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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, January 15, 2014

चाहे कोई बने वे मुक्त बाजार के प्रधानमंत्री ही होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं

चाहे कोई बने वे मुक्त बाजार के प्रधानमंत्री ही होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं

चाहे कोई बने वे मुक्त बाजार के प्रधानमंत्री ही होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं

HASTAKSHEP

मित्रों,  आप सत्ता में आते ही आपको याद होगा कि हमने लिखा था कि अगर आप कारपोरेट राज के खिलाफ हैं तो वह कम से कम दिल्ली में कारपोरेट जनसंहार के मुख्य हथियार असंवैधानिक बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोडिक सीआईए नाटो प्रिज्मिक ड्रोनतांत्रिक आधार प्रकल्प को फौरन खारिज कर दें। अमलेंदु ने इसे हस्तक्षेप पर तुरन्त लगा भी दिया था। हम क्या करें कि हस्तक्षेप के अलावा हम कहीं अपनी बात कह नहीं पा रहे हैं। लगता है कि सारे मित्र हमसे नाराज हैं।

जिस वेबसाइट के जरिये वे जनसुनवाई कर रहे हैं, वहाँ मैं अपने लिखे का हर लिंक दे रहा हूँ जैसे बंगाल और देश के बारे में लिखे हर लिंक को मैं नेट पर उपलब्ध सत्ता विपक्ष के सिपाहसालारों मसलन ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, शरद यादव, लालू यादव, राम विलास पासवान से लेकर रामदास अठावले, उदित राज तक के वाल या संदेश बाक्स में रोज चस्पां करता हूँ। इसके अलावा भारत सरकार, तमाम राज्य सरकारों, तमाम मुख्यमंत्रियों, पक्ष प्रतिपक्ष के नेताओं, सांसदों, सर्वोच्च न्यायालय और मानवाधिकार आयोग, तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं, संपादकों और पत्रकारों को अलग से समूचा दस्तावेज भेजता हूँ रोज ईमेल से।

दरअसल यह हमारे पिताश्री के काम का तरीका है। स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय समस्याओं पर वे रोज मुझसे लिखवाते थे, उनको रुद्रपुर से टाइप करवाते थे फिर रजिस्टर्ड एकनाजलेजमेंट डाक से उन्हें भेजने की रोज की कवायद होती थी।

हम पिताजी की उसी बुरी आदत को डिजिटल तरीके से दोहरा रहे हैं। उनको भारी लागत पड़ती थी, लेकिन यह मेरा रोजाने का निःशुल्क कामकाज है। खर्च केबल लाइन किराया और बिजली बिल का है। पिताजी के मुकाबले कम पेचीदा है यह मामला। बसंतीपुर से साइकिल दौड़ रोजाने की रुद्रपुर मंजिल की कष्टकारी नहीं है यह। जिन्हें मेरा मेल रोजाना मिलता है या जिन्हें अपने वाल की पवित्रता का ख्याल है, उन्हें जरूर कष्ट है।

लगभग दस साल से आप के मुख्य नीतिनिर्धारक योगेंद्र यादव जी से हमारा थोड़ा बहुत संवाद वाया याहू ग्रुप जमाने से लेकर अब तक रहा है। लेकिन आम आदमी के तमाम एप्स पर दस्तक देते रहने के बावजूद आधार मामले में या दूसरे तमाम मुद्दों पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं है। अब तो आप टीम में बड़ी संख्या में हमारे रंग बिरंगे मित्रगण भी विराजमान हैं, जिनसे दशकों से हमारा संवाद रहा है। लेकिन हमारे लिखे या कहे पर उनकी ओर से सन्नाटा है।

बंगाल विधानसभा में आधार के खिलाफ सर्वदलीय प्रस्ताव पारित होने के बाद हमने गोपाल कृष्ण जी से निवेदन किया था कि हम लगभग पूरे पिछले दशक के साथ आधारविरोधी अभियान चलाकर इसे जनांदोलन बनाने में नाकाम रहे हैं और बिना राजनीतिक भागेदारी के इसे जनांदोलन बनाना भी असम्भव है।

