ताकि घोटालों और पक्षपात, भेदभाव, बहिष्कार और नरसंहार का पर्दाफाश न हो!
अबाध आर्थिक सुधारों के नरमेध यज्ञ बायोमैट्रिक नागरिकता के जरिये निजता और नागरिक संप्रभुता का हनन जायज है। कारपोरेट आधार कार्ड योजना के तहत नागरिकों की निगरानी जरूरी है और कारपोरेट के नख दर्पण में हमारे फिंगर प्रिंट रखना और जरूरी है ताकि जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका और मानवाधिकार के अपहरण के जरिये खुल्ला बाजार के आखेटगाह में प्रकृति और मनुष्य का चौतरफा सर्वनाश हो। पर कारपोरेट सत्ता और एक फीसद बाजारू सत्ता वर्ग की निजता की हिफाजत जरूरी है, ताकि घोटालों और पक्षपात, भेदभाव, बहिष्कार और नरसंहार का पर्दाफाश न हो! स्वयंसेवी संगठनों ने आईटी क्षेत्र के बड़े नाम नंदन नीलेकणि के नेतृत्व वाली विशिष्ट पहचान प्राधिकरण 'आधार' योजना को रद्द करने की मांग की है।दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुका है और नेपाल और बंगलादेश में लागु किया जा रहा है।इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है।राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों के जनसंहार का अगर एक समग्र अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि आधार' (यू.आई.डी.) और राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ और कोई देश इसे हासिल कर दुसरे देश के खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेगा? बायोमेट्रिक और खुफिया तकनीकी से मानवाधिकार व संप्रभुता का खतरा पैदा हो गया है।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
'हमारा पैसा, हमारा हिसाब, सरकारी अफसर मालिक नहीं, ये जनता के नौकर है'!
कारपोरेट सरकार को अब सूचना के अधिकार से तकलीफ हो रही है।कानून के चलते आए दिन हो रहे नए रहस्योद्घाटनों से आजिज सरकार अब इस पर लगाम कसने की फिराक में है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शुक्रवार को थोड़ा घुमाकर इस आशय का संकेत दिया। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के लागू होने की 7वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शुक्रवार को कहा कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) यदि व्यक्ति की निजता में दखल दे, तो वहां उसे सीमिति कर दिया जाना चाहिए।प्रधानमंत्री ने बताया कि निजता की रक्षा के लिए अलग से कानून बनाने पर विचार चल रहा है। न्यायमूर्ति एपी शाह की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समूह इसके प्रारूप पर मशविरा कर रहा है। ज्ञात हो कि यह मुद्दा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की विदेश यात्राओं के बिल के विवरण मांगे जाने के बाद तेजी के साथ उठा है।उनका कहना है कि अगर आरटीआइ कानून से किसी की निजता का उल्लंघन होता है तो निश्चित रूप से इसको नियंत्रित किया जाना चाहिए। इस पर लगाम कसा जाना चाहिए। पीएम ने इस कानून के बेतुके और ओछे इस्तेमाल पर भी गहरी चिंता जताई। अबाध आर्थिक सुधारों के नरमेध यज्ञ बायोमैट्रिक नागरिकता के जरिये निजता और नागरिक संप्रभुता का हनन जायज है। कारपोरेट आधार कार्ड योजना के तहत नागरिकों की निगरानी जरूरी है और कारपोरेट के नख दर्पण में हमारे फिंगर प्रिंट रखना और जरूरी है ताकि जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका और मानवाधिकार के अपहरण के जरिये खुल्ला बाजार के आखेटगाह में प्रकृति और मनुष्य का चौतरफा सर्वनाश हो। पर कारपोरेट सत्ता और एक फीसद बाजारू सत्ता वर्ग की निजता की हिफाजत जरूरी है, ताकि घोटालों और पक्षपात, भेदभाव, बहिष्कार और नरसंहार का पर्दाफाश न हो! स्वयंसेवी संगठनों ने आईटी क्षेत्र के बड़े नाम नंदन नीलेकणि के नेतृत्व वाली विशिष्ट पहचान प्राधिकरण 'आधार' योजना को रद्द करने की मांग की है।दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुका है और नेपाल और बंगलादेश में लागु किया जा रहा है।इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है।राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों के जनसंहार का अगर एक समग्र अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि आधार' (यू.आई.डी.) और राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ और कोई देश इसे हासिल कर दुसरे देश के खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेगा? बायोमेट्रिक और खुफिया तकनीकी से मानवाधिकार व संप्रभुता का खतरा पैदा हो गया है।2014 तक इस परियोजना के तहत करीब 60 करोड़ लोगों को यूआईडी मुहैया कराने का लक्ष्य है।इस योजना पर सरकार अब तक 556 करोड़ रुपये ख़र्च कर चुकी है। लोगों के बढ़ते विरोध से ऐसा लगता है कि सरकार को आज नहीं तो कल यह प्रोजेक्ट वापस लेने पर विवश होना पड़ेगा। नंदन नीलेकणी ने जितने भी तर्क इस कार्ड के पक्ष में दिए थे, उन सभी को देश का बुद्धिजीवी वर्ग ख़ारिज कर चुका है।
सरकार ने वित्त पर संसद की स्थायी समिति की 42वीं रिपोर्ट की उपेक्षा कर के संसद की अवमानना की है
आधार/यूआईडी के लिए केंद्रीय बजट 2012-13 में 14,232 करोड़ की आवंटन वृद्धि और अन्य सिफारिशें वित्त पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट का मखौल उड़ाती हैं जिसे संसदीय मंजूरी प्राप्त है।
सब्सिडी हस्तांतरण और आधार परियोजना के वित्तीय समवेश पर पाइलट परियोजनाओं की कामयाबी के दावे बेहद संदिग्ध हैं।
अल्पमत की सरकार द्वारा एनपीआर और आधार के वैधानिक समर्थन के बगैर बायोमीट्रिक आंकड़ा संग्रहण नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है।
देश भर से आधार और यूआईडी परियोजना के खिलाफ 3.57 लोगों के दस्तखत प्रधानमंत्री को भेजा जाना दिखाता है कि बायोमीट्रिक प्रोफाइलिंग का विरोध न सिर्फ पाइरेसी समर्थक एक्टिविस्ट बल्कि आदमी भी कर रहा है।
नंदन नीलकेणी कार्य बल द्वारा सहब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण के लाभ के दावे संदिग्ध हैं।
यूआईडीएआई/आरजीआई के बाहरी व आंतरिक गुप्तचर एजेंसियों के साथ रिश्तों की संसदीय पड़ताल करवाई जानी चािहए।
मूवमेंट फार ह्यूमन राइट्स के संयोजक अरविंद मूर्ति ने कहा कि जो सूचना इस देश के सांसद और विधायक को मिल सकती है वह देश का प्रत्येक नागरिक प्राप्त कर सकता है। आजादी के बाद लोकतंत्र में पहला ऐसा क्रांतिकारी कानून है जो अफसर को नौकर और जनप्रतिनिधि को सेवक बनाता है। लोकतंत्र संवाद और पारदर्शिता से मजबूत होगा तथा आम लोगों का विश्वास जनतंत्र में गहरा होगा।
मनमोहन सूचना आयुक्तों के सातवें सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। प्रधानमंत्री के अनुसार सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच पर्याप्त संतुलन की जरूरत है। निजता का मामला भी संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार से जुड़ा है। यदि आरटीआइ के तहत मिली जानकारी से किसी की निजी गोपनीयता भंग होती है तो सूचना के अधिकार कानून के दायरे को निश्चित रूप से सीमित किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी माना कि दोनों कानूनों के दायरे को रेखाकिंत करना बेहद कठिन काम है। पीएम का कहना था कि आरटीआइ कानून का बेतुका और ओछा इस्तेमाल भी गहरी चिंता का विषय है। इसका दुरुपयोग हो रहा है। इस कानून के तहत ऐसी-ऐसी जानकारियां मांगी जा रही हैं, जिनका जनहित से कोई लेना-देना नहीं है। इससे समय और संसाधनों की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है।
