रवींद्र का दलित विमर्श-छह
समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता, उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छाप है।
पलाश विश्वास
चंडाल आंदोलन के भूगोल में रवींद्र की जड़ें है जो पीर फकीर बाउल साधु संतों की जमीन है और उसके साथ ही बौद्धमय भारत की निरंतता के साथ लगातार जल जंगल जमीन के हकहकूक का मोर्चा भी है।श्रावंती नगर की चंडालिका की कथा का सामाजिक यथार्थ अविभाजित बंगाल का चंडाल वृत्तांत है,जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाल का नवजागरण और ब्रह्मसमाज है।
रवींद्र के व्यक्तित्व कृत्तित्व में वैदिकी प्रभाव की खूब चर्चा होती रही है।लोकसंस्कृति में उनकी जड़ों के बारे में भी शोध की निरंतरता है।लेकिन चंडालिका के अलावा कथा ओ कहानी की सभी लंबी कविताओं में जो बौद्ध आख्यान और वृत्तांत हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर महात्मा गौतम बुद्ध का जो प्रभाव है,उसके बारे में बांग्लादेश में थोड़ी बहुत चर्चा होती रही है,लेकिन भारत के विद्वतजनों ने रवींद्र जीवन दृष्टि पर उपनिषदों के प्रभाव पर जोर देते हुए बौद्ध साहित्य के स्रोतों से व्यापक पैमाने पर रवींद्र के रचनाकर्म पर कोई खास चर्चा नहीं की है।
चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ,मनुस्मृति के खिलाफ उनकी युद्धघोषणा को सिरे से नजरअंदाज किया गया है।
जड़ों से,लोक और लोकायत में रचे बसे रवींद्र साहित्य में प्रकृति,पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता के प्रति प्रेम उनके गीतों को रवींद्र संगीत बनाता है,जो बंगाल के आमलोगों का कंठस्वर उसीतरह है जैसे वह स्त्री अस्मिता का पितृसत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध और उनकी मुक्ति का माध्यम है तो बांग्ला राष्ट्रीयता का प्रतीक भी वही है।
जड़ों से जड़ने की इसी अनन्य जीजिविषा की वजह से रोमांस से सरोबार मामूली से लगने वाले उनके गीत के बोल आमार बांग्ला आमि तोमाय भालोबासि सैन्य राष्ट्र के नस्ली नरसंहार अभियान के विरुद्ध बांग्ला राष्ट्रीयता की संजीवनी में तब्दील हो गयी और जाति धर्म से ऊपर उठकर मुक्तिसंग्राम में इसी गीत को होंठों पर सजाकर लाखों लोगों ने अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया।भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास भूगोल बदल गया स्वतंत्र बांग्लादेश के अभ्युदय से जहां राष्ट्रीयता उनकी मातृभाषा है।
इसी तरह स्वतंत्र भारतवर्ष की समग्र परिकल्पना जहां रवींद्र की कविता भारत तीर्थ है,राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता का राष्ट्रगान जनगण मन अधिनायक है तो भारतीय दर्शन परंपरा,भारतीय इतिहास,भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अंतरतम अभिव्यक्ति गीतांजलि है।
हमने स्पष्ट कर दिया है कि मनुस्मृति विधान के तहत जाति व्यवस्था की विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार के खिलाफ खड़े गांधी,अंबेडकर और रवींद्र तीनों पर महात्मा गौतम बुद्ध और उनके धम्म का प्रभाव है।
हम मौजूदा रंगभेद की राजनीति, सत्ता और अर्थव्यवस्था की नरसंहार संस्कृति के लिए बार बार महात्मा गौतम बुद्ध के दिखाये रास्ते पर चलने और धम्म के अनुशीलन पर जोर देते रहे हैं।समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता,उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छा प है।
इसी सिलसिले में रवींद्र साहित्य के बौद्ध प्रसंग पर आज सुबह मैंने ढाका बांग्ला अकादमी के उपसंचालक कवि डा.तपन बागची का बांग्ला में लिखे मूल शोध निबंध को अपने हे मोर चित्त,prey for humanity video के साथ सोशल मीडिया पर सेयर किया है।हिंदी पाठकों के लिए इस आलेख में उस शोध निबंध के तथ्यों पर हम विस्तार से चर्चा करेंगे।बाकी उपलब्ध सामग्री पर भी बात करेंगे और अगर नेट पर कोई प्रासंगिक सामगग्री मिली तो उसे भी शेयर करेंगे।
हम ब्लाग और सोशल मीडिया पर रवींद्र के दलित विमर्श को आम पाठकों के लिए इसलिए शेयर कर रहे हैं कि यह कुलीन सवर्ण विद्वतजनों के लिए निषिद्ध विषय है,जिसपर हमारे लिए साहित्य के परिसर में या अकादमिक स्तर पर चर्चा करने का मौका नहीं है और यह प्रयास करके हम 2002 में भी हार गये हैं।हम चाहते हैं कि सिर्फ लाइक न करके ,आप स्वयं भी इस संवाद में अपनी सहमति और असहमति दर्ज करें और जितना हो सकें,शेयर करके इसे एक व्यापक बहस बना दें ताकि समर्थ लोग आगे इस पर कायदे से बात शुरु करें।
रवींद्रनाथ ने अचानक चंडालिका नहीं लिखी है।इससे पहले रुस की चिट्ठी,शूद्र धर्म,राष्ट्रवाद और मनुष्य का धर्म जैसे महत्वपूर्ण कृतियों में उन्होंने भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण वर्चस्व की वजह से नस्ली विषमता बताते हुए भारत को खंडित राष्ट्रीयताओं का समूह बताया है और इसे सामाजिक समस्या माना है।
औपनिवेशिक भारत की समस्या को वे वैसे ही राजनीतिक समस्या नहीं मानते थे,जैसे गुरुचांद ठाकुर,महात्मा ज्योतिबा फूले,अयंकाली,नारायणगुरु और पेरियार।
फूले और गुरुचांद ठाकुर अंग्रेजी हुकूमत के बदले ब्राह्मणों के हुकूमत के विरोध में गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में दलितों,पिछड़ों की हिस्सेदारी से मना किया था।बंगाल में चंडाल आंदोलन भी ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध न होकर सवर्म जमींदारों के खिलाफ था और राजनीतिक आजादी के बजाये वे जाति व्यवस्था के तहत अपनी अस्पृश्यता से मुक्ति और सबके लिए समान अवसर,समानता और न्याय की मांग कर रहे थे।बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर भी अस्पृश्यताविरोधी आंदोलन से राजनीति की शुरुआत की और उन्होंने जाति उन्मूलन का एजंडा सामने रखा।बहुजनों के नेता जिस सामाजिक बदलाव की बात करते हुए अंग्रेजों से ब्राह्मणतंत्र को सत्ता हस्तांतरण का विरोध कर रहे थे,रवींद्र साहित्य में भी उसी सामाजिक बदलाव की मांग प्रबल है।
बहुचर्चित चंडालिका रवींद्रनाथ ने 1933 में लिखी।चंडालिका को उन्होंने चंडाल आंदोलन के बिखराव से पहले सामाजिक बदलाव के लिए जाति व्यवस्था पर आधारित रंगभेदी नस्ली विषमता के खिलाफ पेश किया,इस पर खास गौर किये जाने की जरुरत है।
1937 में चंडाल आंदोलन के महानायक गुरुचांद ठाकुर, जिनके आंदोलन की वजह से 1911 की जनगणना में बंगाल के अस्पृश्य चंडालों को नमोशूद्र बतौर दर्ज किया गया और बंगाल में अस्पृश्यता निषेध लागू हो गया,का निधन हो गया,उसी वर्ष रवींद्रनाथ ने चंडालिका को नृत्यनाटिका के रुप में पेश करके बाकायदा अपनी तरफ से अस्पृश्यता के विरोध में एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत कर दी।
क्योंकि बंगाल में बाकी देश की तरह मंदिर प्रवेश आंदोलन या पेयजल के अधिकार के लिए आंदोलन नहीं हुए,चंडालिका का यह सांस्कृतिक रंगकर्म चंडाल आंदोलन के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण है,खासकर जबकि तमाम बहुजन नेता ब्राह्मणधर्म के विकल्प के रुप में गौतम बुद्ध के धम्म का प्रचार कर रहे थे और रवींद्रनाथ की चंडालिका कथा बंगाल के सामाजिक यथार्त की अभिव्यक्ति के लिए सीधे बौद्ध साहित्य से ली गयी।
चंडालिका की रचना से बहुत पहले जिस गीतांजलि पर नोबेल पुरस्कार मिलने की वजह से रवींद्र को कविगुरु,गुरुदेव और विश्वकवि जैसी वैश्विक उपाधियां मिलीं,उसी गीताजलि में उन्होंने लिखाः
शतेक शताब्दी धरे नामे सिरे असम्मानभार
मानुषेर नारायणे तबु करो ना नमस्कार।
तबु नतो करि आंखि देखिबारे पाओ नाकि
नेमेछे धुलार तले दीन पतितेर भगवान
अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान।
मेरे पिता शरणार्थी नेता जो पूर्वी बंगाल से उखाड़े गये और भारतभर में छितरा दिये गये अछूत विभाजनपीड़ित शरणार्थियों के पुनर्वास,मातृभाषा,आरक्षण, नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के लिए तजिंदगी लड़ते रहे,वे इस कविता को बंगाल के और बाकी भारत के अछूतों के आत्मसम्मान आंदोलन का मूल मंत्र मानते थे।वे मानते थे कि सामाजिक विषमता की वजह सेही विस्थापन होता है।
नस्ली रंगभेद की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी हिंसा की वजह से आज आधी मनुष्यता शरणार्थी हैं तो आजादी के बाद इसी नस्ली भेदभाव के कारण पूरा का पूरा आदिवासी भूगोल विस्थापन का शिकार है।
विस्थापन का शिकार है हिमालय और हिमालयी लोग भी इसी नस्ली विषमता की वजह से दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं।