हमारा सुझाव था कि चूँकि बंगाल में पहला प्रतिवाद हुआ है और ममता बनर्जी भी इसके खिलाफ मुखर हैं तो दिल्ली में बंगाल के सांसदों नेताओं से संवाद करके कम से कम बंगाल में आधार को खारिज करने के लिये उनसे कहा जाये। इसके अलावा इस सिलसिले में भारतीय भाषाओं में अब तक उपलब्ध सारी सामग्री सोशल मीडिया मार्फत जारी कर दिया जाये। उन्होंने तब ऐसा ही करने का वायदा भी किया था।

कल रात ही हमें अपने सहकर्मियों के मार्फत मालूम चला कि बंगाल में अब कोलकाता और जनपदों में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मार्फत आधार कार्ड बनवाने का अभियान चल रहा है। जो लोग कारपोरेट दुकानों से आधार हासिल कर चुके हैं, उन्हें भी स्थानीय निकायों से नोटिस मिल रहा है कि आधार के लिये अपनी अपनी दसों उंगलियाँ और पुतलियाँ सरकारो के हवाले कर दें क्योंकि यह अनिवार्य है।

देश भर में सर्वोच्च न्यायालय की मनाही के बावजूद अनिवार्य नागरिक सेवाओं के साथ आधार को नत्थी कर दिया गया है। अब एनपीआर के तहत आधार अनिवार्यता के इस फतवे के बाद नागरिकों के लिये आधार बनवाये बिना युद्धबंदी हैसियत से रिहाई की कोई सम्भावना नहीं है।

आज सुबह भी गोपाल कृष्ण जी से लम्बी बातचीत हुयी और मैंने कहा कि अब तो हमें भी आधार बनवाने की नौबत पड़ सकती है कि क्योंकि बाजार दर पर तमाम नागरिक सेवाएं खरीदने की क्रयशक्ति हमारी नहीं है और महज जीवित रहने के लिये जो चीजें जरूरी हैं, वह अब आधार बिना मिलेंगी नहीं। जब दस साल तक आधार के खिलाफ अभियान चलाने के अनुभव के बावजूद हमारी यह असहाय युद्धबंदी जैसी स्थिति है तो पूरे तंत्र से अनजान नागरिकों का क्या विकल्प हो सकता है, समझ लीजिये।

गोपाल कृष्ण जी से बात करने से पहले सुबह का इकोनामिक टाइम्स देख लिया था और दिल्ली में मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के निषेध सम्बंधी खबर और आप पर पोपुलिज्म आरोपित तमाम आलेखों को पढ़ चुका था।

 हमने दोहराव और अनिवार्यता की सूचनाएं देने के बाद गोपाल जी से कहा कि अब हमारे हाथों से बालू की तरह समय फिसल रहा है और हम कोई प्रतिरोध कर नहीं सकते, जब तक कि आम बहुसंख्य जनता को हम जागरूक न बना लें।

यह बात हमने आज अमलेंदु से भी कहा कि मुद्दों को टाले बिना उन्हें तत्काल आम जनता तक संप्रेषित करने का हमारा कार्यभार है। कल आनंद तेलतुंबड़े से कम से कम चार बार इसी सिलसिले में विचार विमर्श हुआ तो मुंबई और देश के दूसरे हिस्सों के साथियों से यही बातें रोज हो रही हैं। कल भी हुयीं और आज भी। लिखते हुये बार- बार व्यवधान होने के बावजूद बहुपक्षीय संवाद का यह माध्यम मुझे बेहतर लगता है और तमाम मित्रों से लगातार ऐसा संवाद जारी रखने का आग्रह है।

गोपाल जी से हमने कहा कि बंगाल सरकार को आधार के खिलाफ कदम उठाने के लिये उनके सामने यह मामला सही परिप्रेक्ष्य में रखने की जरूरत है। फिर हमने कहा कि आप में जो लोग हैं और जो नये लोग पहुँच रहे हैं, हम उन्हें दशकों से जानते हैं। अगर वे मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का निषेध कर सकते हैं तोआधार का निषेध क्यों नहीं कर सकते।

इसके जवाब में उन्होंने जो कहा, उससे हमारे तोते उड़ गये। उन्होंने कहा कि आधार मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव समेत आप सिपाहसालारों से उनकी बातचीत हो गयी है और वे लोग आधार के पक्ष में हैं।

