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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, September 29, 2016

हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर! पलाश विश्वास

हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर!

पलाश विश्वास

पहलीबार टीवी पर युद्ध का सीधा प्रसारण खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया ने किया अमेरिका के उस युद्ध को अमन चैन के लिए  इराक के खिलाफ पूरी दुनिया का युद्ध साबित करने के लिए।दुनियाभर का मीडिया उसीके मुताबिक विश्व जनमत तैयार करता रहा और तेल कुंओं की आग में तब से लेकर अबतक सारी दुनिया सुलग रही है।

नतीजतन आधी दुनिया अब शरणार्थी सैलाब से उसीतरह लहूलुहान है,जैसे हम इस महादेश के चप्पे चप्पे पर सन सैंतालीस के बाद से लगातार लहूलुहान होने को अभिशप्त हैं।अमेरिका के उस युद्ध की निरंतरता से महान सोवियत संघ का विखंडन हो गया और सारा विश्व ग्लोब में तब्दील होकर अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील है।सारी सरकारें और अर्थव्यवस्थाएं अब वाशिंगटन की गुलाम हैं और उसीके हित साध रही हैं।

मनुष्यता अब पिता की हाथों से बिछुड़कर समुंदर में तैरती लाश है और फिंजा सरहदों के आर पार कयामत है।

सरकारी आधिकारिक बयान के अलावा अब तक किसी सच को सच मानने का रिवाज नहीं है और वाशिंगटन का झूठ ही सच मानती रही है दुनिया।दो दशक बाद उस सच के पर्दाफाश के पर्दाफाश के बावजूद  दहशतगर्दी और अविराम युद्धोन्माद, विश्वव्यापी शरणार्थी सैलाब,गृहयुद्धों और प्राकृतिक संसाधनों के लूटखसोट पर केंद्रित नरसंहारी मुक्तबाजार में कैद मनुष्यता की रिहाई के सारे दरवाजे खिड़किया बंद हैं और हम पुशत दर पुश्त हिरोशिमा और नागाशाकी,भोपराल गैस त्रासदी,सिख नरसंहार, असम त्रिपुरा के नरसंहार,आदिवासी भूगोल में सलवा जुड़ुम और बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात प्रयोग की निरंतरता के मुक्तबाजार के तेल कुंओं में झलसते रहेंगे।मेहनतकशों के हाथ पांव कटते रहेंगे,युवाओं के सपनों का कत्लगाह बनता रहेगा देश,स्त्री दासी बनी रहेगी,बच्चे शरणार्थी होते रहेंगे और किसान खुदकशी करते रहेंगे।दलितों,आदिवासियों और आम जनता पर जुल्मोसिताम का सिलसिला जारी रहेगा।

इसलिए सर्जिकल स्ट्राइक के सच झूठ के मल्टी मीडिया फोर जी ब्लिट्ज और ब्लास्ट पर मुझे फिलहाल कुछ कहना नहीं है।मोबाइल पर धधकते युद्धोन्माद पर कुछ कहना बेमायने है।राष्ट्रद्रोह तो मान ही लिया जायेगा यह।

हम अमेरिकी उपनिवेश हैं और अमेरिकी नागरिकों की तरह वियतनाम युद्ध और खाड़ी युद्ध के विरोध की तर्ज पर किसी आंदोलन की बात रही दूर,विमर्श,संवाद और अभिव्यक्ति के लिए भी हम आजाद नहीं है क्योंकि यह युद्धोन्माद भी उपभोक्ता सामग्री की तरह कारपोरेट उपज है और हम जाने अनजाने उसके उपभोक्ता हैं। उपभोक्ता को कोई विवेक होता नहीं है।सम्यक ज्ञान और सम्याक प्रज्ञा की कोई संभावना कही नहीं है और न इस अनंत युद्धोन्माद से कोई रिहाई है।धम्म लापता है।