उन्नीसवीं सदी से शुरु चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग अछूतों को सवर्णों की तरह हिंदू समाज में बराबरी और सम्मान देने की मांग थी जिस वजह से पूर्वी बंगाल के चंडाल भूगोल में महीनों तक अभूतपूर्व आम हड़ताल रही।केरल में भी अयंकाली ने किसानों और मछुआरों की मोर्चांबदी से इसीतरह की हड़ताल की तो तमिलनाडु की द्रविड़ अनार्य अस्मिता का आत्मसम्मान आंदोलन भी इसी नस्ली भेदभाव के खिलाफ था और इसी जातिव्यवस्था और मनुस्मृति विधान के तहत बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने नागपुर में हमारे जन्म से पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली।
लेकिन असमानता और अन्याय की व्यवस्था कारपोरेट हिंदुत्व से देश के विभाजन और सत्ता हस्तांतरण के सत्तर साल बाद राष्ट्रवाद की अंध आत्मघाती सुनामी में तब्दील है और इस व्यवस्था के शिकार तमाम जन समुदाय जल जंगल जमीन नागरिकता नागरिक और मानव अधिकारों से लगातार बेदखली के बाद उसी नरसंहार संस्कृति की पैदल सेना है।
रवींद्रनाथ जिस परिवार में जनमे,वह मूर्तिपूजा के खिलाफ ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था।वे जाति से पीराली ब्राह्मण थे जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और सामाजिक बहिस्कार की वजह से उनका परिवार पूर्वी बंगाल छोड़क कोलकाता चला आया।उनेक दादा प्रिंस द्वारका नाथ टैगोर को फोर्ट विलियम का ठेका मिला और वे बंगाल में ब्रिटिश राज के दौरान उद्यमियों में अगुवा बन गये,जिनका लंदन के स्टाक एक्सचेंज में भी कारोबार था तो पूर्वीबंगाल में उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी।इसके बावजूद उनका परिवार कुलीन हिंदू समाज के लिए अछूत था।रवींद्र के पिता महर्षि द्वारका नाथ टैगोर ब्रह्म समाज आंदोलन के स्तंभ थे।ठैगोर परिवार और ब्रह्मसमाज आंदोलन के नेताओं पर बौद्धधर्म का गहरा असर था और उन सभी ने इस पर काफी कुछ लिखा।इस पारिवारिक पृष्ठभूमि पर हम अलग से चर्चा करेंगे।
रवींद्रनाथ की रचनाओं में चंडालिका के अलावा नेपाली बौद्ध साहित्य से लिये गये आख्यान पर आधारित भिक्षा, उपगुप्त, पुजारिनी, मालिनी, परिशोध, चंडाली, नगरलक्ष्मी,मस्तकविक्रय जैसी रचनाएं लिखी गयी हैं।उनका कविता संकलन कथा ओ काहिनी की सारी रचनाएं इसी नेपाली बौद्ध साहित्य के आख्यान पर आधारित हैं।कथा ओ काहिनी की 33 कविताएं इसी तरह लिखी गयी,जिनमें लंबी कविताएं दो बिघा जमीन,विसर्जन,देवतार ग्रास और पुरातन भृत्य जैसी रचनाएं शामिल हैं।पुनश्च की कविताओं का स्रोतभी बौद्ध साहित्य है।जिनमें शाप मोचन बेहद लोकप्रिय और चर्चित है।
नीरज कुमार के आलेख में रवींद्र साहित्य में गौतम बुद्ध और उनके धम्म के प्रभाव की सिलसिलेवार चर्चा की गयी है।इसके कुछ चुनिंदा अश पेश हैंः
Was Tagore Buddhist? Tagore was Buddhist!
Rabindranath Tagore was born on 7th May,1861. His own grooming coincided with revival of Buddhism in India. Tagore's father Devendranath Tagore had mystical propensity. Tagore senior joined Brahmo Samaj in 1846. Brahmo Samaji did not believe in idol worship, just like Buddha.The Brahmo Samaj founder Keshab Chandra Sen(1838-1884), accompanied Tagore's father Debendraath Tagore and Satyendranath Tagore, Rabindra's elder brother to Ceylon in 1859. Thus, the family had direct Buddhist encounter dating back to 1859. Two elder brother, of Rabindra ;Dwijendranath Tagore and Satyendranath Tagore wrote historical work on Buddha in 1899 & 1901 respectively. As a child, Rabindra was most influenced by the works of Rajender Lal Mitra(1822-1891), who was a member of the Asiatic Society of Bengal. Mitra's work,The Sanskrit Buddhist literature of Nepal(1883) had tremendous influence over Tagore's imagination about Buddha. Tagore used anecdotes and legends about Buddha in his writings and speeches from here. In his memoirs (Jibansmriti), Tagore writes :
" So far I have met many stalwarts among our writers. But the image of no one else rules mind as brightly as the memory of Rajendralal Mitra."
……..
Tagore too embarked on journey to BodhGaya for the first time in 1904 accompanied by Sister Nivedita and J.C.Bose. The inspiration might have come from Pkakura who had given reference to the crumpbling walls of Bharhut and Bodhgaya on which once India's proud history rested, in his work. Buddhism and the idea of "Light of Asia' virtually became the foundation for his future action. Tagore started translating Dhammapada into Bengali very next year.
To The Buddha
Tagore
The world today is wild with the
delirium of hatred,
the conflicts are cruel and unceasing in
anguish,
Crooked are its path, tangled its bond
of greed.
All creatures are crying for a new birth
of Thine,
Oh Thou of boundless life,
Save the, raise thine eternal voice of
Hope,
Let love's lotus with its inexhaustible
treasure of honey
Open its petal in Thy light.
O Serene, O Free
in Thine immeasurable mercy and goodness
wipe away all dark stains from the heart
of this earth.
Man's heart is anguished with the fever
Of unrest,
With the poison of self-seeking,
With athirst that knows no end.
Countries far and wide flaunt on their
Foreheads
The blood-red mark of hatred.
Touch them with thy right hand,
Make them one in spirit,
Bring harmony into their life,
Bring rhythm of beauty.
O Serene, O Free
In Thine immeasurable mercy and goodness
Wipe away all dark stains from
The heart of this earth!
(Natir Puja,1932,Bengali original- Hingshay Unmatta Prithvi, 1927)
Boro-Budur
23 September, 1927
THE SUN shone on a far-away morning, while the forest murmured its hymn of praise to light; and the hills, veiled in vapor, dimly glimmered like earth's dream in purple.
The King sat alone in the coconut grove, his eyes drowned in a vision, his heart exultant with the rapturous hope of spreading the chant of adoration along the unending path of time:
'Let Buddha be my refuge.'
His words found utterance in a deathless speech of delight, in an ecstasy of forms.
The island took it upon her heart; her hill raised it to the sky.
Age after age, the morning sun daily illumined its great meaning.
While the harvest was sown and reaped in the near-by fields by the stream, and life, with its chequered light, made pictured shadows on its epochs of changing screen, the prayer, once Uttered in the quiet green of an ancient morning, ever rose in the midst of the hide-and-seek of tumultuous time:
'Let Buddha be my refuge.'
The King, at the end of his days, is merged in the shadow of a nameless night among the unremembered, leaving his salutation in an imperishable rhythm of stone which ever cries:
'Let Buddha be my refuge.'
Generations of pilgrims came on the quest of an immortal voice for their worship; and this sculptured hymn, in a grand symphony of gestures, took up their lowly names and uttered for them:
'Let Buddha be my refuge.'
The spirit of those words has been muffled in mist in this mocking age of unbelief, and the curious crowds gather here to gloat in the gluttony of an irreverent sight.
Man to-day has no peace,his heart arid with pride. He clamours for an ever-increasing speed in a fury of chase for objects that ceaselessly run, but never reach a meaning.
And now is the time when he must come groping at last to the sacred silence, which stands still in the midst of surging centuries of noise, till he feels assured that in an immeasurable love dwells the final meaning of Freedom, whose prayer is:
'Let Buddha be my refuge.'
23 September, 1927
Buddher sharan loilam( neelam karata hoon Buddha ke sharan mein)
(Rabindra-Rachanabali, vol.15, p. 277)
"Tagore :I also have one "guru". All of you know him. He is Buddhadev ."
( To a student at Karachi in March,1923, quoted by Sudhangshu Bimal Barua, Rabindranath O Baudhasanskriti p.155)
"In this full moon night, on the occasion of the celebration of his birth anniversary, I have come to bow at his feet whom I hold in my heart as the greatest of men."
