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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, October 29, 2011

विकीलीक्स का भारतीय सत्य

http://www.samayantar.com/2011/04/20/wikileaks-ka-bharatiya-satya/

विकीलीक्स का भारतीय सत्य

April 20th, 2011

अमेरिकी सरकार ही नहीं बल्कि पश्चिमी खेमे के सारे देश जूलियन असांज की जान के पीछे जिस तरह से पड़े हुए हैं वह विकीलीक्स की प्रामाणिकता को स्वयं ही सिद्ध कर देता है। अगर इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता में जरा भी शक होता तो अमेरिका ने अपने एक नागरिक को सरकारी गुप्त दस्तावेज सार्वजनिक करने के आरोप में नवंबर से आज तक बिना मुकदमा चलाए बंद नहीं किया हुआ होता।
जैसा कि असांज ने एनडीटीवी के प्रणय राय को दिए साक्षात्कार में कहा है, ऐसा नहीं है कि इस तरह का खुलासा पहली बार हो रहा हो। इससे पहले इस संस्था ने 120 देशों के बारे में विभिन्न किस्म के दस्तावेजों को सार्वजनिक किया है। इसमें केन्या से ईस्ट तिमोर में हुई हत्याओं से लेकर अफ्रीका में खरबों रुपयों के भ्रष्टाचार तक के मामले शामिल हैं। पर तब पश्चिमी देशों की सरकारों ने एक बार भी नहीं कहा कि ये तथ्य गलत हैं या फिर यह तरीका गलत है।
स्वयं को दुनिया का सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादीवाला देश बतलानेवाला अमेरिका आखिर अपने बारे में होनेवाले खुलासों से इतना बेचैन क्यों हो गया है? असांज ने राय को दिए साक्षात्कार में इसके कारण को दो टूक तरीके से रखा है। उनके अनुसार "अमेरिका के बारे में सत्य यह है कि आज इसकी 30 से 40 प्रतिशत अर्थव्यवस्था सुरक्षा क्षेत्र में लगी हुई है। इसलिए इसके बहुत सारे रहस्य हैं, बहुत सारे कंप्यूटर हैं, और इसके गृह विभाग में बहुत सारे लोग हैं, सरकार में, सेना में।''
28 मार्च के हिंदू में प्रकाशित विकीलीक्स की सामग्री का संबंध अमेरिका द्वारा भारत को हथियार बेचने की कोशिश से ही संबंधित था। इसके अनुसार दिल्ली स्थित अमेरिकी राजदूतों ने अपनी सरकार को भेजे गए विभिन्न संदेशों (केबल यानी तार) में यह बतलाया है कि भारत का शस्त्रों का बाजार 27 खरब डालर का है और हमें इसमें हिस्सेदारी के लिए क्या करना चाहिए। यहां यह बतलाना जरूरी है कि भारत इस समय दुनिया के हथियारों के सबसे बड़े खरीदारों में से है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी मंदी से नहीं उबर पाई है। वहां लगातार बेरोजगारी बढ़ रही है। इसलिए अमेरिका के बाकी हितों को छोड़ दें तो भी हथियारों की बिक्री ऐसा मसला है जिसके चलते अमेरिका भारतीय बाजार की अनदेखी नहीं कर सकता।
पर इसी से जुड़ा एक और मसला भी है और वह है इस महाशक्ति का दुनिया पर अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए सब कुछ करने का। इसके चलते अमेरिका अफगानिस्तान, इराक और अब लीबिया में हस्तक्षेप कर रहा है। असल में अमेरिकी सत्ता के दबाव ऐसे हैं कि इराक से सेनाएं बुला लेने के आश्वासन पर सत्ता में आए ओबामा ने लीबिया पर आक्रमण करने में देर नहीं लगाई है। गोकि यह भी संयुक्त राष्ट्र संघ की आड़ में किया गया है। साफ है कि ओबामा अमेरिकी शस्त्र और तेल उद्योग के दबाव से हट कर कोई काम कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। पर यह तो साफ ही है कि अमेरिकी जनता युद्धोन्मादी नहीं है अन्यथा ओबामा कैसे राष्ट्रपति बनते। इराक को लेकर अमेरिकी जनता में जबर्दस्त विरोध रहा है और इसीलिए अमेरिका ने लीबिया में जनता को बचाने और वहां तथाकथित लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई की कमान नाटो को थमाई हुई है, इसके बावजूद कि यह आंखों में धूल झोंकने से ज्यादा कुछ नहीं है। यही नहीं विकीलीक्स को यह सारी सामग्री देनेवाला व्यक्ति भी इराक के युद्ध में शामिल एक पूर्व सैनिक ही है। यह अपनी सरकार से जनता के असंतोष और भ्रमभंग का एक पुख्ता उदाहरण है। यह इस बात को भी सिद्ध करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ किस हद तक अमेरिका की गिरफ्त में है और किस हद तक पश्चिमी खेमे के हित उससे जुड़े हैं।
हिंदू में प्रकाशित भारत संबंधी खुलासों ने सिर्फ इस बात पर प्रमाणिकता की मुहर लगा दी है कि किस तरह से नरसिंह राव सरकार के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति और सत्ता पर पश्चिमी खेमे, विशेष कर अमेरिकी सत्ता की पकड़ ने मजबूत होना शुरू किया और एनडीए की सरकार से होती हुई यह आज जिस मुकाम पर पहुंच गई है उसे परमाणु उर्जा बिल पर संसद में होने वाले मतदान को लेकर अमेरिकी बेचैनी स्पष्ट कर देती है। यह चकित करनेवाला है कि क्यों एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने सीआईए के एजेंट को बतलाया कि सांसदों को खरीदने के लिए 50 करोड़ रुपया तैयार है। यह रुपया कहां से आया? क्या यह अमेरिकी नहीं हो सकता? जैसे सवालों का उठना भी इस संबंध में लाजमी है। पर देखने की बात यह है कि किस तरह से अमेरिक ा भारतीय सरकार में मंत्रियों के बनाये जाने में भी रुचि लेता रहा है और उसकी रुचि किस तरह के लोगों में रही है। उदाहरण के लिए वह मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्तमंत्री बनाना चाहता था और मणि शंकर अय्यर को पैट्रोलियम मंत्रालय से इसलिए हटना पड़ा क्योंकि वह अमेरिकी हितों से ज्यादा – ईरान से तेल लाइन के मामले में – भारत के हितों को तरजीह दे रहे थे।
भाजपा नेता अरुण जेटली का मामला है वह अमेरिका को लेकर भाजपा के दो मुंहेपन को स्पष्ट कर देता है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जहां तक अमेरिका का मसला है मूलत: दोनों दलों में कोई अंतर नहीं है। एक के लिए हिंदुत्व आड़ है तो दूसरे के लिए वामपंथी झुकाव। दुखद यह है कि जैसे-जैसे भारत तथाकथित आर्थिक शक्ति बनता जा रहा है वैसे-वैसे वह, आर्थिक हो या राजनीतिक, अपनी स्वतंत्र नीतियों से दूर होता जा रहा है। विदेशी मामलों में तो भारत लगभग अमेरिकी पिट्ठू हो चुका है। इससे यह जरूर होगा कि अब भाजपा और कांग्रेस दोनों ही विकीलीक्स की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाने की हर चंद कोशिश करेंगी।

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