आरटीआइ के दायरे में निजी क्षेत्र को लाने का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का मसला उलझेगा और सरकारी क्षेत्र से साझेदारी करने में निजी क्षेत्र हतोत्साहित होगा। मनमोहन के मुताबिक, 'आरटीआइ को लेकर हमें अपनी धारणा बदलने की जरूरत है। यह समझा जाना चाहिए कि यह कानून हम सबके भले के लिए है। चिढ़ाने, तकलीफ देने या बदला लेने के लिए इसका इस्तेमाल कतई नहीं किया जाना चाहिए। इसके बारे में रचनात्मक माहौल बनाने की आवश्यकता है।'
यूआईडी परियोजना को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और लोगों की निजी जिंदगी की जासूसी का औजार मानने वाले गोपाल कृष्ण कहते हैं कि इसे पूरी तरह से बंद कराने के लिए वे लड़ाई लड़ते रहेंगे।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने खासकर इस बात को लेकर आपत्ति जताई कि इसमें निवासियों का जिक्र किया गया है, न कि नागरिकों का। इससे डर है कि अवैध प्रïवासी, जिन्होंने फर्जी दस्तावेजों के सहारे भारत में प्रवेश किया है, वे यूआईडी नंबर के आधार पर नागरिकता का दावा कर सकते हैं।वित्त मामलों की संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि यूआईडी नंबर में मतदाता पहचान पत्र को भी शामिल किया जाना चाहिए और पहले इस मसले पर योजना आयोग और गृह मंत्रालय में चर्चा होनी चाहिए, जो देश की आबादी के आंकड़े मुहैया कराता है। सबसे पहले समस्या तब उठी जब गृह मंत्रालय ने पाया कि दस्तावेजों के बगैर प्रमाणन के यूआईडी नंबर हासिल किया जा सकता है और बायोमेट्रिक जनगणना सुरक्षा एजेंसियों के सुरक्षा मानकों का पालन नहीं कर रही हैं। सांसदों ने निजता को लेकर भी सवाल उठाए।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक मैथ्यू थॉमस एवं सामाजिक कार्यकर्ता वी के सोमशेखर ने बंगलुरू की एक अदालत में अपील दायर की है कि इस प्रोजेक्ट को अवैध घोषित किया जाए। उन्होंने आरोप लगाया कि यह योजना कुछ सॉफ्टवेयर कंपनियों को वित्तीय लाभ पहुंचाने के लिए शुरू की गई है। उन्होंने कहा कि इसका मूल उद्देश्य नागरिकों की गतिविधियों पर नज़र रखना, उनकी जासूसी करना और क्षेत्रीय एवं भौगोलिक बुनियाद पर नागरिकों की जानकारी व्यापारिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग में लाना है। इसके द्वारा कुछ स्थायी और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, वित्तीय संस्थाओं, इंश्योरेंस, टेलीकॉम एवं इमेजिंग कंपनियों, हितवादी संगठनों, संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले संगठनों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। यह सब करदाताओं से प्राप्त धन से किया जा रहा है, जो कि सरासर क़ानून का उल्लंघन है। यह भी एक सच्चाई है कि आधार कार्ड के नामांकन के लिए जिन लोगों को लगाया गया है, न तो उनकी पृष्ठभूमि जानने की कोशिश की गई और न यह जानने की कि कहीं ये लोग देश विरोधी गतिविधियों में तो शामिल नहीं हैं।
जब संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने यूआईडीएआई के चेयरमैन नंदन नीलेकणी की अध्यक्षता में जारी आधार स्कीम पर सवालिया निशान लगाते हुए उसे ख़ारिज करके सरकार से उस पर दोबारा ग़ौर करने के लिए कहा है तो फिर क्यों अभी तक यह कार्ड बनने का सिलसिला जारी है? संसद में चर्चा और यूआईडी बिल पास किए बिना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने नंदन नीलेकणी को इतना बड़ा अधिकार कैसे दे दिया? यूआईडी कार्ड के नामांकन के समय नागरिकों से उनके उंगलियों और आइरिस स्कैनिंग जैसे बायोमैट्रिक्स निशान लिए जा रहे हैं, जिनकी मंजूरी संसद से नहीं ली गई है। बायोमैट्रिक्स निशान तो अपराधियों के लिए जाते हैं और जब वे रिहा हो जाते हैं तो उनके बायोमैट्रिक्स निशानों को भी ख़त्म कर दिया जाता है, लेकिन यूआईडी के तहत नागरिकों के जो बायोमैट्रिक्स निशान लिए जा रहे हैं, वे तो हमेशा के लिए सुरक्षित रहेंगे और वह भी यूआईडीएआई जैसी असंवैधानिक संस्था के पास, जिसने सभी डाटा को एकत्र करने का काम निजी कंपनियों को दे रखा है। क़ानून और संसद की इतनी बड़ी अवहेलना देश में हो रही है और सरकार ख़ामोश है। ये सभी सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब यूपीए सरकार को देना होगा.इस कार्ड द्वारा पूरी दुनिया के नागरिकों का डाटा इकट्ठा करके कंप्यूटर के किसी एक सर्वर पर डालने की योजना बनाई जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में अलग-अलग राष्ट्रों की सीमाओं का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। जिस देश के पास ये तमाम जानकारियां होंगी, वह बड़ी आसानी से किसी एक जगह पर बैठकर पूरी दुनिया पर बेरोकटोक राज करेगा. अगर ऐसा हुआ तो यह पूरे विश्व के लिए निहायत ख़तरनाक स्थिति होगी, क्योंकि जो देश पिछड़े और ग़रीब हैं, उनके नागरिकों को ताकतवर देशों की गुलामी करनी पड़ेगी। एक शंका यह भी जताई जा रही है कि अगर इस कार्ड का धारक सात से दस वर्षों तक इसका प्रयोग नहीं करेगा तो उसे बड़ी आसानी से मृत घोषित कर दिया जाएगा।
गृह मंत्रालय और स्थायी समिति के अलावा रजिस्टार जनरल ऐंड सेंस कमिश्नर ने भी मसले को उठाया था और कहा था कि बायोमेट्रिक जनगणना आंकड़ों के संग्रह का काम उनके द्वारा किया जाना चाहिए, न कि यूआईडीएआई द्वारा। इस बात को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए कि 20 करोड़ के आंकड़े पर पहुंचने के बाद यूआईडीएआई को बॉयोमेट्रिक रिकॉर्ड संग्रह करने की अनुमति दी जाएगी या नहीं, इस पर जल्द ही कैबिनेट फैसला करेगी।
भारतीय विशेष पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) की स्थापना जनवरी 2009 में की गई थी और इसे योजना आयोग कार्यालय से जोड़ा गया था। इसका उद्देश्य भारत के सभी निवासियों को विशेष पहचान नंबर (यूआईडी) देना था, जिससे नकली पहचान पत्र को खत्म किया जा सके। यूआईडीएआई को अलग कानून के जरिये स्वायतत्त निकाय बनाने का प्रस्ताव था। मसौदा विधेयक में बड़े बदलाव के स्थायी समिति की सिफारिशों के बाद अब सरकार को इस पर फैसला करना है कि वह विधेयक में सुझाव के मुताबिक बदलाव करती है, या नहीं।
आईटी के चमकते सितारे नंदन नीलेकणी को सरकार बड़ी इज्जत के साथ इस प्रोजेक्ट में लाई। बताया गया कि जब हर एक के पास एक यूनीक आधार नंबर होगा, तो भारत में हर काम का अंदाज बदल जाएगा। हम सबको एक नंबर से जाना जाएगा और यह नाम से भी ज्यादा अहम हो जाएगा। अभी आधार आगे बढ़ा ही था कि सरकार के भीतर गहरे संदेह पैदा होने लगे। बात सामने आई कि इसकी अथॉरिटी का मेंडेट ही साफ नहीं है। पैसे की किल्लत भी है और दरअसल यह प्रोजेक्ट पूरे देश के लिए है ही नहीं। तभी नैशनल पॉप्युलेशन रजिस्टर से इसका झगड़ा भी खुलकर सामने आ गया, जो होम मिनिस्ट्री का प्रोजेक्ट है। होम मिनिस्ट्री को यह इलहाम पहले क्यों नहीं हुआ कि आधार उसके लिए मुफीद नहीं है? क्या सरकार के भीतर इतने बड़े प्रोजेक्ट को लेकर जरा भी साफगोई नहीं थी? क्या आधार को खड़ा करने से पहले इन तमाम मसलों पर सोचा ही नहीं गया?
