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सब तीर्थ बार बार, गंगासागर एकबार। गंगासागर, अर्थात वह स्थल जहां आकर पतित पावनी गंगा सागर में मिल जाती हैं, जो सागरतीर्थ (सागरद्वीप) के नाम से विख्यात है।गंगासागर मेला भारतभर में आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों में से एक है। इस मेले का आयोजन कोलकाता के निकट हुगली नदी के तट पर ठीक उस स्थान पर किया जाता है, जहाँ पर गंगा बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसीलिए इस मेले का नाम गंगासागर मेला है। यह मेला विक्रमी संवत के अनुसार प्रतिवर्ष पौष मास के अन्तिम दिन लगता है। यह मकर संक्रान्ति का दिन होता है। एक बार गंगासागर की तीर्थ यात्रा करना ही बहुत मुश्किल था पहले। चारों तरफ जंगल। चारों तरफ पानी। कपिलमुनि कीशरण में जाने से पहले जल में मगरमच्छ, जमीन पर बाघ और जहरीले सांपों से मुकाबला करना होता था। अब सुंदरवन सियासदह तक नहीं है। नामथकाना और काकद्वीप होकर हारवुड प्वाइंट तक जाने में जंगल से गुजरना नहीं होता। बाघ के दर्शन नहीं होते। छोटी नावों की बजाय आधुनिक भैसेल से मुजड़ीगंगा पार करके कचुबेड़िया पहुंचकर बस या ट्रैकर पकड़कर सीधे सागर तक पहुंच सकते हैं सकुशल। लेकिन अब भी गंगा सागर की यात्रा उतनी ही कठिन और दुर्गम बनी हुई है उच्च तकनीक, संचार और तेज विकास के इक्कीसवीं सदी में। गंगासागर मेले में हर साल लाखों लोग पांच लाख की आबादी वाले सागरद्वीप पहुंचते हैं। देशभर से श्रद्धालु यहां जुटते हैं। कपिलमुनि, सागर और भागीरथ के पौराणिक इतिहास के मुताबिक आस्थासंपन्न ये असली भारत के असली भारतीय जिनके पास आस्था के अलावा जीवनवन जीने लायक और कोई पूंजी नहीं है,उनकी चिंता किसी को नहीं है। पर बारह साल के अंतर पर होने वाले कुंभ और छठे साल के अंतर पर होने वाले अर्धकुंभ की क्या कहें, नौचंदी, कोटा के दशहरे मेले और सोनपुर के मेले की तरह कोई स्थाई इंतजाम नहीं है सागर द्वीप में तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए।गंगा सागर एक्सप्रेस सियालदह तक पहुंचती है और इकहरी सियालदह नामखाना लाइन पर घंटेभर में एक लोकल ट्रेन।कोलकाता से सीधे नदीपथ से गंगासागर तक जाने का कोई रास्ता है ही नहीं। हारवुड पाइंट पर एक स्थाई घाट और चार अस्थाई घाट से लाखों यात्री जान हथेली पर लेकर गंगासागर तक पहुंचते हैं। हारवूड प्वाइंट से धर्मतल्ला तक बस किराया सामान्य तौर पर पचास रुपए है, मेले के दरम्यान यह किराया चार पांच गुणा बढ़ जाता है। भैसेल से मुड़ीगंगा पार करने के लिए सालभर आठ रुपये का किराया लगता है, जबकि मेले के दौरान पचास साठ रुपये। कचुबेड़िया से सागर तक पहुंचने का किराया भी इसी अनुपात में बढ़ता जाता है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शनिवार को ऐतिहासिकगंगासागर मेले को राष्ट्रीय मेला घोषित करने की मांग की है। मुख्यमंत्री ने कहा कि कुंभ मेले की तरहगंगासागर मेले को राष्ट्रीय दर्जा मिले। राज्य सरकार अब गंगासागर मेले में तीर्थ कर नहीं वसूलेगी।
