और महिषासुर वध जारी
फिरभी सुप्रीम कोर्ट का और
ऐतिहासिक फैसला: वोटरों को चुनाव में उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने का मिला अधिकार
সুপ্রিম রায়ে প্রার্থী প্রত্যাখানের অধিকার ভোটারদের হাতে
After calling ordinance on convicted lawmakers 'nonsense', Rahul Gandhi reaches out to PM
गजब तमाशा है देखो भाई मदारी का खेल
राष्ट्रपति ने दागियों को हरी झंडी का
अध्यादेश रोक दिया और राहुल बाबा ने भी
बकवास कह दिया ,फिर सुप्रीम कोर्ट से
आया आदेश ईवीएम पर वह बटन भी
होगा जिससे खारिज कर दें सारे विकल्प
खास खबर यह भी है कि नोट करें आप
बड़े पैमाने पर अबकी दफा मनाया
जा रहा है करम पर्व के साथ
असुर उत्सव भी खूब,जेएनयू
से बाहर निकल रहे महिषासुर
রাহুলের বিরোধিতায় অর্ডিন্যান্স প্রত্যাহারের ইঙ্গিত কেন্দ্রের
অর্ডিন্যান্স ছিঁড়ে ফেলা উচিত, দলকে তোপ রাহুলেরই
पलाश विश्वास
गजब तमाशा है देखो भाई मदारी का खेल
राष्ट्रपति ने दागियों को हरी झंडी का
अध्यादेश रोक दिया और राहुल बाबा ने भी
बकवास कह दिया ,फिर सुप्रीम कोर्ट से
आया आदेश ईवीएम पर वह बटन भी
होगा जिससे खारेज कर दें सारे विकल्प
अब अल्पमत यह सरकार बिना
जनादेश कैसे कर रही अवमानना
सर्वोच्च न्यायालय की बार बार
कैसे हो रहा है दुरुपयोग संसद का
भारतीय राजनीति से कौन करे
यह यक्ष प्रश्न,देखते रहे तमाशा लाइव
इसी बीच खास खबर यह है
आपके लिए कि असुरों में भी
होने लगा है जागरण अपने
नरसंहार के खिलाफ और
बंगाल के आदिवासी इलाकों में
बड़े पैमाने पर अबकी दफा मनाया
जा रहा है करम पर्व के साथ
असुर उत्सव भी खूब,जेएनयू
से बाहर निकल रहे महिषासुर
दुर्गा कोई वैदिकी देवी हैं नहीं
सती पीठ की कहानी भी
प्राचीन कतई है नहीं
वंदे मातरम की भारत माता भी
दुर्गा नहीं श्रृंखलित काली है
ऐसा हमने लिखा बार बार है
बौद्धमय बंगाल में सेनवंश
के शासन काल से पहले
लोग या तो शैव थे या फिर
शाक्त,जयदेव के गीतगोविंदम
से कृष्ण अवतरित हुए बहुत बाद
कृत्तिवासी रामायण से बंगाल में
अवतरित हुए मर्यादा पुरुषोत्तम
रामायण के अश्वमेध में
बंगाल कहीं नहीं थी, पाल वंश
के अवसान के बाद और बौद्धमय
बंगाल के अवसान के बाद
शुरु हुआ अश्वमेध वैदिकी
कर्मकांड के साथ, काली
और शिव जो अनार्य थे
अचानक बना दिये गये वैदिकी
चैतन्य महाप्रभु के अवतार से
बंगाल में अवतरित हुए विष्णु
वैदिकी यज्ञ होते जिसके नाम
असुर ही हैं अनार्य सारे लोग
धर्मांतरित जो हुए बंगाल के
तमाम बौद्ध अनुयायी,वे सारे
लोग भी असुर ही हैं
जो बने दलित,शूद्र और आदिवासी
राजपूत बंगाल में न कभी थे
और न अब हैं
अंग्रेजों के राज काज में
सामंती वांशिक वर्चस्व के
अवसान के बाद वर्चस्व के
लिए जमींदार और शासकों ने
शुरु की दुर्गा आराधना नरबलि के साथ
जमींदारी खोने के डर से
बंगाल में जब शुरु हुआ
स्वदेशी आंदोलन,जमींदार बाड़ी
राजबाड़ी से निकलकर
दुर्गा हो गयी सार्वजनीन
वर्चस्ववाद की संस्कृति की
अभिव्यक्ति है दुर्गोत्सव
जिसके भोग बनाने का भी
अधिकार नहीं अब्राह्मणों को
इसलिए आदिवासी मूलनिवासियों
के असुर उत्सव में मूलनिवासी
अस्मिता की ही यह अभिव्यक्ति
Subject: venue of Assur Utsab
various places where assur HUDUR DURGA commemoration ceremony will be held are-
LET US GO TO KNOW OUR HISTORY. .....
SC /ST /OBC/ SUDRA / MULNIBASI AND THE CONVERTED MINORITIES FROM THIS COMMUNITIES.
WE NEED FREEDOM FROM BRAHMINICAL SLAVERY.
PLACES OF ASSUR UTSAB :
Gajol Block- ------ ( Amlidanga, Bhalukdanga, Rahulghutu, Chhayghati[Chaknagar], Baro Alampur, Baromasia )
Habibpur Block------------( Kanturka, Kumarpur[Srirampur], Dhumpur, Talpukur )
Old Malda Block------------(Srirampur, Baldahura )
Bamongola Block----------(Ailechora)
KASIPUR (PURULIA) ---- Bhalagora
Arsha Block (Purulia)
Ranibandh ( Bankura)
Contact persons: David Das -9733132505, Anil Hasda -8001928388, Ajit p hembrom -8972113531 , Charian Mahato - 9933000702
EXTEND YOUR CO-OPERATION.
