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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, December 22, 2013

कॉरपोरेट राज का खात्मे बिना न समता सम्भव है न सामाजिक न्याय, न धर्मनिरपेक्षता सम्भव है न स्त्री अस्मिता।

बहुजन एक्टिविज्म स‌र्कस का स‌ौंदर्यशास्त्र है अब

बहुजन एक्टिविज्म स‌र्कस का स‌ौंदर्यशास्त्र है अब

HASTAKSHEP

कॉरपोरेट राज का खात्मे बिना न समता सम्भव है न सामाजिक न्याय, न धर्मनिरपेक्षता सम्भव है न स्त्री अस्मिता।

पलाश विश्वास

उम्मीद है कि राजनीति के खिलाड़ी तमाम बहुजन मूलनिवासी दिग्गज और मूलनिवासी पुरोधा मसीहा और विद्वतजन मौका के मुताबिक बहुत जल्द स‌ंघी खेमे से फारिग होकर नये ईश्वरों की शरण लेंगे। वैसे देश के निनानब्वे फीसद जनता के वर्तमान और भविष्य पर इसका असर ठीक उतना ही होना है, जितना धूम-3 में आमिर खान और कैटरिना कैफ के स‌र्कसी करतब का।बहुजन एक्टिविज्म अब स‌र्कस का स‌ौंदर्यशास्त्र है। धर्म निरपेक्ष खेमे को इसकी ज्यादा परवाह नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उस तोते की जान भी तो आखिर सामाजिक क्षेत्र में रंग बिरंग एफडीआई में है, जिसकी चर्चा अभी तक शुरु ही नहीं हुयी है।

याद कीजिये, पिछला शीतकालीन संसदीय सत्र जब प्रोन्नति में आरक्षण विधेयक के अलावा बाकी सारे कानून गिलोटिन हो गये थे और मायावती को यह विधेयक पास कर देने के वायदे के साथ अल्पमत केंद्र सरकार ने हर जनविरोधी कानून पास करा लिये थे। चुपचाप गिलोटिन मार्फत सारे विधेयक पास हो गये। अभूतपूर्व हंगामा के मध्य संसदीय सत्र का अवसान हो गया और मायावती हाथ मलती रह गयी। बहुजन राजनीति का यह नजारा है। तब 16 दिसंबर को निर्भया से हुये बलात्कार के बाद राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन का मुख्य मुद्दा यौन उत्पीड़न हो गया। पुलिस और सेना के रक्षाकवच को जारी रखते हुये तुरत फुरत कानून भी पारित हो गया। लेकिन अब भी बलात्कार विमर्श में सारे मामले निष्णात हैं। यौन उत्पीड़न और बलात्कार का सिलसिला थमा ही नहीं है। अब अनवर खुरशीद की आत्महत्या के बाद तो पूरा का पूरा हिंदी समाज प्रगतिशील धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री अस्मिता के गृहयुद्ध में फँस गया है। फिर हाशिये पर हैं सारे मुद्दे।

यही नहीं, एक छद्म भारत अमेरिकी राजनयिक युद्ध के जरिये धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद इस तरह भड़काया जा रहा है कि देवयानी प्रकरण को लेकर बहुजन समाज आन्दोलित है। जबकि अमेरिकी हितों को सोधने के लिये चाकचौबन्द इन्तजामात हैं। भारत अमेरिकी परमाणु समझौता बदला नहीं है। बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक, सीआईए निगरानी का सारा इंतजाम है। अमेरिकीआतंक विरोधी युद्ध में अब भी अमेरिका और इजराइल के साथ भारत साझेदार है। रक्षा से लेकर खुदरा कारोबार और सामाजिक क्षेत्र में खासकर जनांदोलनों में अमेरिकी पूँजी का बोलबाला है। हम न केवल जल जंगल जमीन नागरिकता, आजीविका, नागरिक और मानवाधिकार से बेदखल हैं बल्कि जन आन्दोलनों से भी अब सारा भारतीय जनगण बेदखल है। कॉरपोरेट शिकंजे में है बहुजन आन्दोलन। पहले आपसे में फरिया लें मूलनिवासी। कॉरपोरेट तो रहेंगे ही।

