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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, September 26, 2015

बीते वर्ष सरकार बदलने के बाद से कुछ ऐसा घटा है कि दिल्‍ली में अच्‍छी उपस्थिति वाले बौद्धिक कार्यक्रमों का ज्‍यादा लेना-देना उसके प्रचार मूल्य या आयोजक के निजी संबंधों से रहा है जबकि ज्‍यादा गंभीर और सुस्‍पष्‍ट राजनीतिक दिशा वाले कार्यक्रमों में सामान्‍य भागीदारी जबरदस्‍त घटी है।

ऐसा लगता है कि दिल्‍ली की बौद्धिक संस्‍कृति में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। आज उसके दो अलग चेहरे देखने को मिले। आज दोपहर Gail Omvedt का स्‍त्रीवाद की क्रांतिकारी परंपरा पर लेक्‍चर था तो शाम को Felix Padel का जनांदोलनों और पूंजीवाद के ऊपर एक व्‍याख्‍यान था। दोनों अव्‍वल दरजे के विद्वान, अपने-अपने विषय के जानकार और लंबे समय से इस देश में सबाल्‍टर्न पर काम करने वालों के बौद्धिक मार्गदर्शक। मंडल और उदारीकरण के बाद जो लोग भी पब्लिक डोमेन में काम करते रहे हैं, वे इन दोनों के नाम और काम से ज़रूर परिचित होंगे। शनिवार भी था। गर्मी भी कम थी। बावजूद इसके, दोनों ही व्‍याख्‍यानों में राजधानी के हिंदी और अंग्रेज़ी के वे तमाम बुद्धिजीवी एक सिरे से नदारद रहे जो आम तौर से ऐसे कार्यक्रमों में पाए जाते हैं। हिंदी के लेखकों की तो पूछिए ही मत, जाने कहां लिप्‍त(लुप्‍त) हैं सब एक साल से।

बहरहाल, कांस्टिट्यूशन क्‍लब में इसके बावजूद कुर्सियां कम पड़ गईं तो शायद इसलिए कि वहां नौजवानों की तादाद सबसे ज्‍यादा थी। मेरा अनुमान है कि सभागार को भरने और कार्यक्रम को संचालित करने में Dilip C Mandal के चाहने वालों और उनके पिछले कुछ वर्षों में छात्र रहे पत्रकारों का ज्‍यादा योगदान रहा। इस भीड़ का कोई एक राजनीतिक चेहरा नहीं था। बाकी, अपने जैसे कुछ लिफाफे कुछ लिफाफा मित्रों के साथ हमेशा की तरह मौजूद थे, लेकिन व्‍याख्‍यान की प्रति पहले ही मिल जाने के कारण सारी उत्‍सुकता जाती रही। इसके उलट गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में फेलिक्‍स को सुनने के लिए अपनी लिफाफा बिरादरी को मिलाकर चालीस से ज्‍यादा लोग नहीं थे। एक तिहाई सो रहे थे। यहां का राजनीतिक चेहरा फिर भी साफ़ था क्‍योंकि यह समाजवादी जन परिषद का कार्यक्रम था।

बीते वर्ष सरकार बदलने के बाद से कुछ ऐसा घटा है कि दिल्‍ली में अच्‍छी उपस्थिति वाले बौद्धिक कार्यक्रमों का ज्‍यादा लेना-देना उसके प्रचार मूल्य या आयोजक के निजी संबंधों से रहा है जबकि ज्‍यादा गंभीर और सुस्‍पष्‍ट राजनीतिक दिशा वाले कार्यक्रमों में सामान्‍य भागीदारी जबरदस्‍त घटी है। कुछ साल पहले तक हिंदी और अंग्रेज़ी के जो चेहरे ऐसे आयोजनों में आम होते थे, वे अब गूलर का फूल हो गए हैं। ऐसे में सिर्फ एक शख्‍स पूरी दिल्‍ली में है जो हर बार आस बंधाता है- महेश यादव। आप उन्‍हें हर जगह पाएंगे। हमेशा की तरह झोला लटकाए और देखते ही बढ़कर हाथ मिलाते। महेशजी आज भी दोनों जगह थे। अपनी पुरानी भूमिका में। उन्‍हें देखकर निराशा छंटती है लेकिन पढ़े-लिखे धोखेबाजों पर गुस्‍सा भी आता है। जानने वाले जानते हैं, समाजवाद का वह ''धोखेबाज़'' कौन है। जाने दीजिए...।