Tagore address, Calcutta,1935, at Dharamrajik Chaitya Bihar,Calcutta
" Now you-the great Buddhist poet-come from the original country of the Buddha to our sister-country with all your milk of thought; surely as a result we realize your flowerily giving all world round where your elephant-like steps reach; ….. You- as a star of great love, perfect gladness, unlimited goodness & continuous newness as well as a representative of the Buddhist civilization-may kindly accept our request as we think."
Young Men's Buddhist Association invitation to Tagore at Peking for a meeting on 27 April, 1924.
(Asian ideas of East and West, Stephen Hay, Harvard university Press, 1970, p.15,)
He was born in a Brahmo family and was trained to worship Nirakar Brahma (formless or invisible Brahma) of the Upanishad. But, it was only before the image of Lord Buddha in Bodhgaya that he felt prostrated .
K.Kripalani, Rabindranath Tagore: A Biography, Vishwa Bharati, Calcutta, 1962.
" it has been my desire for many years to have the opportunity to visit Siam for two main reasons. The first is that Siam is country in the East, and the second is that his majesty the King of Siam is a devout Buddhist like myself. The hospitality and welcome extended to me have been above my higher expectations."
(trs, from Siamese)
The last speech made by Tagore before leaving Thailand on October, 18,1927
Bangkok Daily Mail, October 19, 1927 in Shakti dasgupta, Tagore's Asian Outlook,1961, pp.126-127)
I
Rabindranath Tagore was born on 7th May,1861. His own grooming coincided with revival of Buddhism in India. Tagore's father Devendranath Tagore had mystical propensity. Tagore senior joined Brahmo Samaj in 1846. Brahmo Samaji did not believe in idol worship, just like Buddha.The Brahmo Samaj founder Keshab Chandra Sen(1838-1884), accompanied Tagore's father Debendraath Tagore and Satyendranath Tagore, Rabindra's elder brother to Ceylon in 1859. Thus, the family had direct Buddhist encounter dating back to 1859. Two elder brother, of Rabindra ;Dwijendranath Tagore and Satyendranath Tagore wrote historical work on Buddha in 1899 & 1901 respectively. As a child, Rabindra was most influenced by the works of Rajender Lal Mitra(1822-1891), who was a member of the Asiatic Society of Bengal. Mitra's work,The Sanskrit Buddhist literature of Nepal(1883) had tremendous influence over Tagore's imagination about Buddha. Tagore used anecdotes and legends about Buddha in his writings and speeches from here. In his memoirs (Jibansmriti), Tagore writes :
" So far I have met many stalwarts among our writers. But the image of no one else rules mind as brightly as the memory of Rajendralal Mitra."
Thus, we see that Tagore was already in a Buddhist ambit even at home.
There were three historic events during British rule which contributed significantly to the revival of Buddhism in Indiacreating a milieu in the capital of British India i.e. Calcutta in which Tagore found himself very much at home. The three events pertain to the spread of the British empire to other regions of South Asia, Nepal, Burma and Ceylon. While Ceylonwas conquered in 1815, Nepal lost Sikkim, Darjeeling and many regions after treaty of Sugauli in 1816 and Burma was annexed finally in 1885 after first annexation in 1824. All these regions were Buddhist and the young British civil servants as well as orientalists discovered ancient manuscripts that finally reached Calcutta's literati circle.
Brian Houghton Hodgson , a civil, servant in Bengal from 1820s onwards, collected Mahayana prajnaparamita texts inNepal. He donated manuscripts to Asiatic Society libraries inFrance, India, Britain. This became the basis for further study on Buddhism. French orientalist, Eugene Burnouf used some of Hodgson texts & published first introductory history of Indian Buddhism , Al'histoire Du Buddhisme Indien V1 (1844). The opening up of Buddhist treasure took explorers to the hert of Himalayas viz. Tibet.
Hungarian traveler Csomo de Koros visted Tibet during 1830s & collected manuscripts. He published grammar and dictionary of Tibetan in 1834.His summary of Kanjur & Tanjur appeared in 1836 in Asiatique researches. Edwin Arnold, the Principal of Deccan College, Poona wrote biographical work on Buddha in verse under the title "Light of Asia" in 1879. This book ran many editions and was even translated in Hindi. Buddha now stirred Bengali imagination.
Arnold's work led to proliferation of work by Bengali literary circle on Buddha as the Light of Asia. Girishchandra Ghosh, noted dramatist wrote a play "Buddhadev Charit" based on Arnold's "Light of Asia". It was staged in 1885 and later published in 1887. Nabinchandra Sen (1847-1909) wrote biography in verse, Amitav(1895) imitating Arnold.
The publication of Edwin Arnold's (1837-1904) book attracted the western intellectuals towards Buddhism. German philosophers like Schopenhauer and Nietzsche vouchsafed for the virtue of Buddhism as the world religion. The Theosophists thronged to Buddhaland in quest of the Maiteya(Buddha's next incarnation)..
Ceylon was rediscovered as a Buddhist land. Theosophist founder H.P. Blavatsky and Colonel Olcott Colonel Olcott and Madam H.P.Blavatsky arrived in Ceylon in May,1880 and soon publicly converted to Buddhism visited Ceylon. This event is considered as the "Commencement of modern Buddhist revival on the Island of Srilanka'. Theosophists declared in 1889 that Maitreya as a World Teacher would soon arrive and they started preparing for the twentieth century. Since the Headquarter of Theosophists was centered in Adyar, in India; this must have caused excitement among the literati circle in India's capital,Calcutta. We can see in this pattern how Bengali bhadraloka supported Swami Vivekananda's vision in the very next decade.
From 1891, the Colombo-born Buddhist reformer and Olcot's translator cum-colleague Anagarika Dharmapala(1864-1933) settled in Calcutta for establishing global Buddhist mission . He began to work tirelessly for the preservation of Bodh Gaya and established a network of Buddhists in Burma, Ceylon andSiam. He founded Mahabodhi Society in Calcutta in 1891.It was the same time when Mathew Arnold also stated international campaign for preservation of Buddhist heritage at Bodh Gaya. At that very turn of decade, another incidence catapulted bodh gaya into Asian imagination.
The full annexation of Burma was completed by the British in 1885. The fall of Mandalay and the last Burmese dynasty had caused a lot of concern in Bengal as well as Buddhist territories of British India like Ceylone. Burmese King Kyanzittha was married to a Bengali Mahyanist, Abeyadana. Missions were sent to the Buddhist centers of Bihar and Bengal. The Buddhist circuit of bodh-Gaya-Rajgir- Varanasi became important for Buddhists from Burma. The monks, who came on pilgrimage also drew their inspiration from Indian national movement and launched the Dobama Thakin Movement .
Burma reignited memory of Buddhist past in Bengal. Burmaand Bengal's fortune got inextricably weaved. Calcutta became a centre of revival of Buddhist spirit with the closer association of Buddhists from Ceylon, Burma and Bengal's literati who found in Buddha the Light of Asia to assert against the British imperialism. Anagarika Dharmapal's Mahabodhi Society established a Calcutta-Bodhgaya-Kandy-Rangoon axis . Earlier an attempt to forge a Buddhist revival by Burmese monk, Saramitra Mahasthabir (1801- 1882), met with little success. But, he successfully established Bengali Buddhist Association.
In 1892, Buddhist Text Society was established by Sarat Chandra Das and
Maha Bodhi Journal was launched by Anagarika Dharmapal.
Rejuvenation of Buddhism in Calcutta (Bengal) became a subject of the growing intelligentsia. The most important site for this churning was the Tagore family's residence in Calcuttasuburb of Jorasanko . Tagore family entertained guests fromEurope fascinated by the "East" after growing discourse of glorious Eastern civilization gained audience in West. Likes of Sister Nivedita and Josephine McLeod were part of the visitors. Other Asian intellectual leaders like Angarika Dharampal who too attended Chicago World Religion Conference along with Swami Vivekananda in 1893, might have been one of them. But, most important influence to come over Tagore was from Kakuzo Okakura, a visitor from Japan.
Surendranath Tagore, who made Okakura's acquaintance at aCalcutta reception organized in Okakura honor by Sister Nivedita brought Okakura to Jorasanko where he worked on his book on "The Awakening of Asia"(published later in 1905). Okakura and another Buddhist monk Oda arrived in Bengal in 1901 from Japan. They had visited the Belur Math to request Swami Vivekananda to attend a Congress of Religions that was being contemplated in Japan at that time. Okakura accompanied Swami Vivekananda to a visit to Bodh-Gaya, where Buddha had attained enlightenment in January- February,1902. Since likes of Dharampal and Mathew Arnold had made revival of Bodh Gaya temple into a grand objective, it became customary for any votary of Eastern civilization, either from east or the west to visit BodhGaya-Varanasi-Rajgir.
Soon swami Vivekananda left this world on July 4, 1902. Okakura found solace in Tagore's family now. Okakura produced his first major book, The Ideals of the East(1903). Okakura talked about India as the land of Buddha and how"Buddhism—that great ocean of idealism, in which merge all the river systems of Eastern Asiatic thought—is not coloured only with the pure water of the Ganges, for the Tartaric nations that joined it made their genius also tributary, bringing new symbolism, new organisation, new powers of devotion, to add to the treasures of the Faith."(p.4, The Ideals of theEast,1903)
Tagore became his "intimate friend" following their first meeting in 1902. "The Ideals of the East" became as popular and disseminated in India as earlier the "Light of Asia". Buddhist societies in Colombo and Calcutta seized on Okakura's idea that India was the original well-spring of an Asian civilization that had spread out through " the land of Buddha viz. India".