सत्ता वर्गके खेमे में तथकथित बहुजनों की ही बड़ी भूमिका है। प्रधानमंत्रित्व के सबसे प्रबल दावेदार नरेंद्र मोदी ओबीसी हैं और राज्यों के क्षत्रपों में, मुख्यमंत्रियों में भी ओबीसी ज्यादा हैं। लेकिन अभी तक ओबीसी की गिनती हुयी नहीं है, हालाँकि ओबीसी की गिनती करने की माँग उठाने वाले लोग नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिये वैदिकी यज्ञ भी करा रहे हैं। मलाईदार तबके के लिये आरक्षण आन्दोलन में भी कमान आखिरकार आरक्षणविरोधी संघियों के हाथ में हैं।

तो राहुल गांधी के सलाहकारों में भी बहुजन प्रतिभायें कम नहीं हैं। जो बाकायदा रणनीति के तहत काम कर रहे हैं और वे लोग ही कांग्रेस के जनविरोधी सरकार को बनाये रखने के लिये सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। हर खेमे में शामिल बहुजन नेतृत्व को आर्थिक सुधारों से कोई लेना देना नहीं है और न वे जिनके नाम पर वोट माँगते हैं,सत्ता में अपना-अपना हिस्सा बूझ लेते हैं, उनसे, उनके विचारों और आन्दोलन से किसी का कुछ लेना देना है। अंबेडकर के जाति उन्मूलन एजेण्डे को कूड़ेदान में फेंककर रंग बिरगे मसीहा और सत्ता सौदागर जाति अस्मिता को मजबूत बना रहे हैं।

इसी के मध्य भारतीय नागरिकों को अमेरिकी कठपुतली बनाने वाले नंदन निलेकणि की निःशब्द ताजपोशी बतौर भारत भाग्य विधाता हो गयी है और एक के साथ एक फ्री ईश्वर भी मुक्त बाजार की उपभोक्ता संस्कृति मुताबिक मिल गया है, जो निःसंदेह अरविंद केजरीवाल है, जिनके लिये देश की एकमात्र समस्या भ्रष्टाचार हैं। बहुजनों के तमाम बुद्धिजीवी उनके साथ तेजी से शामिल हो रहे हैं। भगदड़ मच गयी है। यहाँ तक कि हम जिन्हें भारत में जायनवादी धर्मोन्मादी कॉरपोरेट राज के खिलाफ सबसे मुखर स्वरों में मानते रहे हैंवे भी अरविंदं शरणं गच्छामि हो रहे हैं। आर्थिक अखबारों मे इन दोनों पर सबसे ज्यादा महिमामण्डन का काम हो रहा है तो प्रचलित मीडिया में सर्वत्र अरविंद हैं और उनसे ज्यादा खतरनाक नंदन निलेकणि अदृश्य हैं जैसे अबतक के कॉरपोरेट राज में मंटेक सिंह आहलूवालिया की अगुवाई वाली असली नीति निर्धारक टीम ही अदृश्य है।

बहुजनआन्दोलनों की पृष्ठभूमि में मेधा का कोई अस्तित्व ही नहीं है जबकि सत्तावर्ग के हर खेमे में परदे के पीछे सर्वश्रेष्ठ मेधाओं की सेवा ली जी रही हैं और उनके सारे संगठन और कामकाज संस्थागत है। कांग्रेस या भाजपा भले ही चुनाव हार जाये, लेकिन उनका तंत्र बिखरता नहीं है। बहुजन समाज का तंत्र सिरे से मसीहा दूल्हा तंत्र है। मसीहा और दूल्हें के आगे पीछे कोई नहीं होता। सर्कस के खिलाड़ी की तरह नाना हरकतों से वे भक्तमंडली को साधे रहते हैं और जनमानस में चौबीसो घंटे लाइव हैं। कॉरपोरेट राज और अर्थ व्यवस्था के बारे में उनकी कोई राय नहीं है। राय और भाषण हों भी तो हालात बदलन का कोई यत्न नहीं है।

महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के तौर तरीके से देश भर में बहुजन आन्दोलन चलाया नहीं जा सकता। अस्पृश्यता और सामाजिक संरचना देश के अलग अलग हिस्से में अलग-अलग हैं। मसलन हिमालयी क्षेत्र, पूर्व और पूर्वोत्तर भारत और यहाँ तक कि मध्य भारत के ज्यादातर हिस्सों में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र या दक्षिण भारत के नारे और समीकरणचल ही नहीं सकते। बहुजन आन्दोलन की जो धुरी आरक्षण के इर्द गिर्द घूमती रही है, ग्लोबीकरण, तकनीक और निजीकरण के अलावा ठेके पर नियुक्ति ने उसे सिर से गैरप्रासंगिक बना दिया है। आरक्षण के पक्ष में तो क्या अब आरक्षण के विपक्ष में सवर्णों का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन ठीक वैसा चल ही नहीं सकता जो मंडल रपट जारी होने के बाद हुआ था और मंडल रपट भी लागू नहीं हुयी है और न संविधान के तहत पांचवीं और छठीं अनुसीचियाँ भी लागू हुयी नहीं है।

