From: भाषा,शिक्षा और रोज़गार <eduployment@gmail.com>
Date: 2011/12/18
Subject: भाषा,शिक्षा और रोज़गार
To: palashbiswaskl@gmail.com
भाषा,शिक्षा और रोज़गार |
- हेयर स्टाइलिस्ट की बढ़ रही है मांग
- राजस्थानःमुसलमानों के लिए ओबीसी के अंदर अलग से आरक्षण की मांग
- यूपीःआरक्षण के बहाने अल्पसंख्यकों को लुभाने की पुरजोर कोशिश
- छत्तीसगढ़ःमुस्लिम आरक्षण कभी नहीं रहा मुद्दा
- बिहार में मुस्लिम आरक्षणःआधी आबादी है गरीबी रेखा से नीचे
हेयर स्टाइलिस्ट की बढ़ रही है मांग Posted: 17 Dec 2011 09:00 AM PST बालों को बिना नुकसान पहुंचाए खास और आकर्षक लुक देना हेयर स्टाइलिंग कहलाता है। हेयर स्टाइलिस्ट अपनी कल्पनाशीलता औैर तकनीक के आधार पर यह बताता है कि किस अवसर पर कौन-सी हेयर स्टाइल किसी के लुक में चार चांद लगा सकता है। पाठ्यक्रम: हेयर स्टाइलिस्ट बनने के लिए विभिन्न संस्थानों द्वारा कोर्स कराए जा रहे हैं। इनमें एक सप्ताह के शॉर्ट टर्म कोर्स फॉर लांग हेयर से लेकर 24 सप्ताह के मास्टर इन हेयर स्टाइलिंग तक शामिल हैं। योग्यता : अगर कोई हेयर स्टाइलिस्ट बनना चाहता है, तो उसके पास कोई खास शैक्षणिक योग्यता जरूरी नहीं हैं। लेकिन कॉलेज तक की पढ़ाई की हो और साथ ही अंग्रेजी अच्छी हो, तो इस क्षेत्र में तेजी से तरक्की की जा सकती है। हालांकि कई ऐसे भी इंस्टीट्यूट हैं, जो हेयर स्टाइल का कोर्स दसवीं पास छात्रों को ही कराते हैं। वैसे अगर इस फील्ड में ऊंचाइयां छूनी हैं, तो अच्छी पर्सनैलिटी, गुड कम्युनिकेशन स्किल, क्रिएटिव थिंकिंग और फैशन में दिलचस्पी बेहद जरूरी है। संभावनाएं : इस क्षेत्र में संभावनाओं की कोई कमी नहीं है। एक हेयर स्टाइलिस्ट किसी सैलून में बतौर हेयर स्टाइलिस्ट काम कर सकता है। वह अपना सैलून भी खोल सकता है। आजकल फिल्मों और सीरियलों में आर्टिस्टों की हेयर स्टाइलिंग के लिए कांट्रैक्ट बेसिक पर भी हेयर स्टाइलिस्ट रखे जाते हैं। कमाई : हेयर स्टाइलिस्ट का कोर्स करने के बाद छात्र असिस्टेंट हेयर स्टाइलिस्ट के रूप में काम कर दस से पंद्रह हजार रुपए प्रतिमाह असानी से कमा सकते हैं। अनुभव बढ़ने पर कमाई भी बढ़ती जाती है। संस्थान - हबीब हेयर एकेडमी, नई दिल्ली - एल्स ब्यूटी एकेडमी, नई दिल्ली - बिग बॉस ब्यूटी पार्लर, मुंबई - ऐल पैशन सैलून, स्पा एड एकेडमी, फरीदाबाद (हरियाणा)(दैनिक भास्कर,1.12.11) |
राजस्थानःमुसलमानों के लिए ओबीसी के अंदर अलग से आरक्षण की मांग Posted: 17 Dec 2011 07:30 AM PST राजस्थान के मुसलमान कहते हैं कि उनकी हालत देश के दूसरे इलाकों में रह रहे मुसलमानों से कहीं ज्यादा बदतर है। राज्य मिल्ली कौंसिल के चेयरमैन अब्दुल कय्यूम अख्तर की मानें तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से भी ज्यादा यहां हालात बदतर हैं। राजस्थान में मुसलमानों की आबादी करीब ८० लाख मानी जाती है जो कि यहां की कुल आबादी का करीब १२-१३ फीसद हिस्सा है लेकिन यह तबका बदहाली की जिंदगी जीने को मजबूर है। अब्दुल कय्यूम अख्तर के मुताबिक राजस्थान में केवल दस फीसदी मुसलमनों की माली हालत ठीक कही जा सकती है। इसी तरह मुसलमानों में तालीम की हालत भी बदतर है। यहां