एक संवाददाता
पिछले एक दशक में उत्तराखंड में जो कुछ भी साहित्य के नाम पर हुआ या हो रहा था, वह सिर्फ महादेवी वर्मा सृजन पीठ में ही हो रहा था। इसकी स्थापना नैनीताल जिले के रामगढ़ नामक स्थान में गई थी। इस स्थापना के पीछे कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही की कई वर्षों की अथक मेहनत और संघर्ष था जो उन्हें कई मोर्चों पर लडऩा पड़ा था। पर आज यह सृजन पीठ तिकड़मों और षड्यंत्रों के चलते कुल मिला कर उसी रास्ते पर चली गई है जिस पर हिंदी क्षेत्र की हर संस्था का जाना हमारे समाज की नियति मालूम पड़ती है।
महादेवी सृजन पीठ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत में अपने तरह की विशिष्ट साहित्यिक संस्था के रूप में उभरा है। इस के पीछे जैसा कि होता है एक व्यक्ति का सपना रहा है जो कई मायनों में अभी भी अधूरा है। लगता नहीं कि यह सपना अब पूरा हो पाएगा। इसका कारण हमारा वह समाज है जिसका सारा ध्यान लूटपाट, और जैसा कि उत्तर प्रदेश के मंत्री और नेता शिवपाल सिंह यादव ने कहा है, चोरी-चकारी में है।
वृहत्तर हिंदी समाज तो छोडिय़े हिंदी का साहित्य और बुद्धिजीवी समाज भी जिस तरह से आत्मकेंद्रित हो गया है वह हताश करनेवाला है। यह समाज अजीब तरह के विरोधाभासों में जी रहा है। एक पक्ष है जो हर संस्थागत पतन और भ्रष्टाचार के प्रति तटस्थ रहता है, संभवत: चतुराई में कि मौका पडऩे पर उसका लाभ उठा ले, तो दूसरा ऐसा है जो हर संस्था पर घात लगाए बैठा रहता है और उसकी कोशिश रहती है कि किसी भी संस्था को रचनात्मक केंद्र के रूप में न तो विकसित होने दिया जाए और न ही काम करने। इसकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि अगर कोई संस्था चलती नजर आए तो उसे किसी तरह कब्जे में कर, उसका जितना हो सके, दोहन किया जाए। काशी नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदुस्तानी अकादेमी से लेकर अन्य दर्जनों साहित्यिक संस्थाओं की जो दशा है वह इसी का परिणाम है। अगर गैर सरकारी संस्थाएं कुछ लोगों के कब्जे में हैं तो अधिसंख्य सरकारी संस्थाएं राजनीतिक नियुक्तियों और नौकरशाही की जोड़-तोड़ के चलते पूरी तरह प्रभावहीन हो चुकी हैं।
इसका एक और पक्ष यह भी है कि जो भी व्यक्ति इस दिशा में कुछ करना चाहता है उसकी हर तरह से टांग खींची जाती है और यह सुनिश्चित कर दिया जाता है कि चाहे जो हो जाए, पर उसे रहने न दिया जाए। समयांतर के अगस्त अंक में मध्यप्रदेश की तीन जाने-माने लेखकों का पत्र इसी तरह के दुरुपयोग को लेकर है। केंद्रीय हिंदी संस्थान के बारे में भी समयांतर में विस्तार से लिखा जा चुका है। आश्चर्य यह है कि वृहत्तर हिंदी समाज में इस बारे में एक रहस्यमय चुप्पी दिखलाई देती है।
अगर कुछ देर को उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश को भूल भी जाएं तो भी स्वयं उत्तराखंड के साहित्य और सांस्कृतिक संस्थानों में क्या हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। सच यह है कि इस नवोदित प्रदेश का हर साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान लगभग निष्क्रिय है। पिछले एक दशक में उत्तराखंड में जो कुछ भी साहित्य के नाम पर हुआ या हो रहा था, वह सिर्फ महादेवी वर्मा सृजन पीठ में ही हो रहा था। इसकी स्थापना नैनीताल जिले के रामगढ़ नामक स्थान में गई थी। 