ब्रिटेन, चीन, आस्ट्रलिया, फिलिपिन्स और अमेरिका में बदनाम हो चुकी इस परियोजना को कहीं भारत में भी तिलांजलि न दे देनी पड़े, इस बात की आशंका के चलते अब सरकार के द्वारा कहा जा रहा था कि यू.आई.डी. अंक वैकल्पिक है अनिवार्य नहीं। अब यह खुलासा हो चुका है कि कुछ कंपनियों के दबाब में सरकार नागरिकों को गुमराह कर रही थी। असल में 'आधार' (यू.आई.डी) से जुड़ी है राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) की परियोजना जो अनिवार्य है।इसके जरिए गृह मंत्रालय के रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया आंकड़ों का भंडार तैयार करेंगे। यह समझ लेना होगा कि जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर अलग-अलग चीजें हैं। जनगणना जनसंख्या, साक्षरता, शिखा, आवास और घरेलू सुविधाओं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन दर, मृत्युदर, भाषा, धर्म और प्रवासन आदि के संबंध में बुनियादी आंकड़ों का सबसे बड़ा स्रोत है जिसके आधार पर केंद्र व राज्य सरकारें योजनाएं बनती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन करती हैं, जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पूरे देश के नागरिकों के पहचान संबंधी आंकड़ों का समग्र भंडार तैयार करने का काम करेगा।इसके तहत व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्टीयता, पेशा, वर्तमान और स्थायी निवास का पता जैसी तमाम सूचनाओं का संग्रह किया जाएगा। इस आंकड़ा-भंडार में 15 साल की उम्र से उपर सभी व्यक्तियों की तस्वीरें और उनकी उंगलियों के निशान भी रखे जाएंगे। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आंकड़ो-भंडार को अंतिम रूप देने के बाद, अगला कार्यभार होगा हर नागरिक को विशिष्ट पहचान अंक प्रदान करना।यह अंक इसके बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में टांकें जांएगे। उत्तर प्रदेश के मतदाताओ ने इसे खारिज कर देश को रास्ता दिखा दिया है।यह योजना गाड़ियों और जानवरों पर भी रेडियो ध्वनि द्वारा लागु होने जा रही है, जो परत दर परत सामने आ रहा है। यह परियोजना संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और फ्रांस की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है।
चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने गृहमंत्री पी. चिदंबरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष एमएस अहलुवालिया व आधार कार्ड के प्रमुख नन्दन निलेकणी की सलाह पर अंगूठे और आँखों की पुतलियो की तस्वीर की निशानदेही के 'आधार' (यू.आई.डी) पर ही उन्हें नागरिक मानने और सरकारी योजनाओ के फायदे देने की शर्त रखी थी।
सरकार पेंशन और स्कॉलरशिप के लिए यूआईडी को जरूरी करने जा रही है। सरकार का लक्ष्य उन सभी स्कीमों में यूआईडी को लागू किए जाने का है जहां-जहां सरकार सब्सिडी देती है।स्वतंत्रता दिवस के मौके पर की गई तमाम घोषणाओं में सबसे पहले यही ऐलान साकार होने जा रहा है। यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने इसकी तैयारी पूरी कर ली है।
घरेलू गैस वितरण प्रणाली में धांधली को रोकने के लिए पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने एलपीजी गैस सिलेंडर आपूर्ति एवं वितरण विनियमन 2000 में संशोधन किया है। इसके तहत गैस सिलेंडर रीफिल कराने के लिए उपभोक्ताओं के पास यूआईडी (आधार) कार्ड होना जरूरी होगा। मंत्रालय के अनुसार, सरकार को घरेलू गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी देने के लिए भारी खर्च उठाना पड़ता है। गौरतलब है कि भारत सरकार द्वारा लागू आधार कार्ड योजना में लोग इतनी रुचि नहीं ले रहे हैं, मगर मंत्रालय के इस नए आदेश के बाद आधार कार्ड योजना में तेजी आने की संभावना है। गजेट में नोटिफिकेशन: पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा 13 अक्टूबर 2011 को जारी किए गए सर्कुलर में आपूर्ति एवं वितरण विनियमन (आदेश 2011) में इस नए संशोधन का जिक्र किया गया है। साथ ही गैस सिलेंडर वितरण के लिए आधार कार्ड को आवश्यक करने वाले आदेश को 26 सितंबर 2011 को 'गजेट ऑफ इंडिया' में प्रकाशित किया गया है। मंत्रालय ने 'गजेट ऑफ इंडिया' में प्रकाशित नोटिफिकेशन में कहा है कि अनिवार्य वस्तु अधिनियम 1955 के सेक्शन 3 के तहत घरेलू सिलेंडर वितरण करने के लिए आधार कार्ड अब आवश्यक है।
क्या है नए अधिनियम में: कोई भी सरकारी तेल कंपनी अपने क्षेत्र में उपभोक्ताओं को तब तक एलपीजी गैस सिलेंडर वितरित नहीं करेगी, जब तक परिवार के मुखिया द्वारा यूआईडी नंबर मुहैया नहीं कराया जाएगा। इसके लिए ग्राहकों को तीन माह का समय दिया जाएगा और उन्हें परिवार के सभी सदस्यों का यूआईडी कार्ड नंबर देना होगा। गैस वितरण कंपनियों के अनुसार, बहरहाल जिनकी आईडेंटिटी पर संदेह होता है, केवल उन्हीं ग्राहकों से ही आधार कार्ड नंबर मांगा जाएगा, लेकिन पुराने पंजीकृत ग्राहकों (जिनकी पहचान पर कोई शक न हो) को राहत मिलेगी। गौरतलब है कि आधार कार्ड वितरण को वर्ष 2012 पूरा किया जाना है।
सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत के संसद द्वारा पारित एक कानून है जो 12 अक्तूबर, 2005 को लागू हुआ (15 जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120 वें दिन)। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिये इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया जाता है। इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकार्डों और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। जम्मू एवं काश्मीर मे यह जम्मू एवं काश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतरगत लागू है।
सूचना का अधिकार क्या है?
संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है. अनुच्छेद 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति का अधिकार है. 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने "राज नारायण विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार" मामले में कहा है कि लोग कह और अभिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि वो न जानें. इसी कारण सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 में छुपा है. इसी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारत एक लोकतंत्र है. लोग मालिक हैं. इसलिए लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारें जो उनकी सेवा के लिए हैं, क्या कर रहीं हैं? व प्रत्येक नागरिक कर/ टैक्स देता है. यहाँ तक कि एक गली में भीख मांगने वाला भिखारी भी टैक्स देता है जब वो बाज़ार से साबुन खरीदता है.(बिक्री कर, उत्पाद शुल्क आदि के रूप में). नागरिकों के पास इस प्रकार यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है. इन तीन सिद्धांतों को सर्वोच्च न्यायालय ने रखा कि सूचना का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा हैं.
यदि आरटीआई एक मौलिक अधिकार है, तो हमें यह अधिकार देने के लिए एक कानून की आवश्यकता क्यों है?
ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि आप किसी सरकारी विभाग में जाकर किसी अधिकारी से कहते हैं, "आरटीआई मेरा मौलिक अधिकार है, और मैं इस देश का मालिक हूँ. इसलिए मुझे आप कृपया अपनी फाइलें दिखायिए", वह ऐसा नहीं करेगा. व संभवतः वह आपको अपने कमरे से निकाल देगा. इसलिए हमें एक ऐसे तंत्र या प्रक्रिया की आवश्यकता है जिसके तहत हम अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सकें. सूचना का अधिकार 2005, जो 13 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ हमें वह तंत्र प्रदान करता है. इस प्रकार सूचना का अधिकार हमें कोई नया अधिकार नहीं देता. यह केवल उस प्रक्रिया का उल्लेख करता है कि हम कैसे सूचना मांगें, कहाँ से मांगे, कितना शुल्क दें आदि.
सूचना का अधिकार कब लागू हुआ?
केंद्रीय सूचना का अधिकार 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ. हालांकि 9 राज्य सरकारें पहले ही राज्य कानून पारित कर चुकीं थीं. ये थीं: जम्मू कश्मीर, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, असम और गोवा.
सूचना के अधिकार के अर्न्तगत कौन से अधिकार आते हैं?
सूचना का अधिकार 2005 प्रत्येक नागरिक को शक्ति प्रदान करता है कि वो:
सरकार से कुछ भी पूछे या कोई भी सूचना मांगे.
किसी भी सरकारी निर्णय की प्रति ले.
किसी भी सरकारी दस्तावेज का निरीक्षण करे.
किसी भी सरकारी कार्य का निरीक्षण करे.
किसी भी सरकारी कार्य के पदार्थों के नमूने ले.
सूचना के अधिकार के अर्न्तगत कौन से अधिकार आते हैं?
केन्द्रीय कानून जम्मू कश्मीर राज्य के अतिरिक्त पूरे देश पर लागू होता है. सभी इकाइयां जो संविधान, या अन्य कानून या किसी सरकारी अधिसूचना के अधीन बनी हैं या सभी इकाइयां जिनमें गैर सरकारी संगठन शामिल हैं जो सरकार के हों, सरकार द्वारा नियंत्रित या वित्त- पोषित किये जाते हों.
