वेदांता को आई लव यू
नीरज, रायपुर से
http://raviwar.com/
छत्तीसगढ़ में तकरीबन 50 मजदूरों को अपनी चिमनी में दबा कर मार डालने के आरोपों का सामना कर रही वेदांता के साथ राज्य के कई मंत्रियों का प्रेम चरम पर है. यह अलग बात है कि दुनिया के कई देशों में बदनाम वेदांता के खिलाफ एमनेस्टी इंटरनेशल जैसी संस्थाओं ने भी गंभीर आरोप लगाए हैं. केंद्र सरकार की कमेटियां भी मानती हैं कि लंदन की इस विदेशी कंपनी वेदांता का देश के कायदे-कानून का पालन करने में यकीन नहीं है. लेकिन 1,800 एकड़ सरकारी जमीन पर वेदांता के बरसों से अवैध कब्जे को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के कई मंत्री 8 बिलियन डॉलर की टर्न ओवर वाली कंपनी वेदांता रिसोर्सेस की तरफदारी में लगे हुए हैं.
वैसे वेदांता को अस्पताल बनाने के लिये छत्तीसगढ़ की नई राजधानी में केवल एक रुपये में 20.23 हेक्टेयर ज़मीन दिये जाने को लेकर भी खूब शोर मचा था, हालांकि यह मामला शांत हो गया है. लेकिन जमीन कब्जे के मामले को लेकर लोगों की निगाहें सरकार पर ठहरी हुई है.हालांकि जिस तरह से भाजपा सरकार के मंत्री वेदांता के प्रेम में हैं, उसमें उम्मीद कम ही है कि मंत्रियों की बात टाली जाये.
लगभग 1700 एकड़ से अधिक की सरकारी जमीन पर वेदांता ने न केवल अवैध तरीके से कब्जा जमा कर रखा है, बल्कि उस पर कई निर्माण भी कर लिए हैं. इसके अलावा उस पर इस जमीन के पेड़ों को भी काट देने का आरोप है.
इधर सप्ताह भर पहले ही इन अवैध कटाइयों को लेकर उच्चतम न्यायालय ने अदालती आदेश की अवमानना संबंधी याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय विशेषाधिकार प्राप्त समिति को जांच कर रिपोर्ट देने का आदेश जारी किया है. आरोप है कि उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी ठेंगा दिखा दिया गया है.
कब्जा दर कब्जा
छत्तीसगढ़ के राजस्व मंत्री अमर अग्रवाल ने विधानसभा में जो बयान दिया है, उसके अनुसार 1971 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भारतीय एल्युमिनयम कंपनी यानी बालको को 937 एकड़ जमीन दी गई थी. इसके अलावा 1,136 एकड़ जमीन इस शर्त पर अग्रिम आधिपत्य में दी गई थी कि राज्य शासन द्वारा मांग की जाने वाली राशि का भुगतान करना होगा. इस 1,736 एकड़ जमीन के अलावा बालको ने 600 एकड़ से अधिक जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है. इस तरह बालको के कब्जे में 2,700 एकड़ जमीन है.
बालको द्वारा जमीन कब्जे का मामला 1996 में पहली बार तब विवादों के घेरे में आया, जब उसे राज्य शासन ने कब्जे वाली जमीन का प्रीमियम और भू-भाटक की रकम अदा करने का आदेश जारी किया. उस समय बालको भारत सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम था.
मामला राज्य और केंद्र सरकार के बीच मंथर गति से चलता रहा. 2001 में सार्वजनिक क्षेत्र के इस उपक्रम को बहुत चालाकी के साथ विनिवेश के लिए खोल दिया गया. यह किसी भी बड़े सार्वजनिक उपक्रम में पहला विनिवेश था और तब यहां के तकरीबन 7000 श्रमिकों ने दो महीने तक हड़ताल की थी और इसमें तमाम मजदूर संगठन एकजुट थे. लेकिन सारे विरोध धरे रह गये और वेदांता ने 551.5 करोड़ में इसके 51 प्रतिशत शेयर खरीद कर इसे अपने कब्जे में कर लिया.