के मुसलमानों में केवल एक फीसदी तबका ही उच्च शिक्षा हासिल करने में कामयाब रहा है। केवल ३० से ४० फीसद मुसलमान ही प़ढ़े-लिखे कहे जा सकते हैं। राजस्थान में दो आईपीएस और दो ही आईएफएस अफसर मुसलमान हैं जबकि राजस्थान प्रशासनिक सेवा के ८९९ अफसरों में सिर्फ २६ ही इस वर्ग से हैं। राजस्थान विधानसभा की दो सौ विधायकों की संख्या में केवल ११ मुसलमान हैं जबकि एकमात्र सांसद अश्क अली टाक राज्यसभा से हैं। राज्य में ओबीसी का कोटा २१ फीसदी है जबकि देश में यह २७ प्रतिशत है। मुसलमानों को ओबीसी के कोटे से ही आरक्षण दिया जा रहा है। मुस्लिम समुदाय का कहना है कि मुसलमान ओबीसी में शामिल अन्य जातियों के मुकाबले प्रत्येक दृष्टि से पिछ़ड़ा हुआ है ऐसे में उसे ओबीसी के अंदर अलग से पांच प्रतिशत का आरक्षण दिया जाना चाहिए। राजस्थान ओबीसी कमीशन के अध्यक्ष रहे सत्यनारायण सिंह कहते हैं ओबीसी में निरंतर लाभार्थियों का जु़ड़ाव तो हो रहा है लेकिन छंटनी नहीं हो रही। दूसरी तरफ ५० प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने पर रोक है। ऐसे में ओबीसी के तो और टुकड़े होते चले जाएंगे। वहीं मुसलमान कहते हैं कि जो पार्टी उनको आरक्षण देगी वे उसके साथ जाएंगे। ऐसे में कांग्रेस फायदे में नजर आ रही है। हालांकि राजस्थान में मुस्लिम आरक्षण किसी समय भी किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे मे नहीं रहा न ही किसी पार्टी ने इसे अपने चुनाव घोषणापत्र में शामिल किया लेकिन राजस्थान के मुसलमानों का एक वर्ग करीब एक दशक से इस मुद्दे के लिए अपना आंदोलन चलता आ रहा है। यद्यपि वह इतना मुखर नहीं रहा। मुस्लिम आरक्षण संघर्ष समिति के संयोजक मोहम्मद रफीक बताते हैं कि समिति सन २००२ से अपना आंदोलन चला रही है। पहले समिति की मांग आबादी के हिसाब से आरक्षण दिए जाने की थी अब ओबीसी कोटे में पांच फीसदी अलग से कोटा दिए जाने की मांग है। मिल्ली कौंसिल के अब्दुल कय्यूम अख्तर बताते हैं कि आरक्षण के मसले पर कौंसिल २१ लाख दस्तखतों का एक ज्ञापन केंद्र सरकार को भेजने की तैयारी कर रही है(कपिल भट्ट,नई दुनिया,11.12.11)। |
यूपीःआरक्षण के बहाने अल्पसंख्यकों को लुभाने की पुरजोर कोशिश Posted: 17 Dec 2011 03:30 AM PST आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हर दल खुद को अल्पसंख्यकों का न केवल हितैषी बताने पर आमादा है बल्कि दूसरे दल को अल्पसंख्यक विरोधी करार देने में भी जुटा हुआ है। सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के दिग्गज नेता एक दूसरे पर अल्पसंख्यक मतदाताओं को केवल वोट बैंक की शक्ल में देखने की तोहमत म़ढ़ते नहीं थक रहे हैं। यही नहीं, इन्हीं मतदाताओं के भरोसे पीस पार्टी और उलेमा काउंसिल सरीखी आधा दर्जन पार्टियां अगले विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता की चाभी अपने पास होने का मनसूबा पाल बैठी हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं का साथ पाने को बेताब राजनीतिक दल कोई भी फॉर्मूला आजमाने को तैयार हैं। इन सभी दलों में अल्पसंख्यकों को रिझाने की हो़ड़ में भाजपा नेताओं को भी आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर खुशफहमी पालने का मौका दे दिया है। २००१ की जनगणना के मुताबिक अल्पसंख्यकों की तादात तकरीबन पौने चार करो़ड़ के आसपास बैठती है जो पूरी आबादी का १८.