| Wednesday, 12 December 2012 10:55 |
शिवदयाल विकास का जो हल्ला द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मचा, उसके पीछे वास्तव में उपनिवेशवादी दर्शन ही था, जिसे नई विश्व-परिस्थितियों में गरीब-पिछड़े-नवस्वतंत्र देशों में खासतौर पर आजमाना था। विकास एक ऐसा चमत्कारी शब्द था जो कल के औपनिवेशिक शासकों को अब भी अपनी पूर्व प्रजा से जोड़े रख सकता था, जिसके सहारे एशिया, अफ्रीका और बाकी दुनिया के संसाधनों तक पहुंच बनाई जा सकती थी। इस अर्थ में विकास पश्चिम और पूरब (बल्कि शेष दुनिया) के बीच का सबसे विश्वसनीय सेतु बना। नव-उपनिवेशवाद, जिसका सबसे प्रगट रूप भूमंडलीकरण है, विकास की मरीचिका पर ही खड़ा है। यूरोप और अमेरिका का अनुगमन दुनिया के लगभग सभी देश कर रहे हैं। वे रास्ता दिखा रहे हैं, हम चल रहे हैं। कहने को दुनिया एक हो रही है, दूरियां मिट रही हैं। लेकिन वास्तव में एकाधिकार और भेदभाव इस विश्व-व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं जिन्हें मुक्त बाजार की आड़ में प्रोत्साहित किया जाता है। लोकतंत्र को इस व्यवस्था की चालक शक्ति बताया जाता है, जबकि राजनीतिक संस्थाओं की इसमें कोई हैसियत नहीं, जनपक्षीय राजनीति का तो एक तरह से निषेध ही है। लोकतांत्रिक देशों में भी नीति-निर्माता, नौकरशाह, व्यापारिक घरानों और राजनीतिक वर्ग- इनसे मिल कर वह समूह बनता है जो जनता की राजनीति को विकास की राजनीति से विस्थापित कर देता है और विकास को राष्ट्रीय जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानता है। उत्तर-औपनिवेशिक काल इस अर्थ में औपनिवेशिक काल का ही विस्तार है जिसमें कहने को तो पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन मिले हुए हैं, एक हैं, लेकिन वास्तव में विकसित पश्चिम अपना वैभव बचाए और बनाए रखने के लिए अविकसित पूरब को 'विकास' के रास्ते ले जाने को आमादा है। इस विकास, इस मरीचिका की कीमत क्या है, अब यह गोपन बात नहीं रही। पर्यावरणीय क्षति तो है ही, मानवीय क्षति की तो माप करना भी संभव नहीं। नकली, सतही सरोकारों से मानव समाज को जोड़ दिया गया। भोग मात्र को जीवन-मूल्य और मानव-मुक्ति का साधन बना दिया गया। मानव-जीवन प्रकृति-द्रोह से होकर अब आत्मद्रोह के चरण में आ पहुंचा है। इसके आगे क्या? दुनिया भर में दिनोंदिन खोखली होती जाती विश्व-अर्थव्यवस्था पर चिंता जताने वालों की भी कभी नहीं। यह बात अलग है कि उनकी अभी सुनी नहीं जा रही, वे अल्पमत में हैं, और यह बात भी जरूर है कि इस भंवर से निकलने का कोई विश्वसनीय रास्ता वे नहीं सुझा पा रहे हैं। जिन देशों और समाजों से इस ढहती व्यवस्था के बदले नई व्यवस्था विकसित करने की अपेक्षा थी, और जिन पर यह जिम्मेदारी भी बनती थी, वे स्वयं इस डूबते जहाज के मस्तूल पर खड़े होकर बड़े बनने की कोशिश कर रहे हैं। चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील- सब जैसे अधीरता से डूबने की अपनी पारी का इंतजार कर रहे हैं। बस भारत के एक नन्हें पड़ोसी ने अपने तर्इं इस 'वृद्धि' और 'विकास' को चुनौती दी है। भूटान ने अपने नागरिकों के जीवन की खुशहाली मापने के लिए सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता को कसौटी बनाया है। यह अपने आप में बहुत बड़ी पहल है, जिसमें मानव जीवन की संतुष्टि और सुख के लिए भौतिक उपलब्धियों को एकमात्र मानदंड मानने से इनकार कर दिया गया है। पर्यावरण और मनुष्य के बीच के नैसर्गिक संबंध और अंतरनिर्भरता में ही जीवन की सार्थकता है- हिमालय की गोद में बसा यह छोटा-सा बौद्ध देश पूरी दुनिया को यही संदेश दे रहा है, जिसने हाल ही में लोकतंत्र को अपनाया है। भले ही यह तूती की आवाज से अधिक न हो, लेकिन पश्चिम को पूरब का जवाब है और आह्वान भी कि आज मानव जीवन के उद््देश्यों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी है। विश्वविजयी पश्चिम के विजय रथ के लिए आगे रास्ता नहीं है। जरूरत आज वैकल्पिक विकास तक सीमित नहीं रही, क्यों वैकल्पिक विकास की अवधारणा भी विकास के विमर्शों में ही उलझ कर रह जाती है। अब तो समय आ गया है जब हम विकास का विकल्प ढूंढ़ें। यह काम आसान नहीं है लेकिन गांधीजी ने पूरब और बाकी दुनिया की तरफ से पश्चिम को जो जवाब दिया था, वह हर प्रकार से विकल्प का ही रास्ता था। पश्चिमी औपनिवेशिक सत्ता की हिंसा के विकल्प में उन्होंने अहिंसा; झूठ और आडंबर के विकल्प में सत्य; शोषण और दमन के विकल्प में सत्याग्रह; परतंत्रता के विकल्प में स्वराज; परावलंबन के विकल्प में स्वावलंबन; आर्थिक और राजनीतिक केंद्रीकरण और एकाधिकार के खिलाफ विकेंद्रीकरण का मार्ग सुझाया था और इस पर आगे बढ़े थे। पश्चिमी सभ्यता, पूंजीवादी अर्थतंत्र, उद्योगवाद और राज्यवाद का सबसे ठोस और विश्वसनीय विकल्प तो गांधीजी ने सुझाया। उनका योगदान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन तक सीमित नहीं था। भारत के बाद तमाम एशियाई और अफ्रीकी देश औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुए, लेकिन किसी ने अपनी नई राह नहीं बनाई। स्वयं गांधी के देश ने विकल्प का रास्ता नहीं चुना। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Wednesday, December 12, 2012
विकास की मरीचिका
विकास की मरीचिका
No comments:
Post a Comment