CHARAN BESRA - THE CHAIRMAN OF MULNIBASI SAMITI -8348573507
गौर तलब है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने
यूपीए सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया
लाए गए अध्यादेश पर बयान देकर
राहुल ने अध्यादेश को
'पूरी तरह बकवास' करार दिया
जिसे मंजूरी दी है पीएम मनमोहन सिंह
की अगुवाई वाली कैबिनेट ने
राहुल ने यहां तक कह दिया कि
ऐसे अध्यादेश को फाड़ कर
फेंक देना चाहिए
राहुल के इस बयान पर
बीजेपी महासचिव वरुण गांधी ने
कहा कि प्रधानमंत्री को विदेश से
लौटते ही इस्तीफा दे देना चाहिए
पीएम के पूर्व मीडिया सलाहकार
संजय बारू ने लेकिन कहा है कि
राहुल गांधी को माफी मांगनी चाहिए
और मनमोहन सिंह को भी
इस्तीफा दे देना चाहिए
सुर में सुर मिला रहे हैं
हुक्का हुआं कर कर
आसमान फाड़ रहे हैं
तमाम रंगा सियार
वाशिंगटन से विकास
के बहाने सत्यानाश
का नक्शा लेने गये
अमेरिका दौरे पर गए
नाटो और पेंटागन
अमेरिकी युद्धक
अर्तव्यवस्था मनोनीत
जायनवादी ग्लोबल आर्डर
के शैतानी दुशच्क्र
के महानायक सुधारों
के परमेश्वर पीएम
मनमोहन सिंह का
कहना है विनम्रता से
अध्यादेश के बारे में
उन्हें लिखा है राहुल गांधी ने
अब पीएम भारत लौटने पर
कैबिनेट में चर्चा करेंगे
राहुल गांधी की तरफ से
उठाए गए मुद्दों पर
उदारीकरण ईश्वर
मनमोहन सिंह ने
अमेरिका से ही फोन पर
बात की है
यूपीए चेयरपर्सन
सोनिया गांधी से
खुश हो जाइये
हम लोक गणराज्य
के संप्रभु नागरिक हैं
हमारे मतामत से
किसी को कुछ है नहीं
लेना देना और न देना
कारपोरेट हाथों में
हमारी पुतलियों की तस्वीरें
और अंगुलियों की छाप
सौंपने की नाटो योजना
के खिलाफ भी बोले नहीं
हमारे महान जनप्रतिनिधि
बिना संसदीय अनुमति के
बिना जनादेश के
इंफोसिस चेयरमैन हो
गये हमारी नागरिकता के
भाग्यविधाता
कबीना मंत्री के उनके
गैरकानूनी दर्जा के
खिलाफ बोला नहीं
अब तक कोई
किसी ने नगहीं पूछा
अवैधानिक असंवैधानिक
इस अमानवीय योजना
पर किसके जनादेश से
अनाप शनाप हजारों करोड़
क्यों किये गये स्वाहा
किसी ने पूछा नहीं कि
हमारी सब्सिडी काटकर
क्यों कारपोरेट को
हर साल लाखों करोड़
की टैक्स छूट
और दरअसल आर्थिक
नीतियों की निरंतरता
यह जनविरोधी
करारोपण नीति है
किसीने अभी कोई प्रतिक्रिया
तक नहीं दी है कि
अर्थसंकट की आड़ में
कैसे जारी ही अश्वमेध राजसूय
कैसे भारत के जनगण
कैद हैं गैस चैंबर में
कैसे अर्थ संकट की
आड़ में संस्थागत
निवेशकों की विदेशी पूंजी
और निजी पूंजी को
नीलामी पर बेच रहे हैं देश
कैसे रेटिंग की धार
बना दी गयी तलवार
और विदेशी पूंजी को कर्जमाफ
कैसे डालर देश की प्रजा
बन गये हम आजाद लोग
कैसे वित्तीय घाटा और
भुगतान असंतुलन के
बावजूद कारपोरेट को
स्टीमुलस का प्लान
कारपोरेट भारत
सरकार की कोई औकात है
न संसद की कोई भूमिका हैं
सही हो या गलत
जो फतवा दे दें
राजमाता और युवराज
वही सही है
वाशिंगटन से
डब्लू टीओ से
अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से
विश्वबैंक से पधारे
देवमंडल के सारे देव
कारपोरेट और
महिषासुर वध
का यह आयोजन
देशव्यापी दुर्गोत्सव
प्रधानमंत्री तो बेशर्म
कारपोरेट गुलाम हैं
उनका क्या कीजिये
हर राजनेता जो अब
खूब भौंक रहे हैं
जनप्रतिनिधित्व आईन पर
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप
पर बोल चुके हैं विरोध में
अवसरवादियों ने हवा
का रुख पलटते ही
फौरन सुर बदल दिये
यही संसदीय प्रणाली है
खनिज के स्वामित्व पर भी
सुप्रीम कोर्ट का आदेश है
खनिज उसीका जमीन हो
जिसकी,नियमागिरि पर
पंचायतों की राय निर्णायक
यह फैसला भी सुप्रीम कोर्ट का
कौंध आदिवसियों के
महिषासुर वध के लिए
चुनिंदा बारह पंचायतों की
ही सुनवाई हुई
वेदांत को हरीझंडी के लिए
और देश भर में गूंज उठा
जिंदाबान जिंदाबान
कौंध जनजाति की
एकता अटूट है
महिषासुर गर्जन से
कांप उठा इंद्रासन
सारी पंचायतों ने एकमुश्त
साजिश को धता बता
खारिज कर दिया वेदांत को
लेकिन कोई सांसद नहीं बोल
रहा, आदिवासी सांसद भी नहीं
आदिवासियों के खिलाफ
राष्ट्र के युद्ध के खिलाफ
लेकिन कोई सांसद नहीं बोल
रहा, आदिवासी सांसद भी नहीं
महिषासुर वध की
निरंतरता के विरुद्ध
ताड़का संहार की तरह
आदिवासियों की देशभर में
एथनिक क्लींजिग के विरुद्ध
परियोजनाएं जो चालू कर दी
अर्थसंकट की आड़ में
गिरती विकास दर और
राजस्व घाटे का हौव्वा
जारी है महिषासुर वध
जारी है सत्तावर्ग का
वर्चस्ववादी दुर्गोत्सव
लेकिन कोई सांसद नहीं बोल
रहा, आदिवासी सांसद भी नहीं
सीधे उंगली खड़ा करके
खड़ा करके उंगली भइाया
कोई नहीं बोला
लेकिन कोई सांसद नहीं बोल
रहा, आदिवासी सांसद भी नहीं
न बोला वामपंथी कोई क्रांतिकारी
न बोले अंबेडकर के अनुयायी
आदिवासियों से ही धर्मातरित
दलित शूद्र अल्पसंख्यक
सारे के सारे लोग मूलनिवासी
महिषासुर वध में शामिल
अपने ही स्वजनों की नरबलि
के भोज में शामिल मूलनिवासी
इस देश के शूद्र दलित
और अल्पसंख्यक
सारे के सारे आदिवासी
और महिषासुर वध जारी
कोई सांसद नहीं बोलता
रहा, आदिवासी सांसद भी नहीं
बाकी शूद्र दलित अल्पसंख्यक
जो वैदिकी मंत्रोच्चार के साथ
समर्पित है सत्तावर्ग के
निरंकुश भोग के लिए
मोमबत्ती जुलूस के साझेदार
सत्ता वर्चस्व के असली
वफादार पहरेदार
भी खामोश तमाशबीन
और महिषासुर वध जारी
सोनी सोरी के यौन उत्पीड़क
पुलिस अधिकारी को
जो शौर्य पदक दे दिये
महामहिम राष्ट्रपति ने
उसके खिलाफ भी
बोलता नहीं कोई
कोई नहीं बोलता
और महिषासुर वध जारी
तेरह साल से आमरण
अनशन पर बैठी इरोम
शर्मिला के समर्थन में
सशस्त्र बल विशेषाधिकार
कानून के खिलाफ
कोई नहीं बोला सैन्य शक्ति
को हत्या और बलात्कार
के रक्षा कवच के खिलाफ
और महिषासुर वध जारी
न कोई बोलता है कि
कोई सांसद आदिवासी
शूद्र दलित या अल्पसंख्यक
बोलता नहीं, व्हिप के गुलाम
सारे के सारे महिषासुर वध
के वास्ते सारे आयुध सौंप
रहे हैं हत्यारों को
और महिषासुर वध जारी
इस भारत देश में
अब भी संविधान लागू नही है
आदिवासी इलाकों में
अस्पृश्य भूगोल में सर्वत्र
कोई नहीं बोलता
संसद के भीतर या
पिर संसद के बाहर कि
सबसे पहले
लागू करो संविधान
मौलिक अधिकार तमाम
बहाल करो फौरन
लोकतंत्र करो बाहाल
लागू करो कानून का राज
फौरन सबसे पहले
सब गरीबी उन्मूलन
के नारे लगाते हैं
सारे के सारे विकास पुरुष
सबके सब कारपोरेट
साझेदार करोड़पति अघोषित
सब सुधारों के लिए सहमत
सब महिषासुर वध के लिए
असुरों के सफाये के लिए
अश्वेत अनार्यों के नरसंहार के लिए
सहमत हैं एक सिरे से
और महिषासुर वध जारी है
फिरभी सुप्रीम कोर्ट का और
ऐतिहासिक फैसला: वोटरों को चुनाव में उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने का मिला अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में शुक्रवार को कहा कि मतदाताओं के पास नकारात्मक वोट डाल कर चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों को अस्वीकार (रिजेक्ट) करने का अधिकार है। न्यायालय का यह निर्णय प्रत्याशियों से असंतुष्ट लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित करेगा।
