रवींद्र का दलित विमर्श-30
गंगा और नर्मदा की मुक्तधारा को अवरुद्ध करने वाली दैवीसत्ता का फासिज्म आदिवासियों और किसानों के खिलाफ
सामाजिक विषमता के खिलाफ मनुस्मृतिविरोधी लड़ाई को खत्म करना ही हिंदुत्ववादियों के हिंदू राष्ट्र का एजंडा
मुक्तधारा के लिए जल सत्याग्रह इसीलिए जारी रहेगा।
पलाश विश्वास
टिहरी बांध का उतना प्रबल विरोध नहीं हुआ और गंगा की अबाध जलधारा हमेशा के लिए नमामि गंगा के मंत्रोच्चार के बीच अवरुद्ध कर दी गयी।पुरानी टिहरी समेत उत्तरकाशी और टिहरी की खूबसूरत घाटियां डूब में शामिल हो गयीं।अपने खेतों,अपने गांवों और आजीविका के लिए जरुरी जंगल से बेदखल मनुष्यों का पुनर्वास नहीं हुआ अभीतक।कांग्रेसी राजकाज के जमाने में सोवियत सहयोग से बने इस बांध के विरोध में व्यापक जन आंदोलन नहीं हो सका क्योंकि तब पहाड़ में शक्तिशाली वाम दलों और संगठनों ने सोवियत पूजी का विरोध नहीं किया।उत्तराखंड अलग राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों ने भी टिहरी बांध का विरोध नहीं किया।पर्यावरण कार्यकर्ताओं,चिपको और सर्वोदय आंदोलन के मंच से हालांकि इस बांध परियोजना का जोरदार विरोध किया जाता रहा है।
इससे पहले दामोदर वैली,हिराकुड,रिंहद और भाखड़ा समेत तमाम बड़े बांधों का विकास,बिजली और सिंचाई के लिए अनिवार्य मान लिया गया।इन बांधों के कारण जल जंगल जमीन से बेदखल आदिवासियों और किसानों का आजतक पुनर्वास नहीं हो सका है।विकास परियोजनाओं में विस्थापितों का पुनर्वास कभी नहीं हुआ है और इस विकास के बलि होते रहे हैं आदिवासी और किसान।
मुक्तधारा के लिए जल सत्याग्रह इसीलिए जारी रहेगा।
इस तुलना में नर्मदा बांध का विरोध सिलसिलेवार होता रहा है और कुड़नकुलम परमाणु संयंत्र का भी विरोध जोरदार रहा है।कुड़नकुलम परमाणु संयंत्र में जनप्रतिरोध के दमन के साथ परमाणु बिजली का उत्पादन शुरु हो चुका है तो नर्मदा बांध दैवी सत्ता के आवाहन के साथ राष्ट्र को समर्पित है।
रवींद्र नाथ मुक्त जलधारा को बांधने के खिलाफ आदिवासियों और किसानों के साथ थे।अपना नाटक मुक्तधारा उन्होंने 1922 में लिखी।1919 में जालियांवाला नरसंहार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम तेज होने के दौरान।
1919 और 1922 के बीच मतभेदों के बावजूद गांधी और रवींद्रनाथ की नजदीकी बढ़ी और मुक्तधारा लिखने से पहले 1921 में अपनी यूरोप यात्रा से लौटकर कोलकाता में रवींद्रनाथ ने बंद कमरे में चारघटे तक बातचीत की थी।
1905 में बंगभंग आंदोलन के बाद रवींद्रनाथ 1919 के जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा सक्रिय थे।
