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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, November 17, 2011

पूंजी की प्राथमिकताएं

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4285-2011-11-17-05-29-07

अरविंद कुमार सेन 
जनसत्ता, 17 नवंबर, 2011 : पिछले दिनों नोएडा में करोड़ों रुपए खर्च करके बुलाई गई विदेशी नर्तकी लेडी गागा के गायन और फार्मूला दौड़ के सहारे ब्रांड इंडिया की छवि संवारी जा रही थी वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में तीन दशक पुराना मौत का खेल चल रहा था। इंसेफलाइटिस या जापानी बुखार की चपेट में आकर इस साल पांच सौ से ज्यादा बच्चे मर चुके हैं लेकिन हुक्मरानों की नींद अब तक नहीं टूटी है। 
बीमारी की वजह, उसके फैलने का समय और प्रभावित होने वाले इलाकों समेत सारी बुनियादी बातें पहले से ही पता होने के बावजूद दुनिया की उभरती महाशक्ति के अवाम को जापानी बुखार के कहर से बचाने वाला कोई नहीं है। पश्चिम बंगाल में एक साथ दो दर्जन बच्चों के मरने को ममता बनर्जी स्वाभाविक मौत बता कर पल्ला झाड़ चुकी हैं वहीं उत्तर प्रदेश में सियासी गुणा-भाग में मशगूल नेताओं को गोरखपुर में दहाड़ें मार कर रो रही माताओं की चीखें नहीं सुनाई दे रहीं। 
यह बीमारी जापान से शुरू होकर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमा, लाओस, विएतनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिलीपींस, इंडोनेशिया, चीन और कोरिया सहित समूचे दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया में फैल गई। दिक्कत यह है कि भारत को छोड़ कर अधिकतर देशों में इस बीमारी पर नियंत्रण पा लिया गया है और बीमारी के मूल देशों मसलन जापान, थाइलैंड, मलेशिया और चीन में तो इसका लगभग उन्मूलन हो गया है। 
वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनिया की साठ फीसद आबादी जापानी बुखार के दायरे में है मगर सबसे ज्यादा मरने वाले लोग भारत के ही हैं। हमारे देश में सबसे पहले यह बीमारी 1955 में तमिलनाडु के वेल्लोर जिले में सामने आई थी और सरकारी अनदेखी के कारण पूरे देश में फैलती चली गई। नीति-निर्माताओं की नींद पहली बार 1973 में टूटी जब पश्चिम बंगाल के बर्द्धमान और बांकुरा जिलों में जापानी बुखार से तीन सौ लोगों की मौत हो गई। 
सत्तर के दशक के आखिर तक यह बीमारी बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा और महाराष्ट्र समेत पूरे भारत में फैल चुकी थी। बाद के सालों में केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे अलग आबोहवा वाले तटीय इलाकों में भी फैल गई। 1976 से लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों से जापानी बुखार से होने वाली मौतों की खबरें आती रहती हैं, लेकिन किसी सरकार ने इस बीमारी को खत्म करने की जहमत नहीं उठाई। 
