शोकगीत नहीं, उल्लास का उत्सव : पढ़िए अरुंधति को
♦ रेयाज़-उल-हक़
आनेवाले दशकों में शायद इसे एक क्लासिक की तरह पढ़ा जाएगा। इन बेहद खतरनाक – और उतने ही शानदार – दिनों के बारे में एक विस्तृत लेखाजोखा। पिछले एक दशक से अरुंधति के लेखन में शोकगीतात्मक स्वर बना हुआ था, पहली बार वे इससे बाहर आयी हैं और पहली बार उनकी किसी रचना में इतना उल्लास, इतना उत्साह, इतनी ऊर्जा और इतनी गरमाहट है। जैसा अपने एक ताजा साक्षात्कार में खुद अरुंधति ही कहती हैं, यह यात्रा वृत्तांत सिर्फ ऑपरेशन ग्रीन हंट या राजकीय दमन या अत्याचारों के बारे में नहीं है। यह जनता के विश्वव्यापी प्रतिरोध आंदोलनों और हर तरह के – हिंसक या अहिंसक – संघर्षों में से एक का आत्मीय ब्योरा है। इसे लिखते हुए अरुंधति ने अपने कुछ पुराने आग्रहों, विचारों और धारणाओं को छोड़ा ही नहीं है, बल्कि उसके ठीक उलट विचारों की हिमायत करती नजर आती हैं। ऐसा क्यों है, इसकी वजह भी अरुंधति ने यहां बतायी है। थोड़ी संजीदगी के साथ पढ़ने पर पाठक की जिंदगी को बदल कर रख देने की क्षमतावाले इस आलेख में अरुंधति जिस तरह इतिहास और वर्तमान, जीवित लोगों और एतिहासिक हस्तियों के बीच आयी-गयी हैं, वह अनोखे अनुभवों से भर देनेवाला है। बेशक, इसमें अरुंधति शैली के आंकड़ों और तथ्यों की बेहद कमी खलती है, लेकिन शायद यह पूरा आलेख ही अपने आप में एक बड़ा तथ्य और आंकड़ा है। इसके पहले वे अपने लेखों में जगह-जगह पाठक को नये तथ्यों और उनके प्रस्तुतिकरण में नयेपन की वजह से चौंकाती रही हैं (बकौल नोम चोम्स्की), लेकिन इस बार इस पूरी रचना के एक-एक वाक्य से चौंकाती हैं – हमारे सामने अपने ही समाज और समय के एक नये चेहरे से हम रू-ब-रू होते हैं।
नज़रिया, स्मृति »
विश्वदीपक ♦ गलत हैं वो लोग, जो कहते हैं कि कानू ने अवसाद और निराशा में मौत को गले लगाया है। मरने से पहले कानू ने दोपहर का खाना खाया था और फिर सुकून से मौत को गले लगाया। ऐसी विश्रांत मौत का इंतजार कोई क्रांतिवीर ही कर सकता है। (हालांकि ये बात सही है कि अगर कानू की जगह गांधी परिवार का कोई कुत्ता भी मरा होता, तो ज्यादा चर्चा होती। हो सकता है किसी घाट में या किसी वन में उसके लिए शोकसभा आयोजित की जाती… बहरहाल, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दिमाग कानू की मौत के बाद लकवाग्रस्त हो गया था। कानू के लिए मीडिया को कोई विशेषण सूझ नहीं रहा था)।
मोहल्ला दिल्ली, समाचार, स्मृति »
डेस्क ♦ डा राममनोहर लोहिया के जन्मशती समारोह का विशाल आयोजन 23 मार्च को दिल्ली के मावलंकर सभागार में किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में देशभर से आये लोगों ने शिरकत की। इस अवसर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव प्रकाश करात ने डा लोहिया को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए समाजवादी और साम्यवादी दलों के बीच एकता पर जोर दिया। प्रकाश करात का कहना था कि डा लोहिया ने राजनीति में जो सिद्धांत दिये, वामपंथी दल उनसे पूर्ण रूप से सहमत हैं और यदि साम्यवादी और समाजवादी मिलकर डा लोहिया के इस जन्मशती वर्ष में मिलकर काम करें और आम जनता के मुद्दों को लेकर सड़कों पर संघर्ष करें तो डा राममनोहर लोहिया को ये एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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नदीम एफ पारचा ♦ मैने विरोध किया, 'लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों के तमाम बच्चे क्रिश्चियन स्कूलों में पढ़ते हैं। तो फिर मेरे बच्चे के साथ भी आप एक पाकिस्तानी की तरह क्यों नहीं व्यवहार कर रही हैं। मैं तो चाहता हूं कि आप इससे भी आगे बढ़ कर एक इंसान के तौर पर पेश आएं।' मेरे इस सवाल पर प्रधानाध्यापिका ने कहा, 'सर माफ कीजिए, हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते।' मैंने उन्हें सुझाया, 'अगर मैं आपको स्कूल की फीस दोगुनी दूं तो आप मेरे बेटे को दाखिला देंगी?' उनका जवाब था, 'सर… यह तो घुसखोरी मानी जाएगी।' फिर मैंने सुझाव दिया, 'अरे नहीं, इसे जजिया मानकर रख लीजिएगा।'
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अभिषेक श्रीवास्तव ♦ यह एक वामपंथी का रिएक्शन था, जो साल भर पहले तक कानू सान्याल की पार्टी में था। इतना निर्मम कैसे हुआ जा सकता है। पार्टी टूटने का मतलब दिलों का टूटना तो नहीं होता, विवेक तो नहीं मर जाता है। मैं नहीं जानता उन कॉमरेड ने बाद में अपने स्तर पर पता किया या नहीं, लेकिन फोन के उस पार से जो स्वर आया था, उसे सुन कर ऐसा लगा कि कानू सान्याल नहीं भी मरे होते, तो यह जान कर ही खुदकुशी कर लेते। क्या मैं यह कहने की छूट ले सकता हूं कि इस देश के कम्युनिस्ट क्रांति नहीं कर सकते… शायद ऐसा कानू बाबू चाह कर भी नहीं कह पाये होंगे।
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नबारुण भट्टाचार्य ♦ उनका जिस तरह निधन हुआ, वह निधन नहीं बल्कि हत्या है। किसी क्रांतिकारी की लाइफ इस तरह से खत्म नहीं होनी चाहिए। हालांकि हम उनकी लाइफ के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। पिछले कुछ सालों से वे एकदम अकेले हो़ गये थे। अपनी लाइफ और आजकल के हालात को देखकर बहुत फ्रस्ट्रेटेड रहते थे। बहुत दिनों से बीमार भी थे। कई तरह के रोग के शिकार थे। उनके बारे में इतना तो हम जानते हैं लेकिन और भी बहुत सी पर्सनल बातें थीं जिनके बारे में हमें नहीं पता। पिछले दिनों मैं सिलीगुड़ी गया था। जब मुझे पता चला कि वे बीमार हैं, तो मैंने उनसे मिलने की भी कोशिश की लेकिन मेरी उनसे मुलाकात नहीं हो पायी। आज मुझे इस बात का बेहद अफसोस है।
समाचार, स्मृति »
डेस्क ♦ नक्सली आंदोलन के संस्थापकों में से एक कानू सान्याल नहीं रहे। पुलिस के अनुसार उन्होंने आत्महत्या की है। सान्याल ने 1967 में नक्सलबाड़ी गांव से नक्सल आंदोलन की शुरुआत की थी और पहले विद्रोह में 11 किसान पुलिस की गोलियों का शिकार हुए थे। आगे चलकर इस आंदोलन ने जोर पकड़ा जो आज के नक्सली आंदोलन के रूप में जाना जाता है। इस आंदोलन का नाम इसी गांव के नाम पर पड़ा था और इसकी शुरुआत कानू सान्याल और उनके मित्र चारु मजूमदार ने की थी। इन दोनों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इस्तीफा देकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का गठन किया।
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शतरुद्र प्रकाश ♦ घरेलू उद्योग को संरक्षण देने के लिए भारत सरकार को डॉ लोहिया की दाम नीति तथा जर्मन अर्थशास्त्री फ्रेडरिक लिस्ट के विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबंध और घरेलू वस्तुओं को संरक्षण देने के सिद्धांत का अनुसरण करके महंगाई पर नियंत्रण करना चाहिए, न कि मूकदर्शक बने रहना चाहिए। सरकारी भ्रष्टाचार भी महंगाई को बढ़ाने में बहुत प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। विभिन्न देशों में श्रमिकों को प्रतिघंटा दिए जानेवाले भिन्न-भिन्न असमान पारिश्रमिक के बीच समानता लाने और एक देश से दूसरे देश में आने-जाने के लिए श्रमिकों की बेरोक-टोक आवाजाही के लिए भारत सरकार को विश्व व्यापार संगठन में जोरदार आवाज उठानी चाहिए।