हालाँकि यह आसमान से गिरने वाली बात नहीं है कोई क्योंकि तमाम एनजीओ के मठाधिकारी खास आदमी के कायकल्प से आम आदमी के अवतार बने लोगों के सामाजिक सरोकार के तमाम सरकारी कार्यक्रम,परियोजनाएं, अधिकार केन्द्र सरकार के अनुदान और वैश्विक व्यवस्था के शीर्ष संस्थानों के डोनेशन और सामाजिक क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी थोक विनिवेश से चलने वाले हैं। ये ही उनकी राजनीति के कॉरपोरेट संसाधन के मुख्य आधार हैं। हमने अपने उच्च विचार गोपाल जी को बता दिये।

अब फेसबुक वाल पर अपने भाई दिलीप मंडल और मित्र रियाजुल हक ने इस सिलसिले में कुछ और प्रकाश डाला है, उसे भी साझा कर रहा हूँ।

लेकिन इससे पहले एक सूचना बेहद जरूरी है।

कल रात हमारे एक सहकर्मी ने अंबेडकर का लिखा पढ़ने की इच्छा जतायी। हमने सीधे अंबेडकर डॉट आर्ग खोल दिया तो पता चला वह साइट हैक हो गया। तो एन्निहिलिसन आफ कास्ट, प्रोब्लेम आफ रुपीरिडल्स इन हिंदुइज्मजैसे पुस्तकनामों से गूगल सर्च से नेट पर उपलब्ध सामग्री खोजने की कोशिशें की तो पता चला अंबेडकर का लिखा कुछ भी नेट पर हासिल नहीं है। जैसे वीटी राजशेखर के दलित वायस का हुआ वैसे ही अंबेडकर साहित्य का।

तब रात साढे बारह बजे थे। हमें मालूम था कि आनंद तेलतुंबड़े रांची के लिये देर रात खड़गपुर से गाड़ी पकड़ने वाले हैं तो जगे ही होंगे। हमने उन्हें मोबाइल पर पकड़ा और स्थिति बतायी। उन्होंने कहा कि ऐसा तो होगा ही। लेकिन हमारे पास इसका तोड़ है। दस साल पहले हमने सारा साहित्य लोड कर दिया। उड़ गया तो एकबार फिर नेट पर लोड कर दिया जायेगा। दो तीन दिन का वक्त लगेगा।

गनीमत है कि हमारे पास आनंद तेलतुंबड़े जैसे आईटी विशेषज्ञ और प्रखर विचारक हैं।

कल पहली बार हमारी मुलाकात हिंदी के लेखक विचारक एचएल दुसाध जी से हुयी। वे आप के उत्थान से पहले ही दिन से उत्तेजित हैं। एनजीओ सत्ता के मुकाबले उन्होंने राजनीति में उतरकर सीधे मुकाबला करने के इरादे से राजनीतिक दल बनाने का संकल्प लेकर दिल्ली से निकले, पटना में सम्मेलन किया और इंजीनियर ललन सिंह, जो दलित आदिवासी मुद्दों को भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में शामिल कराने की मुहिम चलाते रहे हैं और इसी सिलसिले में नेतृत्व से मतभेद के चलते उन्होंने भाजपा से इस्तीफा देकर दुसाध जी के साथ लग गये हैं, के साथ दोपहर बाद सोदपुर में हमारे डेरे पहुँच गये।

उनके विषय प्रस्तावना करते ही सविता बाबू ने बम विस्फोट कर दिया और मेरे कुछ कहने से पहले ही मुझे इंगित कह दिया कि अगर ये राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचते भी हैं तो पहले तलाक लेंगे। उन्होंने दुसाध जी को बता दिया कि नैनीताल से अक्सर ऐसे प्रस्ताव आते रहे हैं और इस पर घर के लोग हमेशा वीटो करते रहे हैं। हमारा परिवार पुलिनबाबू के मिशन के अलावा किसी भी किस्म की राजनीति में नहीं है।

दरअसल दुसाध जी, अंबेडकरवादियों में एकमात्र व्यक्ति हैं तेलतुंबड़े के अलावा, जिनका पूरा विमर्श आरक्षण को गैरप्रासंगिक मानकर है। वे तेलतुंबड़े की तरह अकादमिक नहीं है और महज बारहवीं पास हैं। लेकिन हिन्दी में लिखने वाले और निरन्तर छपने वाले एकमात्र दलित विचारक हैं। तेलतुंबड़े भी हिन्दी में नहीं लिख सकते। मुझे कोई नहीं छापता। दुसाधजी हर कहीं छपते हैं।

