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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, August 10, 2016

अब मुकाबला धर्मोन्मादी अधर्म बनाम धम्म का है

सारे समीकरण उलट पुलट

अब मुकाबला धर्मोन्मादी अधर्म बनाम धम्म का है

लोकतांत्रिक,धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील ताकतों को इस बदलते मंजर को समझना होगा और गोरक्षकों के सौजन्य से जो समांतर ध्रूवीकरण शुरु हो गया है,उसे बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के प्रस्थानबिंदु से नई शुरुआत के साथ समता और न्याय,बहुलता और विविधता,अमन चैन,भाईचारे की लड़ाई को हमारे पुरखों के ख्वाबों की मंजिल में तब्दील करना होगा।


यूपी और पंजाब में आजादी से पहले आजमाये इस पुराने  और कामयाब  समीकरण की अग्निपरीक्षा है।अग्निपरीक्षा है बहुजन नेतृत्व की तो अग्निपरीक्षा है धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और लोकतांत्रीकि ताकतों की पकती हुई जमीन पर केसरिया सुनामी  के कयामती मंजर को फिजां दखल करने का कोई मौका न दें।



पलाश विश्वास

हवा बनाने वाले हवा हवाई लोगों को मालूम नहीं है कि हवा बदलने लगी है और वक्त को पीछे धकेलकर जमींदोज करने वालों को होश नहीं है कि उनके धतकरम से न विज्ञान के नियम बदलेंगे और न इतिहास बदल जायेगा।


हमने पहले ही लिखा है कि बंगाल में हवा बदलने लगी है और भारत और बांग्लादेश के धर्मोन्मादी महागठबंधन की नरसंहारी बलात्कारी सुनामी के बावजूद बदलाव की जो हवा मतुआ आंदोलन और बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर की शक्तियों में केंद्रित बहुजन आंदोलन की नींव से तूफां बनने जा रही है,उससे सारे समीकरण उलटपुलट हो जाने वाले हैं।फिरभी बुनियादी बदलाव के लिए समीकरण काफी नहीं हैं।


लोकतांत्रिक,धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील ताकतों को इस बदलते मंजर को समझना होगा और गोरक्षकों के सौजन्य से जो समांतर ध्रूवीकरण शुरु हो गया है,उसे बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के प्रस्थानबिंदु से नई शुरुआत के साथ समता और न्याय,बहुलता और विविधता,अमन चैन,भाईचारे की लड़ाई को हमारे पुरखों के ख्वाबों की मंजिल में तब्दील करना होगा।


यही फासिस्ट विरोधी मेहनतकश बहुजन तबके की एकता ही राष्ट्र और समाज के नवनिर्माण के लिए अनिवार्य वर्गीय ध्रूवीकरण का आधार है।


विभाजन से पहले सत्तावर्ग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बहुजनों और मुसलमानों का गठबंधन की रही है और सत्ता वर्ग के पास इसका जवाब भारत का विभाजन रहा है,जिसे उन्होंने बखूब अंजाम दिया।


बंगाल से जनाब फजलुल हक और जोगेंद्र नाथ मंडल की अगुवाई में बने इसी गठबंधन की ताकत से बाबासाहेब पूर्वी बंगाल से संविधान सभा में पहुंचे और तब जाकर कहीं उन्हें भारत का संविधान के तहत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों,कामगारों,स्त्रियों और तमाम मेहनतकश तबकों को संवैधानिक रक्षाकवच सुनिश्चित करने का मौका मिला।


गुजरात से जो नई सुनामी का मंजर बनने लगा है,हम यह भूलने की भूल नकरे इसकी शुरुआत रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद जातिव्यवस्था से आजादी और ब्राह्मणवाद के खिलाफ तमाम पहचान,जाति,मजहब की दीवारें तोड़कर देशभर में छात्रों और युवाओं के हाथों विश्वविद्यालयों और राजमार्गों पर व्यापक मनुस्मृति दहन के साथ शुरु हुई है जो बदलाव केलिए तमाम सामाजिक शक्तियों की एकता की प्रासंगिकता और उसकी निर्णायक भूमिका साबित करती है।