हम लोग ग्लोबीकरण की अवधारणा के तहत इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में लेने की तकनीक के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं।यह वह दुनिया है जिसके पोर पोर से खून चूं रहा है।हमारी मुट्ठी में अब खून से लबालब सात समुंदर हैं।जिसमें हमारे अपनों का खून भी पल दर पल शामिल होता जा रहा है।अपनी मुट्ठी में कैद इस दुनिया की हलचल से लेकिन हम बेखबर हैं।खबरें इतनी बेहया हो गयी हैं कि उनमें विज्ञापन के जिंगल के अलावा जिंदगी की कोई धड़कन नहीं है।सच का नामोनिशां बाकी नहीं है।

1991 के बाद,पहले खाड़ी युद्ध के तुरंत बाद से पिछले पच्चीस सालों से हम अमेरिकी उपनिवेश हैं।हमें इसका कोई अहसास नहीं है।सूचना क्रांति के तिलिस्म में हम दरअसल कैद हैं और प्रायोजित पाठ के अलावा हमारा कोई अध्ययन, शोध, शिक्षा, माध्यम,विधा,लोक,लोकायत,परंपरा ,संस्कृति या साहित्य नहीं है।सबकुछ मीडिया है।

हालांकि उपनिवेश हम कोई पहलीबार नहीं बने हैं।फर्क यह है कि करीब दो सौ साल के ब्रिटिश हुकूमत का उपनिवेश बनकर इस महादेश का एकीकरण हो गया। अब अमेरिकी उपनिवेश बन जाने की वजह से गंगा उल्टी बहने लगी है।भारत विभाजन के बाद बचा खुचा भूगोल और इतिहास लहूलुहान होने लगा है और किसानों ,मेहनतकशों की दुनिया में नरसंहारी अश्वमेधी सेनाएं दौड़ रही हैं।साझा इतिहास भूगोल समाज और संस्कृति का ताना बाना बिखरने लगा है।उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हो गयी है और औद्योगीकीकरण से जो वर्गीय ध्रूवीकरण की प्रक्रिया शुरु हो गयी थी,जो जाति व्यवस्था नये उत्पादन संबंधों की वजह से खत्म होने लगी थी,मनुस्मृति अनुशासन के बदले जो कानून का राज बहाल होने लगा था और बहुजन समाज वर्गीय ध्रूवीकरण के तहत आकार लेने लगा था,वह सबकुछ इस अमेरिकी उपनिवेश में अब खत्म है या खत्म होने को है।

ब्राह्मण धर्म जो तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति से खत्म होकर उदार हिंदुत्व में तब्दील होकर ढाई हजार साल तक इस महादेश की विविधता और बहुलता को आत्मसात करते रहा है,फिर मुक्तबाजार का ब्राह्मणधर्म है,जो भारतीय संविधान की बजाय फिर मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है।धम्म फिर सिरे से गायब है।

एकीकरण की बजाय अब युद्धोन्माद का यह मुक्तबाजार हिंदुत्व का ब्राह्मणधर्म है और हमारी राष्ट्रीयता कारपोरेट युद्धोन्माद है।महज सत्तर साल पहले अलग हो गये इस महादेश के अलग अलग राजनितिक हिस्से परमाणु युद्ध और उससे भी भयंकर जलयुद्ध के लिए निजी देशी विदेशी कंपनियों की कारपोरेट फासिज्म के तहत एक दूसरे को खत्म करने पर आमादा हैं जबकि विभाजन के सत्तर साल के बाद भी इन तमाम हिस्सों में संपूर्ण कोई ऐसा जनसंख्या स्थानांतरण हुआ नहीं है कि इस युद्ध में सीमाओं के आरपार बहने वाली खून की नदियों में हमारा वजूद लहूलुहान हो।अकेले बांग्लादेश में दो करोड हिंदू है तो भारत में मुसलमानों की दुनियाभर में सबसे बड़ी आबादी है और कुलस मिलाकर यह महादेश कुलमिलाकर अब भी एक सांस्कृतिक अविभाज्य ईकाई है,जिसे हम तमाम लोग सिरे से नजर्ंदाज कर रहे हैं।

