शिवप्रसाद जोशी
चारु तिवारी का लेख ('हिमालय: बसेगा तो बचेगा', जुलाई, 2012) पढ़कर लगा उसमें जो बहस है उसे आगे बढ़ाना चाहिए, उनके कुछ निष्कर्षों के बारे में अपना मत रखते हुए। (भाषा में रचनात्मक उत्पात तो समझ आता है लेकिन भाषा में जब हिंसा सिर उठाने लगे तो चिंता होती है- जबकि हमारे जीवन और समाज में ये कितनी बहुतायत में आ गई है-कोई ये कहेगा कि फिर भाषा में क्यों न आएं..खैर..इस बात का क्या जवाब दें!)
इस समय जरूरी है बांधों को लेकर उत्तराखंड के जनमानस के द्वंद्वों को सामने लाना। जो इतने भीषण और बहुआयामी और टेढ़े-मेढ़े हो गए हैं कि किसी एक सिद्धांत या कसौटी पर उन्हें कसना-परखना मुमकिन नहीं रहा। क्या उत्तराखंड या उस जैसे संघर्षों की लड़ाई इतनी सीधी और सपाट और सतही है। क्या ये दो या कई अक्लमंदों का झगड़ा भर उनकी तू-तू मैं-मैं है। ऐसा कर उत्तराखंड में आंदोलनों की प्रासंगिकता और सार्थकता को भी हल्का नहीं करना चाहिए। ये वक्त उनके कड़े विरोध का भी है जो पर्यावरण और विनाश के डर की आड़ में ये नहीं बता पा रहे हैं कि आखिरी इस अपार जलसंसाधन का न्यायपूर्ण दोहन कैसे होगा, वो किसके हवाले होगा। या ये यूं ही बहता चला जाएगा। और हमारे नवधनाढ्यों के ही नाना रूपों में काम आएगा।
क्या गौर करने लायक वे लड़ाइयां नहीं हैं जो इधर अजीबोगरीब ढंग से और कई उलझनों से भरी हुई हमें उलझाती हुई सामने आ रही हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में तो ये हैं ही उत्तराखंड में देखें तो 1994 के अलग राज्य आंदोलन की एक नई अंडरकरेंट महसूस की जा सकती है। क्षेत्रीय अस्मिता और अधिकार और आकांक्षा के सवाल फिर से उठ रहे हैं और इन्हें बांध और विकास से जोड़ा जा रहा है। इन चिंताओं और सरोकारों और बहसों पर हमें आना चाहिए। कि क्या ये उचित हैं, स्वाभाविक हैं। एक नई उग्रता आ रही है तो क्यों आ रही है। क्या ये महज स्वार्थी एलीमेंट का नवउदारवादी उभार है। या पोलिटिक्ल स्टंट है या ये उस विराट भूमंडलीय संकट की एक बानगी है जो त्वरित रोशनी त्वरित ऊर्जा त्वरित रोजगार में आसरा ढूंढता हुआ और पलायन करता हुआ अंतत: अपनी ही सुविधा में ढेर हो जाने वाला है। या ये 12 साल पहले गठित एक राज्य के निवासी के रूप में राजनैतिक आर्थिक सांस्कृतिक तौर पर ठगे रहे जाने की हताशा है या जीवन की आसानियों को हासिल न कर पाने की कुंठा। या ये अपने अधिकारों को फिर से पाने की लड़ाई है। जिसकी शुरुआती झलक हम विकास के लिए बांधों की स्वीकृति के भाव में देख रहे हैं। वे बांध जो पूरे उत्तराखंडी क्षेत्र को गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक और टिहरी से लेकर चाईं तक उन्हें बरबाद करते रहे हैं। जिन्होंने उनकी जिंदगियों को विस्थापन में धकेल दिया और जिनसे कई सारी मेगावॉट बिजली प्रस्तावित है और अंधकार में डुबोने।