गांधी और रवींद्र दोनों पश्चिमी देशों के जिस औपनिवेशिक साम्राज्यवादी नस्ली राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे,उसके खिलाफ भारतीय जनता के एकताबद्ध संवत्ंतरता संग्राम के पक्ष में यह नाटक है।गांधी जिसे पागल दौड़ कहते हैं,यंत्र और तकनीक निर्भर मनुष्यता विरोधी प्रकृतिविरोधी उस विकास के विरुद् है यह नाटक।
यांत्रिक मुक्ताबाजारी सभ्यता में आजीविका और रोजगार छीनने के कारपोरेट राज में डिजिटल इंडिया के आटोमेशन निर्भर राजकाज के संदर्भ में भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है।1921 की उस मुलाकात के बाद गांधी जहां असहयोग आंदोलन तेज करने में लगे रहे वहीं रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन में विश्वविद्यालय बनाने पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित किया।दोनों आंदोलन के दौरान एक मंच पर नहीं थे।
1919 से लेकर 1922 की अवधि में गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था तो वह खिलाफत आंदोलन का दौर भी था और उसी दौरान औद्योगिक इकाइयों में मजदूर आंदोलन के जरिये ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता का प्रतिरोध तेज से तेज होता रहा।
इसी प्रतिरोध की अभिव्यक्ति रवींद्रनाथ के मुक्तधारा नाटक में हुई।उत्तरकूट होकर शिवतराई के मध्य प्रवाहित नदी मुक्तधारा को उत्तरकूट के राजा रणजीत रोक देते हैं किसानों के दमन के लिए।युवराज अभिजीत किसानों के साथ हो गये थे और राजकीय जिम्मेदारी के खिलाफ उन्होंने किसानों का लगान माफ कर दिया।मुक्तधारा पर बांध का निर्माण का एक कारण युवराज विद्रोह भी था।बांध बनने के पीछे किसान युवराज का हाथ देखने लगे तो अपनी जान देकर उन्होंने उस बांध को तोड़ दिया।
रवींद्रनाथ सम्यवादी नहीं थे।जाहिर है कि उनकी इस रचना में वर्गचेतना उसी तरह नहीं है जैसे उनके दूसरे बेहद प्रासंगिक नाटक रक्तकरबी में वर्ग चेतना जैसी कोई चीज नहीं है।मुक्तधारा में जहां युवराज बांध तोड़ देते हैं,वहीं रक्तकरबी में राजा खुद किसानों और मेहनतकशों के मुक्ति संग्राम में शामिल हो जाते हैं।
जाहिर है कि रवींद्रनाथ के लिए मनुष्यता और मनुष्यता के धर्म विशुद्ध सामयवादी वस्तुवादी दर्शन के ज्यादा महत्वपूर्ण है और एक दूसरे के वर्गशत्रु को बदलाव के लिए एक साथ खड़ा कर देते हैं।
रवींद्र रचनासमग्र में यह भाववादी दृष्टिकोण बहुत प्रबल है और इसकी जड़ें भी सूफी संत बाउल फकीर आंदोलन के भारतीय दर्शन में है।
