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Wednesday, October 10, 2012

Fwd: [New post] निधन : मृणाल गोरे



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/9
Subject: [New post] निधन : मृणाल गोरे
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "1928- 17 जुलाई 2012 मृणाल गोरे ने उम्र के 84 सालों में से 70 साल राजनीतिक संघर्ष में बिताए। 1942 में कांग्रेस के"

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निधन : मृणाल गोरे

by समयांतर डैस्क

1928- 17 जुलाई 2012

MRUNAL_GOREमृणाल गोरे ने उम्र के 84 सालों में से 70 साल राजनीतिक संघर्ष में बिताए। 1942 में कांग्रेस के 'भारत छोड़ो' आह्वान पर उन्होंने डाक्टरी की पढ़ाई छोड़ दी। फिर राष्ट्र सेवा दल से जुड़ गईं और 1948 में सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुईं। 1961 में बंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) के लिए चुनी गईं। 1972 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर गोरेगांव से महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड मतों से जीतीं। 1975 में उन्होंने भूमिगत रह कर आपातकाल का विरोध किया। बाद में गिरफ्तार हुईं और जेल में रहीं। 1977 के चुनाव में वह जनता पार्टी के टिकट पर उत्तरी मुंबई सीट से जीतकर संसद में पहुंचीं। 1985 में जनता दल से एक बार फिर महाराष्ट्र विधानसभा के लिए चुनी गईं। गोवा मुक्ति आंदोलन और संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी रही।

बीएमसी की पार्षद चुने जाने पर उन्होंने गोरेगांव और फिर पूरे शहर में आम लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराने का सफल आंदोलन चलाया। जनभागीदारी से चलाए गए उस आंदोलन से वह 'पानी वाली बाई' के नाम से मशहूर हो गईं। नब्बे के दशक से लागू की गई नई आर्थिक नीतियों और उनके दुष्परिणामों के खिलाफ वह लगातार संघर्षरत रहीं। जनांदोलनों, विशेषकर नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ उनका जुड़ाव था। नर्मदा बांध बनने से विस्थापित होने वाले लोगों का उन्होंने साथ दिया और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी एनरॉन के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी।

मृणाल गोरे के राजनीतिक कर्म की यह विशेषता थी कि उनके दिमाग में शुरू से स्पष्ट था कि उन्हें किन लोगों के लिए काम करना है; किन मुद्दों/समस्याओं पर काम करना है; और किन मूल्यों के आधार पर काम करना है। उन्होंने हमेशा गरीब लोगों और वंचित समूहों के लिए काम किया। जीवन की मूलभूत जरूरतों और नागरिक सुविधाओं पर उनका संघर्ष केंद्रित होता था। वह हमेशा लोकशाही, समाजवाद ओर धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के आधार पर अपना राजनीतिक कर्म करती थीं। राजनीति को सत्ता का नहीं, सेवा का पर्याय मानती थीं। जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें अपने मंत्रिमंडल में बतौर स्वास्थ्य मंत्री लेना चाहते थे। लेकिन मृणाल गोरे ने कहा कि मंत्री बनने के बजाय मैं हमेशा की तरह लोगों के साथ और उनके बीच रह कर काम करना चाहूंगी।

यह स्वाभाविक है कि स्त्री-जीवन की समस्याओं के प्रति वह विशेष तौर पर संवेदनशील थीं और नर-नारी समता, स्त्री-अधिकार और अंतरजातीय विवाह की प्रबल समर्थक थीं। उन्होंने स्वयं समाजवादी आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता केशव गोरे के साथ 1948 में अंतरजातीय विवाह किया था। तब वह 20 वर्ष की थीं। 10 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद 1958 में केशव गोरे का निधन हो गया। लेकिन सीपीआई की तारा रेड्डी और सीपीएम की अहिल्या रंगनेकर के साथ मिल कर उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा। दूसरी बार विधानसभा में जाने पर उन्होंने प्राइवेट मेंबर बिल की मार्फत कन्या भ्रूणहत्या की ओर ध्यान दिलाया। महाराष्ट्र विधानसभा में लिंग परीक्षण और चुनिंदा गर्भपात के विरुद्ध 1986 में बना कानून मृणाल गोरे के गंभीर प्रयासों का नतीजा था।

मृणाल गोरे की एक और विशिष्टता यह थी कि वह कानून बनाने भर को समस्या का समाधान नहीं मानती थीं। अगर नेतृत्व लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं है तो कानून ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। वह नेताओं के लिए मानवीय संवेदना और सरोकार को जरूरी मानती थीं। उनका अपना राजनीतिक संघर्ष देश की वंचित जनता के प्रति करुणा और मानवीय सरोकार से परिचालित रहा।

समाजवादी विचारधारा और आंदोलन भारत और दुनिया में अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है। संकट पूंजीवाद पर भी है लेकिन उसके विकल्प के रूप में समाजवाद का आना अत्यंत कठिन लगता है। लैटिन अमेरिका के जिन तीन-चार देशों में पूंजीवादी साम्राज्यवाद का सफल विरोध संभव हुआ है, वहां अभी राष्ट्रीय पूंजीवाद ही प्रभावी लगता है। अरब क्रांति की कोख में भी समाजवाद का सपना नहीं पल रहा है। ऐसे में मृणाल गोरे जैसी ठेठ समाजवादी नेत्री का निधन वास्तव में समाजवाद के लिए एक अपूरणीय क्षति है। भारत के लिए और भी ज्यादा, जहां सभी सरकारें और मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां कारपोरेट पूंजीवाद की वाहक बन चुकी हैं और खुद राजनीतिक सौदेबाजी का पर्याय हो चुकी है।

मृणाल गोरे की खूबी थी कि वह चलने में लगभग अशक्त होने और गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद जीवन के अंत तक निराश नहीं थीं। 28 मई, 2011 को हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की पुनस्र्थापना में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सोशलिस्ट पार्टी के गठन के लिए मुंबई में होने वाली बैठकों में वह उपस्थित रहीं और पुनस्र्थापना के विचार को अपना पूरा समर्थन दिया।

- प्रेम सिंह

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