अपने अधिकारों और अपनी बेहतरी की लड़ाई कैसे बांध के समर्थन की लड़ाई में ढलती जा रही है और कई जगहों पर लोग बांधविरोधियों को अपना दुश्मन मान रहे हैं। इसमे बिलाशक एक धारा आतुर लालची ठेकेदारों, इंजीनियरों, कंपनियों की भी आ गई है जो चाहते हैं, लोग भड़कते रहें और उनका पहाड़वाद, उनका पहाड़पन और भड़के तो अच्छा। पर क्या वो आग हमारे काम आएगी या हमें जलाएगी।
दूसरी ओर स्टार पर्यावरणवादी हैं, संत बिरादरी है। वो लेख चूंकि जगूड़ी की ओर अग्रसर हुआ दिखता है, लिहाजा उस लॉबी के अनुकूल जान पड़ता है और शायद उनके ही काम आएगा। (सुरंगों वाले छोटे बड़े बांधों का विरोध हर हाल में करना ही चाहिए लेकिन इस विरोध में धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास और आस्थावाद के तर्क को कोई नरम सा भी कोना देने की नादानी नहीं की जा सकती या जोखिम कतई नहीं उठाया जा सकता-क्योंकि अंतत: हम सब जानते हैं आज का आस्थावाद कल की सांप्रदायिकता है और वो कहीं व्यापक जहर फैलाएगी)
और कोई हैरानी न होगी जो इनमें से कोई धन्यभाग जलबिजली परियोजनाओं के एवज में परमाणु ऊर्जा का विकल्प उत्तराखंड के लिए पेश कर दे। (कौन जानता है इसकी ही तैयारी हो) कुछ सौर ऊर्जा प्रेमी भी जरूर होंगे। विंड एनर्जी वाले। परमाणु ऊर्जा पर उम्मीद है हम सबका मत एक ही होगा। विंड एनर्जी को लेकर कुछ लोग आशान्वित जरूर हो सकते हैं लेकिन अध्ययन बता रहे हैं कि ये कितने रईसाना ठाठ वाली कितनी हाई प्रोफाइल और लिमिटेड ऊर्जा है। देश विदेश के नवनिवेशकों में कारों की तरह पवनचक्कियों का भी शौक आने लगा है।
लीलाधर जगूड़ी के तर्क और जिस आंदोलन में वह उतरे हैं, उसी पहाड़ी जनमानस का एक हिस्सा है जो इस समय विकास, पर्यावरण और आस्था के बीच झूल रहा है। यहां सबने अपना पक्ष बनाया है और बहुत सारे लोग असमंजस में भी हैं। हम नहीं जानते कि कौनसा रास्ता हमें सबसे सही विकल्प की ओर ले जाएगा। इतना गड्डमड्ड और धूल भरा है सबकुछ। रुके हुए बांधों को बहाल करने और प्रस्तावित परियोजनाओं को शुरू करने के जो हिमायती लोग हैं वे अपने ढंग से विकास और बांध को देख रहे हैं। (इसमें मौकापरस्ती, चतुराई, अतीत, लीलाधरी, जुगाड़ी जैसी संज्ञाओं विशेषणों की शायद दरकार नहीं) उनका एक बड़ा निशाना संयोग से या कहें रणनीतिपूर्वक, वो संत बिरादरी है जो अपनी किस्म की अश्लील भव्यताओं विलासिताओं और सांप्रदायिक होती जाती आनुष्ठानिक प्रवृत्तियों में घिरी है, जिसके पास कल तक अयोध्या था आज गंगा है और फिर अयोध्या होगा, फिर गंगा होगी, फिर कुछ और। इनके पीछे संघ विहिप और बीजेपी है जिन्हें 2014 के लिए चुनावी एजेंडा चाहिए और भी बहुत कुछ। क्या हमें इस बात से इंकार है कि इस समय कथित पर्यावरणवाद (और उससे निकला एनजीओवाद जो नवउपनिवेशवाद-नवउदारवाद से निकला है) जितना ही और कई बार उससे ज़्यादा गंभीर और व्यापक खतरा नवसांप्रदायिकता से है, वे हमें नए-नए ढंग से घेर रहे हैं, वे हमारे पीछे पहाड़ों तक आ गए हैं। और कह रहे हैं कि गंगा को मुक्त करो। वे किस गंगा की कौन-सी मुक्ति की बात कर रहे हैं। उन्हें अचानक गंगा में 'भारत माता' क्यों दिखने लगी है।