अभी गंगासागर मेला शुरु होने में कोई खास वक्त नहीं है।लगभग दो–तीन लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष इस मेले में आते हैं। इस स्थान को हिन्दुओं के एक विशेष पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है। यह समस्त हिन्दू धर्म के मानने वालों का आस्था स्थल है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि, गंगासागर की पवित्र तीर्थयात्रा सैकड़ों तीर्थयात्राओं के समान है—"अन्य तीर्थ बार–बार, गंगासागर एक बार।" सुन्दरवन निकट होने के कारण मेले को कई विषम स्थितियों का सामना करना पड़ता है। तूफ़ान व ऊँची लहरें हर वर्ष मेले में बाधा डालती हैं, परन्तु परम्परा और श्रद्धा के सामने हर बाधा बोनी हो जाती है। अगर डायमंड हारबर और नाखाना लाइनों को दुरुस्त कर दिया जाये तो सीधे गंगासागर के दरवाजे तक एक्सप्रेस ट्रेनें पहुंच सकती हैं, जो आस्था के इस सफर को आरामदायक बना सकती है। पर रेलवे प्रशासन ने तो नामखाना तक लाइन का विस्तार करके बिना सेवा बेहतर किये अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। कैनिंग से आगे बसंती होकर गोसाबा तक पहुंच सकती है भारतीय रेल, जिससे सुंदरवन इलाके के लोगों का आजीविका के खातिर कोलकाता जाने की रोजमर्रे की मजबूरी कुछ आसान हो सकती है।
गंगा के सागर में मिलने के स्थान पर स्नान करना अत्यन्त शुभ व पवित्र माना जाता है। स्नान यदि विशेष रूप से मकर संक्रान्ति के दिन किया जाए, तो उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इस अवसर पर यह स्थान बड़े मेले का केन्द्र बन जाता है। यहाँ पर यात्री व संन्यासी पूरे देश से आते हैं। गंगा में स्नान कर ये लोग सूर्य देव को अर्ध्य देते हैं। मान्यतानुसार यह स्नान उन्हें पुण्य दान करता है। अच्छी फ़सल प्रदान करने के लिए धन्यवाद स्वरूप सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है। इस त्यौहार पर तिल व तेल का विशेष महत्व है, इसलिए लोग इस दिन चावल का ही विशेष भोजन करते हैं।गंगासागर के संगम पर श्रद्धालु 'समुद्र देवता' को नारियल और यज्ञोपवीत भेंट करते हैं। पूजन एवं पिण्डदान के लिए बहुत से पंडागण गाय–बछिया के साथ खड़े रहते हैं, जो उनकी इच्छित पूजा करा देते हैं। समुद्र में पितरों को जल अवश्य अर्पित करना चाहिए तथा स्नान के बाद कपिल मुनि का दर्शन कपिल मन्दिर में करना चाहिए। गंगासागर में स्नान–दान का महत्व शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है।
सागरतीर्थ से नगा साधुओं का रिश्ता काफी पुराना है। वे हर साल गंगासागर मेले के दौरान चंद दिनों के लिए आते हैं और बहुत सी सुनहरे यादें छोड़कर चले जाते हैं। इन चंद दिनों में उनके पास हजारों लोग अपनी मनोकामनाएं लेकर पहुंचते हैं और घंटों उनकी कुटिया में अड्डा जमाते हैं। कुछ तो इतना प्रभावित हो जाते हैं कि उन्हें ढूंढ़ते देश के किसी भी कोने में पहुंच जाते हैं। कुछ उन्हें गुरु मानकर अगले साल तक का इंतजार करते हैं। कुछ तो उनके साथ ही हो लेते हैं। मेले में हर साल काफी संख्या में विभिन्न अखाड़ों के नगा, साधु-संन्यासी आते हैं। यह मेला वैसे तो हर साल 12 से 15 जनवरी तक आयोजित होता है, लेकिन नगा साधु-संन्यासी यहां 20-25 दिन पहले से ही आ जाते हैं। जो सबसे पहले पहुंचता है, वह सबसे अच्छी जगह पाता है, ताकि बड़ी कुटिया बना सके। इनमें महिला संन्यासी भी होती हैं।