निर्वाचन आयोग को उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि वह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में और मतपत्रों में प्रत्याशियों की सूची के आखिर में 'ऊपर दिए गए विकल्पों में से कोई नहीं' का विकल्प मुहैया कराएं ताकि मतदाता चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों से असंतुष्ट होने की स्थिति में उन्हें अस्वीकार कर सके।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी सदाशिवम की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि नकारात्मक मतदान (निगेटिव वोटिंग) से चुनावों में शुचिता और जीवंतता को बढ़ावा मिलेगा तथा व्यापक भागीदारी भी सुनिश्चित होगी क्योंकि चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से संतुष्ट नहीं होने पर मतदाता प्रत्याशियों को खारिज कर अपनी राय जाहिर करेंगे। पीठ ने कहा कि नकारात्मक मतदान की अवधारणा से निर्वाचन प्रकिया में सर्वांगीण बदलाव होगा क्योंकि राजनीतिक दल स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों को ही टिकट देने के लिए मजबूर होंगे।
पीठ ने कहा कि नकारात्मक मतदान की अवधारणा 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान 'अलग रहने' के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है। व्यवस्था देते हुए पीठ ने कहा कि चुनावों में प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है।
पीठ के अनुसार, लोकतंत्र पसंद का मामला है और नकारात्मक वोट डालने के नागरिकों के अधिकार का महत्व व्यापक है। नकारात्मक मतदान की अवधारणा के साथ, चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से असंतुष्ट मतदाता अपनी राय जाहिर करने के लिए बड़ी संख्या में आएंगे जिसकी वजह से विवेकहीन तत्व और दिखावा करने वाले लोग चुनाव से बाहर हो जाएंगे। पीठ ने हालांकि इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं किया कि 'कोई विकल्प नहीं' के तहत डाले गए वोटों की संख्या अगर प्रत्याशियों को मिले वोटों से अधिक हो तो क्या होगा।
आगे पीठ ने कहा कि 'कोई विकल्प नहीं' श्रेणी के तहत डाले गए वोटों की गोपनीयता निर्वाचन आयोग को बनाए रखनी चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने यह आदेश एक गैर सरकारी संगठन पीयूसीएल (पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की जनहित याचिका पर दिया, जिसमें कहा गया था कि मतदाताओं को नकारात्मक मतदान का अधिकार दिया जाना चाहिए। गैर सरकारी संगठन के आग्रह पर सहमति जताते हुए पीठ ने यह अहम फैसला दिया और यह कहते हुए चुनाव प्रक्रिया में नकारात्मक मतदान की अवधारणा को शामिल करने को कहा कि इससे मतदाताओं को अपने मताधिकार का उपयोग करने का और अधिकार मिलेगा।
यह फैसला चुनाव प्रक्रिया के बारे में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए कई फैसलों का हिस्सा है। पूर्व में, न्यायालय ने हिरासत में लिए गए लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक की व्यवस्था दी थी। न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि गंभीर अपराधों में दोषी ठहराए जाने के बाद सांसद और विधायक अयोग्य हो जाएंगे। इस फैसले के तहत निर्वाचन कानून का वह प्रावधान रद्द हो जाएगा जो दोषी सांसदों विधायकों को तत्काल अयोग्य होने से बचाता है। न्यायालय की इस व्यवस्था को निष्प्रभावी करने के लिए सरकार एक अध्यादेश ले कर आई है।
সুপ্রিম রায়ে প্রার্থী প্রত্যাখানের অধিকার ভোটারদের হাতে
ভোটদাতাদের হাতে আর একটি ক্ষমতা তুলে দিল সুপ্রিম কোর্ট। শুক্রবার একটি ঐতিহাসিক রায়ে সুপ্রিম কোর্ট বলল, ইভিএম-এ 'এঁদের মধ্যে কেউ না' অপশান থাকতে হবে। যার ফলে কোনও প্রার্থীই পছন্দ না-হলে ভোটদাতা তাঁদের খারিজ করে দিতে পারবে। এদিন সুপ্রিম কোর্টের তরফে নির্বাচন কমিশনকে নির্দেশ দেওয়া হয়েছে, ইভিএম-এ যেন 'এঁদের মধ্যে কেউ না'-- বিকল্পটির ব্যবস্থা করা হয়।
পিপলস ইউনিয়ন ফর সিভিল লিবার্টিজ নামে এক স্বেচ্ছাসেবী সংস্থার আবেদনের ভিত্তিতে এদিন এই রায় দিয়েছে সুপ্রিম কোর্ট।
ভোটদাতার যদি কোনও প্রার্থীই পছন্দ না-হয়, তা হলে তাঁরা ইভিএমের 'এঁদের মধ্যে কেউ না' বোতাম টিপে নিজের মত দিতে পারেন। সুপ্রিম কোর্ট কেন্দ্রকে এই ব্যবস্থা কার্যকরী করার ক্ষেত্রে যথাসম্ভব সাহায্য করতে বলেছে।
উল্লেখ্য, ২০০১-এর ১০ ডিসেম্বর প্রার্থীদের নামের পর 'এঁদের মধ্যে কেউ না'-র বিকল্প রাখার প্রস্তাব দিয়েছিল নির্বাচন কমিশন। কিন্তু ১২ বছর পরও সে ব্যাপারে কোনও পদক্ষেপ করা হয়নি।
নির্বাচনি প্রক্রিয়ায় সংশোধন এবং স্বচ্ছতা আনার দাবি তুলে বহু দিন ধরেই আন্দোলন চলছে। আন্দোলনকারীদের বক্তব্য, কোনও নির্বাচনি ক্ষেত্রের ৫০ শতাংশের বেশি ভোট যদি 'এঁদের মধ্যে কেউ না'-র অপশানে পড়ে, তা হলে সেই এলাকায় পুনরায় নির্বাচন করাতে হবে। আবেদনকারীর যুক্তি ছিল, সমস্ত প্রার্থীকে খারিজ করার অধিকার ভোটদাতার আছে। নির্বাচন কমিশন এই যুক্তির সমর্থনে বলেছিল, এমন ব্যবস্থা করার জন্য সংবিধান সংশোধন করা উচিত। তবে সে সময় সরকার কোনও ব্যবস্থা নেয়নি।
शुक्रवार को स्थानीय प्रेस क्लब में संवाददाताओं से बातचीत के दौरान राहुल ने संसद और विधानसभाओं में दागी नेताओं पर सरकार के अध्यादेश पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा, 'इस अध्यादेश के बारे में मेरा यही कहना है कि इसे (अध्यादेश को) फाड़कर फेंक देना चाहिए। यह मेरी निजी राय है।' उन्होंने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। राहुल गांधी ने कहा कि केंद्र सरकार ने इस अध्यादेश को लेकर जो फैसला लिया है, वह फैसला बिल्कुल गलत है। उन्होंने माना कि इस मसले पर कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने गलती की है।
राहुल ने कहा कि 'उनके संगठन' में इस तरह के तर्क दिए गए कि राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ऐसा किया गया। हर कोई ऐसा कर रहा है। कांग्रेस ने ऐसा किया है, बीजेपी भी ऐसा करती है, सपा भी ऐसा करती और जेडी(यू) भी ऐसा करती है। उन्होंने कहा, 'अब समय आ गया है कि इस तरह की बकवास चीजों पर रोक लगाना चाहिए। अगर आप देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं तो चाहे वो कांग्रेस हो या बीजेपी, हमें इस तरह के छोटे समझौते नहीं करने चाहिए। अगर हम ऐसे छोटे समझौते करेंगे तो हमें हर जगह ऐसे समझौते करने पड़ेंगे।'
इतना कहने के बाद राहुल गांधी जाने के लिए अपनी सीट से उठने लगे लेकिन पत्रकारों ने उन्हें रुकने को कहा तो वह फिर से सीट पर बैठ गए। इसके बाद तो सवालों की बौछार शुरू हो गई। उन्होंने कहा, 'कांग्रेस पार्टी और हमारी सरकार जो फैसले ले रही है, उसमें मेरी दिलचस्पी है। इसलिए जहां तक इस अध्यादेश का सवाल है तो हमारी सरकार ने जो कुछ किया है, वह गलत है।' इतना कहने के बाद राहुल प्रेस कांफ्रेंस से चले गए।
राहुल का यह बयान ऐसे समय आया है जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ही एक और बड़ा फैसला दिया और उम्मीद जताई जा रही है कि सरकार इस पर भी अमल में टाल मटोल करेगी। राहुल ने अपनी ही सरकार के खिलाफ इस तरह की बात की है जिसके बाद पार्टी नेताओं को राहुल के बयान का बचाव करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है।
दरअसल, दागी नेताओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए तैयार इस अध्यादेश को केंद्रीय कैबिनेट ने बीते मंगलवार को मंजूरी भी दे दी और राष्ट्रपति के पास भेज दिया। राष्ट्रपति की मुहर लगते ही नया कानून लागू हो जाएगा। हालांकि गुरुवार को वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में बीजेपी नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात कर इस अध्यादेश पर दस्तखत न करने की अपील की। इसके बाद राष्ट्रपति ने सरकार से स्पष्टीकरण मांगा।
पलाश विश्वास की कलम से
असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार के उत्सव में निष्णात!
भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण. उनके राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडिया ने इस पर बहुत जोर दिया. क्यों? राष्ट्रपति के हिंदुत्व पर दुनियाभर का मीडिया फोकस कर रहा है. अखबार नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणवमुखर्जी की पूजा कवर करने के लिए तैनात हैं. क्या यही धर्म निरपेक्ष भारत की सही छवि है? मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं. मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमेटियों के कर्ता-धर्ता हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है. उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं. जो दुर्गोत्सव के दौरान अशौच पालन करते हैं. उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है. राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है,पर वहाँ वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं आतीं. जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई, प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए,और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीक उसी तरह बनाया गया, जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया. वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ. बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था. भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा. जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बांगाली ब्राह्मण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया. विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान लिया. बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह. बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चितकरने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रहीं.
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी हर साल की तरह इस साल भी नवरात्रि के मौके पर पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले के मिरीती गांव में मौजूद अपने पैतृक निवास जा रहे हैं. बीरभूमि के जिलाधिकारी ने जानकारी दी है कि मुखर्जी शनिवार को दोपहर में कोलकाता से 240 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद अपने गाँव हेलीकॉप्टर से पहुँचेंगे. तय कार्यक्रम के मुताबिक राष्ट्रपति 23 अक्टूबर तक अपने पैतृक गांव में रहेंगे. मुखर्जी अपने गांव में दुर्गापूजा में बतौर मुख्य पुजारी शामिल होंगे. प्रणब के करीबी लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि शायद प्रणब खुद प्रोटोकॉल तोड़कर गांव वालों के बीच घुलेंगे मिलेंगे और पूजा करेंगे. प्रणब पश्चिम बंगाल के हैं और वहां दुर्गापूजा का अलग ही महत्वप है. बंगाल की जया भादुड़ी बच्च न भी हैं और वह भी मुंबई में बंगाली अंदाज में ही दुर्गापूजा मनाती हैं. लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाएंगी.
तनिक इस पर भी गौर करें!
महिषमर्दिनी; बक्रेश्वरम्द्धण् अधि विकिपीडियाए एकः स्वतन्त्रविश्वविज्ञानकोशण् गम्यताम् अत्र रू पर्यटनम्ए अन्वेषणम्ण् महिषमर्दिनी ;बक्रेश्वरम्द्ध एतत् पीठं भारतस्य पश्चिमबङ्गालस्य बदहाममण्डले विद्यमानेषु शक्तिपीठेषु अन्यतमम्.
दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है. हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है; शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है. वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी उमा हैमवती; उमा, हिमालय की पुत्रीद्ध का वर्णन है. पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है. दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था. इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं. देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं. मुख्य रूप उनका गौरी है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप. उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप. विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं. कुछ दुर्गा मन्दिरों में पशुबलि भी चढ़ती है. भगवती दुर्गा की सवारी शेर है. उग्रचण्डी दुर्गा का एक नाम है. दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को बलि दीए लेकिन शिव और सती को बलि नहीं दी. इससे क्रुद्ध होकर, अपमान का प्रतिकार करने के लिए इन्होंने उग्रचंडी के रूप में अपने पिता के यज्ञ का विध्वंस किया था. इनके हाथों की संख्या 18 मानी जाती है. आश्विन महीने में कृष्णपक्ष की नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूप से उग्रचंडी की पूजा करते हैं.
बाजार विरोधी दीदी के मां माटी मानुष राज में बाजार बम बम है और चहुं दिशाओं में धर्मध्वजा लहरा रहे हैं. नवजागरण के समय से बंगाल में विज्ञान और प्रगति की चर्चा जारी है. नवजागरण के मसीहा जमींदारवर्ग से थे या फिर अंग्रेजी हुकूमत के खासमखास. ज्ञान तब भी कुलीन तबके से बाहर के लोगों के लिए वर्जित था. औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शिक्षा के असर में विज्ञान और प्रगति का दायरा भी इसी वर्ग तक सीमित रहा. जैसा कि पूंजी और एकाधिकारवादी वर्चस्व के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार अनिवार्य है ताकि उत्पादन प्रणाली में श्रम और श्रमिक की भूमिका सीमाबद्ध या अंततः समाप्त कर दी जाये. पर पूंजी और बाजार के लिए ज्ञान और विज्ञान को भी सत्तावर्ग तक सीमित करना वर्गीय हितों के मद्देनजर अहम है. ईश्वर, धर्म और आध्यात्मिकता कार्य परिणाम के तर्क और स्वतंत्र चिंतन का निषेध करती हैं, जिससे विरोध, प्रतिरोध या बदलाव की तमाम संभावना शून्य हो जाती है. जर्मनी से अमेरिका गये आइनस्टीन को भी धर्मसभा में जाकर यहूदी और ईसाई, दोनों किस्म के सत्तवर्ग के मुताबिक धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंध की व्याख्या करते हुए वैज्ञानिक शोध, आविष्कार और ज्ञान के लिए अवैज्ञानिक, अलौकिक प्रेरणा की बात कहनी पड़ी. बंगाल में 35 साल के प्रगतिवादी वामपंथी शासन दरअसल बहुजनों, निनानबे फीसदी जनता के बहिष्कार के सिद्धांत के मुताबिक ही जारी रहा. साम्यवाद की वैश्विक दृष्टि बंगाली ब्राह्मणवाद के माफिक बदल दी जाती रही. वाममोर्चा की सरकार ब्राह्मणमोर्चा बनकर रह गयी. जो दुर्गोत्सव सामंतों और जमीदारों की कुलदेवियों की उपासना तक सीमाबद्ध था, प्रजाजनों पर अपने उत्कर्ष साबित करने काए वह सामंतों के अवसान और स्वदेशी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक ही नहीं हो गया, क्रमशः बंगीय और भारतीय हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया. वाम शासन ने इसपर सांस्कृतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए बंकिम की भारत माता और वंदेमातरम के हिंदुत्व का स्थानापन्न बना दिया. ममता राज में इसी बंगीय वर्चस्ववादी परंपरा की उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही है जब दुर्गोत्सव के दरम्यान लगातार दस दिनों तक सरकारी दफ्तर बंद रहेंगे. सूचना कर्फ्यू के तहत चार दिनों के लिए कोई अखबार नहीं छपेगा और टीवी पर चौबीसों घंटा पूजा के बहाने बाजार का जयगान!