धर्मोन्मादी हिंदुत्व और फासीवादी नरसंहारी राजकाज की आधार प्रयोगशाला से फासिस्ट सत्ता और राजकरण,धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलाफ भारत विभाजन से पहले बना बहुजनों और मुसलमानों का वह गठबंधन अग्निपाखी की तरह राख से निकल आया है और हमें उसके पांखों को मजबूत करने की दरकार है।


यूपी और पंजाब में आजादी से पहले आजमाये इस पुराने  और कामयाब  समीकरण की अग्निपरीक्षा है।अग्निपरीक्षा है बहुजन नेतृत्व की तो अग्निपरीक्षा है धर्मनिरपेक्ष,प्रगतिशील और लोकतांत्रीकि ताकतों की पकती हुई जमीन पर केसरिया सुनामी  के कयामती मंजर को फिजां दखल करने का कोई मौका न दें।


बदलाव के लिए अब फासिज्म की  निरंकुश सत्ता के मुकाबले बहुजनों और मुसलमानों का गठबंधन ही काफी नहीं है।


मुक्तबाजार की ताकतों का साथ है सत्ता वर्ग का,जो सबसे घातक विषैला गैसिला रुप रसगंधहीन मृत्यु निश्चितसायोनाइड आक्साइड आइसोसाइनेट वगैरह वगैरह है।


और संविधान के प्रावधानों और कानून के राज पर यही अबाध पूंजी वर्चस्व है जिसके शिंकजे में फंसे बहुजनों के तमाम राम रहीम अब हनुमान हैं तो बहुजन अलग अलग मजहब,जाति,नस्ल,जुबान,जमीन के दायरे में कैद लाखों टुकडो़ं में एक दूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अक दूसरे के खून से रंगे हुए नख से सिर तक केसरिया वानर सेना है।समाज और राष्ट्र को बदलने से पहले उन्हें बदलने की जरुरत है।


फासिज्म का यह राजकाज स्थानीय नहीं है,ग्लोबल है।

तोता अमेरिका में है तो तोता इजराइल में भी है।

दो दो जान है दो जहान है हत्यारी इस सत्ता कयामत की।


इसलिए बहुत संभव है कि बहुजनों और मुसलमानों का गठबंधन भी उसे शिकस्त देने काफी कतई न हो।यही बार बार हो रहा है।


सत्ता वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनयिक,भौगोलिक, ऐतिहासिक, जाति नस्ल धर्म  हित समान हैं और उनकी संसदीय सहमति अटूट है तो इसके मुकाबले न प्रतिपक्ष कोई है और न प्रतिपक्ष की कोई राजनीति या अराजनीति है।


इस पर तुर्रा यह कि जीवन के हर क्षेत्र में समता और न्याय के वध का महोत्सव जारी है।भाषाओं,माध्यमों,विधाओं और लोक पर भी उन्हींका वर्चस्व है।


लोकतंत्र,अमन चैन,विविधता और बहुलता,समता और न्याय के लिए कोई राजनीतिक समीकरण काफी नहीं है।

राजनीति बदलाव के लिए सामाजिक क्रांति बेहद जरुरी है।


राजनीतिक शक्तियों के समीकरण के बादले सामाजिक शक्तियों के मानवबंधन की जरुरत है और प्रस्थानबिंदु वही बाबा साहेब का एजंडा जाति उन्मूलन का है तो पंथ दुनियाभर में पहली सामाजिक क्रांति के तहत समता और न्याय आधारित समाज और राष्ट्र के निर्माण करने वाले गौतम बुद्ध का है।


विश्वभर में धर्म चाहे कुछ हो,बदलाव की लड़ाई में सत्य, अहिंसा और प्रेम की विचारधारा की जो भूमिका है,उसका आधार महात्मा गौतम बुद्ध का धम्म है।


विश्वभर में धर्म चाहे कुछ हो,बदलाव की लड़ाई में सत्य, अहिंसा और प्रेम की विचारधारा की जो भूमिका है,उसका आधार महात्मा गौतम बुद्ध का धम्म है।पंचशील है।धम्म और पंचशील के अनुशीलन के लिए धर्मांतरण जरुरी नहीं है।


