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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, March 30, 2013

रेशमा की आत्महत्या से उठे सवाल

रेशमा की आत्महत्या से उठे सवाल


रेशमा दो लोगों के अपहरण के मामले में बंद थी. मोबाइल कॉल डिटेल के अनुसार वह दोषी पायी गई और उसे दो साल की सजा दी गई. उसके रिहाई के आदेश हो चुके थे. अदालत ने जो 30 हजार रुपये उस पर जुर्माना लगाया था, वह भरने के लिए उसके पास कोई जरिया नहीं था....

अयोध्या प्रसाद `भारती'


दिल्ली गैंगरेप के आरोपी राम सिंह की आत्महत्या के तीन दिन बाद ही में तिहाड़ जेल में हुई रेशमा की मौत किसी भी संवेदनशील इंसान को सदमा पहुंचाने वाली है. व्यक्तिगत रूप से मुझे इस मौत के कई दिन बाद एक इंटरनेट न्यूज साइट पर खबर पढ़ने के बाद बहुत दुःख पहुंचा है. वेनेजुएला के राष्ट्राध्यक्ष ह्यूगो शावेज की कैंसर से मौत के सदमे से मैं उबर नहीं पाया था कि तिहाड़ जेल में सजा काट चुकी उत्साह और उमंगों से भरपूर एक युवती रेशमा की खुदकुशी की मौत ने मुझे गहरे तक हिला दिया.

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रेशमा : कैसे कहें आत्महत्या

किसी कैदी की मौत पर लोग इस तरह सामान्यतया अफसोस नहीं जताते. अपराध से मुझे भी उतनी ही घृणा है जितनी हर किसी को होती है. लेकिन अपराध और अपराधी में लोग आमतौर पर कम ही फर्क करते हैं. लेकिन अपराध के प्रकार, अपराधी की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों को देखा जाना चाहिए. अधिकांश लोगों का तो मानना है कि अपराधियों के साथ कैसी सहानुभूति, उनके सम्मान और मानवाधिकार का क्या मतलब ? जिस रेशमा ने 2 साल की कैद जिंदादिली के साथ हंसते, गाते, डांस और पढ़ाई-लिखाई सीखते काट ली हो, और जो जीने की इच्छा से लवरेज हो वह 30 हजार रुपये चुकाने के लिए कुछ समय और जेल में रह सकती थी. 

ऐसे में उसकी मौत की कहानी में षड्यंत्र की बू आती है. अगर उसकी मौत के मामले में कोई घालमेल नहीं था तो उसकी व्यक्तिगत डायरी तिहाड़ जेल प्रशासन को सार्वजनिक कर देनी चाहिए थी. मानवाधिकारवादियों, समाजसेवियों, महिला अधिकारवादियों और मीडिया के लिए यह चुनौती ही नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है कि वे रेशमा की मौत के वास्तविक कारणों का पता लगाएं, खुलासा करें और रेशमा को इस अंजाम तक पहुंचाने वालों को उचित सजा दिलवाएं. 

रेशमा दो लोगों के अपहरण के मामले में बंद थी. मोबाइल कॉल डिटेल के अनुसार वह दोषी पायी गई और उसे दो साल की सजा दी गई. उसके रिहाई के आदेश हो चुके थे. अदालत ने जो 30 हजार रुपये उस पर जुर्माना लगाया था, वह भरने के लिए उसके पास कोई जरिया नहीं था. जेल जाने के बाद उसके परिजनों या उसके किसी परिचित ने उसे कोई मदद नहीं दी. उसका मुकदमा भी सरकारी वकील लड़ रहा था. रेशमा ने तिहाड़ जेल अधिकारियों से जेल के फंड से जुर्माने की रकम अदालत में जमा कराने का अनुरोध किया था, जिसका प्रावधान था, लेकिन संवेदनहीन जेल प्रशासन ने उसके अनुरोध की उपेक्षा की.

रोज-ब-रोज महिला अधिकारों का झंडा बुलंद करने वाले समूहों, संगठनों की कार्यप्रणाली भी समझ से परे है. रेशमा की मौत की खबर की रस्म अदायगी भर थी, सामान्य समाचार की तरह सूचना मात्र. जबकि यह एक गंभीर, खोजपूर्ण और बहस को आमंत्रण देने वाला मामला था. रेशमा से दो दिन पहले ही दिल्ली गैंगरेप के आरोपी ने आत्महत्या की थी. इस आलोक में तो रेशमा का मामला और अधिक संवेदनशील था, जेल, शासन, प्रशासन, मानवाधिकार, समाज सेवा, जनकल्याण जैसे तमाम मुद्दे इस आत्महत्या के साथ जुड़ते हैं. इस प्रकरण को व्यापक कवरेज मिलनी चाहिए थी. 

ऐसे जज्बे वाले लोगों की खोज-खबर मानवाधिकारवादियों, समाजसेवियों और मीडिया के लोगों को रखनी चाहिए और ऐसे लोगों की कानूनी और आर्थिक मदद करनी चाहिए. बाद में अपने साथ लेकर इन्हें समाज और व्यवस्था सुधार का कार्यक्रम आगे बढ़ाना चाहिए. ऐसे जज्बे वाले लोग देश और समाज के हित में बहुत काम आ सकते हैं. सरकारें भी चंबल के डकैतों से लेकर माओ/नक्सलवादियों तक को मुख्यधारा में शामिल करने के हल्के-फुल्के प्रयत्न करती रही हैं. रेशमा की मौत पूरे सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के मुहं पर तमाचा है.

