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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, October 10, 2010

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From: dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>
Date: Sun, Oct 10, 2010 at 12:41 AM
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http://www.bhaskar.com/article/NAT-question-of-caste-in-census-1440065.html

शनिवार,09 अक्टूबर, 2010 को 01:19 तक के समाचार
 

जनगणना में जाति का सवाल

Source: पुखराज जांगिड़   |   Last Updated 13:22(09/10/10)
 
 
 
 
 
 
सन 2011 की भारतीय जनगणना का नारा है- 'हमारी जनगणना, हमारा भविष्य', लेकिन 'हमारी जनगणना' हमारी समग्र पहचान को रेखांकित नहीं करती। वह हमारे समाज की 'जाति' नामक कड़वी सच्चाई की समग्र पड़ताल से मुंह चुराती है। ऐसे में जिस जातिविहीन समाज का भविष्यगामी स्वप्न हमने संजोया है, उसके निर्माण का आधार क्या होगा? क्या जातिवार जनगणना इसके विश्वसनीय आंकड़े जुटाने की दिशा में अधिक प्रगतिशील और स्थायी कदम नहीं हो सकती? जन-प्रयासों और सामूहिक दबाव द्वारा यह संभव है (और एक हद तक इसमें सफलता भी मिली है) न कि यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी सरकार या व्यवस्था से अपेक्षा करने से। जनगणना केवल 'डेटा-संग्रहण' भर न होकर एक महत्वपूर्ण अवसर है देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-शैक्षणिक संरचना की सही समझ के निर्माण का, ताकि अब तक की विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की उपलब्धियों और कमियों की दशा और दिशा को जाना-जांचा-पड़ताला जा सके।

ऐसे वक्त में पत्रकार दिलीप मंडल की पुस्तक 'जातिवार जनगणना- संसद, समाज और मीडिया' जाति आधारित जनगणना पर चल रही तमाम बहसों को ही सामने नहीं लाती, बल्कि जाति के नाम पर समाज में चल रहे समकालीन सवालों को भी चिह्न्ति करती है। जाति और जनगणना को लेकर आज जितने भी सवाल और भ्रम पैदा हुए या जबरन पैदा किए गए हैं, उनके माकूल जवाब और तार्किक सुझाव इस पुस्तक में दिए गए हैं। 'असहमति का साहस' जो दुर्भाग्यवश हमारी समकालीन पत्रकारिता में अत्यंत दुर्लभ होता जा रहा है, इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। पुस्तक क्रमश: छह अध्यायों में विभक्त है।

इसके अतिरिक्त परिशिष्ट को तीन भागों में बांटा गया है- पहले में जातिवार -जनगणना से संबद्ध एच.एल दुसाध, उर्मिलेश, कौशलेंद्र प्रताप यादव, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, अनिल चमड़िया, यूसुफ अंसारी, उदित राज के महत्वपूर्ण आलेख हैं तो दूसरे में 'लोकसभा में जाति और जनगणना' (संसद में जाति जनगणना पर व्यापक सहमति) में देश के विभिन्न दलों के 21 प्रमुख नेताओं के 6 और 7 मई को लोकसभा में दिए वक्तव्यों के संपादित अंश हैं। तीसरे में पाठकों के लिए 'जाति, जनगणना और पत्रकारिता' (मीडिया को क्यों नहीं चाहिए जाति की गिनती) से संबंधित हिंदी और अंग्रेजी के 13 प्रमुख समाचार पत्रों के संपादकीय और संपादकों के जातिवार जनगणना विरोधी लेख दिए गए हैं, ताकि पाठक अपना निर्णय बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वयं ले सकें।

भारतीय समाज में 'जाति' वर्चस्व स्थापित करने का सदियों से चला आ रहा सबसे धारदार और अचूक राजनीतिक हथियार है। इसलिए जातियों की गणना का सवाल केवल जाति-गणना या आरक्षण का ही नहीं है वरन उससे कहीं अधिक संसाधनों व अवसरों में लोकतांत्रिक भागीदारी और समानतापूर्ण हिस्सेदारी का है। लोकसभा में यह मसला सबसे पहले मुलायम सिंह यादव ने उठाया और शरद यादव व लालू प्रसाद यादव ने आगे बढ़ाया। देश की सभी प्रमुख पार्टियों के हाशिए की अस्मिताओं (एससी-एसटी-ओबीसी) से संबद्ध रहे सांसदों ने इसका समर्थन किया, जिसमें भाजपा, कांग्रेस और वामपंथी दल भी शामिल थे।

एक जरूरी सवाल, 'सभी जातियों की गिनती जनगणना द्वारा ही क्यों?' इसलिए ताकि ओबीसी के मंडल कमीशन-52 प्रतिशत, नेशनल सैंपल सर्वे-28 प्रतिशत, रेनके कमीशन-47 प्रतिशत आंकड़ों की विभिन्नताओं या मनमानेपन से बचा जा सके और समाज को बेहतर तरीके से समझा जा सके, अवसरों तथा संसाधनों में हिस्सेदारी की वास्तविकता को जाना जा सके। पुस्तक के मुताबिक, 'भारतीय समाज के हर जानकार को पता है कि यहां हर धर्म जाति विभक्त है और उनमें दलित, पिछड़े हैं चाहे इस्लाम हो, क्रिश्चियन हों, सिक्ख हों या बौद्ध-जैन। भारत के किसी भी धर्म में शामिल ये तत्व उसे दुनिया के किसी भी समान धर्म से अलग करते हैं।' इसीलिए अल्पसंख्यकों के भीतर के दलित, पिछड़े भी आवाज उठा रहे हैं। आरक्षण के लिए पसमांदा मुसलमानों का संघर्ष ऐसा ही संघर्ष है।

अल्पसंख्यक समाज में जाति और उसकी वंचना के अध्ययन के लिए भी आंकड़े जरूरी हैं। 'जहां तक संविधान के मूल लक्ष्यों को प्राप्त करने का सवाल है, सवर्ण, पिछड़ा और दलित, तीनों श्रेणियों का नेतृत्व एक जैसा अपराधी है' (पृ. 63)। लेकिन जाति आधारित जनगणना के सवाल का किसी आदिवासी, दलित और पिछड़े ने विरोध नहीं किया? तमाम हाशिए की अस्मिताएं तो एकसूत्र होकर इस जनगणना में 'सभी जातियों की गिनती' का समर्थन कर रही हैं, जबकि तमाम उच्च वर्ग, वर्ण और जातियों के लोग एक राग में इसका विरोध कर रहे हैं। मध्यवर्ग भले ही 'जाति तो बीते जमाने की चीज है' कहते नहीं अघाता, लेकिन अखबारों के वैवाहिक पृष्ठ उसकी कलई खोलने के लिए पर्याप्त हैं।

जातिवार जनगणना के विषय पर यह एक बेहतर पुस्तक है। पुस्तक मीडिया और समाजशास्त्र के विद्यार्थियों-शोधार्थियों के लिए केस-स्टडी के संदर्भ में बहुउपयोगी है। इसलिए इसका बहुत महत्व है।

लेखक जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी हैं।
 
 


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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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