क्षोभकारी है कि बिना सोचे-समझे एक बड़ी मीडिया एजेन्सी इसे दुबारा वापस ला रही है।
हालाँकि पाठ्य-पुस्तक महत्वपूर्ण होते हैं, पर ये इसका केवल एक भाग ही हैं। पाठ्य-पुस्तक की अर्न्तवस्तु और कलेवर एक दूसरे से पूरी तरह गुंथे होते हैं वे सिर्फ काटने-चिपकाने-सिलने का धंधा नहीं होते। बहुभाषिक संदर्भ में किसी बच्चे के लिए भाषा की पहली किताब का प्रारूप तैयार करने के लिए बहुत ही जिम्मेदारी भरे चिन्तन की जरूरत होती है और जो लोग भाषा सीखने के मामलों में अशिक्षित हों और इस क्षेत्र में ताजा शोध से परिचित नहीं हैं उन्हें इस काम में हाथ नहीं डालना चाहिए। किसी बच्चे के हाथों में भाषा की पहली किताब एक सम्पूर्ण अनुभव होती है। इसे बच्चे की सभी ज्ञानेन्द्रियों को जागृत एवं उत्तेजित करने में समर्थ होना चाहिए। इसके अलावा, बहुत कम उम्र में पढ़ने को अब बहुत ही गम्भीरता से लिया जाता है। इस अभियान की रूपरेखा बनाने वाले अगर एनसीईआरटी और कई राज्यों द्वारा पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के लिये चलाये जा रहे पठन-कार्यक्रम को देख लेना सही रहेगा। पाठ्य-पुस्तकों और पाठ्य सामग्री गरीब बच्चे, अच्छी तरह डिजाईन की गयी और अच्छे कागज पर छपी बेहतरीन पाठ्य-पुस्तकों और पठन सामग्री के हकदार हैं जो अखबारी कागज पर न छपें हों और जो पूरे साल चल सकें।
सामाजिकता विविधता के दृष्टिकोण से देखा जाय तब भी हिन्दी अक्षरों के साथ दर्शाये गये चित्र इस तरह के होते हैं जो बच्चों की उस भारी बहुसंख्या को ध्यान में रखकर नहीं बनाये जाते, जिनका ऊँच्च वर्ण पुरुष हिन्दु प्रतीकों वाली परम्परा में लालन पालन नहीं हुआ होता।
जिस तिरस्कारपूर्ण तरीके से पूरे अभियान की रूपरेखा तैयार की गयी है, वह इसके पीछे काम करने वाले दिमागों की ओर ध्यान खींचती है और इसे संचालित करने वाले लोगों को संदेह के घेरे में ला खड़ा करती है- क्या वाकई शिक्षा-प्रणाली को मदद पहुँचाने के प्रति गम्भीर हैं? अगर हाँ तो उन्हें यह पैसा इस तरह की सांकेतिक चेष्ठाओं पर उड़ाने के बजाय शिक्षा के कारोबार में लगी पेशेवर संस्थाओं को दे देना चाहिये, हालाँकि यह भी एक घटिया निवेश ही है।
विश्वास भाजन,

अपूर्वानन्द, प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय, सदस्य, फोकस ग्रुप ऑन इण्डियन नेशनल लैग्वेज करिकुलम फ़्रेफ्रेमवर्क, 2005.

कृष्ण कुमार, प्रोफेसर, सीआईई, दिल्ली विश्वविद्यालय, पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी.
कुमार राणा, प्रतिची, कोलकाता.
शबनम हाशमी, सदस्य, एमएईएपफ, एनएलएमए.
विनोद रैना, सदस्य, एएनसी-आरटीआई.

(आभार- काफिला डॉट ऑर्ग, अनुवाद- सतीश.)

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...