बहुजनोंको इसी देश में अलगाव के और मुक्त बाजार सबसे ज्यादा शिकार आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और हर जाति धर्म नस्ल समुदाय में आज भी तथाकथित सशक्तीकरण की खुशफहमी के बावजूद देवीरूपेण पूज्यते लेकिन हीकत में हद दर्जे की दासियों की तरह मालूम ही नहीं चल पा रहा है कि कॉरपोरेट राज ने न केवल उनके संसाधनों और अवसरों को खत्म कर दिया है, बल्कि उनके दिलोदिमाग पर भी अब कॉरपोरेट राज का कब्जा है। पुरुष हो या नारी वैचारिक स्वतंत्रता भी नहीं है किसी को। हम जो कह बोल रहे हैं, जो हम अलग-अलग खेमों में विचारों और जनान्दोलन के नाम पर आपस में ही लहूलुहान हो रहे हैं, वह सारा का सारा सुनियोजित कॉरपोरेट आयोजन है। तिलिस्म में कैद है हर शख्स और तिलिस्म तोड़ने के लिये बिना जाने समझे जब भी वह तलवार चलाता है या चलाती है, अपनों का ही वध करने को अभिशप्त है।

देश बदल गया है। समाज बदल गया है। अर्थशास्त्र बदल गयी है। मुक्त बाजार ने कुछ भी मुक्त नहीं छोड़ा है। नरेंद्र मोदी हो या राहुल गांधी, मायावती हों या ममता बनर्जी या फिर अरविंद केजरीवाल, उनके हर कदम रोबोटिक हैं और वे कॉरपोरेट नियंत्रित हैं और इसी तरह तमाम बहुजन मसीहा और प्रचलित सारे जनान्दोलन।

इस समझ पर पहुँचे बिना हम कुछ नया शुरू कर ही नहीं सकते।सारे वाद विवाद, सारे मुहावरे,सारे नारे अब गैर प्रासंगिक हैं। पहचान ने पहचान को ही सबसे ज्यादा अविश्वसनीय बना दिया है। अस्मिताएं अब कॉरपोरेट राज के लिये सबसे कारगर हथियार है, जिनकी वजह से भारत में किसी भी मुद्दे पर किसी भी तरह के आन्दोलन में सामाजिक शक्तियों की गोलबन्दी असम्भव है, जिसके बिना हम इस रोज-रोज बदल रहे महाविध्वंसकारी कॉरपोरेट राज के मुकाबले खड़े ही नहीं हो सकते।

हम एक दूसरे से फरियाते रहेंगे और कॉरपोरेट राज कायम रहेगा। कॉरपोरेट राज का खात्मे बिना न समता सम्भव है न सामाजिक न्याय, न धर्मनिरपेक्षता सम्भव है न स्त्री अस्मिता।

किसी भी तरह की अस्मिता के साथ अब मुक्तिकामी जनगण के हक-औ-हकूक के हक में खड़े नहीं हो सकते। उन्हें बतौर क्रेडिट कार्ड अपनी-अपनी बेइंतहा कामयाबी के लिये यूज और थ्रो ही कर सकते हैं। जो मुक्त बाजार के नियंत्रण और मुक्त बाजार के व्याकरण के मुताबिक हो रहा है।

हालतयह है कि हर हाथ में मोबाइल है रोजगार और आजीविका हो न हो। सारे मित्र परिजन रिश्तेदार परिचित समाज देश ऑनलाइन है। दुनिया मुट्ठी मैं है। जब चाहो जिससे चाहो बत कर लो। वीडियो कांफ्रेंस कर लो। हर कहीं मौजूद होना जरूरी नहीं है और दुनिया के किसी कोने में किसी से भी सम्वाद की सम्भावना है। सारे लोग सूचना तकनीक में दक्ष हैं। लेकिन किसी का किसी से सम्वाद है नहीं। न परिवार में, न देश में और न समाज में। किसीको सुनने की किसी को न फुरसत है और न धैर्य है।