५ फीसदी है। राज्य के तकरीबन १२० सीटों पर अल्पसंख्यक मतदाताओं का असर दिख सकता है जबकि ८० सीटें ऐसी हैं जहां ये निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। अमरोहा, कैराना सहारनपुर, गाजीपुर, मऊ, वाराणसी, कानपुर और अलीग़ढ़ ऐसे इलाके हैं जहां मुस्लिम आबादी बीस से ४९ फीसदी तक हैं। रामपुर में ५२.९१ फीसदी, मुजफ्फरनगर में ३९.२७ फीसदी, मुरादाबाद में ४६.१२ फीसदी, बिजनौर में ४५.५६ फीसदी, मेरठ में ३४.४० फीसदी, बलरामपुर में ३७.०५ तथा सिद्वार्थ नगर में २९.९५ फीसदी अल्पसंख्यक जमात के लोग रहते हैं जबकि बहराइच में ३५.४२ फीसदी, लखीमपुर में २२.५४ फीसदी, बाराबंकी में २२.४३ फीसदी और लखनऊ में २१.७३ फीसदी अल्पसंख्यक बसते हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश की ४३ ऐसी विधानसभा सीटें हैं जहां निर्वाचन आयोग अपने दस्तावेज उर्दू में प्रकाशित कराता है। १९६० से पहले मुलसमान उत्तर प्रदेश में कभी वोट बैंक नहीं रहा । अगस्त १९६४ में लखनऊ के नदवा कालेज में एक जलसा हुआ जिसमें मुस्लिम मजलिस मुशावरात का गठन हुआ । १९६७ के चुनाव में इस गैर सियासी संगठन ने नौ सूत्रीय मांग पर तैयार कर कहा कि जो राजनीतिक दल इन्हें मानेगा मुसलमान उसे ही वोट देगा। तीन जून १९६८ को फरीदी के नेतृत्व में मुस्लिम मजलिस बनी । इसका भी यही हश्र हुआ। इस समय तक देवबंद मुस्लिम राजनीति का महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभर चुका था। मौलाना असद मदनी नेता थे । उनके रिश्ते कांग्रेस से थे। १९७७ में नसबंदी के सवाल पर मुसलमान कांग्रेस से एक झटके में अलग हो गया । २००५ में १२ मुस्लिम संगठनों ने मिलकर कौमी मुजाहिदा नामक राजनीतिक दल बनाया । तौकीर रजा खां राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। २००७ में २० मार्च को धर्म गुरु मौलाना कल्बे जवाद और टीमे वाली मस्जिद के इमाम फजलुर्रहमान वाइजी ने संयुक्त उलेमा काउंसिल गठित कर कौम की नुमाइंदगी का ऐलान किया लेकिनअकलियत के वोटों पर राज कर रही सपा अथवा इन्हीं मतों पर एक मुश्त दावे की फिराक में जुटी बसपा और कांग्रेस को अल्पसंख्यकों के अलग दल की सियासत राज नहीं आई। राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद मामले में कांग्रेस के ढुलमुल रवैये ने सपा के पाले में सपा के पाले में ख़ड़े होने को विवश कर दिया। यहीं से मुलायम सिंह यादव का माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण बना। यह बात दीगर है कि इन दिनों उन्हें कांग्रेस की चालों और बसपा की कोशिशों के चलते इस समीकरण में सेंध लगती नजर आ रही है। यही वजह है कि राम जन्म भूमि के मामले पर आए अदालती फैसले पर जब सभी सियासी दलों ने चुप्पी साध रखी थी तब मुलायम सिंह यादव ने इस फैसले पर टिप्पणी कर अल्पसंख्यक जमात के लोगों का खुद को फिक्रमंद जताया । मुलायम सिंह यादव के ही बयान को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने भी अक्षरशः