विभिन्न अखाड़े के साधु-संन्यासियो के बीच यहां कभी-कभी आपस में द्वंद्व भी छिड़ जाता है। खासकर जगह घेरने और कुटिया बनाने को लेकर। गंगासागर धाम में कपिल मुनि मंदिर के आसपास घासफूस की छोटी-छोटी कुटिया बनाकर नगा साधु-संन्यासी रहते हैं। गंगासागर मेले में पहुंचने के वक्त नगा साधु-संन्यासी सामान्य पहनावे में आते हैं। जैसे-जैसे मेला करीब आता है, वे कोपिन (लंगोट) पहनकर पूरे शरीर में राख पोत लेते हैं। कोई-कोई अपने लिंग में कड़ा तक धारण किए रहते हैं। धूनि रमाना और गंगाजल पीना उनकी मुख्य दिनचर्या होती है। मकर संक्रांति के मुख्य स्नान के दिन तो सभी नगा साधु संयम और त्याग की मूर्ति बन जाते हैं। स्नान-ध्यान कर जैसे ही तीर्थयात्री उनके पास पहुंचते हैं। चुटकी भर राख हमेशा उनके हाथ में मौजूद रहती है। माथे में लगाया नहीं कि वसूली शुरू।
क्या है इतिहास कपिल मुनि की तपोभूमि गंगासागर से इन साधु-संन्यासियों का रिश्ता काफी पुराना है। कहा जाता है कि 1837 में जब सागरद्वीप मानवविहीन था, तभी से साधु-संन्यासी यहां पहुंचने लगे थे। उन दिनों मेदिनीपुर के राजा हुआ करते थे यदुराय। बताते हैं कि यदुराय बेहद धार्मिक थे। उन्हीं की देखरेख में दूर-दराज के नगा साधु-संन्यासियों को नाव द्वारा गंगासागर लाया जाता था। साधुओं की सुरक्षा के लिए यदुराय मेदिनीपुर के कांथी, तमलुक व दरियापुर इलाकों से अपने सैनिक गंगासागर भेज देते थे। कुछ सैनिक नाव पर साधु-संन्यासी के साथ हो लेते थे।
कई अखाड़े में लगता है जमघट गंगासागर मेले में वैसे तो अनेक धार्मिक संगठनों के साधु-संन्यासी आते हैं लेकिन सर्वाधिक जमघट श्री पंचायती निरंजनी अखाड़े में होता है, वैसे अन्यान्य नगा साधुओं के अखाड़े रहते हैं। नगा साधु-संन्यासियों की परंपरा दशनाम नगा संन्यासी अखाड़ा से मानी जाती है। बताते हैं कि जब भी कुंभ का मेला लगता है, तो वहां शाही स्नान के मौके पर श्री निरंजनी अखाड़ा और श्री आनंद पंचायती अखाड़ा साथ-साथ चलते हैं। इन दोनों अखाड़ों से पचास कदम की दूरी पर जूना, अग्नि और आह्वान अखाड़ा चला करते हैं। इसके बाद महानिर्वाणी अखाड़ा और अटल अखाड़ों की बारी होती है। इन दोनों अखाड़ों में भी साथ-साथ चलने का रिवाज है।
कपिलमुनि मन्दिर
स्थानीय मान्यतानुसार जो युवतियाँ यहाँ पर स्नान करती हैं, उन्हें अपनी इच्छानुसार वर तथा युवकों को स्वेच्छित वधु प्राप्त होती है। अनुष्ठान आदि के पश्चात् सभी लोग कपिल मुनि के आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं तथा श्रद्धा से उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं। मन्दिर में गंगा देवी, कपिल मुनि तथा भागीरथी की मूर्तियाँ स्थापित हैं।
लेकिन गंगासागर मेले के रास्ते परिश्तितियां नरकयंत्रणा से कोई कमतर नहीं है। दक्षिण चौबीस परगना की आम जनता के लिए रेलयात्रा रोजमर्रे की नरक यंत्रणा है ।भारत विभिन्न संस्कृति की भूमि है और रेल न केवल देश की परिवहन संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने में मुख्य भूमिका निभाता है अपितु बिखरे हुए क्षेत्रों को एक सूत्र में बांधने और राष्ट्रीय एकीकरण में भी महत्वपूर्ण कार्य करता है।सुंदरवन इलाके में रेलयात्रा करने पर यह धारणा तुरंत ही ध्वस्त हो जाती है। दक्षिण कोलकाता से बाहैसियत सांसद ममता बनर्जी ने एक बार नही दो दो बार रेलवे महकमा संभाला।अपने कार्यकाल में उन पर रेल मंत्रालय कोलकाता से संभालने के आरोप लगे। बंगाल में वे लगातार रेलवे परियोजनाओं का शिलान्यास और विकास के जरिये अपनी प्रतिबद्धता साबित करती रही। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद तृणमूल कोटे से दिनेश त्रिवेदी औरर उन्हें हटाये जाने के बाद मुकुल राय रेलमंत्री रहे। पर दक्षिण परगना के लोगो को रेलयात्रा की नरकयंत्रणा से कोई राहत नहीं मिली। लेडीज स्पेशल का तोहफा जरूर मिला, पर भयंकर भीड़ वाली ट्रेनों में सफर करने के ललिए आज भी लोग मजबूर हैं और अब इस नरकयंत्रणा से निजात पाने के कोई आसार नहीं हैं।