जो कुछ परोसा जाता है, बेहद स्वादिष्ट, मसालेदार और उत्तेजक है। हम चीजों को अब न देखते हैं और न समझते हैं। चैनलों और साइटों में भटकते रहते हैं। न दृष्टि और न मन कहीं चिकने की हालत में है। मनोरंजन और उत्तेजना के हम उपभोक्ता हैं। ज्ञान महज जानकारी है, जिसे आत्मसात करना आवश्यक नहीं है। जिस पर अमल करना अनिवार्य नहीं है। शिक्षा का मतलब मूल्यबोध और उत्कर्ष नहीं, डिग्रियाँ हैं,डिप्लोमा है और प्लेसमेंट है। चीजों को विश्लेषित करने, सार संक्षेप निकालने और बुनियादी अवधारणाओं को समझते हुये सोच बनाने की कवायद में हम अपने अपढ़ पूर्वजों के मुकाबले फीसड्डी तो हैं ही,सहमति का विवेक और असहमति का साहस भी नहीं है हममें। हम मौके के मुताबिक रिमोट संचालित जीव है जिसकी कोई आत्मा और अस्तित्व है ही नहीं।

सूचनाका अधिकार है, दक्षता है और तकनीक भी है, लेकिन देश के लोकतंत्र में हमारी कोई भागेदारी नहीं है और न कोई उत्तरदायित्व है। महज भोग है। भोग के आर-पार कुछ भी नहीं है। इसलिये जो लाइव है, वही विशुद्ध नीली क्रांति है। बिग बॉस से बिग ब्रदर की सुनियोजित यात्रा है। आईपीएल कैसिनो है और रियेलिटी सेनसेक्स है, जिस शेयर पर दाँव है, हमारी नजर बस वहीं टिकी है। जो प्रकाशित प्रसारित हैवह बाजार का खेल है, बाजार के माफिक है। या तो खरीद लो या क्विकर डाट काम पर बेच दो। नीलामी पर पल-पल देश बिक रहा है। हमें कानोंकान खबर नहीं होती। पल-पल हम खुद बिक रहे हैं, हमें खबर नहीं होती। हमारी गर्दन रेती जा रही है, हमें अहसास तक नहीं है। अपना खून पीते हुये हमें शीतल पेय का अहसास है। अपनी हड्डियाँ चबाते हुये हम डिस्कोथेक में रॉकस्टार हैं। न नीति निर्धारण की हमें खबर है और न राजकाज की। न हमें देश दुनिया की खबर होती है और न पास पड़ोस की। जो मुद्दा उछाला जाता है, जो सूचनाएं प्रायोजित हैं, जो आन्दोलन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है, हम जाने-अनजाने उसी में उछलते कूदते जुगाली करते रहते हैं।

शिक्षा का अधिकार है और सर्वशिक्षा भी है। ऐसी शिक्षा जो हमें उपभोक्ता तो बनाती है लेकिन हमसे हमारी मनुष्यता छीन लेती है।

वनाधिकार है लेकिन हमारा कोई वन नहीं है।

सारे कानून बदल दिये गये हैं ताकि हमारा वध निर्बाध हो और हम बिना राशन मँहगाई और मुद्रास्फीति में खाद्य सुरक्षा का जश्न मना रहे हैं। छनछनाते विकास के मध्य बाजार के विस्तार के लिये मध्यस्थों के लाभ के लिये शुरू सामाजिक योजनाओं का उत्सव मनाकर सीमाबद्ध क्रयशक्ति के सात बाजार में मारे जाने के लिये अभिशप्त हमारी तमाम पीढ़ियाँ।