स्वदेश चिंता में रवींद्रनाथ ने साफ साफ लिखा है कि बौद्ध धर्म के अवसान के बाद से लगातार भारत में दैवी सत्ता की स्थापना के लिए मनुस्मृति विधान सख्ती से लागू किया जाने लगा और बहुसंख्य आम जनता शूद्र और अछूत हो गये।गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति और उस वजह से हुए सामाजिक परिवर्तन की आशंका से हिंदू समाज आतंकित हो गया तो मनुस्मृति व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें समाज को पीछे की ओर धकेलने लगा।
इस द्वंद के बावजूद भारत में मनुष्याता के धर्म में विविधता में एकता की बात वे लगातार कर रहे हैं।
गौरतलब है कि आस्था और धर्म कर्म संस्कार रीति रिवाज के मामले में आम लोग परंपराओं का ही पालन करते हैं और अपनी अपनी लोकसंस्कृति के मुताबिक ही उनका समाजिक और धार्मिक आचरण होता है और इसे लेकर हिंदुओं और गैरहिंदुओं में कोई विवाद नहीं है।
सारा विवाद मनुस्मृति की बहाली करके दैवी सत्ता और राजसत्ता के एकीकरण के नस्ली वर्चस्व को लेकर है जो अब अंध राष्ट्रवाद है और इसी अंध राष्ट्रवाद का विरोध रवींद्रनाथ लगातार करते रहे हैं,जो आजाद बारत में सीधे तौर पर कारपोरेट एजंडा है।इसलिए मुक्तधारा की प्रासंगिकता बहुत बढ़ गयी है।
कुल मिलाकर यह विरोध हिंदुओं और गैरहिंदुओं के बीच नहीं है।यह हिंदू समाज का आतंरिक गृहयुद्ध है और इस सिलसिले में गौरतलब है धर्मोन्माद के विरोध की वजह से मारे गये दाभोलकार,पानसारे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला और गौरी लंकेश सबके सब हिंदू थे तो मनुस्मृति का विरोध करते थे।
रवींद्रनाथ इसी सामाजिक विषमता को सूफी संत परंपरा की साझा विरासत के तहत खत्म करना चाहते थे और इसी सिलसिले में वे लगातार जल जंगल जमीन और किसानों,आदिवासियों,शूद्रों,अछूतों,स्त्रियों और मेहनतकशों के लिए समानता और न्याय की आवाज को अपनी रचनाधर्मिता बनाये हुए थे।
जड़ समाज को गति देने के लिए उन्होंने शूद्रों और मेहनतकशों की पहल पर आधारित नाटक रथेर रशि भी लिखी है,जिसकी हम चर्चा करेंगे।
हम सांतवीं आठवीं सदी के मंदिर केंद्रित शैव और वैष्णव भक्ति आंदोलनों के मनुस्मृति विरोधी आंदोलन में बदलने की सिलसिलेवार चर्चा की है।
इसी सिलसिले में वध संस्कृति के शिकार द्रविड़ लिंगायत गौरी लंकेश की पृष्ठभूमि में लिंगायत आंदोलन की चर्चा जरुरी है।
उत्तर भारत के सूफी संत बाउल फकीर वैष्णव आंदोलन से पहले भक्ति आंदोलन के सिलसिले में बारहवीं सदी में बासवेश्वर या बसेश्वर के लिंगायत धर्म आंदोलन की स्थापना हुई।बसेश्वर के इस आंदोलन का मुख्य स्वर ब्राहमणवाद का विरोध और चरित्र जाति तोड़ो आंदोलन है।