मंत्री की नहीं, वेदांता की चली
2006 में भाजपा सरकार के वन मंत्री ननकीराम कंवर ने वेदांता द्वारा जमीन कब्जे का मामला उठाया और पूरी नाप-जोख करा कर 1,036 एकड़ जमीन पर स्टरलाईट वेदांता के अतिक्रमण का मामला उन्होंने सामने लाया. लेकिन वेदांता पर कार्रवाई के मामले में ननकीराम कंवर की एक नहीं चली, उलटा उन्हें ही मंत्रिमंडल से चलता कर दिया गया.
वेदांता द्वारा शासकीय भूमि पर कब्जा करने के मुद्दे को लेकर कोरबा के तहसीलदार द्वारा 2004-2005 में छत्तीसगढ़ भू राजस्व संहिता 1959 की धारा 248 के तहत सरकारी जमीन पर अतिक्रमण के 10 मामले दर्ज किए गए थे. इसके अलावा तत्कालीन विधायक भूपेश बघेल की शिकायत पर भी प्रबंधन के खिलाफ 3 मामले दर्ज किए गए थे.
वेदांता द्वारा जमीन कब्जे के इस मुद्दे को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन सरकार की ओर से किसी वरिष्ठ अधिवक्ता या महाधिवक्ता के पेश नहीं होने के कारण सरकार का पक्ष सही तरीके से नहीं रखा जा सका. नतीजतन हाईकोर्ट ने वेदांता प्रबंधन के पक्ष में फैसला दिया कि कोरबा में वेदांता के कब्जे में जितनी जमीन है, उसे अतिक्रमण न माना जाए. उच्च न्यायालय ने 6 फरवरी 2009 को 1,804 भूमि पर वेदांता यानी बालको प्रबंधन का कब्जा अवैधानिक न माने जाने का आदेश दिया, जिसे 25 फरवरी 2010 को उच्च न्यायालय की डबल बैच ने भी मान्य रखा.
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अदालत में बेअसर सरकार
अब राज्य सरकार के कई मंत्री वेदांता की तरफदारी करते हुए इस पक्ष में हैं कि इस मामले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती न दी जाए. मंत्रिमंडल की ताज़ा बैठक में इस मुद्दे को लेकर जम कर बहस हुई और अंततः मामला राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के पाले में डाल दिया गया है कि अंतिम निर्णय वही लें.
राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे का आरोप है कि किसी पंचायत कर्मी के निलंबन जैसे मामलों सरकार बड़े से बड़े वकील को पैरवी के लिए खड़ी कर देती है, वहीं वेदांता अतिक्रमण मामले में छोटे वकील को पैरवी के लिए भेज दिया जाता है. सरकार को दुर्ग के वैशाली नगर में 200 मकानों में बुलडोजर चलाने में समय नहीं लगता जबकि वेदांता की कोरबा में जो अतिक्रमण है, उसकी तरफ सोचने की फुरसत सरकार के पास नहीं है.
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने विधानसभा में ही सरकार को घेरते हुए सवाल पूछा था कि वेदांता अतिक्रमण के मामले में सरकार सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर करेगी या फिर वेदांता के स्वामी अनिल अग्रवाल को बचने का मौका दिया जाता रहेगा ? हालांकि बालको के निजीकरण में जोगी की भूमिका भी सवालों के घेरे में रही है.
इस मामले में कांग्रेसी नेता और पूर्व मंत्री भूपेश बघेल और कोरबा की एक स्वयंसेवी संस्था सार्थक ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करते हुए वेदांता के कब्जे वाली जमीन पर पेड़ कटाई का मामला उठाया था. जिस पर केंद्रीय सशक्त समिति ने जांच की थी. समिति ने 17 अक्टूबर 2007 को अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें 1,751 एकड़ वन भूमि पर अवैध कब्जे की बात सामने आई. इसमें 803 एकड भूमि ऐसी थी, जिसके संबंध में उल्लेख भी नहीं किया गया था. इस रिपोर्ट के आधार पर 29 अक्टूबर 2009 को उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि अनुमति के बिना वन भूमि पर पेड़ों की कटाई नहीं की जा सकती है.