सियालदह दक्षिण शाखा में सिग्नलिंग व्यवस्था का आधुनिकीकरण भी नहीं हुआ। आंधी पानी में कभी भी रेलसेवा बाधित होने से सुंदरवन के दुर्गम इलाकों के यात्री अक्सर किस मुसीबत का सामना करते होंगे, इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है।ओवरहेड तार टूट कर गिरने के कारण सियालदह दक्षिण शाखा में ट्रेन सेवा घंटों ठप होना आम बात है। फिर मरम्मत की व्यवस्था भी बीरबल की खिचड़ी जैसी है।
दरअसल सियालदह दक्षिण शाखा का कोई माई बाप नहीं है।सियालदह दक्षिण से बजबज, नामखाना , डायमड हारबर और कैनिंग कुल चार लाइनों पर ट्रेनें ट्रेनें दौड़ती हैं, जो दक्षिण चौबीस परगना के अपेक्षाकृत पिछड़े इलाके में जीवन और आजीविका के पर्याय हैं। सुंदरवन को पर्यटन के लिए खोलने के लिए भी इन लाइनों का राष्ट्रीय महत्व है। नामखाना और डायमंड हारबर रेलवे लाइनें तो गंगासागर तीर्थ से देश को जोड़ती हैं। आम भारतीय की आस्था की भी लाइफ लाइन है सियालदह दक्षिण शाखा।
दक्षिण कोलकाता के पार्क सर्कस, बालिगंज, ढाकुरिया, यादवपुर, संतोषपुर, टालीगंज, लेक गार्टन, बेहाला, खिदिरपुर, अलीपुर, कालीघाट, गड़िया जैसे इलाके भी इसी शाखा की ट्रेनों पर निर्भर हैं। मेट्रो के न्यू गड़िया स्टशन चालू हो जाने पर भी इस शाखा पर दबाव घटा नहीं है। यादवपुर विश्वविद्यालय इस लाइन पर होने की वजह से छात्रों और शिक्षकों को इसी लाइन का उपयोग करना होता है। पर हालत यह है कि इस शाखा की ट्रेनों में आप कहीं से न आराम से चढ़ सकते हैं और न उतर सकते हैं।नामखाना तक चार पांच घंटे, और कैनिंग व डायमंड हारबर तक दो ढाई घंटे के सफर में भीड़ इतनी ज्यादा होती है कि आपको सीटों के बीच दो दो, तीन तीन पांत में खड़े होकर सफर करना पड़ता है। रेलवे लाइनों के दोनों तरफ राजनीतिक
संरक्षण से हुए व्यापक अतिक्रमण और झुग्गी झोपड़ियों की कतारों की वजह से ट्रेनें तेज गति से चल ही नहीं सकतीं। रेललाइन पर लोग रोजमर्रे के काम निपटाते हैं, बच्चों के लिए वह खेल का मैदान है तो औरतों के लिए बैठकखाना। ट्रेनें वैसे भी बहुत कम हैं। सिंगल लाइन होने के कारण कम से कम घंटेभऱ के इंतजार ट्रेन के लिए मामुली अनुभव है। यात्रिययों की सुरक्षा का भी बंदोबस्त नहीं है। एक सोनार पुर और नये बने न्यू गड़िया स्टेशन छोड़कर बाकी तमाम स्टेशनों पर ट्रेनों की प्रतीक्षा में गंदगी और भीड़ के बीच घंटों इंतजार घुटनभरी रेलयात्रियों की रोजमर्रे की जिंदगी है।
सियालदह राणाघाट और सियालदह बनगांव लाइनों पर भी भीड़ कम नहीं होतीं। पर बारासात हासनाबाद लाइन जो फिर उत्तर चौबीस परगना होकर सुंदरवन का दरवाजा खटखटाती है, दोहरी लाइनें होने की वजह से कम कष्टदायक है। इन शाखाओं के स्टेशनों के मुकाबले दक्षिण के स्टेशन तो कोलकाता की बदनाम गंदी बस्तियों से भी बदतर है।बाकी शाखाओं की तरह दोहरी लाइन न होने की वजह से ही सियालदह दक्षिण की लंबी दूरी की मंजिलों तक सिरफ धीमी गति की ट्रेनों ही चलायी जा सकती है। तेज गेलोपिंग ट्रेनें इस शाखा के लिए कतई नहीं हैं।राणा घाट, कृष्णनगर,लालगोला,शांतिपुर, कटवा, बर्दवान, वनगांव, गेदे और खड़गपुर तक की यात्रा लोग जिस मजे में तय कर लेते हैं, नामखाना, कैनिंग और डायमंड हारबर लाइनों पर उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