Tagore too embarked on journey to BodhGaya for the first time in 1904 accompanied by Sister Nivedita and J.C.Bose. The inspiration might have come from Pkakura who had given reference to the crumpbling walls of Bharhut and Bodhgaya on which once India's proud history rested, in his work. Buddhism and the idea of "Light of Asia' virtually became the foundation for his future action. Tagore started translating Dhammapada into Bengali very next year.
It was at this time that another visitor from Ceylon became a regular at Tagore's house in Jorasanko. Anananda Kentish Coomaraswamy wrote classics on Asian aesthetics and enunciated the "Asiatic philosophy of Art" that underlay its essential "diversity in unity". Even he gave the boost to the idea that India was the wellspring of all Asian civilization. He was trying to bring Hinduism and Buddhism closer and Sister Nivedita coauthored with him works just as she worked with Okakura in completing the "The Ideals of the East". His "Myths of the Hindus and Buddhists" (with Sister Nivedita) was published in 1914 and "Buddha and the Gospel of Buddhism" was printed from London in 1916.
Combined influence of Okakura and Coomaraswami over Tagore made him to envision a resurgent spiritual Asia . By 1909, the news of the grooming of new Maitreya (J.Krishnamurthy found by Theosophist, Leadbeater) must have been an exciting time for re reading of Buddha's meassage. Buddha became his ideal man with the message of love and compassion.
In 1910, the Dharampala's Maha Bodhi Journal published that Count Otani had arrived in Calcutta from Japan to persuade Angarika Dharmapala for taking up Buddhist propagation inJapan . In February 1913, Tagore visited Okakura in Bostonand during their meeting Okakura raised the theme of an Asian civilization and spirituality awaiting "another opportunity to have the fullness of illumination". Okakura requested Tagore to accompany him to China. Okakura died a few months after this meeting in September, 1913. Tagore received Nobel Prize for literature in November, 1913 and he perceived that he could become the new light of Asia by treading the path of Buddhism. Tagore's merger with Buddhism became more intense when he took sojourn to the holy sites of Buddhism in South east Asia.
After the Nobel Prize , Tagore again visited Bodh Gaya. The first world War started in 1914.Tgore had premonition that the year would bring global tragedy. He was certain of his own mystical leanings. Maitreya stories would have come back circling in his mindscape. Tagore might have thought it to be the apt time to spread the message of spiritual civilization. Since Count Otani was learnt to be inviting Buddhist monks and scholars to Japan, which after having emerged as a great power wanted to showcase its own soft power of Buddhism. We have noted how a decade back Oda and Okakura came toCalcutta to invite spiritual luminaries for a world Congregation of Religious leaders. Tagore thus undertook the first eastern odyssey in 1916, to Japan. Coomaraswamy had propounded in his work on Asian aesthetics that , "India under Buddhist rule had spread civilization to both China and Japan". It was important for Tagore to exhort India's Buddhist past and his own inclination to attract wider audience in Buddhist Asia for his idea of Asia's spiritual resurgence.
Buddhism appeared to him as the ideal alternative religion which could save India as well as Asia from caste and racial discrimination. Buddhism could also bring India closer to her Asian neighbors, including China and Japan. He had this firm belief that only a Buddhist India can spread the fragrance across Asia. He wrote :
" Buddhism is not the religion of material attachment. This must be acknowledged by all. Yet the kind of flourishing that took place in the arts, science and commerce or the imperialist expansion that happened under the impact of the Buddhist civilization in our country was never witnessed before or after."
(In Yatrar Purabatra(Letter on eve of voyage) compiled in Pather Sanchay Wayside collection quoted in Rama Kundu)
In Dhammapadam, compiled in Prachin Sahitya, Tagore writes
" European scholars have engaged in the act of excavating this resource.. and we are just waiting to follow in their footsteps. This is sufficient cause for great shame for our country. Could not there be at least even 5 people in the entire country who could take up this work of restoring the Buddhist writings as their lifelong commitments? Owing to our lack of knowledge about this area, the entire history of India remain impaired."
(quoted in Rama Kundu)
রবীন্দ্রনাথের সাহিত্যে বৌদ্ধ প্রসঙ্গ
লেখক: ড. তপন বাগচী
