| Friday, 07 December 2012 11:13 |
| अरुणा रॉय, भंवर मेघवंशी दिल्ली में देश भर के तिरपन जन संघर्षों, अभियानों और आंदोलनों द्वारा 26 से 30 नवंबर तक जंतर मंतर पर की गई 'जनसंसद' को भी जन-आंदोलनों को उसी लोक राजनीति का फलित माना जा सकता है। इस जन संसद का उद्घोष लोकतंत्र की पुनर्प्राप्ति था, जैसा कि विदित है कि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान स्वीकार किया था, उसी ऐतिहासिक मौके पर तिरसठ वर्ष बाद संविधान को केंद्र में रख कर यह जन संसद की गई और पूछा गया कि नागरिकों को दी गई संवैधानिक गारंटी का क्या हुआ? हमारे मौलिक अधिकार हमें मिल पाए या नहीं? हमने क्यों देश की नीतियां बनाने में नीति निर्देशक तत्त्वों की अवहेलना कर दी? इतना ही नहीं, इस जन संसद ने पंूजी के हित में काम कर रहे नेताओं, जन-विरोधी नीतियों और सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाए। यह भी साबित किया कि देश के नागरिक सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष को तैयार हैं, जन-आंदोलनों की जन संसद तक की यात्रा हमारे लोकतंत्र को राह पर लाने की ही कवायद है। असल में यह असली जनतंत्र को कायम करने की दिशा में एक और समेकित प्रयास के रूप में देखी जा सकती है। देश भर के जन-आंदोलनों के सात सौ लोगों का पांच दिनों तक लगातार जंतर मंतर पर डटे रहना और देश की औपचारिक संसद को यह संदेश देना कि आप भले शोरगुल मचाओ और संसद मत चलने दो, मगर देश की साधारण जनता को लोकतंत्र और संविधान की चिंता है। वह संसदीय ढांचे को महत्त्वपूर्ण मानती है, इसलिए इस जन संसद के जरिए उन मुद्दों को उठा रही है, जिन्हें कायदे से तो चुने हुए प्रतिनिधियों को चुनी हुई संसद में उठाना चाहिए था। मगर जब औपचारिक संसदीय ढांचे विचलन और विभ्रम के शिकार हो जाते हैं तो ऐसी ही जन संसदीय जन-प्रक्रियाएं उन्हें फिर राह पर लाने का काम करती हैं। ऐसे वक्त में मात्र जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि जनता खुद बोलने लगती है। यही भारत में जन-आंदोलनों की सार्थकता है कि उन्होेंने फिर से जनता को सशक्त किया और जिस सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की उम्मीद डॉ. आंबेडकर ने संविधान लागू करते वक्त की थी, उसकी प्राप्ति के लिए फिर से कमर कसी है। इतना ही नहीं, जन संसद के दौरान देश भर के लगभग सभी नामचीन जन-संघर्षकारियों का एक मंच पर आकर जन संसद के जरिए अपने मुद्दों को उठाना और एक सामूहिक 'जन घोषणा पत्र' की उद्घोषणा करना भी महत्त्वपूर्ण रहा है। जन संसद के जन घोषणा-पत्र में उठाए गए मुद्दों ने वर्ष 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों को एजेंडा प्रदान कर दिया और ताल ठोंक दी है कि हम तय करेंगे कि किन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाएगा? 2014 चुनाव एक लक्ष्य है, जन संसद को उसकी उलटी गिनती भी माना गया, यह केवल एक आयोजन मात्र नहीं, बल्कि ठोस कार्यक्रम भी है। और हमारी चुनी हुई संसद को चेतावनी भी कि वह जनहित के जितने भी कानून वर्तमान सत्र और शेष बचे समय के दौरान लाए और पारित करे; हवाई, भावनात्मक और विभेदकारी मुद्दों पर नहीं, जनता के बुनियादी मुद्दों को केंद्र में रख कर चुनाव में उतरें। वरना जनता उन्हें नकार देगी। इस जन संसद के जरिए हमने अपने संविधान, उसमें प्रदत्त मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्त्वों को याद किया, संविधान की प्रस्तावना को दोहराया और लोकतंत्र की पुनर्प्राप्ति के लिए एक अनूठी शपथ भी ली। जिस तरह देश भर के जन-आंदोलनकारियों से लेकर देश भर के बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, पूर्व न्यायाधीश, वकील, मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी और महिला समूहों के प्रतिनिधियों ने जन संसद के जरिए दिल्ली में दस्तक दी है, वह देश की मुख्यधारा राजनीति को दिशा देने की जन-आंदोलनों की ऐतिहासिक प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाने का कार्य प्रतीत होता है। यह स्पष्ट भी करता है कि जनता और उसके द्वारा खड़े किए गए आंदोलन देश के लोकतंत्र को फिर पटरी पर लाने में सक्षम हैं, उसके लिए चुनावी राजनीति ही एकमात्र रास्ता नहीं है। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Friday, December 7, 2012
चुनावी राजनीति एकमात्र रास्ता नहीं
चुनावी राजनीति एकमात्र रास्ता नहीं
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