1996 में हुए इस उद्घाटन समारोह में निर्मल वर्मा और अशोक वाजपेयी सहित कई जाने-माने लेखक उपस्थित थे। इस स्थापना के पीछे कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही की तीन वर्ष की अथक मेहनत और संघर्ष था जो उन्हें कई मोर्चों पर लडऩा पड़ा था। पर आज यह सृजन पीठ कुल मिला कर उसी रास्ते पर चली गई है जिस रास्ते पर हिंदी क्षेत्र की हर संस्था का जाना हमारे सामज की नियति मालूम है। लगता है कुमाऊं विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को यह हाथ खर्च चलाने और पिकनिक मानने का अच्छा स्थान नजर आया है। सारा विभाग सक्रिय हो गया है या कर दिया गया है। जो कार्यक्रम हो रहे हैं वे अध्यापकों और छात्रों को संस्थान के खर्च से जमा कर बिना किसी सोच-विचार के किए जा रहे हैं। सच यह है कि प्राध्यापकों के षडयंत्र के चलते कुलपति की सहायता से इसे पिछले रास्ते से कब्जा लिया गया है और कोशिश की जा रही है कि यह हिंदी विभाग/विश्वविद्यालय का एक उपनिवेश बन जाए। यह कैसे हुआ, यह कथा अत्यंत क्षूद्रता, स्वार्थपरता और षडय़ंत्र-बुद्धि का शर्मनाक उदाहरण है।
महादेवी वर्मा ने 1936-37 में रामगढ़ में एक बंगला बनवाया था और वह गर्मियों में यहां आया करती थीं। उनके देहांत के बाद से यह मकान देखभाल के बिना जर्जर हालत में पड़ा हुआ था। उन दिनों कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर में अध्यक्ष पद पर काम कर रहे जानेमाने लेखक बटरोही ने महादेवी वर्मा के वारिस साहित्य सहकार न्यास के सचिव रामजी पाण्डेय की सलाह पर इस जगह को एक ऐसे केंद्र के रूप में विकसित करने का बीड़ा उठाया, जहां गंभीर साहित्यिक चर्चा हो सके और देश भर के लेखक वहां रह कर भी काम कर सकें। बटरोही को इस स्थल को अवैध कब्जे से छुड़वाने और वहां जरूरी निर्माण करवाने में जो संघर्ष करना पड़ा उसकी एक लंबी कहानी है। सच यह है कि संस्थान द्वारा बनाए गए अतिथि गृह का एक हिस्सा आज भी वहां के ग्राम प्रधान के कब्जे में है और स्वयं महादेवी के मकान के स्वामित्व को लेकर एक मुकदमा नैनीताल उच्च न्यायालय में चल रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अगर बटरोही न होते तो महादेवी वर्मा का यह बंगला अब तक रीयल एस्टेट भेडिय़ों के हाथ में आ कर गायब हो गया होता। इस इलाके में इन भेडिय़ों का कैसा आतंक है, इसका अनुमान यहां जा कर ही लगाया जा सकता है।
दूसरी ओर स्थिति यह है कि हिंदी साहित्य जगत ने बटरोही के काम को सरहाने और उनकी मदद करने की जगह उन्हें टंगड़ी मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक ओर दूधनाथ सिंह जैसे महारथियों ने बिना सोचे-समझे आरोप लगाए कि वह इस संपत्ति को महादेवी के नाम से हटाकर अपने नाम करना चाहते हैं। यह जाने बगैर कि जमीन का मालिक सिर्फ जीवित व्यक्ति ही हो सकता है और बटरोही ने जो दाखिल खारिज दायर किया था वह संस्था के सचिव के तौर पर किया था, पर अंतत: यह काम भी तकनीकी कारणों से किसी और ने किया। खैर दूधनाथ सिंह इस तरह के आरोप लगाने के माहिर हैं। उन्होंने जिस तरह के लांछन महादेवी पर लिखी अपनी किताब में लगाए हैं उससे बेहतर उनकी मानसिकता का प्रमाण और क्या हो सकता है।