"वित्त पोषित" क्या है?
इसकी परिभाषा न ही सूचना का अधिकार कानून और न ही किसी अन्य कानून में दी गयी है. इसलिए यह मुद्दा समय के साथ शायद किसी न्यायालय के आदेश द्वारा ही सुलझ जायेगा.
क्या निजी इकाइयां सूचना के अधिकार के अर्न्तगत आती हैं?
सभी निजी इकाइयां, जोकि सरकार की हैं, सरकार द्वारा नियंत्रित या वित्त- पोषित की जाती हैं सीधे ही इसके अर्न्तगत आती हैं. अन्य अप्रत्यक्ष रूप से इसके अर्न्तगत आती हैं. अर्थात, यदि कोई सरकारी विभाग किसी निजी इकाई से किसी अन्य कानून के तहत सूचना ले सकता हो तो वह सूचना कोई नागरिक सूचना के अधिकार के अर्न्तगत उस सरकारी विभाग से ले सकता है.
क्या सरकारी दस्तावेज गोपनीयता कानून 1923 सूचना के अधिकार में बाधा नहीं है?
नहीं, सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अनुच्छेद 22 के अनुसार सूचना का अधिकार कानून सभी मौजूदा कानूनों का स्थान ले लेगा.
क्या पीआईओ सूचना देने से मना कर सकता है?
एक पीआईओ सूचना देने से मना उन 11 विषयों के लिए कर सकता है जो सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 8 में दिए गए हैं. इनमें विदेशी सरकारों से प्राप्त गोपनीय सूचना, देश की सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक हितों की दृष्टि से हानिकारक सूचना, विधायिका के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने वाली सूचनाएं आदि. सूचना का अधिकार अधिनियम की दूसरी अनुसूची में उन 18 अभिकरणों की सूची दी गयी है जिन पर ये लागू नहीं होता. हालांकि उन्हें भी वो सूचनाएं देनी होंगी जो भ्रष्टाचार के आरोपों व मानवाधिकारों के उल्लंघन से सम्बंधित हों.
क्या अधिनियम विभक्त सूचना के लिए कहता है?
हाँ, सूचना का अधिकार अधिनियम के दसवें अनुभाग के अंतर्गत दस्तावेज के उस भाग तक पहुँच बनायीं जा सकती है जिनमें वे सूचनाएं नहीं होतीं जो इस अधिनियम के तहत भेद प्रकाशन से अलग रखी गयीं हैं.
क्या फाइलों की टिप्पणियों तक पहुँच से मना किया जा सकता है?
नहीं, फाइलों की टिप्पणियां सरकारी फाइल का अभिन्न अंग हैं व इस अधिनियम के तहत भेद प्रकाशन की विषय वस्तु हैं. ऐसा केंद्रीय सूचना आयोग ने 31 जनवरी 2006 के अपने एक आदेश में स्पष्ट कर दिया है.
मुझे सूचना कौन देगा?
एक या अधिक अधिकारियों को प्रत्येक सरकारी विभाग में जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) का पद दिया गया है. ये जन सूचना अधिकारी प्रधान अधिकारियों के रूप में कार्य करते हैं. आपको अपनी अर्जी इनके पास दाखिल करनी होती है. यह उनका उत्तरदायित्व होता है कि वे उस विभाग के विभिन्न भागों से आपके द्वारा मांगी गयी जानकारी इकठ्ठा करें व आपको प्रदान करें. इसके अलावा, कई अधिकारियों को सहायक जन सूचना अधिकारी के पद पर सेवायोजित किया गया है. उनका कार्य केवल जनता से अर्जियां स्वीकारना व उचित पीआईओ के पास भेजना है.
अपनी अर्जी मैं कहाँ जमा करुँ?
आप ऐसा पीआईओ या एपीआईओ के पास कर सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के मामलों में, 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है. अर्थात् आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई पटल पर अपनी अर्जी व फीस जमा करा सकते हैं. वे आपको एक रसीद व आभार जारी करेंगे और यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वो उसे उचित पीआईओ के पास भेजे.
क्या इसके लिए कोई फीस है? मैं इसे कैसे जमा करुँ?
हाँ, एक अर्ज़ी फीस होती है. केंद्र सरकार के विभागों के लिए यह 10रु. है. हालांकि विभिन्न राज्यों ने भिन्न फीसें रखीं हैं. सूचना पाने के लिए, आपको 2रु. प्रति सूचना पृष्ठ केंद्र सरकार के विभागों के लिए देना होता है. यह विभिन्न राज्यों के लिए अलग- अलग है. इसी प्रकार दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी फीस का प्रावधान है. निरीक्षण के पहले घंटे की कोई फीस नहीं है लेकिन उसके पश्चात् प्रत्येक घंटे या उसके भाग की 5रु. प्रतिघंटा फीस होगी. यह केन्द्रीय कानून के अनुसार है. प्रत्येक राज्य के लिए, सम्बंधित राज्य के नियम देखें. आप फीस नकद में, डीडी या बैंकर चैक या पोस्टल आर्डर जो उस जन प्राधिकरण के पक्ष में देय हो द्वारा जमा कर सकते हैं. कुछ राज्यों में, आप कोर्ट फीस टिकटें खरीद सकते हैं व अपनी अर्ज़ी पर चिपका सकते हैं. ऐसा करने पर आपकी फीस जमा मानी जायेगी. आप तब अपनी अर्ज़ी स्वयं या डाक से जमा करा सकते हैं.
मुझे क्या करना चाहिए यदि पीआईओ या सम्बंधित विभाग मेरी अर्ज़ी स्वीकार न करे?
आप इसे डाक द्वारा भेज सकते हैं. आप इसकी औपचारिक शिकायत सम्बंधित सूचना आयोग को भी अनुच्छेद 18 के तहत करें. सूचना आयुक्त को उस अधिकारी पर 25000रु. का दंड लगाने का अधिकार है जिसने आपकी अर्ज़ी स्वीकार करने से मना किया था.
क्या सूचना पाने के लिए अर्ज़ी का कोई प्रारूप है?
केंद्र सरकार के विभागों के लिए, कोई प्रारूप नहीं है. आपको एक सादा कागज़ पर एक सामान्य अर्ज़ी की तरह ही अर्ज़ी देनी चाहिए. हालांकि कुछ राज्यों और कुछ मंत्रालयों व विभागों ने प्रारूप निर्धारित किये हैं. आपको इन प्रारूपों पर ही अर्ज़ी देनी चाहिए. कृपया जानने के लिए सम्बंधित राज्य के नियम पढें.
मैं सूचना के लिए कैसे अर्ज़ी दूं?
एक साधारण कागज़ पर अपनी अर्ज़ी बनाएं और इसे पीआईओ के पास स्वयं या डाक द्वारा जमा करें. (अपनी अर्ज़ी की एक प्रति अपने पास निजी सन्दर्भ के लिए अवश्य रखें)
मैं अपनी अर्ज़ी की फीस कैसे दे सकता हूँ?
प्रत्येक राज्य का अर्ज़ी फीस जमा करने का अलग तरीका है. साधारणतया, आप अपनी अर्ज़ी की फीस ऐसे दे सकते हैं:
स्वयं नकद भुगतान द्वारा (अपनी रसीद लेना न भूलें)
डाक द्वारा:
डिमांड ड्राफ्ट से
भारतीय पोस्टल आर्डर से
मनी आर्डर से [केवल कुछ राज्यों में]
कोर्ट फीस टिकट से [केवल कुछ राज्यों में]
बैंकर चैक से
कुछ राज्य सरकारों ने कुछ खाते निर्धारित किये हैं. आपको अपनी फीस इन खातों में जमा करानी होती है. इसके लिए, आप एसबीआई की किसी शाखा में जा सकते हैं और राशि उस खाते में जमा करा सकते हैं और जमा रसीद अपनी आरटीआई अर्ज़ी के साथ लगा सकते हैं. या आप अपनी आरटीआई अर्ज़ी के साथ उस विभाग के पक्ष में देय डीडी या एक पोस्टल आर्डर भी लगा सकते हैं.
क्या मैं अपनी अर्जी केवल पीआईओ के पास ही जमा कर सकता हूँ?
नहीं, पीआईओ के उपलब्ध न होने की स्थिति में आप अपनी अर्जी एपीआईओ या अन्य किसी अर्जी लेने के लिए नियुक्त अधिकारी के पास अर्जी जमा कर सकते हैं.
क्या करूँ यदि मैं अपने पीआईओ या एपीआईओ का पता न लगा पाऊँ?