भारत के सबसे उपेक्षित और पिछडेÞ इलाकों में से एक गोरखपुर क्षेत्र 1978 में पहली बार जापानी बुखार का शिकार बना था और अब यह इलाका इस बीमारी का गढ़ बन चुका है। भारत-नेपाल सीमा से लगते महाराजगंज, गोरखपुर, बस्ती, कुशीनगर, देवरिया, संत कबीर नगर, सिद्धार्थ नगर, बहराइच और गोंडा जैसे पूर्वांचली जिलों में बीते तीन दशकों के दौरान पचास हजार से ज्यादा लोग जापानी बुखार से मर चुके हैं। 
जापानी इंसेफलाइटिस बीमारी का वायरस सुअर, बतख, बटेर और चूजों की मार्फत मच्छरों में पहुंचता है और ये मच्छर इन वायरसों के लिए मेजबान का काम करते हैं। चूंकि जापानी बुखार के वायरस से ग्रसित पशु-पक्षी का पता लगाना मुमकिन नहीं है, लिहाजा आसपास रहने वाले लोग भी संभावित खतरे से बेखबर रहते हैं। गांवों में साफ-सफाई की कमी संक्रमित मच्छरों को पनपने का माकूल अवसर देती है और प्रजनन के कारण इन मच्छरों की तादाद कई गुना बढ़ जाती है। 
जब ये संक्रमित मच्छर स्वस्थ इंसान को काटते हैं तो जापानी बुखार का वायरस प्रभावित आदमी के शरीर में पहुंच कर बीमारी फैलाना शुरू कर देता है। शिकार होने वालों में नब्बे फीसद गरीब तबके के पांच से पंद्रह साल तक के बच्चे होते हैं और इसकी दो वजहें हैं। एक, कुपोषण के कारण इनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता आम बच्चों के मुकाबले बेहद कम होती है, और दूसरे, गरीबी के चलते गंदगी वाले तंग इलाकों में रहने को अभिशप्त ये लोग संक्रमित मच्छरों के रडार पर सबसे पहले होते हैं।  
चिकित्सकों का कहना है कि जापानी बुखार का कोई शर्तिया इलाज नहीं है; बचाव और टीकाकरण ही इस बीमारी से सुरक्षित रहने के उपाय हैं। कहने की जरूरत नहीं कि अगर सरकार चाहती तो बड़े पैमाने पर टीकाकरण और प्रचार-प्रसार से लोगों को जागरूक करके जापानी बुखार के कहर पर काबू पाया जा सकता था। मगर किसी भी सरकार ने गरीब जनता को जापानी बुखार से बचाने का जतन नहीं किया। गोरखपुर के अलावा अब बिहार के मगध क्षेत्र से भी इस बीमारी से पीड़ित बच्चों की मौत की खबरें लगातार आ रही हैं। 
आंध्र प्रदेश के करीमनगर और वारंगल जिलों में पहली बार जापानी बुखार से 2003 में तेईस बच्चों की मौत हुई और सौ से ज्यादा मामले सामने आए थे। आंध्र प्रदेश सरकार ने सत्तर करोड़ के बजट से पूरे राज्य में अभियान चला कर बच्चों का टीकाकरण किया और लोगों को बीमारी से आगाह करने के साथ ही मच्छरदानी और कीटनाशक दवाओं जैसे सहायक उपकरणों का वितरण किया गया।