पर इसके बाद बारी आई भारत भारद्वाज की जिन्होंने हंस को मंच बना कर अपने स्तंभ में जितना विषवमन बटरोही के खिलाफ हो सकता था किया और उत्तराखंड के अति महत्त्वाकांक्षी भाजपाई मुख्यमंत्री निशंक तक को साध लिया। (कुछ लोगों का कहना है उनको ज्ञानपीठ दिलवाने का झांसा दे कर। कहावत है न कि मूर्खों के सींग थोड़े ही होते हैं। ) भारत भारद्वाज का एक सूत्री कार्यक्रम बटरोही के स्थान पर अपनी महिला मित्र को बैठाने का था। इसके लिए वह सरासर झूठ बोलने पर भी उतर आए थे। इसके लिए सरकार के निर्देश में कुमाऊं विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति वी.वी. आरोड़ा ने, जो अपनी भाजपा भक्ति के लिए तो जाने ही जाते थे पर उनके दौरान कुमाऊं विश्वविद्यालय को लोग मजाक में कमाऊ विश्वविद्यालय कहने लगे थे, विज्ञापन जारी कर दिया गया था जिसमें अहर्ताएं वही थीं जो उस महिला उम्मीदवार के अनुकूल थीं। बल्कि कहना चाहिए उन्हीं को ध्यान में रख कर तय की गईं थीं। पर उन के दुर्भाग्य से तभी निशंक को अपने पद से हटा दिया गया और उसके बाद भाजपा ही हार गई।
प्रसंगवश चार पंक्ति का एक कालम का वह विज्ञापन, जो निदेशक के पद के लिए 2010 में दिया गया था उसका रु. 73, 440 का भुगतान आज भी विवादास्पद है। विवाद यह है कि यह विज्ञापन कुलपति ने अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए बिना पीठ के निदेशक या उसकी कार्यकारिणी से सहमति लिए दिया था। कुलपति पिछले दो वर्षों से लगातार निदेशक पर दबाव डाल रहे थे कि वे इस बिल को पास कर दें। पर इस पर कार्यकारिणी सहमत नहीं हुई थी। उसकी आपत्ति यह थी कि इतने छोटे विज्ञापन का मूल्य इतना अधिक कैसे है, इस बात का स्पष्टीकरण दिया जाए। संभवत: कुलपति का वर्तमान निदेशक बटरोही के खिलाफ होने का यह एक बड़ा कारण रहा होगा।
असल में इस सब झंझट की जड़ में डेढ़ करोड़ की वह राशि है जिसे बटरोही ने काफी जद्दोजहद के बाद उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी से इस संस्थान के लिए एक मुश्त बीज राशि के तौर पर स्वीकृत करवा पाये थे। तय यह हुआ था कि कुमाऊं विश्वविद्यालय सिर्फ इस पैसे को नियंत्रित करेगा पर पीठ के दैनंदिन कार्यक्रमों में उसका दखल नहीं होगा। यह पीठ को नौकरशाही से बचाने के लिए इस उम्मीद में किया गया था कि पढऩे-लिखने से जुड़े लोग रचनात्मक कामों में ज्यादा उदार दृष्टि और समझवाले होते हैं। इस राशि के व्याज से, जो इतने महत्त्वाकांक्षी संस्थान को देखते हुए बहुत सीमित है, पीठ के कर्मचारियों, जिनकी संख्या पांच है, का वेतन, दैनंदिन खर्च के अलावा साहित्यिक कार्यक्रम भी किए जाते रहे हैं। पर इससे संस्थान की कम से कम आधारभूत समस्या का समाधान हो गया था। वैसे हो सकता है कि यह राशि उस व्यक्ति के लिए कम हो जो बेहतर और राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम करवाना चाहते हों, पर सच यह है कि जिनका उद्देश्य शुद्ध मौज करना हो उनके लिए कम नहीं है।
विगत 18 वर्षों की बटरोही की कड़ी मेहनत का ही नतीजा है कि उन्होंने अपने निजी संबंधों के चलते, खंडहर हो चुके मकान का जीर्णोद्धार किया, वहां एक आधुनिक पुस्तकालय बनवाया, लेखकों के लिए आवासीय व्यवस्था भी की और वहां किए गए साहित्यिक कार्यक्रमों के चलते पीठ को एक राष्ट्रीय पहचान मिली। इस सब से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि बटरोही का सपना सदा इस संस्थान को प्रादेशिक संकीर्णता से दूर रख कर राष्ट्रीय स्वरूप देना था।
पीठ के जो नियम बनाए गए हैंउनके अनुसार इसके निदेशक की न्यूनतम उम्र 45 वर्ष और अधिकतम 70 प्रस्तावित है। यह नियमावली विश्वविद्यालय ने ही अनुमोदनार्थ राज्य सरकार को अक्टूबर, 2010 में भेजी थी जिस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। सत्य तो यह है कि यह नियमावली इससे तीन वर्ष पहले से भी सरकार के पास अनुमोदनार्थ पड़ी है। आखिर इस पर निर्णय क्यों नहीं लिया जा रहा है?