सरकारी इंतजाम की खूब चर्चा होती है मेले से पहले और मेले के दौरान। पर बाकी सालभर लगातार तीर्थयात्रियों की आवाजाही के बावजूद सरकार कहीं नजर नहीं आती। यह इसलिए है कि लोक आस्था और धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक गंगासागर पुण्यस्नान का चाहे जो महत्व हो, सरकारी नजरिये से गंगासागर मेले को राष्ट्रीय मेले का दर्जा हासिल नहीं है। मेले के दौरान सत्ता, सरकार और प्रशासन के लोगों को कोी तकलीफ न हो , इसलिए उनके ठहराव के लिए उर्मिशिखर जैसे आलीशान भवन है। प्रेस को लाने पहुंचाने के भी इंतजामात हैं। बड़े लोग सीधे दर्मतल्ला से नदीपथ से गंगासागर आराम सेपहुंच सकते हैं।मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की पुण्ययात्रा में कोई व्यवधान नहीं होता। पर आम आदमी कपिलमुनि के भरोसे ही गंगासागर पहुंचता है और उनको सहारा देने वाले स्वयंसेवी संगठन न हो तो, कोई देखनेवाला नहीं है। हारवूड प्वाइट के पांच घाटों के अलावा मेले के दौरान नाखाना से कचुबेड़िया तक पहुंचने के लिए बेहद खतरनाक जलमार्ग भी खोल दिया जाता है। मेले से महीनेभर पहले ही घाटों पर तीर्थ यात्रियों की भीड़ की वजह से भगदड़ के हालात हैं। दुर्घटनाएं और भगदड़ की वारदातें अक्सर होती रहती हैं, पर इसके स्थाई समाधान के लिए कुछ सोचा नहीं जाता। सागरद्वीप का समुद्रतट सौंदर्य और विस्तार की दृष्टि से किसी भी समुद्रतटीय पर्यटनस्थल को मात दे सकते हैं। पर्यटन का विकास हो तो सागरद्वीप वासियों को सालाना तीर्थाटन के भरोसे सालभर इंतजार नहीं करना पड़ता। दरकार है स्थलमार्ग से सागरद्वीप को मुड़ीगंगा पर सेतु के सहारे जोड़ने की। पूंजी की इअबाध आवक को देखते हुए हिंदुत्व की राजनीति पर चल रही सत्ता के लिए यह मुश्किल काम भी नहीं है।
यह कोरी कल्पना नहीं है। बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रेलमंत्री की हैसियत से मुड़ीगंगा पर पुल बनाकर सागर द्वीप को रेलवे से जोड़ने की योजना भी बनायी थी। बाहैसियत मुख्यमंत्री वे सागरद्वीप जा चुकी हैं और वहां कपिलमुनि मंदिर का जीर्णोद्धार का उद्घाटन भी उन्होंने ही किया है। बतौर तीर्थस्थल और पर्यटन के विकास के लिए योजना बनाकर कार्यान्वयन की क्षमता भी उनकी है। इस पुण्यकर्म में भारतभर से सहयोग की भी अनंत संबावना है। वाम मोर्चा सरकार ने पैंतीस साल तक गंगासागर मेले को अतिरिक्त राजस्व वसूली का जरिया ही माना, तीर्थकर भी लगाया, पर गंगासागर के विकास का कोई प्रयास किया ही नहीं। भारत सेवाश्रम को छोड़कर तीर्थयात्रियों के लिए सागर पर कोई स्थाई ठिकाना है ही नहीं।
