| Sunday, 09 December 2012 12:56 |
| बेबी कुमारी आगे वे 'हिंदू जनता' और 'भारतीय मनीषा' के लिए परेशान नजर आते हैं। प्रश्न है कि यह 'हिंदू जनता' कौन है और 'संपूर्ण भारतीय मनीषा' किन लोगों की रही है? दरअसल, हिंदुत्व की जो अवधारणा आज है वह प्राक्-औपनिवेशिक संस्कृत साहित्य में कहीं नहीं मिलती। ब्रिटिश सरकार ने इसे जिस रूप में लिया उसी रूप में आज भी लिया जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजी भाषा में 'हिंदुत्व' या 'हिंदुइज्म' शब्द धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद के बाद आया। दरअसल, उससे भी पहले जो शब्द आया वह था 'जेण्टू', जिसे बाद में अंग्रेजों ने 'हिंदू' में बदला। यह शब्द भारत की धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराओं का सूचक था। क्या शंकर शरण आजीविकों, चार्वाक दर्शन, लोकायत दर्शन, सांख्य दर्शन को भी हिंदू परंपरा का अंग मानते हैं? अगर हां, तो उनके लिए कुछ बेहद असुविधाजनक विरोधाभास खड़े हो जाएंगे! अपनी बात को सिद्ध करने के लिए संदर्भ देना बुरी बात नहीं है, लेकिन समस्याओं के हल के लिए वर्तमान को अतीत की ओर मोड़ना अवैज्ञानिक दृष्टि है। समस्याओं को उनके ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। सगोत्रीय विवाह को खारिज करते हुए वे कुछ बातें भूल गए हैं। जैसे सात पीढ़ियों के बाद आठवीं पीढ़ी में सगोत्रीय विवाह की अनुमति, ब्रह्मा और सरस्वती प्रसंग। सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री थीं और दोनों सौ सालों तक पति-पत्नी के रूप में रहे। इनकी संतानों- स्वयंभूमरु और सतर्पा ने आपस में शादी कर ली। और 'नियोग-विधि', जिसमें पति के न रहने पर या क्लैव्य में पत्नी देवर से और उसके भी अभाव में गुरु-पुरोहित के संयोग से पुत्र प्रसव करती थी। आज चिकित्सा विज्ञान खून के रिश्तों में शादी को सही नहीं मानता तो इसका एकमात्र कारण है आनुवंशिक रोगों की समस्या। जिस समय सगोत्रीय विवाह प्रतिबंधित किए गए, लोग छोटे-छोटे समूहों में रहते थे। जीवन इतना विविध और जटिल नहीं था। आज समाज अपने विकास के चरम पर है। आज अगर कोई ऐसी बातें कहता और सोचता है तो यह उसकी बौद्धिकता पर प्रश्नचिह्न है। वास्तव में, सगोत्रीय विवाहों के एक दौर में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में निषिद्ध होने का एक कारण किसान संपत्तियों के विघटन को रोकना भी था। जिन इलाकों में छोटी, मंझोली जोतों की कृषि-अर्थव्यवस्था पैदा हुई वहां सगोत्रीय विवाहों पर रोक लगनी शुरू हुई। मगर आज भी कई क्षेत्रों में विस्तारित परिवार के भीतर सगोत्रीय विवाह को हिंदू ज्यादा पवित्र मानते हैं। विगोत्र विवाह के प्रमाण में लेखक बार-बार अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों और इतिहासकारों का हवाला देते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि किस विद्वान या इतिहासकार ने कहां ऐसा कहा है। प्रेम या विवाह हमेशा दो व्यक्तियों का निजी मसला रहा है। खाप या ऐसी तमाम संस्थाएं रुग्ण मानसिकता और सामंती अवशेषों की पोषक हैं। पूरे हिंदू धर्म को एक एकाश्मी धर्म के रूप में प्रदर्शित करने की शंकर शरण की कोशिश अज्ञानतापूर्ण है। आज की संकटग्रस्त दुनिया में जब हमारा मुंह आगे की ओर होना चाहिए, शंकर शरण अतीत की ओर मुंह करके खड़े हैं। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Monday, December 10, 2012
अज्ञानता का बवंडर
अज्ञानता का बवंडर
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