ऐसे में जब उसका कोई खैर-ख्वाह नहीं था, उसे सहयोग और सहानुभूति की दरकार थी. जो संवेदनशील हमारा मानव समुदाय कर सकता था. लेकिन चूक गया और एक प्रतिभाशाली लड़की की मौत हो गयी. वास्तव में उसे अपराध में धकेलने वाले फिर उसकी ठीक से सहायता न करने वाले हम सब लोग हैं. जो उसके परिजन थे वे, जो उसके परिचित थे वे, जेल प्रशासन, वकील और हम सब भी जो उसे नहीं जानते जिन्होंने उसके बारे में उसकी मौत के बाद जाना और वे भी जो अभी तक उसके बारे में बेखबर हैं. वह किस सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक परिवेश में पैदा हुई, पली-बढ़ी, उसकी शादी हुई उसका अपने पति से तलाक हुआ और वह फिर किन लोगों के बीच फंस गई. 

रेशमा के जेल तक पहुंचने में संभव है कि उसके खुद के कुछ सपने, महत्वाकांक्षाएं भी रही हों, लेकिन बहुत कुछ हमारे सामाजिक ताने-बाने पर भी निर्भर करता हैं. तिहाड़ जेल प्रशासन की लापरवाही तो स्वतः सिद्ध है. ग्राम प्रधान से लेकर संसद सदस्य तक तमाम छोट-बड़े अपराधी आज समाज के अगुआ बने हुए हैं, हम चाहे-अनचाहे उन्हें झेलते हैं. एक दो ही नहीं सैकड़ों हजारों लोगों के कातिल, लाखों-अरबों का घोटाला करने, गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों और यहां तक कि पशुओं का चारा तक चट कर जाने वालों को हमें राजी-नाराजी झेलना होता है. छात्र जीवन से लेकर बुढ़ापे तक भ्रष्टाचार-अनाचार करने वाले तमाम नेता, नौकरशाह, पूंजीपतियों को सहजता से स्वीकारना हमारी आदत में है. तो एक मामूली अपराधी रेशमा, जिसे उचित सहारा मिलता, जो अच्छी डांसर और न जाने क्या-क्या बन सकती थी, को हम क्यों नहीं अपना सकते ?

ऐसी कितनी ही प्रतिभाशाली रेशमाएं, इस धरती और समाज को सुंदर बनाने वाली लड़कियां रोज विभिन्न कारणों से मरती हैं. कितनों की इच्छाओं, सपनों का गला घुटता है. कितनी लड़कियों को अपराधों में धकेलकर समर्थ लोग अपने लिए धन और यश का इंतजाम करते हैं. कितनी ही लड़कियों को कुछ लोग अपने निजी स्वार्थ के कारण असहनीय यातनाएं देते हैं. महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्र से खबर है कि वहां आजकल लड़कियों की खरीद बिक्री हो रही है. दिल्ली, हरियाणा, उ0प्र0 राजस्थान आदि में महज लड़का पैदा करवाने के लिए लड़कियों की मांग है. शातिर लोग बिहार, बंगाल, उड़ीसा आदि से लाकर यहां लड़कियां बेचते हैं. इन्हें भयंकर यातनाओं का शिकार होना पड़ता है. यहां तरह-तरह से रोज हजारों लड़कियों के साथ ज्यादती हो रही है और समाज तथा व्यवस्था अपनी सामान्य गति से आगे बढ़ रहा है. 

दिल्ली गैंगरेप के बाद जबरदस्त आंदोलन करने वाले इस बीच आई तमाम महिला विरोधी खबरों के मामले में चुप हैं. छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में पुलिस वालों और सरकारी संरक्षणप्राप्त लोगों ने बार-बार कुछ लड़कियों से बलात्कार किया, मारा-पीटा कितनों के घर जला दिए, गृहमंत्री से लेकर अदालत तक से दोषियों का कुछ नहीं बिगड़ पाया, बल्कि दोषी सरकारी कर्मचारी अपने पदों पर बने हुए हैं, सम्मानित हो रहे हैं और अन्य के साथ ज्यादतियां कर रहे हैं. कहीं से किस्मत के मारे सैकड़ों-हजारों लोगों के लिए न्याय की मांग नहीं उठ रही. क्या सब ऐसे ही चलने दिया जाएगा ? क्या हो गया है हमारी संवेदना, संस्कृति को ? धर्म, सभ्यता, संस्कृति, मानवाधिकारों का ढोल पीटने वाले कुछ बोलेंगे ?

ayodhya-prasad-bharatiअयोध्या प्रसाद `भारती' हिंदी साप्ताहिक 'पीपुल्स फ्रैंड' के संपादक हैं.

http://www.janjwar.com/society/1-society/3851-tihad-men-reshma-kee-atmhatya-se-uthe-saval

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