जबकि बदलाव के लिए धम्म और पंचशील का अनुशीलन जरुरी है।


बौद्धमय भारत के बजाय बुद्धमय भारत अगर हम अपना लक्ष्य बना लें तो सामाजिक राजनीतिक भूगोल इतिहास अर्थव्यवस्था आस्था उपासना पद्धति कुछ भी हो हम इस धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का जवाब धम्म और पंचशील से दे सकते हैं।


गौतम बुद्ध के आंदोलन में उनके अनुयायियों की भूमिका धर्मांतरण अभियान  की नहीं रही है।वह अभियान सत्य,अहिंसा और प्रेम के धम्म और पंचशील की निरंतरता रही है और जनसाधारण को अज्ञानता के अंधकार से सही मायने में तमसोमाज्योतिर्गमय का पंथ रचा है महात्मा गौतम बुद्ध ने,जो विशुध भारतीय है।


तबसे जनसंख्या का बूगोल समय समय पर होने वाले तो धर्मान्तरण से जो भी बदला हो,भारतीय संस्कृति की मुख्यधारा इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर फिर वही बुद्धम् शरणम् गच्छामि है।


विविधता और बहुलता भारत तीर्थ की भारतीय राष्ट्रीयता के वास्तविक जनक कविगुरु अस्पृश्य म्लेच्छ ब्रह्मसमाज रवींद्रनाथ की रचनाधर्मिता का मुख्य स्वर वही बुद्धम् शरणम् गच्छामि है और गांधी की विचारधारा का आधार भी वहीं है तो बाबासाहेब की समता और न्याय का दर्शन भी वही है।


धर्म नहीं,आस्था और उपासना पद्धति नहीं,गौतम बुद्थ की क्रांति दरअसल हमारी विरासत और भारत की साझा संस्कृति है।लोक संस्कृति है।


फासीवादी धर्मोन्मादी हिंदुत्व के नरसंहारी अश्वमेध के मुकाबले जनपक्षधरता के मोर्चे की बुनियाद अगर धम्म हो,तो समता और न्याय की मंजिल बहुत नजदीक है अन्यथा हम किसी और तरीके से इस ग्लोबल आर्डर के महाविध्वंस का मुकाबला कर नहीं सकते।धम्म और पंचशील ही धर्मोन्मादी अधर्म के नरमेधी राजसूय का जवाब है।


भारत में मेहनतकशों के हकहकूक के तमाम कानून ही बाबासाहेब ने नहीं बनाये,भारत में मजदूर आंदोलन की शुरुआत भी उन्होंने की।


भारत में साम्यवादी आंदोलन के नेतृत्व पर काबिज सामंती सत्ता वर्ग ने अगर जाति उन्मूलन के एजंडा को वर्गीय ध्रूवीकरण का माध्यम मानकर बाबासाहेब का साथ दिया होता तो बाबासाहेब की वर्कर्स पार्टी के जरिये भारतीय जनता को सच्ची आजादी मिल गयी होती।लेकिन उन्होंने तो कामगारों के मोर्चे से बाबासाहेब को दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर किया।


इसी तरह फासीवाद विरोधी आंदोलन और हिंदुस्तानी साझा चूल्हे की राष्ट्रीयता के नेता नेताजी को भी इसी सत्तावर्ग ने भारत की राजनीति,भूगोल और इतिहास से बाहर कर दिया।इससे पहले उनने फजलुल हक का काम तमाम किया।


गांधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की जंग के खास सिपाहसालर अब्दुल गफ्पार खान की उन्होंने नहीं सुनी और अपने विभाजन और विभाजन के जरिये आजाद भारत में बहुजनों और मुसलमानों के कत्लेआम के एजंडे को उन्होंने अंजाम दिया और विभाजन के बाद नानाविध कायाकल्प के साथ नरसंहारी अश्वमेध की वह वैदिकी हिंसा अब मुक्तबाजार की मनुष्यविरोधी प्रकृति विरोधी अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह है और महज भारत नहीं सारा महादेश अब फासिज्म का उपनिवेश है।


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