इतिहास की चर्चा करने वालों को बखूबी मालूम होगा कि वैदिकी सभ्यता का बंगाल में कोई असर नहीं रहा है और न यहां वर्ण व्यवस्था का वजूद रहा है. ग्यारहवीं सदी तक बंगाल में बुद्धयुग रहा. सातवीं शताब्दी में गौड़ के राजा शशांक शाक्त थे. शाक्त और शैव दो मत प्राचीन बंगाल में प्रचलित थे, जो लोकधर्म के पर्याय हैं,और जिनका बाद में हिंदुत्वकरण है. डिसकवरी आफ इंडिया में नेहरू ने भी वर्ण व्यवस्था को आर्यों की अहिंसक रक्तहीन क्रांति माना और तमाम इतिहासकार इसके जरिये भारत के एकीकरण की बात करते हैं. वामपंथी नेता कामरेड नंबूदरीपाद वर्ण व्यवस्था को आर्य सभ्यता की महान देन बताते थे. बंगाल में पाल वंश के पतन के बाद कन्नौज के ब्राह्मणों को बुलाकर सेनवंश के कर्नाटकी मूल के राजा बल्लाल सेन ने ब्राह्मणी कर्मकांड और पद्धतियां लागू कीं. पर उनका शासनकाल खत्म होते न होते उनके पुत्र लक्ष्मण सेन ने पठानों के आगे खुद को पराजित मानते हुए गौड़ छोड़कर भाग निकले. तो इस हिसाब से ब्राह्मणी तंत्र लागू करने के लिए बल्लालसेन के कार्यकाल के अलावा बाकी कुछ नहीं बचता. पठानों और मुगलों के शासनकाल में ब्राह्मण सत्ता वर्ग में शामिल होने की कवावद जरूर करते रहे. बंगाल में जो धर्मांतरण हुआ जाहिर है, वह बौद्ध जन समुदायों का ही हुआ. जो हिंदू हुए, वे सीधे अछूत बना दिये गये, सेन वंश के दौरान. मुसलमान शासनकाल में इन अछूतों ने और जो बौद्ध हिंदुत्व को अपनाकर अछूत बनने को तैयार न थे, उन्होंने व्यापक पैमाने पर इस्लाम को कबूल कर लिया. हिंदू कर्मकांड के अधिष्ठाता विष्मु का तो मुसलमानों के आने से पहले नामोनिशान न था. इस्लामी शासनकाल में पांच सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु के जरिए वैष्णव मत का प्रचलन हुआ और उनके खास अनुयायी नित्यानंद ने बंगाल की गैर हिंदू जनताका वैष्णवीकरण किया. बंगाल ही नहीं, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाब को छोड़ कर बाकी भारत में तेरहवीं सदी से पहले वैदिकी सभ्यता का कोई खास असर नहीं था. विंध्य और अरावली के पार स्थानीय आदिवासी शासकों का क्षत्रियकरण के जरिए हिंदुत्व का परचम लहराया गया. लेकिन पूर्व और मध्य भारत में सत्रहवीं सदी तक अनार्य या फिर अछूत या पिछड़े शासकों का राज है. इसी अवधि को तम युग कहते हैं. जब महाराष्ट्र के जाधव शासकों और बंगाल के पाल राजाओं तक मैत्री संबंध थे. जब चर्या पद के जरिये भारतीय भाषाएं आकार ले रही थीं.
आलोकसज्जा की आड़ में अंधकार के इस उत्सव में हम भी चार दिनों तक खामोश रहने को विवश हैं. घर का कम्प्यूटर खराब है और इन चार दिनों में बाहर जाकर काम करने के रास्ते बंद हैं. कहीं कुछ भी हो जाये,हम अपना मतामत दर्ज नहीं कर सकते. वैसे भी बंगाल में मीडिया को बाकी देश की सूचना देने की आदत नहीं है. नीति निर्धारण की किसी प्रक्रिया के बारे में पाठकों को अवगत कराने की जवाबदेही नहीं है. अर्थ व्यवस्था के खेल को बेनकाब करने के बजाय आर्थिक सुधारों के अंध समर्थन अंध राष्ट्रवाद के मार्फत करते रहने की अनवरत निरंतरता है. पार्टीबद्ध प्रतिबद्धता के साथ. अखबार छपें, न छपें, इससे शायद कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. कम से कम चार दिनों तक बलात्कार, अपराध और राजनीतिक हिंसा की खबरों से निजात जरूर मिल जायेगी. दीदी खुद इन खबरों से परेशान हैं और जब तब मीडिया को नसीहत देते हुए धमकाती रहती हैं. उनका बस चले तो सरकार की आलोचना के तमाम उत्स ही खत्म कर दिये जायें. मजे की बात है किअखबारों के दफ्तरों में अवकाश नहीं होगा. पर संस्करण नहीं निकलेगा. पत्रकारों/ गैरपत्रकारों को आकस्मिक, अस्वस्थता या फिर अर्जित अवकाश लेकर सेवा की निरंतरता बनाये रखनी होगी. प्रबंधन के मुताबिक वे अखबार बंद नहीं कर रहे हैं, बल्कि हाकरों ने अखबार उठाने से मना कर दिया है. जाहिर है कि इस पर ज्यादा बहस करने की गुंजाइश नहीं है कि अचानक हाकर दुर्गोत्सव के दौरान अखबार उठाने से मना क्यों कर रहे हैं और उनके पीछे कौन सी राजनीति है. पत्रकारों और गैरपत्रकारों के लिए वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए दीदी दिल्ली में आवाज बुलंद करने से पीछे नहीं हटतीं. पर राज्य में बाहैसियत मुख्यमंत्री मीडिया कर्मचारियों के हित में उन्होंने कोई कदम उठाया हो या वेतनमान लागू करने के लिए अखबार मालिकों से कहा हो, ऐसा हमें नहीं मालूम है. जबकि अनेक अखबारों के कर्णधार उनके खासमखास हैं और कई संपादक/मालिक तो उनके सांसद भी हैं. कम से कम उन मीडिया हाउस में कर्मचरियों के लिए हालात बेहतर बनाने में उन्हें कोई रोक नहीं सकता.