इस बीच जब निशंक मुख्य मंत्री थे और वह जिस महिला को निदेशक बनाना चाहते थे उसके लिए सरकार ने बिना पीठ की आधारभूत नियमावली को लागू किए एक आदेश सितंबर, 2010 में निदेशक का पद भरने के लिए निकाला। इस में लिखा गया था: ''कुमाऊं विश्वविद्यालय के अधीन सृजित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में निदेशक के पद पर नियमित नियुक्ति/चयन के संबंध में नियमावली प्रख्यापित न होने के कारण पीठ में निदेशक के पद पर चयन के संबंध में नियमावली के प्रख्यापन होने तक निम्र मानकों/व्यवस्थानुसार निदेशक के पद पर चयन की कार्यवाही किए जाने का निर्णय लिया गया है...। ''
इस आदेश में जो कि प्रमुख सचिव पीसी शर्मा के द्वारा पीठ के सारे उद्देश्यों और प्रस्तावित नियमों को ताक पर रख कर आयु (50 से कम न हो 60 से अधिक न हो) और शैक्षिणिक योग्यताओं को बदल दिया गया था। इसी तरह शैक्षिक अर्हता एवं अधिमान्यताएं शीर्षक के अंतरगत मांगा गया: ''निदेशक पद हेतु आवेदन करनेवाला व्यक्ति राष्ट्रीय स्तर का ख्याति प्राप्त हिंदी साहित्यकार होना आवश्यक है तथा संबंधित विषय में पीएचडी धारक हो। ''
जबकि नियमावली में यह ध्यान रखा गया है कि उम्मीदवार रचनात्मक प्रवृत्ति का हो और उसका दृष्टिकोण राष्ट्रीय हो। अक्टूबर, 2010 में कुलपति को लिखे अपने पत्र में तत्कालीन निदेशक और महादेवी सृजन पीठ के संस्थापक बटरोही ने लिखा था: ''निदेशक की शैक्षिक अर्हता एवं अधिमान्यताओं के अंतर्गत कहा गया है कि निदेशक को राष्ट्रीय स्तर का ख्यातिप्राप्त हिंदी साहित्यकार होना आवश्यक है। इसके साथ ही वह संबंधित विषय में पीएचडी धारक हो। हिंदी साहित्यकार कोई विषय नहीं है, जिसमें पीएचडी की उपाधि प्राप्त की जा सकती हो। दूसरे, दुनिया भर की भाषाओं के साहित्यकारों के बारे में देखा गया है कि उनका संबंध औपचारिक उच्च शिक्षा के साथ नहीं रहा है। हिंदी के लेखकों में ही जयशंकर प्रसाद सिर्फ सातवीं तक पढ़े थे, संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के प्रकांड विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हाई स्कूल भी नहीं थे, सुमित्रानंदन पंत इंटरमीडिएट पास थे, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद बीए पास थे, कथाकार शैलेश मटियानी हाई स्कूल पास थे, लेकिन इन सब के साहित्य को लेकर भारतीय एवं विश्व भर के विश्वविद्यालयों में हजारों शोधकार्य हुए हैं जिससे उन्हें पीएचडी की उपाधि प्राप्त हुई है। अत: निदेशक की योग्यताओं के अंतर्गत पीएचडी की अनिवार्यता समाप्त की जानी चाहिए। उसकी योग्यता रचनात्मक लेखन हो। '' यह उनकी पीठ को लेकर दृष्टि और चिंता को स्पष्ट कर देता है।
इस बीच 12 जुलाई, 2012 को कुलपति ने एक तरफा निर्णय लेकर इस तर्क के चलते कि बटरोही 65 वर्ष के हो गए हैं, कुलपति ने अंतरिम आदेश के आधार पर हिंदी विभागाध्यक्ष को कार्यभार सौंप दिया है। इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि जब नियमावली स्वीकृत ही नहीं हुई है तो निदेशक की उम्र का सवाल कहां से पैदा होता है। पीठ कोई सरकारी विभाग तो है नहीं। उसकी अपनी स्वयत्ता है, जिसे बरकरार रखा जाना चाहिए था।