मनुस्मृति के कट्टर अनुशासन के निषेध के साथ मनुस्मृति और जातिव्यवस्था को सिरे से लिंगायत आंदोलन ने नामंजूर कर दिया और लिंगायत ध्र्म के अनुयायी अपने को हिंदू भी नहीं मानते रहे हैं।वे वैदिकी सभ्यता,कर्मकांड,रस्मोरिवाज का विरोध करते थे,जिसका कर्नाटक में व्यापक प्रभाव हुआ।
बंगाल में मतुआ आंदोलन भी ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध था।ब्रह्मसमाज आंदोलन भी।जिसाक पूरीतरह हिंदुत्वकरण हो गया है।
इसके विपरीत बारहवीं सदी से कर्नाटक में लिंगायत धर्म का प्रभाव अटूट है।लिंगायत अनुयायी जीवन के हर क्षेत्र में कर्नाटक में नेतृ्त्व करते हैं और हिंदुत्ववादियों को इसी लिंगायत धर्म से ऐतराज है और इसीलिए इसकी प्रवक्ता गौरी लंकेश की हत्या हो गयी।
सामाजिक विषमता के खिलाफ मनुसमृतिविरोधी लड़ाई को खत्म करना ही हिंदुत्ववादियों के हिंदू राष्ट्र का एजंडा है।
रवींद्रनाथ इस विषमता को खत्म करने के लिए ही विविधता,बहुलता,सहिष्णुता और अनेकता में एकता आधारित मनुष्यता के धर्म की बात कर रहे थे।पारिवारिक पृष्ठभूमि ब्रहमसमाजी होने के बावजूद वे अपने को ब्रह्मसमाजी नहीं मानते थे।
आप इसे रवींद्रनाथ का भाववादी होना बता सकते हैं लेकिन उनकी वैज्ञानिक दृष्टि को नजरअंदाज नहीं कर सकते और न ही मुक्तबाजारी मनुस्मृति कारपोरेट एजंडा के प्रतिरोध में उनकी प्रासंगिकता को खारिज कर सकते हैं।
रवींद्रनाथ शुरु से सत्ता वर्ण वर्चस्व के खिलाफ हैं।
स्वदेशी समाज पर उन्होंने लिखा हैः
নিশ্চয় জানিবেন, ভারতবর্ষের মধ্যে একটি বাঁধিয়া তুলিবার ধর্ম চিরদিন বিরাজ করিয়াছে। নানা প্রতিকূল ব্যাপারের মধ্যে পড়িয়াও ভারতবর্ষ বরাবর একটা ব্যবস্থা করিয়া তুলিয়াছে, তাই আজও রক্ষা পাইয়াছে। এই ভারতবর্ষের উপরে আমি বিশ্বাসস্থাপন করি। এই ভারতবর্ষ এখনই এই মুহূর্তেই ধীরে ধীরে নূতন কালের সহিত আপনার পুরাতনের আশ্চর্য একটি সামঞ্জস্য গড়িয়া তুলিতেছে। আমরা প্রত্যেকে যেন সজ্ঞানভাবে ইহাতে যোগ দিতে পারি—জড়ত্বের বশে বা বিদ্রোহের তাড়নায় প্রতিক্ষণে ইহার প্রতিকূলতা না করি।
বাহিরের সহিত হিন্দুসমাজের সংঘাত এই নূতন নহে। ভারতবর্ষে প্রবেশ করিয়াই আর্যগণের সহিত এখানকার আদিম অধিবাসীদের তুমুল বিরোধ বাধিয়াছিল। এই বিরোধে আর্যগণ জয়ী হইলেন, কিন্তু অনার্যেরা আদিম অস্ট্রেলিয়ান বা আমেরিকগণের মতো উৎসাদিত হইল না; তাহারা আর্য উপনিবেশ হইতে বহিষ্কৃত হইল না; তাহারা আপনাদের আচারবিচারের সমস্ত পার্থক্যসত্ত্বেও একটি সমাজতন্ত্রের মধ্যে স্থান পাইল। তাহাদিগকে লইয়া আর্যসমাজ বিচিত্র হইল।
