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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, September 23, 2010

जेएनयू में पिछड़ों की एकजुटता को तोड़ने की साजिश

जेएनयू में पिछड़ों की एकजुटता को तोड़ने की साजिश

हाईकोर्ट के फैसले का जेएनयू प्रशासन ने किया उलंघन

ऑल इंडिया बैकवर्ड स्‍टूडेंट्स फोरम, जेएनयू की ओर से जारी

साथियो,

जेएनयू प्रशासन ने एक बार फिर अपने जातिवादी चेहरा को सामने लाते हुए पिछड़े वर्ग के छात्रों को जेएनयू में दाखिले से रोका। इस साल भी इनकी गलत नामांकन प्रकिया के कारण 255 पिछड़े वर्ग के छात्रों को जेएनयू में पढ़ने से महरूम कर दिया गया। इन सभी सीटों को जनरल कटैगरी में तब्दील कर दिया गया है। एक लंबी लड़ाई के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने 7 सितंबर 2010 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि जेएनयू की एडमिशन प्रक्रिया सामाजिक न्याय विरोधी है। मुखर्जी कमेटी द्वारा निर्धारित कट ऑफ का गणित पिछड़े तबके के छात्रों को उच्च शिक्षा में प्रवेश से रोकने की एक साजिश है। हाईकोर्ट ने आदेश दिया की सात दिनों के अंदर उन सभी छात्रों को एडमिशन दिया जाय जो गलत नामांकन प्रक्रिया के कारण प्रवेश से वंचित रह गये हैं। बावजूद इसके जेएनयू प्रशासन हाईकोर्ट के फैसले का उल्‍लंघन करते हुए अभी तक 255 पिछड़े तबके के छात्रों को एडमिशन देने के लिए तैयार नहीं है। यह खुले तौर पर हाईकोर्ट के फैसले का उल्‍लंघन है। गौर करने की बात यह है कि जो प्रशासन YFE के एक छोटे से नोटिस पर जेएनयू की पूरी एडमिशन पॉलिसी को बदल देता है वही प्रशासन हाईकोर्ट के फैसले पर भी 255 पिछड़े वर्ग के छात्रों को एडमिशन देने से इंकार कर रहा है।

आप सभी जानते हैं कि सामाजिक न्याय विरोधी फासिस्ट ताकतों ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में याचिका दायर की है। इन्हीं का रहनुमा जेएनयू प्रशासन भी सामाजिक न्याय के विरोध में खुले तौर पर खड़ा हो गया है। RTI के द्वारा यह बात सामने आयी है कि विभिन्न कोर्सों के VIVA में SC, ST और OBC के अधिकांश छात्रों को शून्य और एक नंबर दिया गया है। इसी से आप समझ सकते हैं कि सामाजिक न्याय का मुखौटा लगाया हुआ जेएनयू कितना बड़ा जातिवादी है। इसलिए सभी सामाजिक न्याय पसंद और दलित-पिछड़े छात्रों से अपील है कि इस जातिवादी जेएनयू प्रशासन से लड़ने के लिए लामबंद हों। इस ऐतिहासिक सामाजिक न्याय की लड़ाई के दौर में भी हमारे ही कुछ लोग 'कटी हुई पूंछ' और 'भरतनाट्यम' के ऊपर चुटकुले लिखने में व्यस्त हैं। ऐसे महापुरुषों को इतिहास याद करेगा।

ओबीसी आरक्षण लागू होने के 17 साल बाद भी केंद्र सरकार की नौकरियों में मात्र सात फीसदी ही ओबीसी सीटों को भरा गया है। यह तो समूचा फीगर है, प्रथम श्रेणी की नौकरियों में तो मात्र चार फीसदी ही पिछड़े समाज के लोगों को प्रतिनिधित्व मिल पाया है। यह सर्वविदित है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में 5400 ओबसी की सीटें जनरल कटैगरी में तब्दील कर दी गयीं। जेएनयू में भी तीन सालों से सैकड़ों पिछड़े समाज के छात्रों को प्रवेश से वंचित किया जा रहा है।