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आखिर उम्र को लेकर ऐसा क्या संकट था कि निदेशक को हटाया जाता? सच यह है कि सन 2008 से बटरोही निदेशक का कार्य अवैतनिक रूप से देख रहे थे। चूंकि उनकी स्थिति पीठ में एक सामान्य कर्मचारी की नहीं बल्कि इसके संस्थापक की है, इसलिए जब तक नियमानुसार कोई निदेशक नियुक्त नहीं कर दिया जाता उन्हें रहने देना चाहिए था। पर कुलपति ने जिस तरह की अशालीनता दिखलाई उसका उदाहरण है कुमाऊं विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के बीच 21 जुलाई को हुआ आपसी समझौता। इस समझौते की सारी बातचीत बटरोही के परिश्रम का परिणाम थी। योजनानुसार उन्हें ही कुलपति के साथ इस के लिए वर्धा जाना था। उन का दिल्ली तक रेल व आगे हवाई जहाज का टिकट भी लिया जा चुका था। कुलपति ने बिना एक पल सोचे उनकी जगह नये निदेशक देव सिंह पोखरिया का टिकट लिया और उन्हें लेकर वर्धा पहुंचे। यह तब है जब कि पुराने निदेशक ने न तो चार्ज दिया है और न उनसे छोडऩे के लिए कहा गया है। होना तो यह चाहिए था कि निदेशक की नयी नियुक्ति होने तक तत्काल पुरानी स्थिति बहाल की जाय और विश्वविद्यालय के द्वारा शासन को भेजी गई पीठ की नियमावली को परिनियमावली का रूप दिया जाय ताकि जनता के पैसे का कोई दुरूपयोग न कर सके और कोई रचनाकार ही निदेशक बनाया जा सके। यह कदम अपने आप में अवैधानिक है।
अगर इस संस्था को बचाना है तो सबसे पहले सरकार को इस की प्रस्तावित नियमावली को तत्काल स्वीकृत करना चाहिए। उसके बाद नये निदेशक का चयन किया जाना चाहिए और उस चयन मंडल में एक राष्ट्रीय स्तर का लेखक और किसी राष्ट्रीय स्तर की हिंदी साहित्यिक पत्रिका का संपादक अनिवार्य रूप से रखा जाना चाहिए। नियमावली में यह शर्त रखी गई है।
पर जैसा कि अब स्पष्ट हो चुका है कुलपति अरोड़ा पिछले एक वर्ष से इस जुगत में थे कि किसी बहाने बटरोही को हटा कर पीठ पर कब्जा किया जाए क्योंकि वह कुलपति द्वारा पीठ के मनचाहे दोहन के रास्ते में बाधा बन रहे थे। बटरोही से बदला लेने के लिए उन्होंने जाते-जाते एक भ्रामक आदेश का सहारा लेकर उन्हें हटा दिया। इस के लिए उन्होंने जो तरीका निकाला वह यह था कि अवैध तरीके से उन्होंने अगस्त, 2011 को एक गुप्त पत्र सरकार को लिखा कि चूंकि बटरोही 65 वर्ष के हो गए हैं उन्हें हटा कर इस पद को विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष को सौंप दिया जाए। इस के बावजूद निशंक सरकार तक ने तत्काल इस पर कोई निर्णय नहीं लिया। इसका कारण साफ था कि पीठ की नियमावली अभी भी विचाराधीन ही पड़ी है। इस बीच कुलपति लगातार कोशिश करते रहे कि सरकार उनके प्रस्ताव को मान ले। अंतत: सरकार ने यह कहते हुए उनकी बात सर्शत मानी कि ''प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट... की आयु 65 वर्ष से अधिक होने के फलस्वरूप उनके स्थान पर सम्यक विचारोपरांत महादेवी वर्मा सृजन पीठ का अतिरिक्त प्रभार विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक को दिए जाने की अनुमति इस शर्त के साथ प्रदान की जाती है कि शासन के पत्र 7 फरवरी, 2006 द्वारा गठित सर्च कमेटी की बैठक यथाशीघ्र आहूत करते हुए नियमानुसार निदेशक /पीठाधीश के चयन की कार्यवाही सुनिश्चित करने का कष्ट करें...। ''