यदि आपको पीआईओ या एपीआईओ का पता लगाने में कठिनाई होती है तो आप अपनी अर्जी पीआईओ c/o विभागाध्यक्ष को प्रेषित कर उस सम्बंधित जन प्राधिकरण को भेज सकते हैं. विभागाध्यक्ष को वह अर्जी सम्बंधित पीआईओ के पास भेजनी होगी.
क्या मुझे अर्जी देने स्वयं जाना होगा?
आपके राज्य के फीस जमा करने के नियमानुसार आप अपनी अर्जी सम्बंधित राज्य के विभाग में अर्जी के साथ डीडी, मनी आर्डर, पोस्टल आर्डर या कोर्ट फीस टिकट संलग्न करके डाक द्वारा भेज सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के मामलों में, 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है. अर्थात् आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई पटल पर अपनी अर्जी व फीस जमा करा सकते हैं. वे आपको एक रसीद व आभार जारी करेंगे और यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वो उसे उचित पीआईओ के पास भेजे.
क्या सूचना प्राप्ति की कोई समय सीमा है?
हाँ, यदि आपने अपनी अर्जी पीआईओ को दी है, आपको 30 दिनों के भीतर सूचना मिल जानी चाहिए. यदि आपने अपनी अर्जी सहायक पीआईओ को दी है तो सूचना 35 दिनों के भीतर दी जानी चाहिए. उन मामलों में जहाँ सूचना किसी एकल के जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करती हो, सूचना 48 घंटों के भीतर उपलब्ध हो जानी चाहिए.
क्या मुझे कारण बताना होगा कि मुझे फलां सूचना क्यों चाहिए?
बिलकुल नहीं, आपको कोई कारण या अन्य सूचना केवल अपने संपर्क विवरण (जो हैं नाम, पता, फोन न.) के अतिरिक्त देने की आवश्यकता नहीं है. अनुच्छेद 6(2) स्पष्टतः कहता है कि प्रार्थी से संपर्क विवरण के अतिरिक्त कुछ नहीं पूछा जायेगा.
क्या पीआईओ मेरी आरटीआई अर्जी लेने से मना कर सकता है?
नहीं, पीआईओ आपकी आरटीआई अर्जी लेने से किसी भी परिस्थिति में मना नहीं कर सकता. चाहें वह सूचना उसके विभाग/ कार्यक्षेत्र में न आती हो, उसे वह स्वीकार करनी होगी. यदि अर्जी उस पीआईओ से सम्बंधित न हो, उसे वह उपयुक्त पीआईओ के पास 5 दिनों के भीतर अनुच्छेद 6(2) के तहत भेजनी होगी.
इस देश में कई अच्छे कानून हैं लेकिन उनमें से कोई कानून कुछ नहीं कर सका. आप कैसे सोचते हैं कि ये कानून करेगा?
यह कानून पहले ही कर रहा है. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कोई कानून किसी अधिकारी की अकर्मण्यता के प्रति जवाबदेही निर्धारित करता है. यदि सम्बंधित अधिकारी समय पर सूचना उपलब्ध नहीं कराता है, उस पर 250रु. प्रतिदिन के हिसाब से सूचना आयुक्त द्वारा जुर्माना लगाया जा सकता है. यदि दी गयी सूचना गलत है तो अधिकतम 25000रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. जुर्माना आपकी अर्जी गलत कारणों से नकारने या गलत सूचना देने पर भी लगाया जा सकता है. यह जुर्माना उस अधिकारी के निजी वेतन से काटा जाता है.
क्या अब तक कोई जुमाना लगाया गया है?
हाँ, कुछ अधिकारियों पर केन्द्रीय व राज्यीय सूचना आयुक्तों द्वारा जुर्माना लगाया गया है.
क्या पीआईओ पर लगे जुर्माने की राशि प्रार्थी को दी जाती है?
नहीं, जुर्माने की राशि सरकारी खजाने में जमा हो जाती है. हांलांकि अनुच्छेद 19 के तहत, प्रार्थी मुआवजा मांग सकता है.
मैं क्या कर सकता हूँ यदि मुझे सूचना न मिले?
यदि आपको सूचना न मिले या आप प्राप्त सूचना से संतुष्ट न हों, आप अपीलीय अधिकारी के पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 19(1) के तहत एक अपील दायर कर सकते हैं.
पहला अपीलीय अधिकारी कौन होता है?
प्रत्येक जन प्राधिकरण को एक पहला अपीलीय अधिकारी बनाना होता है. यह बनाया गया अधिकारी पीआईओ से वरिष्ठ रैंक का होता है.
क्या प्रथम अपील का कोई प्रारूप होता है?
नहीं, प्रथम अपील का कोई प्रारूप नहीं होता (लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने प्रारूप जारी किये हैं). एक सादा पन्ने पर प्रथम अपीली अधिकारी को संबोधित करते हुए अपनी अपीली अर्जी बनाएं. इस अर्जी के साथ अपनी मूल अर्जी व पीआईओ से प्राप्त जैसे भी उत्तर (यदि प्राप्त हुआ हो) की प्रतियाँ लगाना न भूलें.
क्या मुझे प्रथम अपील की कोई फीस देनी होगी?
नहीं, आपको प्रथम अपील की कोई फीस नहीं देनी होगी, कुछ राज्य सरकारों ने फीस का प्रावधान किया है.
कितने दिनों में मैं अपनी प्रथम अपील दायर कर सकता हूँ?
आप अपनी प्रथम अपील सूचना प्राप्ति के 30 दिनों व आरटीआई अर्जी दाखिल करने के 60 दिनों के भीतर दायर कर सकते हैं.
क्या करें यदि प्रथम अपीली प्रक्रिया के बाद मुझे सूचना न मिले?
यदि आपको प्रथम अपील के बाद भी सूचना न मिले तो आप द्वितीय अपीली चरण तक अपना मामला ले जा सकते हैं. आप प्रथम अपील सूचना मिलने के 30 दिनों के भीतर व आरटीआई अर्जी के 60 दिनों के भीतर (यदि कोई सूचना न मिली हो) दायर कर सकते हैं.
द्वितीय अपील क्या है?
द्वितीय अपील आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने का अंतिम विकल्प है. आप द्वितीय अपील सूचना आयोग के पास दायर कर सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के विरुद्ध आपके पास केद्रीय सूचना आयोग है. प्रत्येक राज्य सरकार के लिए, राज्य सूचना आयोग हैं.
क्या द्वितीय अपील के लिए कोई प्रारूप है?
नहीं, द्वितीय अपील के लिए कोई प्रारूप नहीं है (लेकिन राज्य सरकारों ने द्वितीय अपील के लिए भी प्रारूप निर्धारित किए हैं). एक सादा पन्ने पर केद्रीय या राज्य सूचना आयोग को संबोधित करते हुए अपनी अपीली अर्जी बनाएं. द्वितीय अपील दायर करने से पूर्व अपीली नियम ध्यानपूर्वक पढ लें. आपकी द्वितीय अपील निरस्त की जा सकती है यदि वह अपीली नियमों को पूरा नहीं करती है.
क्या मुझे द्वितीय अपील के लिए फीस देनी होगी?
नहीं, आपको द्वितीय अपील के लिए कोई फीस नहीं देनी होगी. हांलांकि कुछ राज्यों ने इसके लिए फीस निर्धारित की है.
मैं कितने दिनों में द्वितीय अपील दायर कर सकता हूँ?
आप प्रथम अपील के निष्पादन के 90 दिनों के भीतर या उस तारीख के 90 दिनों के भीतर कि जब तक आपकी प्रथम अपील निष्पादित होनी थी, द्वितीय अपील दायर कर सकते हैं.
यह कानून कैसे मेरे कार्य पूरे होने में मेरी सहायता करता है?
यह कानून कैसे रुके हुए कार्य पूरे होने में सहायता करता है अर्थात् वह अधिकारी क्यों अब वह आपका रुका कार्य करता है जो वह पहले नहीं कर रहा था?
आपको यूआईडी क्यों चाहिये?
