Saturday, 31 March 2012 12:09 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी हमारा अधिक ध्यान इस दौर में खुद को एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय बाजार बनाने पर रहा है जहां सेना का मतलब भी एक मुनाफा बनाने वाली कंपनी में तब्दील हो। सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर बजट में इजाफा इस बात की गारंटी नहीं देता कि अब भारतीय सीमा पूरी तरह सुरक्षित है बल्कि संकेत इसके उभरते हैं कि अब भारत किस देश के साथ हथियार खरीदने का सौदा करेगा। और सामरिक नीति के साथ-साथ विदेश नीति भी हथियारों के सौदों पर आ टिकी है। लेकिन सेनाध्यक्ष को की गई घूस की पेशकश का मतलब सिर्फ इतना नहीं है कि लॉबिंग करने वाले इस दौर में महत्त्वपूर्ण और ताकतवर हो गए हैं, बल्कि सेना के भीतर भी आर्थिक चकाचौंध ने बेईमानी की सेंध लगा दी है। इसलिए बोफर्स घोटाले तले राजनीतिक ईमानदारी जब सत्ता में आने के बाद बेईमान होती है तो करगिल के दौर में भ्रष्टाचार की सूली पर और किसी को नहीं, सौनिकों को ही चढ़ाया जाता है। करगिल के दौर में ताबूत घोटाले में एक लाख डॉलर डकारे जाते हैं। ढाई हजार डॉलर का ताबूत तेरह गुना ज्यादा कीमत में खरीदा जाता है। दो बरस बाद बराक मिसाइल के सौदे में घूसखोरी के आरोप पूर्व नौसेना अध्यक्ष एमके नंदा के बेटे सुरेश नंदा पर लगते हैं और तब के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीज भी सवालों के घेरे में आते हैं। और इसी दौर में किसी नेता और नौकरशाह की तर्ज पर लेफ्टिनेंट जनरल पीके रथ, लेफ्टिनेंट अवधेश प्रकाश, लेफ्टिनेंट रमेश हालगुली और मेजर पीके सेन को सुकना जमीन घोटाले का दोषी पाया जाता है। यानी सेना की सत्तर एकड़ जमीन बेच कर सेना के ही कुछ अधिकारी कमाते हैं। इससे ज्यादा चिंताजनक स्थिति क्या हो सकती है कि सबसे मुश्किल सीमा सियाचिन में तैनात जवानों के रसद में भी घपला कर सेना के अधिकारी कमा लेते हैं। सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल एसके साहनी को तीन बरस की जेल इसलिए होती है कि जो राशन जवानों तक पहुंचना चाहिए उसमें भी मिलावट और घोटाले कर राशन आपूर्ति की जाती है। और तो और, शहीदों की विधवाओं के लिए मुबंई की आदर्श सोसायटी में भी फ्लैट हथियाने की होड़ में पूर्व सेनाध्यक्ष समेत सेना के कई पूर्व अधिकारी भी शामिल हो जाते हैं। और सीबीआइ जांच के बाद न सिर्फ पूछताछ होती है बल्कि रिटायर्ड मेजर जनरल एआर कुमार और पूर्व ब्रिग्रेडियर एमएम वागंचू की गिरफ्तारी भी। यानी भ्रष्टाचार को लेकर कहीं कोई अंतर सेना और सेना के बाहर नजर नहीं आता। तो क्या आने वाले वक्त में भारत की सेना का चरित्र बदल जाएगा? यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सेना का कोई अपना चेहरा भारत में कभी रहा नहीं है। और राजनीतिक तौर पर जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में युद्ध के मद्देनजर जो भी चेहरा सेना का उभरा वह प्रधानमंत्री की शख्सियत तले ही रहा। लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पहली बार सेना का भी अलग चेहरा दिखा। जनरल वीके सिंह अनुशासन तोड़ कर मीडिया के जरिए आम लोगों के बीच जा पहुंचे। क्योंकि दो बरस पुरानी शिकायत सेवानिवृत्ति नजदीक आ जाने के बावजूद यों ही पड़ी रही। और फिर सरकार और सेनाध्यक्ष जनता की नजरों में आमने-सामने नजर आने लगे। अपनी उम्र की लड़ाई लड़ते-लड़ते जनरल सिंह सरकार के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देते हैं। लेकिन सियासत और सेना के बीच की यह लकीर आने वाले वक्त में क्या देश की संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं करेगी, क्योंकि आर्थिक सुधार धंधे में देश को देखते हैं और सियासत सिविल दायरे में सेनाध्यक्ष से भी सीबीआइ को पूछताछ की इजाजत दे देती है। ऐसे में यह सवाल वाकई बड़ा है कि पद पर रहते हुए जनरल वीके सिंह से अगर सीबीआइ पूछताछ करती है तो फिर कानून और अनुशासन का वह दायरा भी टूटेगा जो हर बरस छब्बीस जनवरी के दिन राजपथ पर परेड करती सेना में दिखाई देता है, जहां सलामी प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति लेते हैं। भारतीय सेना राज्य-व्यवस्था का सबसे कर्तव्यनिष्ठ और अनुशासित अंग रही है। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों से इसकी छवि पर आंच आई है। आज भारत हथियारों के आयात में पहले नंबर पर है। फिर भी भारत की रक्षा तैयारियों को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो इसका मतलब है कि बीमारी कहीं गहरी है और इसका निदान किया जाना चाहिए। |
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Saturday, March 31, 2012
सेना की साख और सियासत
सेना की साख और सियासत
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