উনিশ শতক বাঙালির নবজাগরণের সূচনায় সাহিত্য-সংস্কৃতির উপলব্ধির সঙ্গে ধর্মচিন্তাজাত দার্শনিক উপলব্ধির সংযোগ ঘটে। বৌদ্ধসাহিত্যের অনুবাদ ও সমালোচনা এই উপলব্ধিকে জাগ্রত রাখে। দ্বিজেন্দ্রনাথ ঠাকুর, সত্যেন্দ্রনাথ ঠাকুর, হরপ্রসাদ শাস্ত্রী, রামদাস সেন, রাজকৃষ্ণ মুখোপাধ্যায়, কেশবচন্দ্র সেন, অঘোরনাথ গুপ্ত, নবীনচন্দ্র সেন, শরচ্চন্দ্র দেব, সতীশচন্দ্র বিদ্যাভূষণ প্রমুখ মনীষীতুল্য ব্যক্তি বুদ্ধদেবের জীবন ও দর্শন নিয়ে গ্রন্থ রচনা করেছেন। রবীন্দ্রমানস গঠনে এদের চিন্তাাধারা প্রভাব ফেলেছিল। বুদ্ধ সম্পর্কে পাশ্চাত্য দৃষ্টিভঙ্গিও তাঁর অজানা ছিল না। হীনযান-মহাযান সম্পর্কেও তাঁর ধারণা স্পষ্ট ছিল। বুদ্ধদেবকে নিয়ে তাঁর নানামাত্রিক ভাবনা নিয়ে গ্রন্থও রয়েছে। রবীন্দ্রনাথের পারিবারিক আবহেও ছিল বৌদ্ধ দর্শনের চর্চা। তাঁর ভাই দ্বিজেন্দ্রনাথ ঠাকুর রচিত 'আর্যধর্ম এবং বৌদ্ধধর্মের পরস্পর ঘাতপ্রতিঘাত ও সঙ্ঘাত' (১৮৯৯) এবং সত্যেন্দ্রনাথ ঠাকুর রচিত 'বৌদ্ধধর্ম' (১৯০১) গ্রন্থদুটিই তার প্রমাণ বহন করে। এছাড়া রাজেন্দ্রলাল মিত্রের 'দি সংস্কৃত বুদ্ধিস্ট লিটারেচার অফ নেপাল' গ্রন্থটি তাঁকে অনেক বৌদ্ধআখ্যানের সন্ধান দেয়। এই গ্রন্থ থেকে কবি যে সকল আখ্যান তাঁর সৃষ্টিসম্ভারে ব্যবহার করেছেন, তা হলো, শ্রেষ্ঠ 'ভিক্ষা, পূজারিণী, উপগুপ্ত, মালিনী, পরিশোধ, চন্ডালী, মূল্যপ্রাপ্তি, নগরলক্ষ্মী ও মস্তকবিক্রয়। 'কথা ও কাহিনী' কবিতাগ্রন্থের সকল আখ্যানই তিনি গ্রহণ করেছেন বৌদ্ধ কাহিনী থেকে। এই গ্রন্থের আখ্যা-অংশে 'বিজ্ঞাপন' শিরোনামে রবীন্দ্রনাথের বক্তব্য থেকে মেলে-
'এই গ্রন্থে যে-সকল বৌদ্ধ-কথা বর্ণিত হইয়াছে তাহা রাজেন্দ্রনাথ মিত্র-সংকলিত নেপালী বৌদ্ধসাহিত্য সম্বন্ধীয় ইংরাজি গ্রন্থ হইতে গৃহিত। রাজপুত-কাহিনীগুলি টডের রাজস্থান ও শিখ-বিবরণগুলি দুই-একটি ইংরাজি শিখ-ইতিহাস হইতে উদ্ধার করা হইয়াছে। ভক্তমাল হইতে বৈষ্ণব গল্পগুলি প্রাপ্ত হইয়াছি। মূলের সহিত এই কবিতা গুলির কিছু কিছু প্রভেদ লক্ষিত হইবে-আশা করি, সেই পরিবর্তনের জন্য সাহিত্য-বিধান-মতে দন্ডনীয় গণ্য হইব না।'
'কথা ও কাহিনী' গ্রন্থের প্রেক্ষাপট সম্পর্কে কবি অন্যত্র বলেছেন,
'এক সময়ে আমি যখন বৌদ্ধ কাহিনী এবং ঐতিহাসিক কাহিনীগুলি জানলুম তখন তারা স্পষ্ট ছবি গ্রহণ করে আমার মধ্যে সৃষ্টির প্রেরণা নিয়ে এসেছিল। অকস্মাৎ 'কথা ও কাহিনী'র গল্পধারা উৎসের মতো নানা শাখায় উচ্ছ্বসিত হয়ে উঠল। সেই সময়কার শিক্ষায় এই-সকল ইতিবৃত্ত জানবার অবকাশ ছিল, সুতরাং বলতে পারা যায় 'কথা ও কাহিনী' সেই কালেরই বিশেষ রচনা।' [সাহিত্যে ঐতিহাসিকতা, সাহিত্যের স্বরূপ]
'কথা' কাব্যে যে কয়েকটি কবিতা আছে তা হলো: কথা কও, কথা কও, শ্রেষ্ঠভিক্ষা, প্রতিনিধি, ব্রাহ্মণ, মস্তকবিক্রয়, পূজারিণী, অভিসার, পরিশোধ, সামান্য ক্ষতি, মূল্যপ্রাপ্তি, নগরলক্ষ্মী, অপমান-বর, স্বামীলাভ, স্পর্শমণি, বন্দী বীর, মানী, প্রার্থনাতীত দান, রাজবিচার, গুরু গোবিন্দ, শেষ শিক্ষা, নকল গড়, হোরিখেলা, বিবাহ, বিচারক, পণরক্ষা
আর 'কাহিনী' কাব্যে রয়েছে ৮টি কবিতা। তা হলো: কত কী যে আসে, গানভঙ্গ, পুরাতন ভৃত্য, দুই বিঘা জমি, দেবতার গ্রাস, নিষ্ফল উপহার, দীনদান, বিসর্জন। অর্থাৎ 'কথা' ও 'কাহিনী'র এই ৩৩টি কবিতাই বৌদ্ধকাহিনীজাত। এর বাইরেও অজস্র কবিতা রয়েছে যাতে বৌদ্ধসংস্কৃতির উপকরণ রয়েছে। তবে 'পুনশ্চ' কাব্যের 'শাপমোচন', 'পরিশেষ' কাব্যের 'বুদ্ধজন্মোৎসব', 'বোরোবুদুর', 'সিয়াম, 'বুদ্ধদেবের প্রতি, 'প্রার্থনা, 'বৈশাখী পূর্ণিমা; 'পত্রপুট' কাব্যের ১৭-সংখ্যক কবিতা, 'নবজাতক' কাব্যের 'বুদ্ধভক্তি' এবং 'জন্মদিনে' কাব্যের ৩ ও ৬ সংখ্যক কবিতায় তীব্রভাবে রয়েছে ভগবান বুদ্ধের উপস্থিতি।
'কথা ও কাহিনী' কাব্যের প্রায় পুরোটাই বুদ্ধ প্রসঙ্গ। 'শ্রেষ্ঠভিক্ষা, 'মস্তক বিক্রয়, 'পূজারিণী', 'অভিসার', 'পরিশোধ', 'সামান্য ক্ষতি', 'মূল্যপ্রাপ্তি', 'নগরলক্ষ্মী', 'শাপমোচন' প্রভৃতি কবিতায় বৌদ্ধআখ্যানের প্রত্যক্ষ গ্রহণ রয়েছে। এছাড়া 'পুনশ্চ' কাব্যের 'শাপমোচন' কবিতায় আছে বৌদ্ধধর্মীয় আখ্যান-
গান্ধর্ব সৌরসেন সুরলোকের সংগীতসভায়
কলানায়কদের অগ্রণী।
সেদিন তার প্রেয়সী মধুশ্রী গেছে সুমেরুশিখরে
সূর্যপ্রদক্ষিণে।
সৌরসেনের মন ছিল উদাসী।
'পরিশেষ' কাব্যের 'বুদ্ধজন্মোৎসব (১) এ আমরা রবীন্দ্রনাথের বুদ্ধপ্রশস্তি উপলব্ধি করতে পারি-
হিংসায় উন্মত্ত পৃথ্বী,
নিত্য নিঠুর দ্বন্দ্ব
ঘোর কুটিল পন্থ তার,
লোভজটিল বন্ধ।
নূতন তব জন্ম লাগি কাতর যত প্রাণী,
কর ত্রাণ মহাপ্রাণ, আন অমৃতবাণী,
বিকশিত কর প্রেমপদ্ম
চিরমধুনিষ্যন্দ।
'বোরোবুদুর' দেখার প্রতিক্রিয়ায় রবীন্দ্রনাথ একটি অসাধারণ কবিতা লিখেছেন। তাতে তিনি বোরাবুদুরের বর্ণনার পাশাপাশি বুদ্ধের আদর্শের কথা প্রকাশ করেছেন একান্ত অনুসারীর মতো। সবশেষে তিনি লিখেছেন-
তাই আসিয়াছে দিন,
পীড়িত মানুষ মুক্তিহীন,
আবার তাহারে
আসিতে হবে যে তীর্থদ্বারে
শুনিবারে
পাষাণের মৌনতটে যে বাণী রয়েছে চিরস্থির-
কোলাহল ভেদ করি শত শতাব্দীর
আকাশে উঠিছে অবিরাম
অমেয় প্রেমের মন্ত্র,-চ্বুদ্ধের শরণ লইলাম।
সারনাথে মূলগন্ধকুটিবিহার প্রতিষ্ঠা-উপলক্ষে 'বুদ্ধদেবের প্রতি' নামের এক কবিতায় তিনি বুদ্ধদেবের নামের মহিমা প্রচার করেছেন। বুদ্ধের নামে এই দেশ ধন্য হয়েছে, সেই গৌরবও প্রকাশ পেয়েছে অই কবিতায়। রবীন্দ্রনাথের কাছে বুদ্ধের জন্ম মানে মহাজাগরণ। তাই তিনি লিখেছেন-
ওই নামে একদিন ধন্য হল দেশে দেশান্তরে
তব জন্মভূমি।
সেই নাম আরবার এ দেশের নগর প্রান্তরে
দান করো তুমি।
বোধিদ্রুমতলে তব সেদিনের মহাজাগরণ
আবার সার্থক হোক, মুক্ত হোক মোহ-আবরণ,
বিস্মৃতির রাত্রিশেষে এ ভারতে তোমারে স্মরণ
নবপ্রাতে উঠুক কুসুমি।
চিত্ত হেথা মৃতপ্রায়, অমিতাভ, তুমি অমিতায়ু,
আয়ু করো দান।
তোমার বোধনমন্ত্রে হেথাকার তন্দ্রালস বায়ু
হোক প্রাণবান।
খুলে যাক রুদ্ধদ্বার, চৌদিকে ঘোষুক শঙ্খধ্বনি
ভারত-অঙ্গনতলে, আজি তব নব আগমনী,
অমেয় প্রেমের বার্তা শতকণ্ঠে উঠুক নিঃস্বনি-
এনে দিক অজেয় আহ্বান।
'সিয়াম' নামে দুটি কবিতা আছে তাঁর। প্রাচীন সিয়াম হলো থাইল্যান্ডের ব্যাংকক শহর থেকে সুখুমভিট সড়কে ৩০ মিনিটের দূরত্বের একটি দর্শনীয় স্থান। এটি সমুট পার্কন প্রদেশে অবস্থিত। প্রায় ৩২০ একর স্থান জুড়ে রয়েছে বিচিত্র স্থাপনা। প্রায় ১১৬টি সৌধ রয়েছে এখানে।
প্রথম দর্শনে এবং বিদায়কালে কবির যে অনুভূতি তারই প্রকাশ এই দুটি কবিতায়। প্রধম দর্শনের উপলব্ধি করতে গিয়ে কবি লিখেছেন বুদ্ধের কথা-
হৃদয়ে হৃদয়ে মিল করি
বহু যুগ ধরি
রচিয়া তুলেছ তুমি সুমহৎ জীবনমন্দির,-
পদ্মাসন আছে স্থির,
ভগবান বুদ্ধ সেথা সমাসীন
চিরদিন-
মৌন যাঁর শান্তি অন্তহারা,
বাণী যাঁর সকরুণ সান্ত্বনার ধারা।
আবার সিয়াম দেখে বিদায় নেওয়ার কালেও কবি বুদ্ধের নাম বিস্মৃত হননি। কেবল বুদ্ধের কারণে সিয়ামকে কবির আপন মনে হয়েছে। সেখানে এক সপ্তাহের অবস্থানেই রবীন্দ্রনাথের মনে হয়েছে শতাব্দীর শব্দীহ গান।
কোন্? সে সুদূর মৈত্রী আপন প্রচ্ছন্ন অভিজ্ঞানে
আমার গোপন ধ্যানে
চিহ্নিত করেছে তব নাম,
হে সিয়াম,...