सरकार का मानना है कि एक यूआईडी कार्ड भारतवासियों के सारी समस्याओं का अंत कर देगा।
इसमें आपके ब्ल्ड यानि रक्त संबंधी जानकारी भी होगी और आपके पास चल और अचल संपत्ति का व्यौरा भी।
इस कार्ड में इलेक्ट्रानिक तरीके से आपका चरित्र प्रमाण भी सुरक्षित रखा जायेगा। इसका लाभ यह होगा कि अब यदि आपको पुलिस पकड़ेगी तो आपसे सवाल करने से पहले वह आपके कार्ड की खैर लेगी और यदि आपके पास यूआईडी यानि अति विशिष्ट कार्ड नहीं पाया गया तो सबसे पहले इसी जुर्म यानि सरकारी कार्ड नहीं रखने के जुर्म में कम से कम 6 महीने बामुशक्कत सजा दी जायेगी।
अरे भाई यदि आप आजाद भारत के गुलाम नागरिक हैं तो फ़िर आपको अपने गले में यूआईडी लगा पट्टा पहनना ही पड़ेगा।
सरकार के अनुसार इसकी विशेषताएं
यूआईडी कार्ड भारतवासियों के सारी समस्याओं का अंत कर देगा।
अति विशिष्ट कार्ड के हो जाने से आपको किसी भी प्रकार के अन्य कार्ड रखने की आवश्यकता नहीं होगी।
सुना है इस हाईटेक यूआईडी कार्ड में जीपीआरएस टेक्नोलाजी पर आधारित अलग से चिप भी लगा होगा, जिसके जरिये सरकार और सरकार के तंत्र किसी भी वक्त आपतक पहुंच सकती है।
आपको यह जानकारी मिल चुकी होगी कि गरीबों को यूआईडीकार्ड बनवाने के बदले 50 रुपये भी मिलेंगे।
अब जरा सोचिये कि सरकार आपकी भलाई के लिये आपको यूआईडी कार्ड बनवा रही है और इसके बावजूद आपको 50 रुपये क्यों दे रही है। अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ था।
हकीकत क्या
इसके साथ ही शुरु हो चुका है घोटाले का नया युग।
हम बताते हैं इसका राज। दरअसलयूआईडी कार्ड का खेल भारत सरकार का अपना नहीं है। यह हमारे शासकों ने पश्चिमी देशों से आयात किया है।
इस कार्ड को पढ़ने वाली मशीने भी केवल विदेशी कम्पनियों की ही होंगी और उन्हें बैठे बिठाए हमारे देश के बहुमूल्य आंकडे़ प्राप्त हो जाएंगे जिनके लिए ये करोड़ो डालर फूंक देते
इसका एक और पहलू यह है कि आर्थिक संकट से जुझ रही कंप्यूटर एवं अन्य इलेक्ट्रानिक कंपनी को रोजगार मिल सके।
सवा अरब लोगों कायूआईडी बनेगा तब कितने लाख कम्प्यूटर, स्कैनर, चिप और साफ़्टवेयरों की आवश्यकता होगी।
इसके लिये जिन कंपनियों के हार्डवेयर और साफ़्टवेयर खरीदे जायेंगे, उसके प्रतिनिधियों ने हमारे शासकों की जेब को गर्म किया होगा।
जबकि वास्तविकता जगजाहिर है कि अब आपकी निजता खतरे में है।
आपकी नागरिकता खतरे में है।
जिस देश की 77 फ़ीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से भी कम में अपना गुजारा करता हो।
जिसे न तो पैन कार्ड चाहिये, न बैंक अकाऊंट कार्ड और न ही कोईयूआईडी कार्ड।
इन्हें तो दो वक्त की रोटी चाहिये। अगर सरकार कुछ देना ही चाहती है तो इन्हें दो वक्त की रोटी और अपने परिवार का तन ढकने के लिये आवश्यक पैसा कमाने का अवसर दे,
यूआईडी कार्ड के जरिये सरकार आपका नहीं, बल्कि उन कारपोरेट कम्पनियों का भला कर रही है, जिसके सितारे आजकल गर्दिश में है।
इन कम्पनियों में अमेरिका की वे कम्पनियां हैं जो सीआईए के लिए उपकरणों का उत्पादन करती हैं और उन्हीं के एजेंट इन कम्पनियों में हैं। अब स्वयं सोचिये की हमारी प्राइवेसी अब हमारी नहीं उस पर हर समय हर पल अमेरिका की नजर रहेगी। यह भी एक प्रकार की गुलामी ही है। जिसे हमारे नेताओं ने विदेशी कम्पनियों के हाथों बेच दिया है।
निराधार करती आधार और जनसंख्या रजिस्टर परियोजना
गोपाल कृष्ण
जन-नीति विश्लेषक एवं सामाजिक कार्यकर्ता
(गोपाल कृष्ण सिटिज़न फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज़ के सदस्य हैं. लंबे समय से पर्यावरण एवं रासायनिक प्रदूषण के मुद्दे पर काम कर रहे हैं)
http://www.pratirodh.com/special-features-news/188-30-Dec-2011/.html
दिसम्बर 13 को वित्त की संसदीय समिति की जो रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की गयी उसने ये जगजाहिर कर दिया की भारत सरकार की शारीरिक हस्ताक्षर या जैवमापन (बायोमेट्रिक्स) आधारित विशिष्ट पहचान अंक (यूआईडी/आधार परियोजना) असंसदीय, गैरकानूनी, दिशाहीन और अस्पष्ट है और राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक अधिकारों के लिए खतरनाक है. बायोमेट्रिक पहचान तकनीक और ख़ुफ़िया तकनीक के बीच के रिश्तो की पड़ताल अभी बाकी है.
यह संसदीय रिपोर्ट कहती है की सरकार ने विश्व अनुभव की अनदेखी की है. इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया की मौजूदा पहचान प्रणाली को कारगर कैसे बनाया जाए. हैरानी की बात है की जल्दबाजी में ऐसा कोई तुलनात्मक अध्ययन भी नहीं किया गया जिससे यह पता चलता की मौजूदा पहचान प्रणाली कितनी सस्ती है और आधार और जनसँख्या रजिस्टर जैसी योजनाये कितनी खर्चीली है. आजतक किसी को यह नहीं पता है की आधार और जनसँख्या रजिस्टर पर कुल अनुमानित खर्च कितना होगा.
सरकार यह दावा कर रही थी कि यह परियोजना को देशवासियों और नागरिको को सामाजिक सुविधा उपलब्ध कराने की परियोजना है. अब यह पता चला है की इस योजना के पैरोकार गाड़ियो और जानवरों पर भी ऐसी ही योजना लागु करने की सिफारिश कर चुके है, ये बाते परत दर परत सामने आ रही है. यह परियोजना १४ विकासशील देशो में फ्रांस, दक्षिण कोरिया और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के एक पहल के जरिये लागु किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुका है और नेपाल और बंगलादेश में लागु किया जा रहा है.
संसदीय समिति ने कानुनविदों, शिक्षाविदो और मानवाधिकार कार्यकर्ताओ की इस बात को माना है की यह देशवासियों के निजी जीवन पर एक तरह का हमला है जिसे नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार के हनन के रूप में ही समझा जा सकता है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में ब्रिटेन सरकार द्वारा ऐसे ही पहचानपत्र कानून 2006 को समाप्त करने के फैसले का भी जिक्र किया है जिसका उद्धरण देश के न्यायाधिशो ने दिया था.
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है. भारत के निर्धनतम लोगों तक पहुंचने में 12 अंकों वाला आधार कार्ड सहायक होने का दावा करने वाले इस विशिष्ट पहचान परियोजना का विश्व इतिहास के सन्दर्भ में नहीं देखा गया.
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके, निशानदेही को सही मानकर वित्तमंत्री ने 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यूआईडी परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी. जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औज़ार किसी खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकता हैं. भारत में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में. अगर एक समग्र अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह संवेदनशील निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे.
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती. अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यूआईडी के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? योजना आयोग की यूआईडी और गृह मंत्रालय की राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर वही सब कुछ दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम बना. यूआईडी का नागरिकता से कोई संबंध नहीं था, वह महज निशानदेही का साधन है. दरअसल यह जनवरी 1933 से जनवरी 2011 तक के ख़ुफ़िया निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है.
इस पृष्ठभूमि में, ब्रिटेन की साझा सरकार द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचानपत्र योजना को समाप्त करने का निर्णय वैसे ही स्वागत योग्य है जैसे अपनी संसदीय समिति की अनुसंसा ताकि नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा हो सके. पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर देगी. वहां की सरकार ने घोषणा की है की अगले कदम में (बायोमेट्रिक) जैवसांख्यिकीय पासपोर्ट, सम्पर्क-बिन्दुओं पर इकट्ठा किये जाने वाले आंकड़ों तथा इंटरनेट और ई-मेल के रिकार्ड का भंडारण खत्म किया जाएगा.