दोहराया लेकिन तकरीबन २२ साल से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के टिकटों में हिस्सेदारी ब़ढ़ाने की बात हो या सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने अथवा रंगनाथ मिश्र आयोग के कहे पर अमल करना ही नहीं ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के आश्वासन के चलते एक बार फिर अल्पसंख्यक मतदाता कांग्रेस की ओर देखने लगा है। यही नहीं, बुनकरों की कर्ज माफी तथा मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में केंद्र सरकार की मदद से विकास काम करने के लिए तीन हजार करो़ड़ ヒपए देना भी इस जमात के मतदाताओं पर डोरे डालने का ही नतीजा है। केंद्र सरकार की यह अनुदान राशि राज्य के ४४ जिलों तक पहुंचने वाली है। यही नहीं, सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम बिल लाकर भी कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को अपने पाले में ख़ड़ा करने की कवायद की लेकिन इस बिल के खिलाफ इस कदर गुस्सा फूटा और धु्रवीकरण हुआ कि भाजपा को फायदा होता देख कांग्रेस को अपने पैर पीछे खींचने प़ड़े। मुलायम सिंह के साथ कल्याण सिंह की मौजूदगी तथा १९९२ की घटना के लिए कांग्रेस के लचर रवैए तथा मायावती द्वारा भाजपा का साथ लेने और देने ही नहीं बल्कि गुजरात में नरेंद्र मोदी का प्रचार करने की स्थितियां किसी एक दल पर अल्पसंख्यक मतदाताओं पर टिकने का मौका और प्लेटफॉर्म मुहैया नहीं करा रही हैं। इसे राजीतिक दल भी समझते हैं। यही वजह है कि कल्याण सिंह का साथ लेने के लिए मुलायम ने माफी नामा जारी किया तो कांग्रेस यह कहती नजर आ रही है कि लिब्राहन आयोग ने ढांचे विध्वंस का जिम्मेदार कांग्रेस को नहीं माना है। यही नहीं, पीस पार्टी के लगातार ब़ढ़ते वर्चस्व ने भी मुस्लिम वोटों के ठेकेदार राजनीतिक दलों की नींद उ़ड़ा रखी है जबकि पीस पार्टी के लिए मंसूरी समाज, मोमिन अंसार सभा और राइन बागवान काउंसिल तथा उलेमा काउंसिल परेशानी का सबब बने हुए हैं। मंसूरी समाज, मोमिन अंसार और राइन बागवान तीनों सुन्नी समुदाय का ब़ड़ा हिस्सा बता रहे हैं(योगेश मिश्र,नई दुनिया,11.12.11)। |
छत्तीसगढ़ःमुस्लिम आरक्षण कभी नहीं रहा मुद्दा Posted: 17 Dec 2011 12:20 AM PST छत्तीसग़ढ़ में मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब तक न तो कोई आंदोलन चला और न ही यह मुद्दा किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में शामिल रहा। छत्तीसग़ढ़ की कुल ढाई करोड आबादी में लगभग पंद्रह लाख आबादी अल्पसंख्यकों की है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में देश के अल्पसंख्यकों की स्थिति जितनी दयनीय बताई गई है, उससे कहीं अच्छी व बेहतर छत्तीसग़ढ़ के अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिति कही जा सकती है। अल्पसंख्यक वर्ग के लोग कई महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर बैठे हैं।