लेकिन सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन को लेकर जब जवाब आया तो पता चला कि वेदांता ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी ठेंगा दिखा दिया है. इस जवाब के अनुसार दूसरे सरकारी अफसरों की आपत्ति के बाद भी सहायक कलेक्टर पी निहलानी के आदेश से वेदांता ने न केवल पेड़ों की कटाई की बल्कि इस आदेश से 70 से अधिक पेड़ कटवा डाले. जब मामला फिर से देश के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसने इस मामले में इसी महीने केंद्रीय विशेषाधिकार प्राप्त समिति को जांच कर रिपोर्ट देने का आदेश जारी किया है. रिश्तों को निभाते हुए अगर भाजपा चिदंबरम के पुराने मालिक रहे अनिल अग्रवाल की विदेशी कंपनी वेदांता का जमीन कब्जा मामले में विरोध न करे तो अचरज नहीं होना चाहिए. |
चिदंबरम हैं तो क्या डर है
दूर की कौड़ी लाने वालों का मानना है कि अगर छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और देश के गृहमंत्री चिदंबरम के रिश्ते मधुर बने रहे तो वेदांता के खिलाफ सरकार कोई कड़े कदम शायद ही उठाए.
कॉरपोरेट डकैती का मतलब जानने वाले अधिकांश लोग इस बात को जानते हैं कि आज देश भर में घूम-घूम कर देशभक्ति की बात करने वाले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम भी इस विदेशी कंपनी वेदांता के हमजोली रहे हैं. 22 मई 2004 को जब चिदंबरम ने भारत के वित्त मंत्री की कमान संभाली थी, उस दिन तक वे इस विदेशी कंपनी के निदेशक थे और इसके बदले कंपनी इन्हें सालाना 31,16,400.00 रुपये की पगार देती थी.
वैसे भारत की ऐसी-तैसी करने वालों के साथ चिदंबरम के व्यावसायिक रिश्ते बहुत मधुर रहे हैं. कॉरपोरेट घोटाले में विश्व पदक हासिल करने जैसा काम करने वाली एनरॉन ने दाभोल परियोजना में भारत को कितने का चुना लगाया, इसका अब तक हिसाब लगाया जाना बचा हुआ है और इस घोटाले में चिदंबरम भारत के साथ नहीं, धोखेबाज कंपनी एनरॉन के साथ खड़े थे. हर्षद मेहता के सहयोगियों के सहारे चलाई जा रही धोखेबाजी करने वाली कंपनी फेयरग्रोथ फाइनेंसियल सर्विसेस लि. के मामले में तो नरसिंहराव सरकार में वाणिज्य राज्य मंत्री रहे चिदंबरम को 1992 में अपने पद से हटना पड़ा था.
यह जानना भी दिलचस्प है कि इस मामले में कांग्रेसी पी चिदंबरम की वकालत के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली वकील के बतौर दिल्ली उच्च न्यायालय में उपस्थित हुए थे.
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि नक्सल आंदोलन पर कांग्रेसी नेता भले पी चिदंबरम का विरोध कर रहे हों, नक्सली मुद्दों के कारण चिदंबरम का समर्थन कर रही छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार उनके साथ है. इन रिश्तों को निभाते हुए अगर भाजपा चिदंबरम के पुराने मालिक रहे अनिल अग्रवाल की विदेशी कंपनी वेदांता का जमीन कब्जा मामले में विरोध न करे तो अचरज नहीं होना चाहिए.
बालको के विनिवेशीकरण के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने वाले श्रमिक नेता राजेंद्र मिश्रा कहते हैं- " सरकार को इस मामले को उच्चतम न्यायालय में ले जाने में देरी नहीं करनी चाहिए. अगर सरकार इस मामले को लेकर टाल-मटोल का रवैय्या अपनाती है तो यह कहीं न कहीं देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करने वाला कदम होगा."
30.04.2010, 20.26 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
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Palash Biswas
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