पिछले साल 18 मई की प्रेस विज्ञप्ति में भारत सरकार ने बताया था कि कैबिनेट कमेटी ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा निवासियों के जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक आंकड़ों को इकट्ठा करने की जो पद्धति सुझाई गई है, उसे सिद्धांततः स्वीकार कर लिया है. इसमें चेहरे, नेत्रगोलक (पारितारिका) की तस्वीर लेने और सभी दस उंगलियों के निशान लेने का प्रावधान है. इसमें 5 से 15 आयुवर्ग के बच्चों के नेत्रगोलक के आंकड़े इकट्ठा करना शामिल है. इन्हीं मानकों और प्रक्रियाओं को जनगणना के लिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया और यूआईडी व्यवस्था के अन्य रजिस्ट्रारों को भी अपनाना पड़ेगा. संसदीय समिति ने सरकार के इस कदम को असंवैधानिक और कार्यपालिका के अधिकार से बाहर पाया.
भारत की आधार परियोजना की ही तरह ब्रिटेन में भी इसका कभी कोई उद्देश्य बताया जाता था, कभी कोई. इस परियोजना को गरीबों के नाम पर थोपा जा रहा था. कहा जा रहा था कि पहचान का मसला राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, बैंक खाता, मोबाइल कनेक्शन आदि लेने में अवरोध उत्पन्न करता है. पहचान अंक पत्र गरीब नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय सेवाओं सहित अनेक संसाधन प्राप्त करने योग्य बनाएगा. ब्रिटेन की बदनाम हो चुकी परियोजना के पदचिन्हों पर चलते हुए यह भी कहा जा रहा था कि पहचान अंकपत्र से बच्चों को स्कूल में दाखिले में मदद मिलेगी. ब्रिटेन सरकार के हाल के निर्णय के बाद कहीं भारत में भी इस परियोजना को तिलांजलि न दे देनी पड़े, इस बात की आशंका के चलते अब सरकार के द्वारा कहा जा रहा था यह वैकल्पिक है अनिवार्य नहीं जबकि हकीकत कुछ और ही थी.
योजना मंत्रालय की आधार यानि यूआईडी योजना से गृह मंत्रालय का राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) परियोजना शुरू से ही जुडा हुआ था जिसका खुलासा प्रधानमन्त्री द्वारा दिसम्बर 2, 2006 को गठित शक्ति प्राप्त मंत्रिसमूह की घोषणा से होता है जिसकी तरफ कम ध्यान दिया गया है. यह पहली बार है कि जनसंख्या रजिस्टर बनाई जा रही है. इसके जरिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया जो कि सेन्सस कमिश्नर भी है देशवासियों के आंकड़ों का भंडार तैयार करेंगे. यह समझ जरुरी है कि जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर अलग-अलग चीजें हैं. जनगणना जनसंख्या, साक्षरता, शिखा, आवास और घरेलू सुविधाओं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन दर, मृत्युदर, भाषा, धर्म और प्रवासन आदि के संबंध में बुनियादी आंकड़ों का सबसे बड़ा स्रोत है जिसके आधार पर केंद्र व राज्य सरकारें योजनाएं बनती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन करती हैं, जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर देशवासियों और नागरिकों के पहचान संबंधी आंकड़ों का समग्र भंडार तैयार करने का काम करेगा. इसके तहत व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्टीयता, पेशा, वर्तमान और स्थायी निवास का पता जैसी तमाम सूचनाओं का संग्रह किया जाएगा. इस आंकड़ा-भंडार में 15 साल की उम्र से उपर सभी व्यक्तियों की तस्वीरें और उनकी उंगलियों के निशान भी रखे जाएंगे.
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आंकड़ो-भंडार को अंतिम रूप देने के बाद, अगला कार्यभार होगा हर नागरिक को विशिष्ट पहचान पत्र प्रदान करना. प्रस्तावित यह था कि पहचानपत्र एक तरह का स्मार्ट-कार्ड होगा जिसके उपर आधार पहचान अंक के साथ व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, फोटो आदि बुनियादी जानकारियां छपी होंगी. सम्पूर्ण विवरण का भंडारण चिप में होगा.
ब्रिटेन की ही तरह यहां भी 1.2 अरब लोगों को विशिष्ट पहचान अंक देने की कवायद को रोके जाने की जरूरत थी, क्योंकि मानवाधिकार उलंघन की दृष्टि से इसके खतरे कल्पनातीत है इसे संसदीय समिति ने समझा है. बिना संसदीय सहमती के 13वें वित्त आयोग ने प्रति व्यक्ति 100 रूपए और प्रति परिवार 400-500 रूपए गरीब परिवारों को विशिष्ट पहचान अंक के लिए आवेदन करने हेतु प्रोत्साहन के बतौर दिए जाने का प्रावधान किया था. यह गरीबों को एक किस्म की रिश्वत ही है. इस उद्देश्य के लिए आयोग ने राज्य सरकारों को 2989.10 करोड़ की राशि मुहैया कराने की संस्तुति की है.
सवाल यह है की सरकार ने नागरिकों के अंगुलियों के निशान, नेत्रगोलक की छवि जैसे जैवमापक आंकड़ों का संग्रह करने के बारे में विधानसभाओं और संसद की मंजूरी क्यों नहीं ली और इस बात को क्यों नज़र अंदाज़ किया की ऐसी ही परियोजना को ब्रिटेन में समाप्त कर दिया गया है किया है.?
प्राधिकरण की ही जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) यह खुलासा किया कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा. यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया. जैवमापन मानक समिति जैवमापन में अमेरिका और यूरोप के पिछले अनुभवों का भी हवाला दिया और कहा कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए. समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि बताती है. यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता.
संसदीय समिति ने यह समझा की ऐसी योजनाये सरकार आम नागरिक समाज के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल हो सकते है. समिति इसे संसद के विशेषाधिकार का हनन का मामला मानती है कि विधेयक के पारित हुए बिना ही ३ करोड़ ७३ लाख यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या बना लिए.
विशिष्ट पहचान अंक और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर सरकार द्वारा नागरिकों पर नजर रखने के उपकरण हैं. ये परियोजनाएं न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं. विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण के कार्य योजना प्रपत्र में कहा गया है कि विशिष्ट पहचान अंक सिर्फ पहचान की गारंटी है, अधिकारों, सेवाओं या हकदारी की गारंटी नहीं. आगे यह भी कहा गया है कि यह पहचान की भी गारंटी नहीं है, बल्कि पहचान नियत करने में सहयोगी है.
एक गहरे अर्थ में यशवंत सिन्हा की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति विशिष्ट पहचान अंक जैसे ख़ुफ़िया उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करती है. समिति यह अनुसंसा करती है की संसद बायोमेट्रिक डाटा को इकठ्ठा करने के कृत्य की जांच करे. जनसंगठनों की मांग है की सीएजी विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण की कारगुजारियों की जांच करे और इसके और जनसँख्या रजिस्टर द्वारा किये जा रहे कारनामो को तत्काल रोका जाये. देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार अंक योजना और जनसँख्या रजिस्टर का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है.
गौरतलब है की कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिस्ट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर होने वाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, इन योजनाओं के द्वारा देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर का रिकॉर्ड रखा जा रहा है. यह एक ऐसे निजाम के कदमताल की गूंज है जो नागरिको को कैदी सरीखा मानता है. बायोमेट्रिक डाटाबेस आधारित राजसत्ता का आगाज हो रहा है बावजूद इसके जानकारी के अभाव में कुछ व्यस्त देशवासियों को बायोमेट्रिक तकनीक वाली कंपनियों के प्रति प्रचार माध्यम द्वारा तैयार आस्था चौकानेवाली है. मगर लाजवाब बात तो यह है की उन कर्मचारियों से यह आशा कैसे की जा सकती है की वो बायोमेट्रिक निशानदेही की मुखालफत करेंगे जो अपने दफ्तरों में बायोमेट्रिक हस्ताक्षर करके अन्दर जाते है. ऐसे में संसदीय समिति की सिफारिशों में एक उम्मीद की किरण दिखती है. कुछ राज्यों ने भी केंद्र सरकार को ऐसी परियोजनायो के संबध में आगाह किया है. संसद और राज्य की विधान सभाओ को संसदीय समिति के सिफारिशों को सरकार से अमल में लाने के लिए तत्काल निर्णय लेने होंगे.