राज्य सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त भी इसी वर्ग के हैं। राजनीतिक क्षेत्र में भी कई अल्पसंख्यक सक्रिय हैं। प्रदेश भाजपा व प्रदेश कांग्रेस के महत्वपूर्ण पदों पर अल्पसंख्यकों महत्व दिया गया है। प्रदेश सरकार ने भी अल्पसंख्यकों के आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक विकास के लिए कई योजनाएं संचालित कर रही हैं। वक्फ संपत्तियों को सुरक्षित रखने के लिए छत्तीसग़ढ़ राज्य वक्फ बोर्ड के गठन का महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। इसके माध्यम से करोडों की बेशकीमती वक्फ संपत्तियों को कब्जामुक्त कराया जा रहा है। यहां मदरसा बोर्ड का गठन कर विभिन्न मदरसों को राज्य सरकार द्वारा अनुदान दिया जा रहा है। इसके अलावा राज्य हज कमेटी के माध्यम से हज यात्रियों को बीमा आदि सुविधा मुहैया कराई जा रही है। उर्दू के विकास के लिए उर्दू अकादमी का गठन किया गया है, जिसमें अध्यक्ष व उपाध्यक्ष सहित एक दर्जन से अधिक सदस्यों की नियुक्तियां की गई हैं। छत्तीसग़ढ़ में किसी भी मुस्लिम आरक्षण किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं रहा। त्रिस्तरीय पंचायत से लेकर विधानसभा व लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों को खास नफा-नुकसान नहीं हुआ। अब तक तय प्रारूप के मुताबिक मुस्लिम आरक्षण पिछ़ड़ा वर्ग के कोटे से ही दिया जाएगा, लेकिन इसे लेकर छत्तीसग़ढ़ में ओबीसी वर्ग के नेताओं में कोई खास प्रतिक्रिया नहीं है। ओबीसी नेताओं का कहना है कि आरक्षण केंद्र का मामला है। यदि ओबीसी कोटे से मुस्लिमों को आरक्षण दिया जाता है तो इससे इस वर्ग को खास फर्क नहीं प़ड़ेगा। सभी वर्ग को आबादी और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति के आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए। मुस्लिम आरक्षण को लेकर छत्तीसग़ढ़ के के मुसलमानों के बीच कोई आंदोलन देखने को नहीं मिला है। मुस्लिम आरक्षण से यहां राजनीतिक दलों को नफा-नुकसान होने की संभावना कम है(भोलाराम सिन्हा,नई दुनिया,11.12.11) |
बिहार में मुस्लिम आरक्षणःआधी आबादी है गरीबी रेखा से नीचे Posted: 16 Dec 2011 05:30 PM PST बिहार में आधी से अधिक मुस्लिम आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करती है। सियासी दलों ने हमेशा मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए लंबे-चौड़े वादे किए लेकिन धरातल पर काम नहीं हुए । गरीबी के कारण मुसलमानों में पलायन भी अधिक हो रहा है। तीन में से दो मुस्लिम परिवार का कोई न कोई व्यक्ति रोजगार के लिए दूसरे प्रांतों में जाता रहा है। मुसलमानों की ८५ फीसदी आबादी गांवों में रहती हैं जहां हालात और बदतर हैं। शिक्षा का स्तर भी नीचे है। मुसलमानों में साक्षरता चालीस फीसदी से कम है। यादव और मुसलमानों के गठजोड़ के बूते लालू प्रसाद यादव १५ साल तक बिहार की सत्ता में रहे लेकिन अल्पसंख्यों को सरकारी योजनाओं का भी फायदा नहीं मिल सका। यही कारण है कि मुस्लिम वोट बैंक लालू से बिदका और अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ है। बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीच्यूट (आद्री )के सर्वे के मुताबिक गांवों में ६३ फीसदी और शहरों में २४ प्रतिशत मुस्लिम आबादी रोजगार की तलाश में दूसरे प्रांतों में पलायन को मजबूर रही है। बिहार में मुसलमानों की ४३ जातियां हैं जिनमें शेख, सैयद, पठान और मलिक ऊंची जातियों में शुमार हैं। अंसारी मध्यम जाति में आती है जबकि ३८ मुस्लिम जातियां अति पिछड़े और पिछड़ों की सूची में हैं। गांवों में ४९.