साथियो, यह तो अभी पढ़ने की लड़ाई है, पढ़ाने की लड़ाई अभी बाकी ही है। जेएनयू में अभी एक भी ओबीसी कोटे के तहत नियुक्ति नहीं हुई है। हमें इसके लिए भी लड़ाई तेज करने की जरूरत है और अगर ये नहीं मानते हैं तब सीधा-सीधा रास्ता यही बचता है कि इस देश के संसाधनों-नौकरियों में हमारा जितना हिस्सा बनता है, उतना हमें दे दिया जाए। 15 फीसदी लोग कब तक 90 फीसदी संसाधनों का उपभोग करते रहेंगे। बहुत हो चुका, कब तक हम सामाजिक न्याय के लिए इनके दरबार में गुहार लगाते रहें।

इन मेरिट वालों ने देश को दुनिया का सबसे जर्जर और विवश देश बना दिया है। देश को विकसित करने वालों, यह देश तब तक विकसित नहीं हो सकता, जबतक इस देश की अधिकतम आबादी को देश के संसाधनों में हिस्सेदारी न मिले।

दोस्तो, 24 सितंबर को एक फैसला आने वाला है। जाहिर है कि यह दलित-पिछड़ों द्वारा लड़ी जा रही सामाजिक न्याय की लड़ाई से लोगों का ध्यान हटाने की एक साजिश है। मंडल कमिशन के बीस वर्ष पूरे होने पर दलित-पिछड़ों में बनी एकजुटता को फिर एक बार हिंदू, मुस्लिम के नाम पर तोड़ने की साजिश रची जा रही है। हमें ऐसे किसी भी साजिश के बहकावे में न आकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जरूरत है। हमें सावधान रहने की जरूरत है कि कहीं कमंडल को फिर से न दुहराया दिया जाय। अतः जेएनयू छात्र समुदाय को एक बार फिर ऐतिहासिक दायित्व पूरा करने का वक्त आ गया है। चंदू से लेकर आज तक हमारे यहां एक क्रांतिकारी छात्र आंदोलन का इतिहास रहा है। चंदू को याद करते हुए एक ही बात कहना है, 'चंदू तेरा मिशन अधूरा, हम सब मिलकर करेंगे पूरा।' इस सामाजिक न्याय की लड़ाई जीत कर ही हम चंदू के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं।


शब्‍द संगत »

[21 Sep 2010 | 5 Comments | ]
हम जो अब तक मारे नहीं गये…

रंजीत वर्मा ♦ हम जो अब तक मारे नहीं गये / शामिल थे शवयात्रा में / एक गुस्सा था जो दब नहीं रहा था / एक दुख था जो थम नहीं रहा था… लोगों ने कहा, हमने पहले ही कहा था उनकी ताकत को चुनौती मत दो / शवयात्रा तो निकलनी ही थी / लेकिन क्या यह सचमुच ताकत है / नहीं यह ताकत नहीं मक्कारी है / और अगर यह ताकत है भी तो सोचिए कि यह उनके पास / कहां से आयी और यह किसलिए है / और इसको लेकर ऐसा अंधापन / समझ लीजिए वे अपनी नींव की ईंट पर चोट कर रहे हैं… हमें मारे जाने का ब्लूप्रिंट हाथ में लिये / उनके पैरों का राग-विकास पर थिरकना देखिए / हमें बेदखलियाते लूटते ध्वस्त करते / बूटों के कदमताल पर मुख्यधारा का उनका आलाप सुनिए…

स्‍मृति »

[21 Sep 2010 | 2 Comments | ]

जावेद अख्‍तर खान ♦ आज चंद्रशेखर का जन्‍मदिन है। आज उसकी याद दोस्‍तों के साथ शेयर कर रहा हूं। हम सब उसे फौजी कहा करते थे, एनडीए से उसके बाहर आने के बाद। जेएनयू जाने के पहले वो एआईएसएफ और इप्‍टा में बहुत सक्रिया था। उन्‍हीं दिनों उसने पटना इप्‍टा की प्रस्‍तुति, स्‍पार्टाकस में काम किया था। एक छोटी सी भूमिका, एक अलग सी भूमिका, जो उसे अन्‍य राजनीतिकर्मियों से अलग बनाती थी। उसकी याद को सलाम!

