| Thursday, 05 April 2012 11:08 |
अरविंद मोहन बिहार से दो करोड़ लोग बाहर गए हैं या ढाई करोड़, यह राज्य सरकार को भी मालूम नहीं है। उसमें अपने लोगों के लिए संवेदनशीलता भी नहीं बची है। जबकि प्रवासी मजदूर अपमान और जलालत झेल कर भी हर साल हजारों करोड़ रुपए ले आते हैं और सचमुच पहाड़ तोड़ कर अपने परिवार का पालन करते हैं। ऐसे बिहार के आर्थिक विकास का सपना कभी पूरा होगा या नहीं, या किस रूप में होगा, कहना मुश्किल है। इसके बावजूद बिहार और बिहारियों में काफी कुछ ऐसा है जो न सिर्फ उन्हें कायदे से जिंदा रहने का हौसला, बल्कि एक भी तरीका देता है जो अभी बाकी लोगों को सीखना होगा। ये चीजें बिहार को बचाए हुए हैं और आगे के लिए भी संभावनाएं जगाती हैं। दिवंगत किशन पटनायक कहते थे कि बिहार में कभी भी अलगाववादी और हिंसक आंदोलन नहीं चल सकता, क्योंकि बिहारी अब भी पैसे वालों की जगह शिक्षक को आदर देते हैं। जिस समाज में भौतिक समृद्धि की जगह ज्ञान और यश की तमन्ना ऊपर हो, उसका मूल्यबोध गड़बड़ा नहीं सकता। भरपेट भोजन या पूरे बदन पर कपड़ा न हो, लेकिन ज्ञान की लालसा, ज्ञानी का आदर करने का संस्कार होना ही बिहारी होना है। आज सूचना और ज्ञान के इस युग में बिहार के लिए यही स्थिति मुक्ति का मार्ग बन जाए तो हैरान होने की बात नहीं होगी। पर दुखद यह है कि राज्य सरकार और यहां के राजनीतिक आकाओं की योजनाओं और प्राथमिकताओं में इस संपदा को समेटने और इसका इस्तेमाल करने की मंशा कहीं नजर नहीं आती। बिहारियों में आज भी शारीरिक श्रम और पढ़ने-लिखने की भूख कम नहीं हुई है। बिहारी मजदूर से कामचोरी की शिकायत नहीं की जा सकती तो वहां के विद्यार्थी से पढ़ाई में ढील देने की। बिहार और बिहारियों के लिए यही दो चीजें सबसे बड़ा बल हैं। सारी दरिद्रता के बावजूद बिहार के लोग सबसे ज्यादा अखबार, पत्रिकाएं और किताब खरीदते हैं तो इसी भूख को मिटाने के लिए। आज किसी भी अखिल भारतीय प्रतियोगिता में बिहारी विद्यार्थी औसत से ऊपर ही प्रदर्शन करते हैं और यह भी लठैत मराठियों के लिए जलन की चीज बनती है। बिहार का बड़े से बड़ा दादा भी चार अच्छे काम करके यश पाना चाहता है, अपने इलाके में नाम दिलाने वाला काम कर जाना चाहता है। बुद्ध, महावीर, अशोक और चंद्रगुप्त की भूमि में नेक काम से, यश से अमर होने की चाह आज तक कुछ सार्थक प्रभाव रखे हुई है तो यह कम बड़ी बात नहीं है। यह बाद के बिहारी समाज के अपने मूल्य-बोध को भी बताता है। आज भी एकाधिक चीजों में यह दिखता है। बिहारियों की भाषा में कर्तृवाच्य की जगह कर्मवाच्य (एक्टिव वॉयस की जगह पैसिव वॉयस) का प्रयोग भी ऐसी ही एक चीज है- 'आया जाय, खाया जाय, बैठा जाय' बोलने की परंपरा पुरानी है और कहीं न कहीं अहं को महत्त्व न देने, उसे तिरोहित करने और दूसरों को सम्मान देने से जुड़ी है। व्यक्ति को जान-परख कर (जिसमें जाति पूछने का चलन सबसे भद््दा होकर आज सबसे प्रमुख बन गया है) उसी अनुरूप उसके संग व्यवहार करना शंकराचार्य के दिनों से जारी है। इस बीच इसमें बुराइयां न आई हों या बदलाव न हुए हों, यह कहना गलत होगा। लेकिन अब भी इन चीजों का बचा होना और व्यवहार में रहना यही बताता है कि बिहारी समाज अपने रास्ते से कम भटका है। सौ साला जश्न मनाते हुए अगर हम बिहार के गुणों, शक्तियों, ऊर्जा के स्रोतों को ध्यान में रखेंगे तो न सिर्फ पिछड़ेपन का दर्द कम होगा, बल्कि आगे के लिए रास्ता निकालने में मदद मिलेगी। दुखद यह है कि जिन लोगों को इन चीजों का पता होना चाहिए और जो इस सौ साला जश्न के अगुआ हैं, वही इन बातों से बेखबर हैं। बीपीओ उद्योग कहने को ही उद्योग है, उसमें पूंजी और मशीन बहुत कम लगती है। बस बिजली, अच्छा माहौल, अच्छे लोग और थोड़ी पूंजी चाहिए। लेकिन बिहारी बच्चे बंगलोर-हैदराबाद जाकर काम करेंगे, उन्हें बिहार में काम देने की कोई पहल नहीं दिखती। लालू प्रसाद तो इस व्यवसाय का मजाक ही उड़ाते रहे, नीतीश कुमार ने भी कुछ कर दिया हो यह नहीं दिखता। बिहार के विकास का रास्ता उसके खेत-खलिहानों, उसके मजदूरों के काम, वहां के लोगों की ज्ञान-संपदा और उसके उन्नत संस्कारों से निकलेगा। |
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Thursday, April 5, 2012
बिहार के विकास का रास्ता
बिहार के विकास का रास्ता
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