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पुष्यमित्र ♦ वहां तीन दिन गुजरे और तीनों दिन सुबह नर्मदा स्नान और शाम को तटों की खूबसूरती निहारते हुए गुजरे। यह एक अनूठा अनुभव था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उस दौर में जहां विकास के नाम पर हर खूबसूरत चीज पर कालिख पोती जा रही है, वहां कम से कम कोई तो ऐसी जगह है जहां का माहौल शांत, सुंदर और स्निग्ध है। मगर जिस दिन लौटना था, उस सुबह अनायास निगाहों के सामने ऐसा नजारा आ गया कि उसने तीन दिनों तक मन पर पड़ी पवित्र छाप को मटियामेट करके रख दिया। ठीक उसी तरह जैसे एक सुंदर चेहरे पर किसी शैतान ने तेजाब फेंक दिया हो।
मोहल्ला दिल्ली, समाचार, स्मृति »
डेस्क ♦ 23 मार्च को मावलंकर सभागार (रफी मार्ग) दिन में तीन बजे से शुरू होनेवाले शताब्दी समागम का उदघाटन समाजवादी नेता शरद यादव करेंगे। इसमें सभी प्रमुख दलों के नेताओं ने हिस्सेदारी की स्वीकृति दी है। कई स्वतंत्रता सेनानी, लोहिया सहयोगी, साहित्यकार, न्यायविद, जनांदोलनों के नेता और वर्ग संगठनों के प्रतिनिधि भी समागम को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किये गये हैं। शताब्दी समारोह की अध्यक्षता वरिष्ठ समाजवादी नेता और विचारक सुरेंद्र मोहन करेंगे। लोहिया जन्मशताब्दी समारोह समिति ने विगत एक वर्ष से इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि बनाने के लिए देश के विभिन्न भागों में लोहिया स्मृति व्याख्यान, सेमिनार, सम्मेलन, साहित्य प्रकाशन, साइकिल और पदयात्राओं का आयोजन किया है।
शब्द संगत »
गौहर रज़ा ♦ यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है
दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है
वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है
नज़रिया, स्मृति »
आनंद स्वरूप वर्मा ♦ कोइराला के निधन से जो शून्य पैदा हुआ है, उससे निश्चित तौर पर नेपाल में कुछ समस्याएं पैदा हो सकती हैं लेकिन मैं मानता हूं कि इसे नेपाल के लिए एक ब्लेसिंग इन डिस्गाइज (अप्रत्यक्ष वरदान) कहा जा सकता है। अभी जो एक गतिरोध, एक ठहराव की स्थिति पैदा हो गयी थी, कई दिनों से नेपाली सेना के वक्तव्य देखने को मिल रहे हैं, जिनमें सेना के साथ जनमुक्ति सेना के एकीकरण को लेकर बेचैनी झलकती है। अब मुझे लगता है कि ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज होगी। यह गतिरोध टूटेगा और लड़ाई किसी न किसी सिरे पर पहुंचेगी। या तो सेनाओं का एकीकरण सुचारू रूप से होगा या पीएलए और सेना के बीच मुठभेड़ होगी।
नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली, समाचार »
डेस्क ♦ मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज का मानना है कि कथित बटला हाउस इनकाउंटर में दिल्ली पुलिस द्वारा मारे गये आतिफ अमीन और मुहम्मद साजिद की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनके मारे जाने से पहले शारीरिक यातना के स्पष्ट प्रमाण पाये जाने के बाद इसकी न्यायिक जांच की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि आतिक अमीन के शरीर के पिछले भाग में आठ गोलियां लगी हैं, जबकि सत्रह वर्षीय साजिद के सर पर शून्य रनेज से गोली मारे जाने के अतिरिक्त गर्दन के पिछले हिस्से में दो और सिर के पीछे के भाग में एक गोली लगने के निशान हैं।