এই সমাজ আর-একবার সুদীর্ঘকাল বিশ্লিষ্ট হইয়া গিয়াছিল। বৌদ্ধ-প্রভাবের সময় বৌদ্ধধর্মের আকর্ষণে ভারতবর্ষীয়ের সহিত বহুতর পরদেশীয়ের ঘনিষ্ঠ সংস্রব ঘটিয়াছিল; বিরোধের সংস্রবের চেয়ে এই মিলনের সংস্রব আরো গুরুতর। বিরোধে আত্মরক্ষার চেষ্টা বরাবর জাগ্রত থাকে—মিলনের অসতর্ক অবস্থায় অতি সহজেই সমস্ত একাকার হইয়া যায়। বৌদ্ধ-ভারতবর্ষে তাহাই ঘটিয়াছিল। সেই এশিয়াব্যাপী ধর্মপ্লাবনের সময় নানা জাতির আচারব্যবহার ক্রিয়াকর্ম ভাসিয়া আসিয়াছিল, কেহ ঠেকায় নাই।
কিন্তু এই অতিবৃহৎ উচ্ছৃঙ্খলতার মধ্যেও ব্যবস্থাস্থাপনের প্রতিভা ভারতবর্ষকে ত্যাগ করিল না। যাহা-কিছু ঘরের এবং যাহা-কিছু অভ্যাগত, সমস্তকে একত্র করিয়া লইয়া পুনর্বার ভারতবর্ষ আপনার সমাজ সুবিহিত করিয়া গড়িয়া তুলিল; পূর্বাপেক্ষা আরো বিচিত্র হইয়া উঠিল। কিন্তু এই বিপুল বৈচিত্র্যের মধ্যে আপনার একটি ঐক্য সর্বত্রই সে গ্রথিত করিয়া দিয়াছে। আজ অনেকেই জিজ্ঞাসা করেন, নানা স্বতোবিরোধআত্মখণ্ডনসংকুল এই হিন্দুধর্মের এই হিন্দুসমাজের ঐক্যটা কোন্খানে? সুস্পষ্ট উত্তর দেওয়া কঠিন। সুবৃহৎ পরিধির কেন্দ্র খুঁজিয়া পাওয়াও তেমনি কঠিন—কিন্তু কেন্দ্র তাহার আছেই। ছোটো গোলকের গোলত্ব বুঝিতে কষ্ট হয় না, কিন্তু গোল পৃথিবীকে যাহারা খণ্ড খণ্ড করিয়া দেখে তাহারা ইহাকে চ্যাপটা বলিয়াই অনুভব করে। তেমনি হিন্দুসমাজ নানা পরস্পর-অসংগত বৈচিত্র্যকে এক করিয়া লওয়াতে তাহার ঐক্যসূত্র নিগূঢ় হইয়া পড়িয়াছে। এই ঐক্য অঙ্গুলির দ্বারা নির্দেশ করিয়া দেওয়া কঠিন, কিন্তু ইহা সমস্ত আপাত-প্রতীয়মান বিরোধের মধ্যেও দৃঢ়ভাবে যে আছে, তাহা আমরা স্পষ্টই উপলব্ধি করিতে পারি।
ইহার পরে এই ভারতবর্ষেই মুসলমানের সংঘাত আসিয়া উপস্থিত হইল। এই সংঘাত সমাজকে যে কিছুমাত্র আক্রমণ করে নাই, তাহা বলিতে পারি না। তখন হিন্দুসমাজে এই পরসংঘাতের সহিত সামঞ্জস্যসাধনের প্রক্রিয়া সর্বত্রই আরম্ভ হইয়াছিল। হিন্দু ও মুসলমান সমাজের মাঝখানে এমন একটি সংযোগস্থল সৃষ্ট হইতেছিল যেখানে উভয় সমাজের সীমারেখা মিলিয়া আসিতেছিল; নানকপনথীসম কবীরপনথীএম ও নিম্নশ্রেণীর বৈষ্ণবসমাজ ইহার দৃষ্টান্তস্থল। আমাদের দেশে সাধারণের মধ্যে নানা স্থানে ধর্ম ও আচার লইয়া যে-সকল ভাঙাগড়া চলিতেছে শিক্ষিত-সম্প্রদায় তাহার কোনো খবর রাখেন না। যদি রাখিতেন তো দেখিতেন, এখনো ভিতরে ভিতরে এই সামঞ্জস্যসাধনের সজীব প্রক্রিয়া বন্ধ হয় নাই।
সম্প্রতি আর-এক প্রবল বিদেশী আর-এক ধর্ম আচারব্যবহার ও শিক্ষাদীক্ষা লইয়া আসিয়া উপস্থিত হইয়াছে। এইরূপে পৃথিবীতে যে চারি প্রধান ধর্মকে আশ্রয় করিয়া চার বৃহৎ সমাজ আছে—হিন্দু, বৌদ্ধ, মুসলমান, খ্রীস্টান—তাহারা সকলেই ভারতবর্ষে আসিয়া মিলিয়াছে।
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