বিদায়ের সময়ে তাই বুদ্ধের কথা স্মরণ করেন কবি। সিয়ামের পুরাকীর্তি এবং বুদ্ধমূর্তি দেখে রবীন্দ্রনাথ কেবল আপ্লুত নন, শ্রদ্ধায় আনত হন। তাই তাঁর সশ্রদ্ধ উচ্চারণ ধ্বনিত হয়-
পূজার প্রদীপে তব, প্রজ্বলিত ধূপে।
আজি বিদায়ের ক্ষণে
চাহিলাম সি্নগ্ধ তব উদার নয়নে,
দাঁড়ানু ক্ষণিক তব অঙ্গনের তলে,
পরাইনু গলে
বরমাল্য পূর্ণ অনুরাগে-
অমস্নান কুসুম যার ফুটেছিল বহুযুগ আগে।
'প্রার্থনা' শিরোনামের কবিতায় রয়েছে ভগবান বুদ্ধের নানাকৌণিক উপস্থাপনা। 'পত্রপুট' কাব্যের ১৭ সংখ্যক কবিতাও বুদ্ধের প্রসঙ্গ নিয়ে রচিত। 'নবজাতক' কাব্যের 'বুদ্ধভক্তি' এবং 'জন্মদিনে' কাব্যের ৩ ও ৬ সংখ্যক কবিতা বুদ্ধদর্শনধন্য। 'খাপছাড়া' কাব্যের ৬৬-সংখ্যক কবিতায় বুদ্ধের এক ভিন্ন আঙ্গিকে তুলে ধরা হয়েছে-
বটে আমি উদ্ধত,
নই তবু ক্রুদ্ধ তো,
শুধু ঘরে মেয়েদের সাথে মোর যুদ্ধ তো ।
যেই দেখি গুন্ডায়
ক্ষমি হেঁটমুন্ডায়,
দুর্জন মানুষেরে ক্ষমেছেন বুদ্ধ তো ।
পাড়ায় দারোগা এলে দ্বার করি রুদ্ধ তো-
সাত্তি্বক সাধকের এ আচার শুদ্ধ তো ।
প্রবন্ধসাহিত্য যেহেতু চিন্তামূলক, তাই তাতে বুদ্ধ প্রসঙ্গ বেশি উচ্চারিত হয়েছে। 'সমালোচনা ১৮৮৮' গ্রন্থের 'অনাবশ্যক' নামের প্রবন্ধে রয়েছে বুদ্ধের উপস্থিতি। 'আত্মশক্তি' গ্রন্থে স্বদেশী সমাজ ও দেশীয় রাজ নামের প্রবন্ধদুটিতে রয়েছে বুদ্ধের কথা। 'ভারতবর্ষ' গ্রন্থে 'সমাজভেদ', 'নববর্ষ', 'ব্রাহ্মণ', 'চীনেম্যানের চিঠি' ও 'অত্যুক্তি' প্রবন্ধে বুদ্ধের উল্লেখ রয়েছে।
প্রবন্ধগ্রন্থ 'সমালোচনা', 'ভারতবর্ষ', 'বিচিত্র প্রবন্ধ', 'প্রাচীন সাহিত্য', 'সাহিত্য', 'সমাজ', 'শিক্ষা', 'রাজাপ্রজা', 'ধর্ম', 'সঞ্চয়', 'পরিচয়', 'জাপানযাত্রী', 'লিপিকা', 'জাভাযাত্রীর পত্র', 'মানুষের ধর্ম', 'ভারতপথিক রামমোহন', শান্তিনিকেতন', 'কালান্তর', 'পথের সঞ্চয়', 'আত্মপরিচয়', 'সাহিত্যের স্বরূপ' 'বিশ্বভারতী', 'ইতিহাস', 'বুদ্ধদেব', 'খৃস্ট' প্রভৃতি গ্রন্থে একাধিকবার বৌদ্ধধর্ম, সংস্কৃতি ও আখ্যানের উল্লেখ রয়েছে।
রবীন্দ্রসাহিত্যে গৌতম বুদ্ধ, বৌদ্ধধর্ম ও বৌদ্ধআখ্যান এসেছে নানাভাবে। নাটকে, কবিতায় ও প্রবন্ধে বুদ্ধ প্রসঙ্গের অবতারণা ব্যাপক হলেও উপন্যাস এবং ছোটগল্পে সরাসরি বুদ্ধপ্রসঙ্গ নেই বললেই চলে। নাটকে আমরা দেখতে পাই ১০টি নাটকে বৌদ্ধআখ্যান রয়েছে। মালিনী (১৮৯৬), রাজা (১৯১০), অচলায়তন (১৯১২), গুরু (১৯১৮), অরূপরতন (১৯২০), নটীর পূজা (১৯২৬), চন্ডালিকা (১৯৩৮), নৃত্যনাট্য চন্ডালিকা (১৯৩৮), শ্যামমোচন (১৯৩১) নাটকে বৌদ্ধআখ্যান রয়েছে। তবে শাপমোচনকে কেউ কেউ নাটক না বলে 'কথিকা' বলতে চান। এই ১০টি নাটক ছাড়াও 'শোধবোধ' নাটকে প্রাসঙ্গিক উক্তি ও সংলাপে বৌদ্ধপ্রসঙ্গ রয়েছে।
বৌদ্ধআখ্যান নিয়ে রবীন্দ্রনাথ কোনো উপন্যাস রচনা করেননি। তবে 'ঘরে বাইরে" (১৯১৬) উপন্যাসে নিখিলেশের আত্মকথায় এবং 'শেষের কবিতা' (১৯২৯) উপন্যাসে ১৩শ পরিচ্ছেদের প্রাসঙ্গিক উক্তিতে বুদ্ধপ্রসঙ্গ রয়েছে। 'শোধবোধ' (১৯২৬) নাটকে বুদ্ধদর্শনের প্রভাব নেই, কিন্তু বুদ্ধপ্রসঙ্গের উল্লেখ রয়েছে। যেমন সতীশ ও নলিনীর সংলাপে-
নলিনী । আমি যদি তোমাকে সত্যি কথা বলি, খুশি হোয়ো, অন্যে বললে রাগ করতে পার।
সতীশ। তুমি আমাকে অযোগ্য বলে জান, এতে আমি খুশি হব?
নলিনী। এই টেনিস্?কোর্টের অযোগ্যতাকে তুমি অযোগ্যতা বলে লজ্জা পাও? এতেই আমি সব চেয়ে লজ্জা বোধ করি। তুমি তো তুমি, এখানে স্বয়ং বুদ্ধদেব এসে যদি দাঁড়াতেন, আমি দুই হাত জোড় করে পায়ের ধুলো নিয়েই তাঁকে বলতুম, ভগবান, লাহিড়িদের বাড়ির এই টেনিস্?কোর্টে আপনাকে মানায় না, মিস্টার নন্দীকে তার চেয়ে বেশি মানায়। শুনে কি তখনই তিনি হার্মানের বাড়ি ছুটতেন টেনিস্?সুট অর্ডার দিতে।
সতীশ । বুদ্ধদেবের সঙ্গে-
নলিনী । তোমার তুলনাই হয় না, তা জানি। আমি বলতে চাই, টেনিস্?কোর্টের বাইরেও একটা মস্ত জগৎ আছে-সেখানে চাঁদনির কাপড় পরেও মনুষ্যত্ব ঢাকা পড়ে না। এই কাপড় পরে যদি এখনই ইন্দ্রলোকে যাও তো উর্বশী হয়তো একটা পারিজাতের কুঁড়ি ওর বাট্?ন্?হোলে পরিয়ে দিতে কুণ্ঠিত হবে না-অবিশ্যি তোমাকে যদি তার পছন্দ হয়।
সতীশ । বাট্?ন্?হোল তো এই রয়েছে, গোলাপের কুঁড়িও তোমার খোঁপায়-এবারে পছন্দর পরিচয়টা কি ভিক্ষে করে নিতে পারি।
নলিনী । আবার ভুলে যাচ্ছ, এটা স্বর্গ নয়, এটা টেনিস্?কোর্ট।
এখানে গৌতম বুদ্ধদেবকে সর্বমান্য গণ্য করা হয়েছে। বুদ্ধের প্রতি প্রবল শ্রদ্ধাবোধের কারণেই এখানে তাঁর প্রসঙ্গ উত্থাপিত হয়েছে। সনাতনধর্মাবলম্বী চরিত্রের মুখে রাম, কৃষ্ণ কিংবা কোনো দেবতার নাম না বলে বুদ্ধের নাম বলার মাধ্যমে বুদ্ধধর্মের প্রতি রবীন্দ্রনাথের আস্থারই প্রমাণ বহন করে।
'ঘরে বাইরে' (১৯১৬) উপন্যাসেও আছে বুদ্ধের উল্লেখ। নিখিলেশের আত্মকথা-য় এসেছে রাজপুত্র সিদ্ধার্থের প্রসঙ্গ। যেমন-
'এই-সব কথা ভাববার কথা। স্থির করেছিলুম এই ভাবনাতেই প্রাণ দেব। সেদিন বিমলাকে এসে বললুম, বিমল, আমাদের দুজনের জীবন দেশের দুঃখের মূল-ছেদনের কাজে লাগাব।
বিমল হেসে বললে, তুমি দেখছি আমার রাজপুত্র সিদ্ধার্থ, দেখো শেষে আমাকে ভাসিয়ে চলে যেয়ো না।
আমি বললুম, সিদ্ধার্থের তপস্যায় তাঁর স্ত্রী ছিলেন না, আমার তপস্যায় স্ত্রীকে চাই।'
বুদ্ধদেব যে তাঁর স্ত্রীপরিজন ছেড়ে সাধনার পথে নেমেছিলেন, অর্থাৎ সর্বত্যাগী হয়ে পথে নেমেছিলেন। তাঁর এই ত্যাগের উদাহরণকে সামনে এনে নিখিলেশ তাঁর বিপরীতে স্ত্রীকে সঙ্গে নিয়েই তপস্যার কথা বলেছেন। একই উপন্যাসে আছে সমস্ত ভারতবর্ষে জাগরণের নায়ক হিসেবে বুদ্ধের প্রসঙ্গ। যেমন-
'মানুষ এত বড়ো যে সে যেমন ফলকে অবজ্ঞা করতে পারে তেমনি দৃষ্টান্তকেও। দৃষ্টান্ত হয়তো নেই, বীজের ভিতরে ফুলের দৃষ্টান্ত যেমন নেই; কিন্তু বীজের ভিতরে ফুলের বেদনা আছে। তবু, দৃষ্টান্ত কি একেবারেই নেই? বুদ্ধ বহু শতাব্দী ধরে যে সাধনায় সমস্ত ভারতবর্ষকে জাগিয়ে রেখেছিলেন সে কি ফলের সাধনা?'