नज़रिया »
संजय कुमार तिवारी ♦ खुद को आधुनिक प्रदर्शित करने के बावजूद हम अंतर्द्वंद्व में जीते हैं। कोई साधु अगर प्रेम की राह पर जाता है, किसी स्त्री से संसर्ग करता है, तो हम बहुत संकुचित होकर उसके जीवन की व्याख्या करते हैं। जबकि इतिहास साधु समाज में ऐसे संसर्गों और संबंधों की कथाओं से भरा-पड़ा है। कुंती से लेकर वैशाली की नगरवधू तक के प्रति हमारा ऐतिहासिक सम्मान है – फिर भी हम अपने समय की ऐसी घटनाओं को लेकर तंग नजरिया रखते हैं। हमारा मीडियाकर्मियों से निवेदन है कि साधु समाज में अगर आपको ऐसी किसी गतिविधि की जानकारी मिलती है, तो कृपया उसको सनसनी के रूप में न दिखाएं। वह समाज की सहज, स्वाभाविक स्थिति है।
नज़रिया, बात मुलाक़ात, मीडिया मंडी »
डेस्क ♦ धर्म कर्म की दुकान चैनलों पर चकाचक रहती है। कई बाबाओं पर पिछले दिनों गाज गिरी। कोई सेक्स स्कैंडल में घिरा, तो किसी पर सरकारी जमीन पर कब्जे के आरोप लगे। बाबा रामदेव का बयान आया कि साधु समाज के खिलाफ गहरी साजिशों का दौर है ये। ऐसे में स्टार न्यूज के एंकर किशोर अजवानी आज रविशंकर का इंटरव्यू ले रहे हैं। जैसे कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर डाली संक्षिप्त सूचना में बताया है, ये इंटरव्यू लाइव होगा। आप सवाल उनके ब्लॉग पर जाकर डाल सकते हैं। ये खयाल रहे कि आपके सवाल को वे क्रेडिट नहीं देंगे।
नज़रिया, मोहल्ला दिल्ली, व्याख्यान »
रविकांत ♦ आज 4 बजे शाम को कैथरीन हैन्सन सराय-सीएसडीएस मे एक प्रस्तुति देंगी। उनका विषय है : Passionate Refrains: The Theatricality of Urdu on the Parsi Stage प्रस्तुति का सार-संक्षेप है… पारसी रंगमंच के असरात हिंदी सिनेमा पर साफ़ हैं। चाहे हम कहानी की बात करें या विधाओं की, या फिर स्टार भूमिकाओं की। नव-गठित फ़िल्म उद्योग को चलाने के लिए ज़रूरी तकनीकी महारत, पूंजी, और मानव संसाधन भी पारसी रंगमंच ने ही मुहैया कराये। इस पेशकश में ख़ास तौर पर भाषा, ख़याल और भाव-भंगिमा को लेकर पारसी शैली के अवदान पर चर्चा की जाएगी।
मोहल्ला लाइव »
हमने कोशिश की कि कई सारे काम करते हुए पत्रकारिता के उस वैकल्पिक मंच को खड़ा किया जाए, जहां हमारी रफ्तार की डोर किसी अदृश्य हाथों में न हो। हमने किया भी। हमसे जुड़े तमाम लोगों ने इस कोशिश के दौरान सार्वजनिक-सामूहिक पीड़ा झेली है। व्यापक असहमति की धार पर चलना अक्सर आसान नहीं होता। लेकिन हम चलेंगे और आगे भी बहस-मुबाहिसे का माहौल गर्म रखेंगे।
अब हम थोड़ा विस्तार करना चाहते हैं। एक छोटी टीम बनाना चाहते हैं और उस टीम के साथ बड़ी पूंजी के समानांतर पत्रकारिता की सही-सच्ची …
नज़रिया, मीडिया मंडी, व्याख्यान »
शीतला प्रसाद सिंह ♦ 1992 में जब बाबरी का विध्वंस हुआ, तो दिल्ली के हमारे मित्र विनोद दुआ का फोन आया कि एक प्रकाशक चाहते हैं कि आप अयोध्या आंदोलन के अपने अनुभवों को एक किताब की शक्ल दें। यह किताब एक महीने में छपनी है। आपको क्या रायल्टी चाहिए, यह आप तय कर सकते हैं। उसी समय प्रकाशक महोदय का भी फोन आया। मुझे लगा कि लिखना तो कमाने का बढ़िया माध्यम है। क्या इसका उपयोग करना उचित है? सीएम से लेकर पीएम तक ने जिस भरोसे से अयोध्या मसले पर मुझसे बातें कीं, उन्हें खोल दिया जाए तो सब नंगे हो जाएं, क्या ये उचित होगा?