नतीजा सामने है। बीते आठ सालों के दौरान आंध्र प्रदेश से जापानी बुखार का नामोनिशान मिट गया है। आंध्र प्रदेश ही क्यों, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात का अनुभव बताता है कि गंभीरता से प्रयास किया जाए तो जापानी बुखार को खत्म किया जा सकता है। विडंबना देखिए, साल-दर-साल बच्चों के कत्लगाह में तब्दील हो चुके पूर्वांचल में जापानी बुखार के मरीजों   के इलाज के लिए महज पचानवे बिस्तरों और आधे-अधूरे उपकरणों वाला एक बाबा राघवदास मेडिकल महाविद्यालय है। 
रोजाना छह सौ से ज्यादा मरीज अस्पताल में पहुंचते हैं, मगर वहां कभी एक्सरे मशीन काम नहीं करती तो कभी जीवनरक्षक दवाएं खत्म हो जाती हैं। चूंकि पूर्वांचल में हर साल यह बीमारी व्यापक स्तर पर फैलती है, इसी कारण इसका समूल खात्मा करने के लिए वहां अलग से एक विशेष अस्पताल खोला जाना चाहिए। जनता के साथ इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पिछले तीस सालों से हर साल औसतन एक हजार से ज्यादा लोग जापानी बुखार से दम तोड़ देते हैं। लेकिन सरकार ने इस बीमारी की तह में जाने के लिए कोई शोध केंद्र नहीं बनाया है। मरीजों में तीन फीसद ही अस्पताल में पहुंच पाते हैं और हरेक दो घंटे में एक बच्चे की मौत हो जाती है। 
यूपीए सरकार बजट का महज 0.9 फीसद स्वास्थ्य पर खर्च करती है। कम आबंटन के अलावा, एक बुनियादी समस्या यह है कि देश में दो तरह की नीतियां बनाई जाती हैं। स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू की आशंका होते ही सरकार रातोंरात आपात बैठक करके करोड़ों रुपए का बजट तैयार कर देती है। वहीं जापानी बुखार, चिकनगुनिया, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों से कितनी भी मौतें हो जाएं, सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगती। 
जापानी बुखार का वायरस तापमान में आए अंतर की वजह से फैलता है और हर साल अगस्त से नवंबर तक यह बीमारी अपने चरम पर होती है। खेती के बदलते तरीकों के चलते संक्रमित मच्छर कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं और इसी कारण धान के खेतों से दूर रहने वाले भी जापानी बुखार की चपेट में आ रहे हैं। धान उत्पादन का प्रमुख इलाका होने के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश का बाढ़ और जलजमाव से पुराना नाता है। तिस पर पीने का गंदा पानी कोढ़ में खाज का काम करता है। 
वहां की एक बड़ी आबादी पंद्रह से तीस फुट गहरे हैंडपंपों से निकाला गया भूगर्भ के पहले स्तर का प्रदूषित पानी पीने को मजबूर है और यह पानी संक्रमित मच्छर के लार्वा ग्रसित होता है। खुले में शौच और साफ-सफाई जैसी बुनियादी सेवाएं बदहाल होने के कारण जापानी बुखार इस इलाके में हर साल मौत का तांडव रचता रहा है। कई शोध संस्थाएं अपनी रपटों में कह चुकी हैं कि पूरे क्षेत्र में साफ पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करके आधे से ज्यादा जिंदगियां बचाई जा सकती हैं। 
जहां जापानी बुखार के पचीस फीसद मामलों में बच्चों की मौत हो जाती हैं, वहीं जिंदा बचने वालों की हालत बेहद दयनीय रहती है। सही इलाज न मिलने के कारण अधिकतर बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं, जो अपने गरीब घरवालों (रोजाना 32 रुपए से कम खर्च करने वालों) पर ताउम्र बोझ बन कर रह जाते हैं। अक्तूबर का महीना आते ही गोरखपुर की सड़कों पर ऐसे कई माता-पिता मिल जाते हैं जो अपनी इकलौती संतान को जापानी बुखार की भेंट चढ़ा कर मानसिक संतुलन खो चुके होते हैं। 
अधिकतर पीड़ित निचले तबके के लोग होते हैं और इलाज के दौरान हुए खर्च से वे कर्ज में डूब जाते हैं। आलम यह है कि पूर्वांचल की बेबस जनता के बीच एक दिल चीरने वाली कहावत चल पड़ी है कि जापानी बुखार से मरने वाले बच्चे इस बीमारी से बचने वालों की तुलना में ज्यादा भाग्यशाली होते हैं। ब्रांड इंडिया की धमक दुनिया को सुनाने के लिए अरबों रुपए से फार्मूला कारों की महंगी सड़क बनाने वाला देश बीते साठ सालों में जापानी बुखार से विकलांग हुए मरीजों के लिए एक भी पुनर्वास केंद्र नहीं बना पाया है।  
हरियाणा राज्य बनाम संतरा देवी मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाना किसी भी सरकार का पहला दायित्व है। लेकिन संविधान की दूसरी बातों की तरह यह आदेश भी कागजों में ही रह गया है। जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अस्पताल में एक बिस्तर पर पांच बच्चे जापानी बुखार से दम तोड़ रहे थे तो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह फ्रांस के कॉन शहर में यूरोप और अमेरिका को वित्तीय संकट से बाहर निकलने के उपाय सुझा रहे थे। 
उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने के नारे के साथ ही आगामी चुनावों में जीत के लिए क्रांति यात्रा, जागरण यात्रा और विकास यात्रा जैसी सियासी नौटंकियां शुरू हो चुकी हैं। मगर जापानी बुखार के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए पूर्वांचल के तेरह जिलों में आज तक कोई यात्रा नहीं निकाली गई है।

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