আলেকজান্ডার নয় গৌতম বুদ্ধ যে পৃথিবী জয় করেছিলেন তার উল্লেখও আছে এই উপন্যাসের অন্যত্র। এই উক্তির মাধ্যমে বুদ্ধের মানবপ্রেমের কথা প্রকাশিত হয়েছে। আলেকজান্ডার জয় করেছিলেন অস্ত্রে, বুদ্ধ জয় করেছেন প্রেমে। উপন্যাসে উলি্লখিত প্রসঙ্গটি এমন-
'আমি বললুম, মাস্টারমশায়, অমন করে কথায় বলতে গেলে টাক-পড়া উপদেশের মতো শোনায়; কিন্তু যখনই চোখে ওকে আভাসমাত্রেও দেখি তখন যে দেখি ঐটেই অমৃত। দেবতারা এইটেই পান করে অমর। সুন্দরকে আমরা দেখতেই পাই নে যতক্ষণ না তাকে আমরা ছেড়ে দিই। বুদ্ধই পৃথিবী জয় করেছিলেন, আলেক্?জান্ডার করেন নি, এ কথা যে তখন মিথ্যেকথা যখন এটা শুকনো গলায় বলি। এই কথা কবে গান গেয়ে বলতে পারব? বিশ্বব্রহ্মান্ডের এই-সব প্রাণের কথা ছাপার বইকে ছাপিয়ে পড়বে কবে, একেবারে গঙ্গোত্রী থেকে গঙ্গার নির্ঝরের মতো?'
'শেষের কবিতা' (১৯২৯) উপন্যাসেও আছে বুদ্ধপ্রসঙ্গের অবতারণা। লাবণ্য ও অমিতের সংলাপে পাওয়া যায় বৌদ্ধধর্ম প্রচারের পথ সম্পর্কে। শোভনলালের পরিকল্পনার কথা বলতে গিয়ে ঔপন্যাসিক রবীন্দ্রনাথ হিউয়েন সাঙের তীর্থযাত্রা ও আলেকজান্ডারের রণযাত্রার খবর জানিয়েছেন। বৌদ্ধধর্মের প্রচার কোন এলাকা দিয়ে বিস্তৃত হয়েছে তার রূপরেখাটিও লেখক তুলে ধরেছেন। এতে লেখকের ঐতিহাসিক জ্ঞানের পাশাপাশি বৌদ্ধধর্ম সম্পর্কে ধারণারও প্রকাশ ঘটেছে। উপন্যাসের পাঠ থেকেই তা তুলে ধরা যায়।-
লাবণ্যর বুকের ভিতরে হঠাৎ খুব একটা ধাক্কা দিলে। কথাটাকে বাধা দিয়ে অমিতকে বললে, ুশোভনলালের সঙ্গে একই বৎসর আমি এম.এ. দিয়েছি। তার সব খবরটা শুনতে ইচ্ছা করে।চ্
ুএক সময়ে সে খেপেছিল, আফগানিস্থানের প্রাচীন শহর কাপিশের ভিতর দিয়ে একদিন যে পুরোনো রাস্তা চলেছিল সেইটেকে আয়ত্ত করবে। ঐ রাস্তা দিয়েই ভারতবর্ষে হিউয়েন সাঙের তীর্থযাত্রা, ঐ রাস্তা দিয়েই তারও পূর্বে আলেকজান্ডারের রণযাত্রা। খুব কষে পুশতু পড়লে, পাঠানি কায়দাকানুন অভ্যেস করলে। সুন্দর চেহারা, ঢিলে কাপড়ে ঠিক পাঠানের মতো দেখতে হয় না, দেখায় যেন পারসিকের মতো। আমাকে এসে ধরলে, সেখানে ফরাসি পন্ডিতরা এই কাজে লেগেছেন, তাঁদের কাছে পরিচয়পত্র দিতে। ফ্রান্সে থাকতে তাঁদের কারো কারো কাছে আমি পড়েছি। দিলেম পত্র, কিন্তু ভারত-সরকারের ছাড়চিঠি জুটল না। তার পর থেকে দুর্গম হিমালয়ের মধ্যে কেবলই পথ খুঁজে খুঁজে বেড়াচ্ছে, কখনো কাশ্মীরে কখনো কুমায়ুনে। এবার ইচ্ছে হয়েছে, হিমালয়ের পূর্বপ্রান্তটাতেও সন্ধান করবে। বৌদ্ধধর্ম-প্রচারের রাস্তা এ দিক দিয়ে কোথায় কোথায় গেছে সেইটে দেখতে চায়। ঐ পথ-খেপাটার কথা মনে করে আমারও মন উদাস হয়ে যায়। পুঁথির মধ্যে আমরা কেবল কথার রাস্তা খুঁজে খুঁজে চোখ খোয়াই, ঐ পাগল বেরিয়েছে পথের পুঁথি পড়তে, মানববিধাতার নিজের হাতে লেখা। আমার কী মনে হয় জান?চ্
আর গানের কথা যদি বলা হয়, তাহলে অজস্র গানে রয়েছে বুদ্ধের বাণী ও দর্শনের অভিঘাতসৃষ্ট চরণ।
রবীন্দ্রনাথের সমগ্র সাহিত্যকর্মের বিচারেই বলা যায় যে, গৌতম বুদ্ধের শিক্ষা ও দর্শন যতখানি প্রভাব বিস্তার করেছে, আর কোনো একক মনীষী তা করতে পারেননি।
রবীন্দ্রনাথ বৌদ্ধধর্মে দীক্ষিত না থেকেও বুদ্ধের বাণী প্রচারে যতটা ভূমিকা রেখেছেন, আর কোনো লেখক তা পেরেছেন বলে মনে হয় না। গৌতম বুদ্ধ এবং বৌদ্ধধর্ম নিয়ে রবীন্দ্রনাথের উপলব্ধি ও মূল্যায়ন বিধৃত রয়েছে বিভিন্ন রচনায়। সেখান থেকে কয়েক মন্তব্য এখানে উল্লেখ করা যায়।
১. বৌদ্ধযুগের যথার্থ আরম্ভ কবে তাহা সুস্পষ্টরূপে বলা অসম্ভব ্ত শাক্যসিংহের বহু পূর্বেই যে তাহার আয়োজন চলিতেছিল এবং তাঁহার পূর্বেও যে অন্য বুদ্ধ ছিলেন তাহাতে সন্দেহ নাই । ইহা একটি ভাবের ধারাপরম্পরা যাহা গৌতমবুদ্ধে পূর্ণ পরিণতি লাভ করিয়াছিল । মহাভারতের যুগও তেমনি কবে আরম্ভ তাহা স্থির করিয়া বলিলে ভুল বলা হইবে । পূর্বেই বলিয়াছি সমাজের মধ্যে ছড়ানো ও কুড়ানো এক সঙ্গেই চলিতেছে । ভারতবর্ষে ইতিহাসের ধারা, পরিচয়]
২. ভগবান বুদ্ধ একদিন যে ধর্ম প্রচার করেছিলেন সে ধর্ম তার নানা তত্ত্ব, নানা অনুশাসন, তার সাধনার নানা প্রণালী নিয়ে সাধারণচিত্তের আন্তর্ভৌম স্তরে প্রবেশ করে ব্যাপ্ত হয়েছিল। তখন দেশ প্রবলভাবে কামনা করেছিল এই বহুশাখায়িত পরিব্যাপ্ত ধারাকে কোনো কোনো সুনির্দিষ্ট কেন্দ্রস্থলে উৎসরূপে উৎসারিত করে দিতে সর্বসাধারণের স্নানের জন্য, পানের জন্য, কল্যাণের জন্য। [ সংযোজন, শিক্ষা]
৩. মহাপুরুষেরাই পুরাতন সত্য বলিতে পারেন-বুদ্ধ, খৃস্ট, চৈতন্যেরাই পুরাতন সত্য বলিতে পারেন। সত্য তাঁহাদের কাছে চিরদিন নূতন থাকে, কারণ সত্য তাঁহাদের যথার্থ প্রিয়ধন। [সত্য, সমাজ]
৪. মনে ক্রোধ দ্বেষ লোভ ঈর্ষা থাকলে এই মৈত্রীভাবনা সত্য হয় নাু এইজন্য শীলগ্রহণ শীলসাধন প্রয়োজন। কিন্তু শীলসাধনার পরিণাম হচ্ছে সর্বত্র মৈত্রীকে দয়াকে বাধাহীন করে বিস্তার। এই উপায়েই আত্মাকে সকলের মধ্যে উপলব্ধি করা সম্ভব হয়। .. এই মৈত্রীভাবনার দ্বারা আত্মাকে সকলের মধ্যে প্রসারিত করা এ তো শূন্যতার পন্থা নয়। তা যে নয় তা বুদ্ধ যাকে ব্রহ্মবিহার বলছেন তা অনুশীলন করলেই বোঝা যাবে। [শান্তনিকেতন ৭]