दुसाध जी एकमात्र व्यक्ति हैं जो लगातार अंबेडकरी विमर्श में संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बँटवारे की बात हिन्दी में कहते और लिखते और छपते हैं। सहमति-असहमति के आर-पार हम जो लोग उन्हें जानते पढ़ते हैं, वे कतई नहीं चाहेंगे कि सत्ता में भागेदारी की लड़ाई में वे शामिल हों।

पहले तो हमने अपने युवा मित्र व प्रखर विश्लेषक अभिनव सिन्हा, जिन्होंने आप के उत्थान का सटीक विश्लेषण भी किया है, उनके शब्दों को उधार लेते हुये कहा कि भाववादी डृष्टि से हम सामाजिक यथार्थ को सम्बोधित नहीं कर सकते। भावनाओं से राजनीतिक लड़ाई नहीं होती। हमें वस्तुवादी नजरिये से देखना होगा।

फिर हमने कहा कि यह व्यवस्था जो पारमाणविक है। यह राष्ट्रव्यवस्था जो मुकम्मल जनसंहारी सैन्यतंत्र है, उसे धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद जैसे भाववाद से हम बदल नहीं सकते और वह नहीं बदलता तो चाहे मोदी बने, चाहे केजरीवाल, चाहे ममता या मुलायम या बाजार के पुरअसर समर्थन से कोई दूसरा यहाँ तक कि मायावती, वामन मेश्राम या एच एल दुसाध भी भारत का प्रधानमंत्री बन जायें, हालात बदलने वाले नहीं है।

हालात तो ऐसे हैं कि इस व्यवस्था में जो भी बनेगा प्रधानमंत्री वह मनमोहन, नीलिकणि और मंटेक का नया अवतार ही होगा। इसको बदलने की मुकम्मल तैयारी के बिना हम कोई राजनीतिक पहल कर ही नहीं सकते। उस तैयारी के सिलसिले में भी विस्तार से बातें हुयीं।

कल ही इकोनामिक टाइम्स के पहले पेज पर बामसेफ के 2014 के नये राजनीतिक खिलाड़ी के शंखनाद की खबर कैरी हुयी है।

मूलनिवासी का विसर्जन करके वामन मेश्राम ने मायावती का आधार को गहरा आघात देते हुये और कांग्रेस के साथ बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के पैट्रियट प्रक्षेपास्त्र को मिसाइली मार से गिराते हुये ऐलान कर दिया है किबामसेफ, दलित-मुसलिम गठबंधन के मार्फत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बेगाल जैसे राज्यों को फोकस में रखकर चार सौ लोकसभा सीटों पर लड़ेगा और इनमे अस्सी उम्मीदवार मुसलमान होंगे।

कितने उम्मीदवार आदिवासी होंगे या कितने ओबीसी, इसका उन्होंने खुलासा किया नहीं है। न ही बहुजन मुक्ति पार्टी, जो राजनीतिक दल है उनका, उसका कहीं नामोल्लेख किया है।

कैडरबेस बामसेफ के संगठन ढाँचे के दम पर ही उन्होंने ऐसा दावा करते हुये बामसेफ को निर्णायक तौर पर तिलांजलि दे दिया। इसके साथ ही उन्होने खुद यह खुलासा किया कि बड़े कॉरपोरेट घरानों और कुछ क्षेत्रीय दलों ने उन्हें समर्थन देने का वायदा किया है। उनके इस विस्फोटक मीडिया आविर्भाव का मतलब बामसेफ के कार्यकर्ता समझे न समझे, बीएसपी कार्यकर्ताओं और बहन मायावती जी को जरूर समझ आया होगा।

बहरहाल जिस ईश्वर ने अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद प्रधानमंत्रित्व का दावेदार भी बना दिया,जिस ईश्वर के भरोसे नरेंद्र मोदी संघपरिवार के हिंदू राष्ट्र के भावी प्रधानमंत्री हैं, उस ईश्वर की मर्जी हो गयी तो जैसे कि वामन मेश्राम जी ने संकेत किया है, तो संघ परिवार से भी विशाल सांगठनिक ढाँचा का दावा करने वाले आदरणीय वामन मेश्राम जी भी भारत के प्रधानमंत्री बन ही सकते हैं।

हमें किसी को प्रधानमंत्री बनाने या किसी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के खेल में कोई दिलचस्पी नहीं है, ऐसा हमने दुसाध जी को साफ तौर पर बता दिया।