अभी तक दुर्भाग्य से बुद्धिजीवियों (हिंदी में विशेषकर) ने खुलकर कोई भूमिका नहीं निभाई है। ऐसा लगता है कि जैसे सब एक दूसरे से अपना हिसाब साफ करने आ कूदे हों। वे ऐसा ही करते आए हैं। आप देखिएगा। पहाड़ इस समय हर किस्म के दलालवाद की चपेट में आ रहा है। बौद्धिक बिरादरी भी इससे अछूती नहीं रही। विकास के नक्शे पर तो आपको छोटे बड़े दलाल दिख ही जाएंगें। किसी ने पक्ष और किसी ने विपक्ष में अपना घेरा बना लिया है। सबकुछ ऐसा लगता है कि तैशुदा है। जैसा कि अरुंधति रॉय ने पिछले लेख में दर्ज किया है कि हर तरफ उनका ही बोलबाला है। वे ही समर्थक हैं और वे ही नए भेष में विरोधी बन जाते हैं। वे ही युद्ध भड़काते हैं और वे ही शांति शांति गाने लगते हैं। (हमारे समय में अकेली अरुंधति हैं जिन्होंने समकालीन लोकतंत्र की दयनीयताओं और दुर्दशाओं के बारे में हमें न सिर्फ बताया है बल्कि हमारे मध्यवर्गीय महाआलस्य और सब चलता है कि निर्जीविता को भी झिंझोड़ा है- समकालीन व्यथाओं पर उनसे पहले ऐसा करने वाले हिंदी में सिर्फ रघुबीर सहाय ही थे... इस पर किसी को शायद शक न होगा..)
वे सब लोग जो एक वृहद पहाड़ के शोषणों पर मुखर होना चाहते हैं और एक दूसरे की न पीठ खुजाना चाहते हैं न एक दूसरे की पीठ पर वार करना, उन्हें इस बहस को जनता के बीच ले जाना चाहिए। जनांदोलनों के विभिन्न स्वरूपों के समझना चाहिए। जलबिजली के यथार्थ पर बात करनी चाहिए और एक समग्र यथार्थ को भी समझना देखना चाहिए। और बांध के इतर जो हाहाकार पनपे हैं उन्हें भी देखें। बेतहाशा निर्माण, जंगलों का कटान, फल खाओ पेड़ मत उगाओ वाला घोर उपयोगितावादी नजरिया। क्या विकल्प होंगे, ये हमें आखिर सरकारों पर ही क्यों छोडऩा चाहिए। वे तो त्वरित लाभ वाले विकल्पों के लिए तैयार ही खड़ी होंगी। हम क्या करेंगे, कैसे अपने उत्तराखंड के लिए उजाला लाने मे मददगार होंगे। अपने संसाधनों पर नई किस्म की इन झपटों को कैसे उखाड़ें दूर भगाएं। अपने जंगल अपनी मिट्टी अपने पानी पर अपनी पहचान हमें बार बार क्यों साबित करनी पड़ रही हैं।
अगर ये बहस जलसंसाधन पर है तो हम तय करें कि ये किसके काम आना चाहिए। क्या हमें इसके लिए मार्क्स को फिर से पढऩा चाहिए। और यहां से फिर बहस आगे बढ़ाएं बिना एक दूसरे को नीचा दिखाए, हां उन्हें जरूर आईना दिखाएं जो इस अस्मिता और आकांक्षा को कई कई पर्दों में छिपाकर बाहर नहीं दिखने देना चाहते।
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