पर यहां भी सवाल यह है कि आखिर सरकार ने कुलपति से यह क्यों नहीं पूछा कि इस बारे में कार्यकारिणी का प्रस्ताव कहां है? ऐसी क्या तात्कालिकता थी जिसके कारण कुलपति को बटरोही को हटाने की जरूरत पड़ी? न तो पीठ विश्वविद्यालय का कोई विभाग है और न ही बटरोही पीठ के कोई सामान्य कर्मचारी। कम से कम सरकार और कुलपति को यह तो नहीं ही भूलना चाहिए था कि यह पीठ मूलत: उत्तराखंड को उन्हीं की देन है। इसे देखते हुए भी जरूरी था कि सरकार द्वारा उनका उचित सम्मान किया जाए। जब तक पीठ अपना अंतिम रूप नहीं ले लेती बटरोही का उसके साथ बने रहने में क्या दिक्कत थी? उनका पीठ को लेकर जो सपना था और जो परिकल्पनाएं थीं आज जो कुछ है वह इसी का नतीजा है। ये योजनाएं आगे भी इस संस्था को एक रचनात्मक स्वरूप देने में निर्णायक सिद्ध होतीं। पर सरकार और अरोड़ा जैसे कुलपतियों के साथ दिक्कत यह है कि वे मशीन की तरह पूरी असंवेदनशीलता और आत्ममुग्धता से काम करते हैं। वे अपने खिलाफ कोई बात नहीं सुनना चाहते फिर चाहे वह कितनी ही गलत क्यों न हो। हर चीज को सरकारी विभाग की तरह चलाना चाहते हैं। अब बटरोही को हटाकर जिस व्यक्ति को नियुक्त किया गया है वह स्वयं मात्र पीएचडी है। सरकार और कुलपति से पूछा जाना चाहिए कि जिस आदमी का रचनात्मक काम शून्य हो और जिसकी अकादमिक जगत में भी कोई पहचान न हो, उसे उस पद पर बैठाना जिसके लिए स्वयं सरकार की मांग ''राष्ट्रीय स्तर का ख्याति प्राप्त हिंदी साहित्यकार होना आवश्यक है'' हो किस तरह से जायज है? यह आदमी किस तरह से इस बात को सुनिश्चित कर पायेगा कि अगला निदेशक राष्ट्रीय स्तर का साहित्यकार हो? ध्यान देने की बात यह भी है कि महादेवी पीठ की कार्यकारिणी में अब तक तीन-तीन वर्षों के लिए जो साहित्यकार शामिल किए गए है, उनमें अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, दयानंद अनंत, पंकज बिष्ट, गीता गैरोला शामिल हैं. निदेशक को कम-से-कम इस स्तर का लेखक तो होना ही चाहिए।
यह देखना होगा कि सरकार नये निदेशक को नियुक्त करने की प्रक्रिया कब शुरू करती है? वैसे भी साहित्य संस्कृति उसके एजेंडे में सबसे नीचे रहते हैं। ऐसा नहीं होता तो फिर सरकार द्वारा पीठ में गलत तरीके से नियुक्ति के दो प्रयत्न नहीं होते। ये बतलाते हैं कि सरकार चाहती है कि वहां तब तक अनिश्चित बनी रहे जब तक कि उनके मनोनुकूल कोई व्यक्ति नहीं मिल जाता। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सरकार और सरकारी कर्मचारियों से साहित्य और संस्कृति की आधारभूत समझ की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए अगर इस संस्था को बचाना है तो उसे विश्वविद्यालय और सरकार के कब्जे से निकाल कर पूरी तरह स्वायत्त किया जाना चाहिए। जरूरी है कि देश का पूरा लेखक समुदाय एकजुट होकर इसकी मांग करे। यह इसलिए भी जरूरी है कि इससे देश में साहित्यिक संस्थाओं को राजनीतिकों और नौकरशाहों के कब्जे से छुड़ा कर स्वायत्तता की राह पर बढ़ाया जा सकेगा।
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