-पलाश विश्वास
রাহুলের বিরোধিতায় অর্ডিন্যান্স প্রত্যাহারের ইঙ্গিত কেন্দ্রের
এই সময় ডিজিটাল ডেস্ক - রাহুল গান্ধির সমালোচনার পর এবার সুর পাল্টাচ্ছে কেন্দ্র। দাগি জনপ্রতিনিধি সংক্রান্ত অর্ডিন্যান্স প্রত্যাহার করে নিতে পারে কেন্দ্রীয় সরকার। রাহুল গান্ধির সাংবাদিক সম্মেলনের পরই কংগ্রেস সূত্রে এমন ইঙ্গিত পাওয়া গিয়েছে। কেন্দ্রীয় মন্ত্রিসভায় রাহুলের আপত্তি নিয়ে আলোচনা করা হবে বলে জানিয়েছেন প্রধানমন্ত্রী মনমোহন সিং।
শুক্রবার নয়াদিল্লির প্রেস ক্লাবে ডাকা সাংবাদিক সম্মেলনে দেশের দাগি জনপ্রতিনিধিদের রক্ষায় অর্ডিন্যান্স সম্পূর্ণ অর্থহীন এবং তা ছিঁড়ে ফেলা উচিত বলে মন্তব্য করেন কংগ্রেসের ভাইস প্রেসিডেন্ট রাহুল গান্ধি। এরপরই রাহুলের সুরে সুর মেলান দলের সাধারণ সম্পাদক যোগাযোগ বিভাগের দায়িত্বে থাকা অজয় মাকেন। সাংবাদিকদের সামনে তিনি বলেন, "রাহুলজির মতামতই কংগ্রেসের মতামত। এখন কংগ্রেস দল এই অর্ডিন্যান্সের বিরোধী।"
রাহুল গান্ধির বক্তব্য পেশের কিছু আগেই দাগি জনপ্রতিনিধির রক্ষায় অর্ডিন্যান্সকে 'পারফেক্ট' আখ্যা দিয়েছিলেন অজয় মাকেন। পরে সাংবাদিকদের প্রশ্নের উত্তরে সে বিষয়টা অবশ্য এড়িয়ে যান তিনি।
অর্ডিন্যান্স ছিঁড়ে ফেলা উচিত, দলকে তোপ রাহুলেরই
দাগি জনপ্রতিনিধিদের বাঁচাতে অর্ডিন্যান্স নিয়ে দলের অন্দরেই বিদ্রোহ ঘোষণা রাহুল গান্ধীর। এক সাংবাদিক বৈঠকে তিনি বলেছেন, দেশে দাগি বিধায়ক, সাংসদদের রক্ষায় অর্ডিন্যান্সকে ছিঁড়ে ফেলা উচিত্। কারণ, এটি সম্পূর্ণ অর্থহীন। সাধারণত রাজনৈতিক উদ্দেশ্যেই এই অর্ডিন্যান্স।। আর এর সুযোগ কংগ্রেস-বিজেপিসহ সব রাজনৈতিক দলগুলিই নেয়। এমন বিতর্কিত মন্তব্যে দলের অভ্যন্তরীন সাংসদ-বিধায়কদের সতর্কবার্তা দিলেন কিনা সেই নিয়ে এখন জল্পনা রাজনৈতিক মহলে।
ভোটের আগে সরকারের ভাবমুর্তি পাল্টানোর লক্ষ্যেই রাহুল গান্ধীর এই বিস্ফোরক মন্তব্য বলে মনে করছেন রাজনীতিবিদরা।তিনি দলের ভাবমূর্তি বোঝাতে গিয়ে বলেছেন, এই উদ্যোগের সঙ্গে আমরা আপস করে চলতে পারব না।।
দলের মধ্যে সমালোচনা অবশ্য এই প্রথম নয়৷ বৃহস্পতিবার এতটা কড়া সুরে না হলেও অর্ডিন্যান্স করে এই আইন আনা নিয়ে সন্দেহ প্রকাশ করেছিলেন কংগ্রেসের সাধারণ সম্পাদক দিগ্বিজয় সিং৷ তাঁর মতে, অর্ডিন্যান্স না করে সব দলের ঐকমত্যের ভিত্তিতে এই আইন পাশ হলে ভালো হত৷ রাহুল ব্রিগেডের অন্যতম মিলিন্দ দেওরা প্রথম এই ইস্যুতে সরব হয়েছিলেন। এ দিনও তিনি সোজাসুজিই বলেছেন, 'আইনি বিষয়গুলো যদি বাদও দিই, দোষী জনপ্রতিনিধিদের আসন বজায় রাখার সিদ্ধান্ত গণতন্ত্রে মানুষের কমতে থাকা বিশ্বাসটাকেই আরও নিচের দিকে নিয়ে যাবে৷' টুইটারে এই অর্ডিন্যান্স নিয়ে আশঙ্কা প্রকাশ করেছেন আর এক কংগ্রেস নেতা অনিল শাস্ত্রীও৷
উল্লেখ্য, আদালতে দোষী সাব্যস্ত হলে সংসদের সদস্যপদ ও ভোটাধিকার খোয়া যাবে বলে কিছু দিন আগে সুপ্রিম কোর্টের দুই ঐতিহাসিক রায়ের প্রভাব এড়াতে জনপ্রতিনিধি আইনের সংশোধন চাইছে সরকার৷ এই অর্ডিন্যান্স পাশ করে রাষ্ট্রপতির অনুমোদনের জন্যে পাঠায় কেন্দ্রীয় মন্দ্রিসভা৷ বিভিন্ন সূত্রে খবর, আইনমন্ত্রী কপিল সিবাল ও স্বরাষ্ট্রমন্ত্রী সুশীলকুমার শিন্ডেকে রাষ্ট্রপতি ডেকে পাঠিয়েছেন এ বিষয়ে কথা বলার জন্য৷ প্রাথমিক ভাবে এই রায়ের বিরুদ্ধে সরব হলেও অর্ডিন্যান্স পদ্ধতিতে আইন আনার বিরোধিতা করেছে বিজেপি-সহ সব বিরোধী দলই৷
After calling ordinance on convicted lawmakers 'nonsense', Rahul Gandhi reaches out to PM
Rahul Gandhi addresses a press conference in New Delhi
New Delhi / Washington DC: In a message to the Prime Minister, after he dropped a bombshell at a press meet in Delhi today, Rahul Gandhi admitted that his views on the controversial ordinance on convicted lawmakers were "not in harmony with the Cabinet decision or the Core Group's view."
Rahul Gandhi's dramatic declaration that an ordinance hurriedly pushed by the government to protect convicted MPs and MLAs is "complete nonsense," has put Prime Minister Manmohan Singh in an embarrassing spot while away in the US. Mr Gandhi suggested that the ordinance "should be torn up and thrown away." (Blog: When Rahul finally met the press and dropped a bombshell)
In his letter to the Prime Minister, the Congress Vice-President who seemed to be in damage control mode acknowledged that the ordinance had been signed off by top Congress leaders.
"I also know it would be exploited by our political opponents. You know that I have the highest respect for you and I look up to you for your wisdom. I have nothing but the greatest admiration for the manner in which you are providing leadership in extremely difficult circumstances," Mr Gandhi wrote. (Read Rahul Gandhi's letter to the PM)
The 43-year-old leader ends his letter by saying he hopes the PM "will understand the strength of his conviction."
The placatory e-mail came after the Congress's political rivals said Mr Gandhi's veto has undermined the Prime Minister's position. "I think the PM stands diminished. Here is a cabinet which takes a decision, I do believe it was a wrong decision... and it is now a grandstanding by a party functionary in order to show who is the boss," senior BJP leader Arun Jaitley told NDTV. (Political reactions to Rahul Gandhi's statement: who said what)
Amid reports that the government is now likely to withdraw the ordinance, Dr Singh said in Washington, "The Congress Vice-President has also written to me on the issue and also made a statement... The issues raised will be considered on my return to India after due deliberations in the Cabinet." (Read PM's statement)
Sources say the PM has spoken to Congress President Sonia Gandhi from Washington on this issue and she has assured him of the party's support. Mr Gandhi seemed to underscore a divide between party and government, when he said, "I personally think what the government is doing on the ordinance is wrong." (Watch)
The ordinance overturns a Supreme Court order that elected representatives convicted and sentenced to over two years in prison will be disqualified immediately; it provides that such MPs and MLAs can continue in office, without salary or voting rights, if a higher court stays the conviction on appeal. (Read)
The ordinance was cleared by the cabinet on Tuesday and sent the next day to President Pranab Mukherjee, who called three union ministers last night reportedly to discuss his own reservations on it. (Read)
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Mahisasuramardini (radio programme) - Wikipedia, the free ...
Jump to The Story of Mahisasura Mardini - [edit source | edit]. Main article:Mahishasura. The story element speaks of the increasing cruelty of the demon ...
Birendra Krishna Bhadra - Musical Composition - Chandipath
Mahishasura Mardini by Hema Malini - YouTube► 3:48► 3:48
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In Hinduism, Durga (Sanskrit: दुर्गा, Durgā, meaning "the inaccessible" or "the invincible"; Bengali: দুর্গা, durga ...
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Goddess destroys demon mahishasura from the mahalaya special show.
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Indian actress Hema Malini as goddess durga. she has all the characteristics of goddess as one can expect ...
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7:08. Watch Later Mangalaroopini- tamil devotional songby sriturlapati Featured1,140,486 · 10:03. Watch ...
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Mahishasura Mardini - Shakti Sadhana
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Shakti Sadhana ~~~~~~~~~~. MAHISHASURA MARDINI by Devi Bhakta. Although the Great Goddess Durga is honored elsewhere in these pages, Her most ...
Mahishasura Mardini Stotram : Aigiri Nandini - in sanskrit with ...