৫. জাপান স্বর্গমর্ত্যকে বিকশিত ফুলের মতো সুন্দর করে দেখছে; ভারতবর্ষ বলছে, এই যে এক বৃন্তে দুই ফুল, স্বর্গ এবং মর্ত্য, দেবতা এবং বুদ্ধুমানুষের হৃদয় যদি না থাকত তবে এ ফুল কেবলমাত্র বাইরের জিনিস হত এই সুন্দরের সৌন্দর্যটিই হচ্ছে মানুষের হৃদয়ের মধ্যে। [জাপান-যাত্রী ১৩]
৬. বৌদ্ধধর্মের প্রভাবে জনসাধারণের প্রতি শ্রদ্ধা প্রবল হয়ে প্রকাশ পেয়েছে; এর মধ্যে শুদ্ধ মানুষের নয়, অন্য জীবেরও যথেষ্ট স্থান আছে। জাতককাহিনীর মধ্যে খুব একটা মস্ত কথা আছে, তাতে বলেছে, যুগ যুগ ধরে বুদ্ধ সর্বসাধারণের মধ্য দিয়েই ক্রমশ প্রকাশিত। প্রাণীজগতে নিত্যকাল ভালোমন্দর যে দ্বন্দ্ব চলেছে সেই দ্বন্দ্বের প্রবাহ ধরেই ধর্মের শ্রেষ্ঠ আদর্শ বুদ্ধের মধ্যে অভিব্যক্ত। অতি সামান্য জন্তুর ভিতরেও অতি সামান্য রূপেই এই ভালোর শক্তি মন্দর ভিতর দিয়ে নিজেকে ফুটিয়ে তুলছে; তার চরম বিকাশ হচ্ছে অপরিমেয় মৈত্রীর শক্তিতে আত্মত্যাগ। জীবে জীবে লোকে লোকে সেই অসীম মৈত্রী অল্প অল্প করে নানা দিক থেকে আপন গ্রন্থি মোচন করছে, সেই দিকেই মোক্ষের গতি। জীব মুক্ত নয় কেননা, আপনার দিকেই তার টান; সমস্ত প্রাণীকে নিয়ে ধর্মের যে অভিব্যক্তি তার প্রণালীপরম্পরায় সেই আপনার দিকে টানের 'পরে আঘাত লাগছে। সেই আঘাত যে পরিমাণে যেখানেই দেখা যায় সেই পরিমাণে সেখানেই বুদ্ধের প্রকাশ। [জাভাযাত্রীর পত্র ১৯]
৭. ইতিহাসের যে-একটা আবছায়া দেখতে পাচ্ছি সেটা এই রকম-বাংলা সাহিত্য যখন তার অব্যক্ত কারণ-সমুদ্রের ভিতর থেকে প্রবাল-দ্বীপের মতো প্রথম মাথা তুলে দেখা দিলে তখন বৌদ্ধধর্ম জীর্ণ হয়ে বিদীর্ণ হয়ে টুকরো টুকরো হয়ে নানাপ্রকার বিকৃতিতে পরিণত হচ্ছে। স্বপ্নে যেমন এক থেকে আর হয়, তেমনি করেই বুদ্ধ তখন শিব হয়ে দাঁড়িয়েছিলেন। শিব ত্যাগী, শিব ভিক্ষু, শিব বেদবিরুদ্ধ, শিব সর্বসাধারণের। বৈদিক দক্ষের সঙ্গে এই শিবের বিরোধের কথা কবিকঙ্কণ এবং অন্নদামঙ্গলের গোড়াতেই প্রকাশিত আছে। শিবও দেখি বুদ্ধের মতো নির্বাণমুক্তির পক্ষে; প্রলয়েই তাঁর আনন্দ। [বাতায়নিকের পত্র, কালান্তর]
৮. বুদ্ধ যখন অপরিমেয় মৈত্রী মানুষকে দান করেছিলেন তখন তো তিনি কেবল শাস্ত্র প্রচার করেন নি, তিনি মানুষের মনে জাগ্রত করেছিলেন ভক্তি। সেই ভক্তির মধ্যেই যথার্থ মুক্তি। খৃষ্টকে যাঁরা প্রত্যক্ষভাবে ভালোবাসতে পেরেছেন তাঁরা শুধু একা বসে রিপু দমন করেন নি, তাঁরা দুঃসাধ্য সাধন করেছেন। তাঁরা গিয়েছেন দূর-দূরান্তরে, পর্বত সমুদ্র পেরিয়ে মানবপ্রেম প্রচার করেছেন। মহাপুরুষেরা এইরকম আপন জীবনের প্রদীপ জ্বালান; তাঁরা কেবল তর্ক করেন না, মত প্রচার করেন না। তাঁরা আমাদের দিয়ে যান মানুষরূপে আপনাকে। [খৃষ্ট]
৯. যখন ভারতবর্ষে উন্নতির মধ্যাহ্নকাল তখন ধীরে ধীরে কতকগুলি নূতন দর্শন ও নূতন দল নির্মিত হইতে লাগিল এবং তাহাদের প্রভাবে বৌদ্ধধর্ম উত্থিত হইয়া সমাজে একটি ঘোরতর বিপ্লব বাধাইয়া দিল। পৌরাণিক ঋষিরা ভুল বুঝিলেন, তাঁহারা মনে করিলেন এরূপ বিপ্লব অনিষ্টজনক। অমনি পুরাণে, সংহিতায় ও অন্যান্য নানাপ্রকার সমাজের হস্তপদ অষ্টপৃষ্ঠে বন্ধন করিয়া ফেলিলেন এবং ভবিষ্যতে এরূপ বিপ্লব না বাধে তাহার নানা উপায় করিয়া রাখিলেন। সমাজের স্বাস্থ্য নষ্ট হইল এবং সমাজ ক্রমশই অবনতির অন্ধকারে আচ্ছন্ন হইয়া পড়িল। সংস্কারশীলতার অভাবে ও রক্ষণশীলতার বাড়াবাড়িতেই হিন্দুসমাজ নির্জীব হইয়া পড়িল। [বঙ্গে সমাজ-বিপ্লব, পরিশিষ্ট]
১০. বৌদ্ধধর্ম সন্ন্যাসীর ধর্ম। কিন্তু তা সত্ত্বেও যখন দেখি তারই প্রবর্তনায় গুহাগহ্বরে চৈত্যবিহারে বিপুলশক্তিসাধ্য শিল্পকলা অপর্যাপ্ত প্রকাশ পেয়ে গেছে তখন বুঝতে পারি, বৌদ্ধধর্ম মানুষের অন্তরতম মনে এমন একটি সত্যবোধ জাগিয়েছে যা তার সমস্ত প্রকৃতিকে সফল করেছে, যা তার স্বভাবকে পঙ্গু করে নি। ভারতের বাহিরে ভারতবর্ষ যেখানে তার মৈত্রীর সোনার কাঠি দিয়ে স্পর্শ করেছে সেখানেই শিল্পকলার কী প্রভূত ও পরমাশ্চর্য বিকাশ হয়েছে। শিল্পসৃষ্টি-মহিমায় সে-সকল দেশ মহিমান্বিত হয়ে উঠেছে। [বৃহত্তর ভারত, কালান্তর]
১১. বাংলায় যত ধর্মবিপ্লব হয়েছে তার মধ্যেও বাংলা নিজমাহাত্ম্যের বিশিষ্ট প্রকাশ দেখিয়েছে। এখানে বৌদ্ধধর্ম বৈষ্ণবধর্ম বাংলার যা বিশেষ রূপ, গৌড়ীয় রূপ, তাই প্রকাশ করেছে। [ছাত্রদের প্রতি সম্ভাষণ, সংগীতচিন্তা]
১২. বুদ্ধদেব যে অভ্রভেদী মন্দির রচনা করিলেন, নবপ্রবুদ্ধ হিন্দু তাহারই মধ্যে তাঁহার দেবতাকে লাভ করিলেন। বৌদ্ধধর্ম হিন্দুধর্মের অন্তর্গত হইয়া গেল। মানবের মধ্যে দেবতার প্রকাশ, সংসারের মধ্যে দেবতার প্রতিষ্ঠা, আমাদের প্রতি মুহূর্তের সুখদুঃখের মধ্যে দেবতার সঞ্চার, ইহাই নবহিন্দুধর্মের মর্মকথা হইয়া উঠিল। শাক্তের শক্তি, বৈষ্ণবের প্রেম, ঘরের মধ্যে ছড়াইয়া পড়িল; মানুষের ক্ষুদ্র কাজে-কর্মে শক্তির প্রত্যক্ষ হত, মানুষের স্নেহপ্রীতির সম্বন্ধের মধ্যে দিব্যপ্রেমের প্রত্যক্ষ লীলা অত্যন্ত নিকটবর্তী হইয়া দেখা দিল। এই দেবতার আবির্ভাবে ছোটোবড়োয় ভেদ ঘুচিবার চেষ্টা করিতে লাগিল। সমাজে যাহারা ঘৃণিত ছিল তাহারাও দৈবশক্তির অধিকারী বলিয়া অভিমান করিল, প্রাকৃত পুরাণগুলিতে তাহার ইতিহাস রহিয়াছে। [মন্দির, ভারতবর্ষ]
সূত্র: http://www.karatoa.com.bd/details.php…
লেখক: কবি-প্রাবন্ধিক, উপপরিচালক, বাংলা একাডেমী, ঢাকা।
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