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  • Comments
    • Abhishek Ranjan Singh
      Abhishek Ranjan Singh गांधी शांति प्रतिष्ठान में न जाने क्यों इन दिनों मरघट जैसी शांति का अनुभव कर रहा हूं.
      Like · Reply · 11 hrs
    • Poojāditya Nāth
      Poojāditya Nāth ये सही कहा आपने, कोई स्पष्ट नहीं दिखना चाहता। अफसोस कि फीलिक्स साहब के कार्यक्रम में बेहद कम लोग थे।
      Like · Reply · 11 hrs
    • Avinash Pandey
      Avinash Pandey https://www.facebook.com/avinashsmartx/media_set...
      Avinash Pandey added 15 new photos to the album: #Pinjratod.
      14 hrs · 

      ‪#‎Pinjratod‬ अभियान के कुछ साथियों को एबीवीपी के के गुंडों द्वारा धमकाएं जाने एवं पोस्टर फाड़ने के विरोध में आज तमाम तरक़ीपसन्द छात्र-छात्राएं आर्ट्स फैकल्टी में...

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      Like · Reply · 3 · 10 hrs
    • Avinash Pandey
      Avinash Pandey ham log yahan the ^
      Like · Reply · 3 · 10 hrs
    • Abhishek Srivastava
      Abhishek Srivastava Avinash Pandey अच्‍छा है.... ज्‍यादा ज़रूरी भी
      Like · Reply · 2 · 10 hrs
    • Cephalin Cephalin
      Cephalin Cephalin 'अच्छी उपस्थिति वाले बौद्धिक कार्यक्रम' हों या 'गंभीर और सुस्पष्ट राजनैतिक दिशा वाले कार्यक्रम' हों, उनमें भागीदारी करने वाले, जनता की नजर में सभी एक ही वर्ग के हैं, निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, परमार्थ के मुखौटे के पीछे स्वार्थी आत्मकेंद्रित आत्ममुग्ध बुद्धिजीवी। 'बौद्धिक संस्कृति में तेज़ी से बदलाव आ रहा है', आपकी ग़लतफ़हमी है। सही कारण आपकी टिप्पणी के बीच ही है। बौद्धिक संस्कृति रेवड़ियाँ बाँटने और पाने की ही है। 'बीती सरकार बदलने के बाद ऐसा कुछ घटा है', पिछली सरकार का मुखौटा था प्रगतिशील उदारवाद, और इस सरकार का मुखौटा है परम्परावादी प्रतिबद्धता। मुखौटे के पीछे वही मूल, शोषण की व्यवस्था की सुरक्षा। क्या तथाकथित बुद्धिजीवियों ने कभी शोषण की प्रक्रिया समझने समझाने की कोशिश की है या अनजाने वे स्वयं भी उसी शोषण प्रक्रिया का ही पोषण कर रहे हैं?
      Like · Reply · 2 · 4 hrs
    • Panini Anand
      Panini Anand कल सुबह स्थानीय गुंडों और पुलिस ने मिलकर मानेसर में मारुति मजदूरों को बुरी तरह पीटा है. कई को उठा ले गए हैं और अब पुलिस कुछ बता नहीं रही है. इन कार्यक्रमों में आए और न आए लोगों की एक टीम वहां जाए तो ठीक रहेगा. वैसे, इन कार्यक्रमों में से सूचना एक की भी नहीं थी. पता ही नहीं लगने दिया जा रहा है.
      Like · Reply · 1 · 3 hrs
    • Pyoli Swatija
      Pyoli Swatija फेलिक्स भाई के व्याख्यान की सूचना फेसबुक पर पब्लिक थी और आपको भी निमंत्रण भेजा था Panini भाई। वैसे, दिल्ली के बुद्धिजीवियों के लिए मानेसर बड़ा दूर है। ISIL जैसी ac ऑडिटोरियम कि व्यवस्था नई दिल्ली में हो तो पहुँच भी जाएँगे मजदूर साथियों से सॉलिडेरिटी दिखाने।
      Like · Reply · 2 · 3 hrs
    • Nitish Ojha
      Nitish Ojha उधर चाहे जो भी हो इधर शशि शेखर जी ने लखनऊ के ताज होटल में कल अखिलेश यादव, स्मृति ईरानी, और राजीव शुक्ला, जावेद अख्तर जैसे तमाम विभूतियों के साथ उत्तर प्रदेश को सबसे विकसित घोषित कर दिया है।
      Like · Reply · 1 · 2 hrs
    • Anil Attri
      Anil Attri सही
      Like · Reply · 1 hr
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