गंगासागर (सागर द्वीप या गंगा-सागर-संगम भी कहते हैं) बंगाल की खाड़ी के कॉण्टीनेण्टल शैल्फ में कोलकाता से १५० कि.मी. (८०मील) दक्षिण में एक द्वीप है। यह भारत के अधिकार क्षेत्र में आता है और पश्चिम बंगाल सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में है। इस द्वीप का कुल क्षेत्रफल ३०० वर्ग कि.मी. है। इसमें ४३ गांव हैं, जिनकी जनसंख्या १,६०,००० है। यहीं गंगा नदी का सागर से संगम माना जाता है। इस द्वीप में ही रॉयल बंगाल टाइगर का प्राकृतिक आवास है। यहां मैन्ग्रोव की दलदल, जलमार्ग तथा छोटी छोटी नदियां, नहरें हीं। इस द्वीप पर ही प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर लाखों हिन्दू श्रद्धालुओं का तांता लगता है, जो गंगा नदी के सागर से संगम पर नदी में स्नान करने के इच्छुक होते हैं। यहाँ एक मंदिर भी है जो कपिल मुनि के प्राचीन आश्रम स्थल पर बना है। ये लोग कपिल मुनि के मंदिर में पूजा अर्चना भी करते हैं। पुराणों के अनुसार कपिल मुनि के श्राप के कारण ही राजा सगर के ६० हज़ार पुत्रों की इसी स्थान पर तत्काल मृत्यु हो गई थी। उनके मोक्ष के लिए राजा सगर के वंश के राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाए थे और गंगा यहीं सागर से मिली थीं। कहा जाता है कि एक बार गंगा सागर में डुबकी लगाने पर 10 अश्वमेध यज्ञ और एक हज़ार गाय दान करने के समान फल मिलता है। जहां गंगा-सागर का मेला लगता है, वहां से कुछ दूरी उत्तर वामनखल स्थान में एक प्राचीन मंदिर है। उसके पास चंदनपीड़िवन में एक जीर्ण मंदिर है और बुड़बुड़ीर तट पर विशालाक्षी का मंदिर है।
कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट का यहां एक पायलट स्टेशन तथा एक प्रकाशदीप भी है।[1] पश्चिम बंगाल सरकार सागर द्वीप में एक गहरे पानी के बंदरगाह निर्माण की योजना बना रही है। गंगासागर तीर्थ एवं मेला महाकुंभ के बाद मनुष्यों का दूसरा सबसे बड़ा मेला है। यह मेला वर्ष में एक बार लगता है।
यह द्वीप के दक्षिणतम छोर पर गंगा डेल्टा में गंगा के बंगाल की खाड़ी में पूर्ण विलय (संगम) के बिंदु पर लगता है।[4] बहुत पहले इस ही स्थानपर गंगा जी की धारा सागर में मिलती थी, किंतु अब इसका मुहाना पीछे हट गया है। अब इस द्वीप के पास गंगा की एक बहुत छोटी सी धारा सागर से मिलती है। [3] यह मेला पांच दिन चलता है। इसमें स्नान मुहूर्त तीन ही दिनों का होता है। यहां गंगाजी का कोई मंदिर नहीं है, बस एक मील का स्थान निश्चित है, जिसे मेले की तिथि से कुछ दिन पूर्व ही संवारा जाता है। यहां स्थित कपिल मुनि का मंदिर सागर बहा ले गया, जिसकी मूर्ति अब कोलकाता में रहती है, और मेले से कुछ सप्ताह पूर्व पुरोहितों को पूजा अर्चना हेतु मिलती है। अब यहां एक अस्थायी मंदिर ही बना है। इस स्थान पर कुछ भाग चार वर्षों में एक बार ही बाहर आता है, शेष तीन वर्ष जलमग्न रहता है।
तीर्थ यात्री की मौत
वर्द्धमान में एक तीर्थ यात्री की मौत रहस्यमयी स्थिति में हो गई। पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। बताया जाता है कि प्रमानंद सोलंकी (65) नामक तीर्थ यात्री मध्यप्रदेश के इंदौर जिले से अपनी पत्नी, भाई जीबी सोलंकी सहित 52 लोगों के साथ गंगासागर के लिए विशेष बस से निकला था। वर्द्धमान पहुंचने पर बस में ही उसकी रहस्यमयी मौत हो गई। पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया एवं अन्य तीर्थ यात्रियों को गंगासागर के लिए रवाना कर दिया। जिला पुलिस अधीक्षक एसएमएच मिर्जा ने कहा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही मौत के कारणों का पता चल पाएगा।
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