नज़रिया, मीडिया मंडी »

[20 Sep 2010 | 23 Comments | ]
इस देश का मीडिया मूलतः हिंदुओं का मीडिया है

विनीत कुमार ♦ कई मौकों पर एहसास होता है कि इस देश का मीडिया मूलतः हिंदुओं का मीडिया है, जिसको चलानेवाले से लेकर पढ़नेवाले लोग हिंदू हैं। बाकी के समुदाय से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। साल के कुछ खास दिन जिसमें विश्वकर्मा पूजा, दीवाली सहित हिंदुओं के कुछ ऐसे त्योहार हैं, जिसमें अखबार खरीदनेवाले को न तो पाठक और न ही ग्राहक की हैसियत से देखा जाता है बल्कि हिंदू के हिसाब से देखा जाता है। बाकी के जो रह गये वो अपनी बला से। उन्हें अगर उस दिन अखबार पढ़ना है, तो इतना तो बर्दाश्त करना ही होगा कि वो एक हिंदू बहुल मुल्क में रह रहे हैं। अब आप कहते रहिए इसे सामाजिक विकास का माध्यम और पढ़ाते रहिए लोगों को बिल्बर श्रैम की थीअरि।

नज़रिया »

[18 Sep 2010 | 18 Comments | ]
अजय प्रकाश कभी मिला, तो चप्‍पल से मारूंगी

आभा सिंह ♦ अगर अजय प्रकाश कहता है कि मैंने मृणाल को कुछ नहीं बताया और मृणाल ने झूठ लिखा तो मैं आभा सिंह कहती हूं कि अजय प्रकाश झूठ बोल रहा है। उसे मेरे पति ने जो बताया, वह वही बोल रहा है। अगर उसने सबके सामने कहा है ऐसा, तो मैं कहती हूं कि अगर वह मुझे सबके सामने कभी मिल गया, मंडी हाउस या कहीं भी, तो मैं उसे चप्पल से मारूंगी। अब तक मैं चुप थी। उसने गड़े मुर्दे को फिर से उखाड़ा है। मेरी तकलीफ का अंदाजा किसी को नहीं है। मैं यह दुनिया के सामने कहती हूं कि अजय प्रकाश एक झूठा आदमी है। वह अगर मेरा दुख कम नहीं कर सकता, तो मेरा मजाक उड़ाने वाला वह कौन होता है।

असहमति, नज़रिया »

[18 Sep 2010 | 22 Comments | ]
कांग्रेस और सीपीएम की दोगली औलाद है माओवाद

व्‍यालोक ♦ माओवाद तो मूलभूत तौर पर कांग्रेस और सीपीएम की दोगली औलाद है। यह कोई छिपी बात नहीं कि सीपीएम को कांग्रेस ने हमेशा प्रश्रय दिया और उसके लिए तमाम संस्थान, पुरस्कार बनाये। दोनों ही एक-दूसरे की राह और स्वार्थ पूर्ति में सहायक सिद्ध हुए। पहले प्रधानमंत्री नेहरू के समय से लेकर अब तक यह खेल चलता रहा है। आप आईसीएचआर, आईसीएसएसआर से लेकर ऐसी तमाम बौद्धिक-मानविकी-वैज्ञानिक संस्थाओं को देख लें, वहां आपको सीपीएम के लोग मिल जाएंगे। ये संस्थाएं बनायी गयीं, ताकि इस देश की गरीब जनता के पैसे और खून को चूस कर चंद तथाकतित बौद्धिक अपनी वैचारिक उल्टी कर सकें, कांग्रेस के लिए खाद-पानी इकट्ठा कर सकें और बाकी सारे विचारों और सच को दफन कर सकें।

नज़रिया »

[17 Sep 2010 | 47 Comments | ]
माओवादी मुंबई के टपोरी गुंडों से अलग से नहीं हैं!

आलोक तोमर ♦ जो भाई लोग और बहनजियां माओवाद को एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना मान कर अपने आपको भी प्रगतिशील घोषित करना चाहते हैं, उन्हें उनकी गलतफहमियां मुबारक हो, मगर एक बार जंगल में सफल हुए तो आपकी दहलीज तक माओवादी हिंसा को बहुत बेशर्मी से पहुंचने से भी कोई नहीं रोक पाएगा और तब आप विचार और धारणाएं और इतिहास और सिद्धांत से नहीं बल्कि हिंसा के सामने घुटने टेकने से ही बचेंगे। वक्त है, अब भी अपराधियों को पहचानो। सरकार और सरकारें परम भ्रष्ट हैं, मगर वे चुनी ही इसलिए जाती हैं क्योंकि आप घर से वोट देने निकलते नहीं हैं और बाकी वोटों का मैनेजमेंट हो जाता है।

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Palash Biswas
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