संसद की अवमानना है, आधार/एनपीआर के लिए बजटीय आवंटन
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आधार-यूआईडी के लिए 14,232 करोड़ रुपए का बजटीय आवंटन संसद की अवमानना है क्योंकि यह एनआईडीएआई विधेयक 2010 पर संसद की वित्त पर स्थायी समिति द्वारा की गई सिफारिशों की अनदेखी करता है। यह संसद में 13 दिसंबर, 2011 को जमा कराई गई थी और इसने आधार व ण्नपीआर के लिए बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण की वैधता पर सवाल उठाया था जिसे कोई संसदीय मंजूरी प्राप्त नहीं है। बजटीय अभिभाषण, पीएससी की रिपोर्ट 2009 और यूआईडीएआई पर बायोमीट्रिक रिपोर्ट के संग्रहण पर पीआईबी की रिलीज़ अनुलग्नित है।
यह याद दिलाया जाना जरूरी है कि केंद्रीय बजट 2009-10 पेश करते वक्त वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सरकार द्वारा यूआईडीएआई की स्थापना की घोषणा की थी ताकि ''भारतीय नागरिकों की पहचान और बायोमीट्रिक आंकड़ों का एक आॅनलाइन डेटाबेस बनाया जाएगा तथा देश भर में पंजीकरण व पहचान सेवाएं मुहैया कराई जाएंगी।'' उन्होंने इस परियोजना के लिए 120 करोड़ मुहैया कराए थे और इसे ''जन सेवाओं के वितरण के संदर्भ में प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम करार दिया था।'
मंत्री ने संसद को यह नहीं बताया कि यूआईडीएआई 2009-10 में केवल 30.92 करोड़ से शुरू किया गया था। संसद को इस मामले में अंधेरे में रखा गया कि कैसे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को आपस मंे जोड़े बगैर भारत के हर नागरिक को आधार/यूआईडी संख्या बांटनी शुरू कर दी गई। इतना ही नहीं, बगैर किसी विधायी मंजूरी के जनांकिकीय आंकड़ों और फील्ड वेरिफिकेशन तथा बायोमीट्रिक से जुड़ी समितियों की स्थापना कर दी गई।
सरकार ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि यूआईडीएआई द्वारा आधार संख्या के लिए चुने गए सेवा प्रदाता की जानकारी विधायिका को न लगने पाए। इसके लिए 2010-11 के बजट में वित्त मंत्री ने 1900 करोड़ रुपए का आवंटन किया था। यह माना जा रहा है कि ''सीआईडीआर को मैनेज्ड सर्विस प्रोवाइडर को लंबे अनुबंध के तौर पर दे दिया जाएगा। वित्त वर्ष 2011-12 के लिए यूआईडीएआई को 3000 करोड दिए गए हैं। सार्वजनिक तौर पर इसका विवरण अनुपलब्ध है। एमएसपी की राष्ट्रीय पहचान में हो रहे बदलाव ओर बाहरी व आंतरिक गुप्तचर एजेंसियों के साथ उसके संबंधों की संसदीय जांच करवाई जानी चाहिए।
वित्त पर संसद की स्थायी समिति की विस्फोटक रिपोर्ट नागरिकों का डेटाबेस बनाने के क्रम में बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण की वैधता पर सवाल उठाती है। रिपोर्ट कहती है (सिफारिशों वाले खंड में), ''बायोमीट्रिक सूचना का संग्रहण और निजी जानकारी के साथ उसके संबंधों पर नागरिकता कानून 1955 तथा नागरिकता नियम 2003 में संशोधन के बगैर कोई अन्य विधेयक बनाकर सही ठहराने की गुंजाइश नहीं बनती, और इसकी संसद को विस्तार से पड़ताल करनी होगी।'' इससे यह पता चलता है कि केंद्रीय बजट में आधार के लिए आवंटन अवैध था और उसकी विधायी बाध्यता की अवमानना है।
वित्त पर संसदीय समिति की इस टिप्पणी के बावजूद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को जारी रखा गया है जिसे गृह मंत्रालय के अंतर्गत चलाया जा रहा है। यह दावा किया जा रहा है कि इस डेटाबेस को बनाने का उद्देश्य सरकारी योजनाओं के तहत सेवाओं और लाभों का बेहतर क्रियान्वयन है तथा सुरक्षा और नियोजन को सुधारना है।
केंद्रीय बजट 2012-13 में कहा गया है, ''श्री नंदन निलेकणी के नेतृत्व में सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण पर आईटी रणनीति पर कार्य बल की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है… यह कदम 12 करोड़ किसान परिवारों को लाभ देगा, जबकि उर्वरकों के दुरुपयोग को रोक कर सब्सिडी पर होने वाले खर्च को कम करेगा।'' अतीत में सब्सिडी के प्रत्यक्ष हस्तांतरण से होने वाले ऐसे फायदे बेकार साबित हो चुके हैं लेकिन सरकार अब भी निजी हितों के दबाव में इस रास्ते पर चलने को आमादा है।
आर्थिक सर्वेक्षण 2011-12 कहता है, ''आधार परियोजना दुनिया की सबसे बड़ी बायोमीट्रिक संग्रहण और पहचान परियोजना बनेगी।'' इसमें इस बात को स्वीकार नहीं किया गया है कि अतीत में कई देशों ने ऐसी परियोजनाओं को त्याग दिया है, और यह तथ्य वित्त पर पीएससी की रिपोर्ट में भी शामिल है।
यूआईडीएआई स्वीकार करता है कि इसमें ''स्वामित्व, प्रौद्योगिकी और निजता से जुड़े खतरे शामिल हैं।'' इसका दावा है कि इन जोखिमों को कम करने के लिए यह कुछ रणनीतियों को अपना रहा है, लेकिन इसे संसद और देश के नागरिकों के साथ अब तक साझा नहीं किया गया है।
इस सबके बीच वित्त पर संसदीय समिति कहती है कि आधार परियोजना में ''उद्देश्य की स्पष्टता'' का अभाव है और अपने क्रियान्वयन में यह ''दिशाहीन'' है, जिससे ''काफी भ्रम'' फैल रहा ह। मौजूदा कानूनी ढांचे के अंतर्गत बायोमीट्रिक आंकड़ों का संग्रहण आइडेंटिटी आॅफ प्रिजनर एक्ट के तहत अस्थायी अवधि के लिए किया जा रहा है। आधार और एनपीआर के मामले में बायोमीट्रिक आंकड़ा बगैर केसी संवैधानिक या कानूनी मंजूरी के स्थायी तौर पर इकट्ठा किया जा रहा है। इस काम का नेतृत्व गृह मंत्रालय के हाथों में है।
एनपीआर परियोजना के दो घटक हैंः सभी सामान्य नागरिकों के जनांकिकीय आंकड़ों का डिजिटलीकरण और उन सभी नागरिकों का बायोमीट्रिक पंजीकरण जो पांच साल या उससे ज्यादा के हैं। जनांकिकीय आंकड़े में निजी जानकारी शामिल है जिसे 2011 की जनगणना में एकत्रित किया गया है जबकि बायोमीट्रिक सूचना के तहत चेहरे की तस्वीर, दोनों आंखों की आयरिस का स्कैन और पंजीकृत नागरिकों की दस उंगलियों के निशान लिया जाना शामिल है।
तथ्य यह है कि गृह मंत्रालय की यह सारी कवायद ''किसी भी विधेयक के दायरे के बाहर की चीज है'' लेकिन इसके बजाय इसने इसने नागरिकता कानून 1955 और नागरिकता नियमों के तहत सिर्फ बायोमीट्रिक आंकड़ों के संग्रहण के दिशानिर्देश दिए हैं। यह देश के सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य बताया गया है। एनपीआर का निर्माण एनआरआईसी के निर्माण की दिशा में पहला कदम है। इसमें कहा गया है कि निवासियों का डेटाबेस तैयार होने के बाद नागरिकता स्थिति की पड़ताल के बाद ही नागरिकों को उसमें से छांट कर अलग किया जाएगा। ऐसे दूरगामी प्रयासों के पीछे कोई विधायी आधार न होने की स्थिति में यह काम करने के लिए बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र पर राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र (एमपीएनआईसी) पर एक मंत्रिसमूह की सिफारिशों का हवाला दिया गया है। यह सारी कवायद स्वीकार करने योग्य नहीं है, खासकर तब जब देश की केंद्र सरकार अल्पमत की सरकार है।
सिविल सोसायटी समूह ऐसे में आधार और अन्य जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रधानमंत्री को 14 मार्च को दिए गए ज्ञापन का स्वागत करते हैं जिसमें 3.57 करोड़ लोगों के हस्ताक्षर भी शािमल हैं। इस पृष्ठभूमि में वित्त पर संसदीय समिति की सिफारिशों के मद्देनजर आधार और अन्य जनविरोधी नीतियों को समाप्त करने की मांग करते ये दस्तखत और यूपी चुनाव दिखाते हैं कि अपने ही नागरिकों के खिलाफ जासूसी की यह परियोजना कितनी गैरकानूनी और अवैध है।
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Friday, October 12, 2012
ताकि घोटालों और पक्षपात, भेदभाव, बहिष्कार और नरसंहार का पर्दाफाश न हो!
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