मोहल्ला पटना, शब्द संगत, स्मृति »
मीना श्रीवास्तव ♦ एक शाम अचानक वो मेरे घर पहुंचीं। यह मेरे जीवन की कभी न भूलनेवाली शाम थी। उस दिन बिंध्य कला मंदिर में नृत्य की कक्षा समय से कुछ पहले समाप्त हो गयी थी और मैं वत्सला को लाने नहीं जा सकी थी। वो वत्सला को साथ लिये पहुंचीं। मैं अपने घर में उन्हें पाकर धन्य-धन्य हुई। उन्होंने हम सब के साथ दो घंटे बिताया। मेरे आग्रह पर उन्होंने कुछ दुर्लभ धुनें और बोल बताये। उनके पास आजादी के संघर्ष के दिनों के ऐसे लोकगीतों का भी बड़ा खजाना था, जिसमें आजादी का इतिहास छिपा हुआ है। सन् उन्नीस सौ साठ के आसपास एचएमव्ही द्वारा रिकार्ड किये गये उनके गीतों में से एक 'पिया ला दे रेशम की डोरी' की मैंने याद दिलायी, तो वो खिलखिल हंस उठीं।
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मृणाल वल्लरी ♦ केजी बालकृष्णन सहित तीन जजों की पीठ ने इन राज्यों की महिलाओं की ओर से याचिका दाखिल करने वाले गैर-सरकारी संगठन से कहा कि वे इन राज्यों के हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल करें। इस पर आपत्ति जताते हुए संगठन की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने अदालत को तर्क दिया कि महिलाएं चाहती हैं कि सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने के लिए सुप्रीम कोर्ट संविधान के इक्कीसवें अनुच्छेद के तहत उनके अधिकारों की रक्षा करे। लेकिन हमारे देश की सर्वोच्च अदालत ने मीनाक्षी अरोड़ा की इस गुजारिश को खारिज करते हुए कहा कि 'अब आपके लिए ज्यादा महिला सांसद और विधायक आएंगी। हमारे पास पहले से ही काफी समस्याएं हैं।'
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ओम थानवी ♦ 'पेड न्यूज' अकेली बीमारी नहीं है। नयी और ज्यादा मुखर जरूर है। कुछ चीजें और हैं, जिन्हें लगे हाथ निराकरण प्रयासों के दायरे में ले आना चाहिए। जैसे राजनीतिक दलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के हाथों मीडिया के जाने-अनजाने इस्तेमाल होने का कुचक्र। मीडिया को कीमत मिलती है और समाज के सामने प्रायोजित सामग्री परोस दी जाती है। यह काम इतनी चतुराई से होता है कि उसे आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। हालांकि पकड़ना नामुमकिन नहीं है। एक पूरा तंत्र विकसित है, जो पेशेवराना तौर पर मीडिया को 'मैनेज' करता है। निजीकरण के दौर में भी नेहरू जी की रूसी प्रेतछाया सरकारी प्रचार तंत्र पर कायम है।
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डेस्क ♦ गोष्ठी में सभी राजनीतिक वक्ताओं ने पैसे लेकर खबर छापने को एक गंभीर अपराध करार देते हुए मांग की कि इस पर रोक लगनी चाहिए। भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के नेता सुषमा तथा मनीष तिवारी ने पिछले लोकसभा चुनावों में ऎसी पेशकश करने वाले मीडिया समूहों के नाम खोलने से बचते हुए कहा कि वे इसकी जानकारी सिर्फ निर्वाचन आयोग को ही दे सकते हैं। सुषमा स्वराज ने कहा कि विदिशा सीट पर चुनाव अभियान के दौरान कुछ मीडिया घरानों ने पैसे लेकर उनकी खबरें छापने की पेशकश की थी। उनके चुनाव अभियान के समय एक मीडिया संगठन ने मेरे पक्ष में खबरें छपवाने के लिए एक करोड़ रूपये का पैकेज मांगा था।
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