हम भूल रहे हैं कि मौजीदा जायनवादी वैश्विक व्यवस्था में सारी सरकारें तमाम बाजारों और मुद्रा प्रणालियों की तरह रंगबिरंगी सत्ता और बड़बोली दगाबाज राजनीति विचारधारा समेत कॉरपोरेट राज के मातहत है। तमाम अस्मिताएं और तमाम तरह के वर्चस्व इस एकाधिकारवादी आक्रामक विध्वंसक कॉरपोरेट राज में समाहित है।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में सचमुच विचारधारा का अन्त है। विमर्श का अन्त है। विधाओं का अन्त है। माध्यमों का अन्त है। मातृभाषाओं का अन्त है। लोकसंस्कृति का अन्त है। इतिहास का अन्त है। मनुष्यता और प्रकृति का भी अन्त है। देश, समाज, परिवार संस्थाओं का अन्त है। विमर्श का अन्त है। संयम का अन्त है। संवाद का अन्त है। अन्तहीन अन्त अन्त है।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में इस कॉरपोरेट राज में पर्यावरण आखिर रिलायंस के तेलमंत्री के मातहत ही होना है। पर्यावरण कानून का भी वही हश्र होना है।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में कोई जनादेश हो ही  नहीं सकता। जो जनादेश है, वह बाजार का चक्रव्यूह है, जिसके दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द हैं और वहाँ जनता और जनपक्षधर लोकतंत्र निषिद्ध है।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में भूमि अधिग्रहण कानून बदलते रहेंगे। महासत्यानाशी गलियारे बनते रहेंगे। महानगर लीलते रहेंगे जनपद। शहर, गाँवों को खा जायेंगे। बाजार खत्म करेगा उद्योग धंधे। हम उत्पादक नहीं, बाजार के दल्ला हो गये हैं। भूमि सुधार का मुद्दा ठंडे बस्ते में ही रहेगा।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में खनन अधिनियम चाहे जो हो, सुप्रीम कोर्ट का आदेश चाहे जो हो, न पांचवी अनुसूची लागू होगी और न छठीं। विकास के नाम विनाश जारी रहेगा और मारे जाते रहेंगे भारत के नागरिक तमाम या बने रहेंगे अपने ही जनपदों में अपने ही घरों में युद्धबन्दी।

हम यह समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं कि इस कॉरपोरेट राज में न समता सम्भव है और न सामाजिक न्याय। न अवसरों का न्यायपूर्ण बंटवारा सम्भव है और न संसाधनों का। नौकरियाँ हैं नहीं, लेकिन हम एक दूसरे के खिलाफ युद्ध में शामिल हैं आरक्षण के नाम पर।

हमें इस यथास्थिति को तोड़ने के लिये कुछ तो करना ही होगा। तुरन्त करना होगा। कुछ नहीं कर सकते तो एक दूसरे को आवाज तो देही सकते हैं हम।

स‌ीधा स‌ा गणित है, सत्ता स‌े दूर रहकर दलितों की राजनीति होती नहीं है।

उदित राजजी पुरातन मित्र हैं इलाहाबाद जमाने के। लेकिन राजनीति में वे बहुत स‌याने हो गये हैं। अब तक राहुल गांधी और स‌ोनिया गांधी स‌े स‌ीधा कनेक्शन रहा है। लेकिन कांग्रेस का दुस्समय है और हवा नमोमय है। नरेद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिये राजसूय यज्ञ कराकर ही नयी बहुजन पार्टियाँ बन रही हैं तो मैदान में जमे पुराने खिलाड़ी उदित राज जी पीछे कैसे रह स‌कते हैं,यह स‌मझने की बात है। वे भी कॉरपोरेट राज को स्वर्णयुग मानते हैं और छनछनाते विकास के लिये मलाईदार तबके के लिये निजी क्षेत्र में आरक्षण की क्रांति के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इस हिसाब स‌े तो उन्हें अरविंद केजरीवाल और नंदन निलेकणि के स‌ाथ होने चाहिए। क्योंकि मुक्त बाजार के ईश्वर मनमोहन के पतन के बाद जुड़वाँ ईश्वर वे दोनों ही हैं। उम्मीद हैं कि राजनीति के खिलाड़ी तमाम बहुजन मूलनिवासी दिग्गज और मूलनिवासी पुरोधा मसीहा और विद्वतजन मौका के मुताबिक बहुत जल्द स‌ंघी खेमे से फारिग होकर नये ईश्वरों की शरण लेंगे। वैसे देश के निनानब्वे फीसद जनता के वर्तमान और भविष्य पर इसका असर ठीक उतना ही होना है, जितना धूम थ्री में आमिर खान और कैटरिना कैफ के स‌र्कसी करतब का। बहुजन एक्टिविज्म अब स‌र्कस का स‌ौंदर्यशास्त्र है। धर्म निरपेक्ष खेमे को इसकी ज्यादा परवाह नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उस तोते की जान भी तो आखिर सामाजिक क्षेत्र में रंग बिरंग एफडीआई में है,जिसकी चर्चा अभीतक शुरु ही नहीं हुयी है।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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