५ और शहरों में ४४.८ प्रतिशत मुस्लिम आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। इनमें से १९.९ प्रतिशत मुसलमान बहुत गरीब हैं। भूमिहीन मुसलमान मजदूरों का प्रतिशत २८.४ है । चालीस फीसदी मुस्लिम आबादी कर्ज में डूबी है। मुस्लिम व्यवसायी कम आमदनी वाले धंधों में हैं। राजद के शासनकाल में ५.८ प्रतिशत मुस्लिम आबादी को भी सरकारी योजनाओं का फायदा मिला । सिर्फ चार प्रतिशत मुसलमान इंदिरा आवास योजना में मकान ले सके। रोजगार के लिए पलायन करने वाले मुसलमान युवकों की औसत आयु २८ साल होती है। सीवान और गोपालगंज की चालीस फीसदी मुस्लिम आबादी खाड़ी देशो ंमें रोजगार के लिए जाती है। दूसरे प्रांतों में पलायन किए मुसलमान अपने परिवारों को औसतम डेढ़ हजार रुपए प्रतिमाह भेजते हैं। मुसलमानों को सियासत में भी खास तवज्जो नहीं मिल पाई है। लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी विधानसभा की ६० सीटों पर निर्णायक भूमिका अदा करती है लेकिन विधानसभा में २४३ सीटों में से मुसलमानों की संख्या सिर्फ १७ है । इसी तरह तीन एमएलसी, तीन लोकसभा सदस्य और तीन राज्यसभा सदस्य इस समुदाय से हैं। भाजपा आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करती रही है लेकिन ओबीसी तथा एससी -एसटी आरक्षण के भी पक्ष में रही है। जदयू, राजद और लोजपा मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने के हक में हैं। लोजपा निजी क्षेत्रों में भी मुसलमानों के आरक्षण की पक्षधर है । मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति के कोटे में शामिल करने की वकालत करते रहे हैं। कांग्रेस भी इसकी वकालत करने लगी है । बिहार में मुसलमानों को अन्य पिछड़ा वर्ग के कोटे के तहत आरक्षण का फायदा मिलता रहा है। इनमें मुसलमानों की ३५ जातियां शामिल हैं। बिहार में पिछड़ों को १२ और अतिपिछड़ों को १८ फीसदी आरक्षण मिलता है। पिछड़े मुसलमान इसी श्रेणी में फायदे लेते हैं। राज्य में ओबीसी में मुसलमान पहले से शामिल हैं इसलिए ताजा राष्ट्रीय विवाद से कोई खास उथल-पुथल नहीं है। पिछड़ा वर्ग अपने कोटे में से मुसलमानों को आरक्षण पर पहले आंदोलित था लेकिन अब इसपर लगभग स्वीकार्यता की स्थिति है। मुसलमानों को आरक्षण से सबसे अधिक फायदा राजद के लालू यादव को मिला था लेकिन अब मुसलमानों का उनसे मोहभंग हो चुका है । कांग्रेस अब तक मुसलमानों को प्रभावित करने में असफल रही है । नीतीश के साथ होने के कारण बिहार में भाजपा को भी कई क्षेत्रों में मुसलमानों का समर्थन मिला है । पसमांदा मुसलमान राज्यसभा सांसद अली अनवर के नेतृत्व में आरक्षण कोटा बढ़ाने और निजी क्षेत्रों में भी आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनरत रहे हैं(राघवेन्द्र नारायण मिश्र,नई दुनिया,11.12.11) |
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Palash Biswas
Pl Read:
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