मौजूदा राज्य तंत्र में न लोकतंत्र है, न संविधान लागू है कहीं और न कहीं कानून का राज है। नागरिक और मानवाधिकार समेत तमाम अवसरों और संसाधनों पर भी सत्ता वर्ग का ही एकाधिकार वादी वर्चस्व।

प्रधानमंत्री चाहे कोई बनें, वे मुक्त बाजार के ही प्रधानमंत्री होंगे, भारतीय जन गण मन के नहीं। बहुसंख्य सर्वहारा, सर्वस्वहारा आम जनों को इस वधस्थल से मुक्त कराने के लिये यह कॉरपोरेट राजनीति नहीं है।

कांग्रेस की साख चूँकि शून्य है, इसलिये कॉरपोरेट साम्राज्यवाद ने उसे खारिज कर दिया है और उसके साथ नत्थी मायावती का हिसाब भी कर दिया। बाकी बचे दो विकल्प नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल तो यूथ फॉर इक्विलिटी के नये कारपोरेट अवतार भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के झंडेवरदार दो खेमे में बँटकर दोनों विकल्प मजबूत बनाने में लगे हैं।जो जीता वही मुक्त बाजार का सिकंदर।

हमें कोई तकलीफ नहीं है मोदी, राहुल, ममता, अरविंद या वामन मेश्राम से। सबके लिये हमारी बराबर शुभकामनाएं। भारतीय बहुसंख्य बहुजन राजनीतिक झंडों में आत्मध्वंस के महोत्सव में लहूलुहान हैं और हम खून के छींटों से नहा रहे हैं। इस महायुद्ध में तलवारें चलाने का हमें कोई शौक नहीं है, जिन्हें हैं बाशौक चलायें।

बहस लम्बी चली और खास बात यह है कि बीच में आनंद तेलतुंबड़े का फोन भी आ गया। उन्होंने भी कहा कि राजनीति के शार्टकट से इस तिलिस्म से आजादी असम्भव है।

सविता लगातार बहस करती रही। अंततः दुसाध जी और ललन जी मान गये। आज भी कई दफा फोन करके दुसाध जी ने कहा कि वे बहुजनों में घमासान तेज करने की मुहिम में नहीं हैं और हमारे देश जोड़ो अभियान के साथ हैं। ललन बाबू भी हमारे साथ हैं।

अब इस पर भी गौर करें जो रियाजुल ने लिखा है,

खुदरा बाजार की कुख्यात कंपनी वालमार्ट पिछले सितंबर में इस कारोबार में आधे के साझीदार भारती ग्रुप से अलग हो गयी थीजिसके बाद दोनों कंपनियों द्वारा खुदरा बाजार में किया जाने वाला निवेश भी टल गया था। भारती ग्रुप ही एयरटेल नाम से संचार सेवा मुहैया कराता हैजो अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के अभियानों में करीबी सहायक रहा है। क्या दिल्ली में खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को रद्द किये जाने को वालमार्ट से भारती के अलगाव से और फिलहाल दिल्ली में खुदरा बाजार में वास्तविक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की संभावना के न होने से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए?

 आगे दिलीप मंडल ने भी खुलासा कर दिया कि

हो सकता है कि केजरीवाल के पास ज्यादा समय न हो। लेकिन वे कम समय में जो करना चाहते हैं, वह स्पष्ट हो चला है। अभी तक उन्होंने अपने दो चुनावी वादे पूरे किये हैं। VAT का सरलीकरण, ताकि ट्रेडर्स (वैट छोटे दुकानदार जैसे सब्जी विक्रेताओं की समस्या नहीं है) को दिक्कत न हो और दूसरा रिटेल कम्पनियों और बिजनेसमैन के हित में खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी यानी रिटेल में FDI के फैसले को पलटना। इन दोनों मामलों में आप पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं, लेकिन केजरीवाल क्या कर रहे हैं और किन के लिये कर रहे हैं, इसे लेकर संदेह का कोई कारण नहीं है….सफाई कर्मचारी समेत दिल्ली के सवा लाख ठेका कर्मचारी अभी कतार में हैं। और कोटा का बैकलॉग पूरा करने का वादा? वह क्या होता है?

पहाड़ों से भी कुछ सनसनाते मंतव्य आये हैं …. कृपया गौर जरुर करें।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना


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