Maa Durga - The Daughter of the Mountain and Joy of the World Maa Durga अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
Navratri blessings - the story of Mahishasura Mardini, Goddess Durga
Oct 15, 2012 - Long ago in a time not so different from now, the mighty Asura kingMahishasura was granted the boon of immortality by Shiva.
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जंगल में खिले लाल रंग के फूलों का विद्रोह से कोई नाता है?
♦ पलाश विश्वास
पहाड़ ने बाढ़, भूस्खलन और भूकंप के दरम्यान भी बुरूंश खिलते हुए देखा है। प्राकृतिक आपदाएं तो पहाड़ में पल पल का साथी है। दिल कमजोर हो] तो ऊचांइयां निषिद्ध हैं। हर किसी को इसका एहसास नहीं होता, पर मैं अच्छी तरह जानता हूं कि हर पहाड़ी लड़की बछेंद्री पाल होती है और जिसके मन में हर वक्त एक एवरेस्ट होता है, जिसे वह जब चाहे, तब छू लें। बांगला में अत्यंत सुंदर को भयंकर सुंदर कहते हैं, इस भयंकर सुंदरता के मायने पल पल जीते मरते पहाड़ को देखे बिना महसूस नहीं किया जा सकता। हमारे साथ शायद बुनियादी दिक्कत यह है कि बंगाली शरणार्थी परिवार से हुआ तो क्या, मैं तो जन्मजात कुमांऊनी ठैरा। महाश्वेता दी ने मुझे पहाड़ी बंगाली लिखकर ऐसे पुरस्कार से नवाजा है कि इस जिंदगी में मुझे किसी नोबेल पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो क्या, पहाड़ मा बारा मासा बेड़ू पाके। मनीआर्डर अर्थ व्यवस्था में जीते मरते लोगों के रोजमर्रे की जिंदगी भूकंप के झटकों से कम वजनदार नहीं होती।
अबके वसंत में बंगाल में फूलों की आग अनुपस्थित है। राज्यभर में गुलमोहर बहुत कम खिले हैं। पलाश भी हरियाली में आग पैदा नहीं कर पा रहे। वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम का संतुलन बिगड़ने से ऐसा हो रहा है। मौसमी आंधियों का अभी इंतजार है मौसम दुरूस्त करने के लिए, ऐसा उनका कहना है। इधर निकलना नहीं हुआ, इसलिए नहीं कह सकता कि झारखंड, छत्तीसगढ़ और दंडकारण्य के जंगलों में आग लगी है कि नहीं। कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने अल्मोड़ा प्रवास के दौरान बुरूंश की बहार से चौंधिया कर पूछा था कि क्या जंगल में आग लगी है! गौरतलब है कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई पहाड़ में शुरू हुई, देश भर में फैली और और लड़ी जा रही है। लेकिन पहाड़ उससे जुड़ा नहीं रह पाया। पहाड़ों में यह लड़ाई छिटपुट रूप से कई जगहों पर चल रही है, लेकिन कुल मिलाकर एक बड़ी लड़ाई नहीं बन पाती। टिहरी बांध की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर आ गयी थी, लेकिन वह नर्मदा बांध की लड़ाई या अन्य जगहों की जल की लड़ाई से नहीं जुड़ी रह पायी। टिहरी तथा नर्मदा अलग-अलग लड़ाइयां रहीं। टिहरी लगभग समाप्त हो गयी है। हमने डूबते हुए टिहरी को देखा, दिलो-दिमाग से महसूस किया। उत्तराखंड बनने के साथ समीकरण बनते-बिगड़ते देखे। मौसम का मिजाज बदलते हुए भी देख लिया। क्या अब भी पहाड़ में खिले होंगे बुरूंश?
क्या जंगल में खिले लाल रंग के फूलों का जनविद्रोह से कोई नाता है, यकीनन इस पर कोई शोध नहीं हुआ होगा। विश्वविद्यालयों में इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल, वनस्पति विज्ञान या फिर साहित्य के हमारे प्राध्यापक मित्र चाहें तो अपने शिष्यों से इस विषय पर शोध करा लें! तब हम डीएसबी में बीए प्रथम वर्ष के छात्र थे, समाजशास्त्र का क्लास चल रहा था। मैडम प्रेमा तिवारी सबके नाम पूछ रही थीं। मैंने अपना नाम बताया तो उन्होंने कहा, यथा नाम तथा गुण! मेरी लंबी कहानी नयी टिहरी पुरानी टिहरी पर पहाड़ की एक प्रख्यात लेखिका ने टिप्पणी की थी कि कथा नायक की तरह मैं भी अक्खड़ और अड़ियल हूं। तराई के घनघोर जंगल के बीच में जब मेरा जनम हुआ होगा, तब शायद खूब खिले होंगे पलाश, इसीलिए मेरी ताई ने मेरा ऐसा नामकरण किया। वर्षों से सुनता आया हूं कि पलाश में आग होती है, पर उसमें सुगंध नहीं होती। शायद इसीलिए पहाड़ और उत्तर भारत में इस नाम का बंगाल या छत्तीसगढ़ जितना प्रचलन नहीं है। पहाड़ में इतने खिलते हैं बुरांश, पर किसी पहाड़ी का नाम बुरूंस या बूरांश शायद ही निकले। मोहन भी तो आखिर कपिलेश बने, बूरांश नहीं। वर्षों बाद मैडम प्रेमा तिवारी से नैनीताल से हल्द्वानी उतरते हुए शटल कार में एक साथ सफर करना हुआ। तब वे एमबी कालेज में पढ़ाती थीं। मैंने दरअसल उन्हीं से पूछ लिया था कि क्या आप मैडम प्रेमा तिवारी को जानती है! तब बहुत बातें हुईं, पर नाम रहस्य पर चर्चा नहीं हुई।
हमने पहाड़ में गौरा देवी की अगुवाई में महिलाओं को चिपको का अलख जगाते देखा और फिर उत्तराखंड राज्य बनने का श्रेय भी तो पहाड़ी महिलाओं को है। मणिपुर की जुझारू महिलाओं को भी हमने देखा है। इरोम शर्मिला का पराक्रम भी देख रहे हैं। मेरा जनम तो खैर ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के वक्त हुआ, जिसके नेता मेरे पिता भी थे। पर तराई और पहाड़ में आंदोलन जनमते जरूर हैं, पर नदियों की तरह वे भी मैदानों में पलायन कर जाते है। चिपको के साथ यही हुआ। आज दुनियाभर में पर्यावरण आंदोलन है। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता है, उत्तराखंड में नहीं। वहां भूमाफिया पहाड़ को पलीता लगा रहे हैं। नैनीताल पर प्रोमोटरों बिल्डरों का राज है और इस राज का विस्तार पूरे पहाड़ में तेजी से हो रहा है। चिपको के कारण पहाड़ को रंग बिरंगे आइकन और पुरस्कार मिले। हमारे मित्र धीरेंद्र अस्थाना ने एक उपन्यास भी लिख दिया, पर जैसे कि बकौल बटरोही, थोकदार किसी की नहीं सुनता, शैलेश मटियानी की भाषा में पहाड़ों में कभी प्रेतमुक्ति नहीं होती। टिहरी बांध ही नहीं बना, अब उत्तराखंड ऊर्जा प्रदेश है। शायद परमाणु संयंत्र भी देर सवेर लग जाये। जैसे कि शिडकुल हुआ। पहले तराई के बड़े फार्मरों के राज के बावजूद छोटे किसानों और शरणार्थियों की जमीन दुर्दांत महाजनी व्यवस्था में भी सुरक्षित थी। पर टैक्स होलीडे और सेज कानून से लैस अरबपति उद्योगपतियों ने तराई के गांवों और जमीन हड़पना शुरू कर दिया है, तो कहीं चूं तक नहीं होती। शिडकुल के कारखानों में श्रम कानूनों के खुला उल्लंघन पर पहाड़ खामोश है। छंटनी और तालाबंदी तो आये दिन की बात है। तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है पहाड़ों का। शहरीकरण भी। गंगटोक और सिक्किम को देखें, तो दांतों तले उंगलियां दबा लें। नगा मिजो और मणिपुर में जनविद्रोह का माहौल नहीं बना रहता तो वहां क्या होता, कह नहीं सकता।
कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक पूरा पहाड़ बाकी देश से अलग है। मैदानों में पहाड़ी अलग धर लिये जाते हैं विदेशियों की तरह। उत्तराखंड और सिक्किम को छोड़ कर बाकी पहाड़ में घोषित-अघोषित विशेष सैन्य अधिकार कानून लागू है मध्यभारत के आदिवासी आंदोलनशील इलाकों की तरह। पर मध्य भारत से पहाड़ कहीं भी नहीं जुड़ता। क्या पहाड़ पहाड़ से जुड़ता है? कश्मीर में जो कुछ पिछले छह दशकों से हो रहा है, उसकी परवाह है बाकी पहाड़ों में? क्या पूर्वोत्तर पहाड़ों से कोई दर्द का रिश्ता है शेष पहाड़ों का? क्या हिमाचल को छूते हुए उत्तराखंड को उसके दर्द का एहसास होता है? क्या गोरखालैंड का आक्रोश बाकी पहाड़ को स्पर्श करता है? क्या कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के सेबों का कोई रिश्ता है?
राजमार्गों का जाल पहाड़ों की घेराबंदी कर चुका है। पर ये सड़कें पहाड़ को पहाड़ से या फिर बाकी देश से नहीं जोड़तीं। नदियों की तरह ऊर्द्धावर हैं सड़कें, समांतर कभी नहीं। अब भी अपना-अलग राज्य बन जाने के बावजूद कुमांऊ से गढ़वाल जाने के लिए मैदानों में उतर कर रामपुर हरिद्वार होकर फिर पहाड़ को छूना संभव है।
हम तो पहाड़ों में वसंत के दिनों में बुरूंश न खिलने की कल्पना तक नहीं कर सकते। अपने गिराबल्लभ हुलियारे मूड में अक्सर गाया करते थे बुरूंश: क कुमकुम मारो… एक वक्त तो उपनामों को दीवानगी के स्तर पर बदलने में तत्पर हमारे मित्र मोहन कपिलेश भोज ने अपना नाम बुरूंश रखना तय किया था। तब हम लोग शायद जीआईसी के छात्र थे और मालरोड पर सीआरएसटी से नीचे बंगाल होटल में डेरा डाले हुए थे। पहाड़ों में बुरूंश का खिलना कितना नैसर्गिक होता है, इसकी चर्चा शायद बेमायने हैं। हम तो जन्मजात जंगली हुए। सविता जब-तब बिगड़ कर ऐसा ही कहती है। पर यह हकीकत है कि जंगल और पहाड़ की खुशबू से ताजिंदगी निजात पाना मुश्किल होता है।
साठ के दशक में वसंत का वज्रनिर्घोष सिलीगुड़ी के जिस नक्सलबाड़ी में हुआ या फिर माओवाद का असर झारखंड, बिहार, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में सबसे ज्यादा है, गढ़चिरौली, चंद्रपुर, दंतेवाड़ा, मलकानगिरि, गोदावरी से लेकर रांची गिरिडीह तक सर्वत्र हमने खूब पलाश खिलते देखा है। जंगल की आग पहाड़ों और मैदानों में समान है, पर मौसम का मिजाज अलग अलग। अब इस पर अलग से सोचना चाहिए कि फूलों का खिलना न खिलना, क्या सिर्फ मौसम का मामला है या और कुछ!
Voter has right to negative voting: Supreme Court
In a significant verdict, the Supreme Court Friday said that for a vibrant democracy the voter has the right to negative voting by rejecting all the candidates in fray by exercising the option of None of the Above (NOTA) in EVMs and ballot papers.
The apex court bench of Chief Justice P.Sathasivam, Justice Ranjana Prakash Desai and Justice Ranjan Gogoi said that negative voting would gradually lead to systemic changes as political parties will have to respect the will of the people in selecting their candidates.
Pronouncing the judgment, Chief Justice Sathasivam said the mechanism of negative voting is necessary and vibrant part of democracy. The court directed the election commission to introduce a button providing for NOTA in the EVMs and also in the ballot papers.
It asked the central government to provide all assistance to the election commission in introducing NOTA option in the EVMs and ballot papers. The People's Union for Civil Liberties (PUCL) had moved the apex court in 2004 with a plea that voters should have a right to negative vote, saying that it does not want to vote any of the candidates listed in EVM.
It had sought directions to Election Commission (EC) to make provision in the EVMs providing option "None of the Above" and the right to say NOTA should be kept secret. The apex court bench of Justice BN Agrawal (since retired) and Justice GSSinghvi by their Feb 23, 2009 judgment while referring the matter to a larger bench had framed two questions for the court to examine "whether the right of voter to exercise his choice for the candidate is a necessary concomitant of the voter's freedom of expression guaranteed under Article 19(1)(a) of the Constitution".
The court on the second aspect had said, "We are further of the view that width and amplitude of the power of the (Election) Commission under Article 324 needs further consideration by a larger Bench in the light of the (earlier) judgments of this court whereby the elector's right to be informed about the assets and antecedents of the persons seeking election to the legislature has been duly recognised".
On Dalal Street, analysts see signs of a 'Modi bull market'
NDTV | Updated On: September 27, 2013 17:27 (IST)
On Dalal Street, analysts see signs of a 'Modi bull market'
NDTV | Updated On: September 27, 2013 17:27 (IST)
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There is a new coinage on Dalal Street - the Modi bull market. It refers to an anticipated bull run if Narendra Modi gets to form government in next year's general elections.
Ramesh Damani, a member of the Bombay Stock Exchange and a 30-year veteran of stock markets, believes that there is a "Modi rally" in the making as markets have held on to slender gains despite a dismal economic scenario. (Watch the full interview)
Equities have been extremely choppy since May, first going down sharply, and then recovering in a matter of days. However, year-to-date the BSE Sensex is up 2 per cent even as India is growing at the slowest pace in a decade and high inflation and interest rates have impacted new investment and capacity creation.
"How do you explain that in front of such bad economic data, in front of such policy paralysis, the market was within an earshot of a lifetime high...? I think sometimes the market discounts six-eight months in advance. There's a possibility that markets are sensing an electoral change," Mr Damani said.
The reason I am saying there is a "Modi bull market" is because the market believes that a strong policy hand is needed at the centre. "Modi is perceived to be an able administrator, someone who gets things done. So, the market is moving ahead," he added.
On this Street at least, the Gujarat Chief Minister, who was named the BJP's presumptive Prime Minister earlier this month, seems to enjoy much support.
Last month, Christopher Wood, an analyst with CLSA had said, "The Indian stock market's greatest hope is the emergence of Gujarat Chief Minister Narendra Modi as the BJP's prime ministerial candidate." (Read the full story)
A poll by Economic Times earlier this month found that nearly three-quarters of Indian business leaders want Narendra Modi to lead the country after elections next year. (Read)
Mr Damani says Mr Modi is clearly favoured by business houses and votary groups that matter in the stock market. But he does add that it's too early to visualise a Modi victory. "It's too premature to make any of these scenarios count... but market want something... liquidity is still good because of what (Fed chairman) Bernanke did and so markets are latching on this theme," he says.
He also adds a disclaimer saying predictions such as the one he is making often tend to go wrong. "It's difficult to say if market is right or wrong at this stage ...One year in politics is an eternity... its infinity," he said.
Mr Damani has based part of his analysis on the upcoming assembly elections in December, where he believes, the BJP is a favourite to win in three states.
"The 4th, Delhi, is neck and neck. If he (Narendra Modi) can pull off a win in Delhi too then perhaps markets will sense a broader electoral victory and then momentum begets momentum," he said.
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