कलिंग युद्ध से पहले,सम्राट अशोक के बुद्धमं शरणं गच्छामि उच्चारण से पहले सारा देश कुरुक्षेत्र का महाभारत बना हुआ था।सत्ता की आम्रपाली पर कब्जा के लिए हमारे गणराज्य खंड खंड राष्ट्रवाद से लहूलुहान हो रहे थे। दो हजार साल का सफर तय करने के बाद हमने बरतानिया के उपनिवेश से रिहा होकर अखंड भारत न सही,उसी परंपरा में नया भारतवर्ष  साझा विरासत की नींव पर बना लिया है।अबभी हमारा राष्ट्रवाद अंध खंडित राष्ट्रवाद युद्धोन्मादी है।धम्म नहीं है कहीं भी।

हमारी विकास यात्रा सिर्फ तकनीकी विकास यात्रा नहीं है और न यह कोई अंतरिक्ष अभियान है।हम इतिहास के रेशम पथ पर सिंधु घाटी से लेकर अबतक लगातार इस महादेश को अमन चैन का भूगोल बनाने की कवायद में लगे रहे हैं। तथागत गौतम बुद्ध ने जो सत्य अहिंसा के धम्म के तहत इस महादेश को एक सूत्र में बांधने का उपक्रम शुरु किया था,वह सारा इतिहास अब धर्मोन्मादी युद्धोन्माद है।

आज मुक्त बाजार का कारपोरेट तंत्र मंत्र यंत्र फिर उसी युद्धोन्माद का आवाहन करके हमें चंडाशोक में तब्दील कर रहा है और हम सबके हाथों में नंगी तलवारें सौंप रहा है कि हम एक दूसरे का गला काट दें।

ब्रिटिश राज के दरम्यान अफगानिस्तान से लेकर म्यांमर,सिंगापुर,श्रीलंका से लेकर नेपाल तक हमारा भूगोल और इतिहास की साझा विरासत हमने सहेज ली। सामंती उत्पादन प्रणाली के नर्क से निकलकर हम औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में शामिल हुए।ब्रिटिश हुक्मरान ने देश के बहुजनों को कमोबेश वे सारे अधिकार दे दिये, जिनसे मनुस्मृति की वजह से वे वंचित रहे हैं।मनुस्मृति अनुशासन के बदले कानून का राज बहाल हुआ तो नई उत्पादन प्रणाली के तहत जनमजात पेशे की मनुस्मृति अनिवार्यता खत्म हुई और शिक्षा का अधिकार सार्वजनिक हुआ।

शूद्र दासी स्त्री की मुक्ति की खिड़कियां खुल गयीं।अछूतों को सेना और पुलिस में भर्ती करके उन्हें निषिद्ध शस्त्र धारण का अधिकार मिला।तो संपत्ति और वाणिज्य के अधिकार भी मिले।मुक्तबाजार अब फिर हमसे वे सारे हकहकूक छीन रहा है।

औद्योगीकरण और शहरीकरण के मार्फत नये उत्पादन संबंधों के जरिये मेहनतकशों का वर्गीय ध्रूवीकरण एक तरफ जाति व्यवस्था के शिकंजे से भारतीय समाज को मुक्त करने लगा तो वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते देश भऱ में,बल्कि पूरे महादेश में बहुजन समाज का एकीकरण होने लगा और सत्ता में भागेदारी का सिलसिला शुरु हो गया।जो अब भी जारी है।जिसे खत्म करने की हर चंद कोशिश इस युद्धोन्मादी हिंदुत्व का असल एजंडा है।

आदिवासी और किसान विद्रोह के अविराम सिलसिला जारी रहने पर जल जंगल जमीन और आजीविका के मुद्दे,शिक्षा और स्त्री मुक्ति,बुनियादी जरुरतों के तमाम मसले अनिवार्य विमर्श में शामिल हुए,जिसकी अभिव्यक्ति भारत की स्वतंत्रतता के लिए पूरे महादेश के आवाम की एकताबद्ध लड़ाई है,आजाद हिंद फौज है।सामाजिक क्रांति की दिशा में संतों के सुधार आंदोलन का सिलसिला जारी रहा तो नवजागरण के तहत सामंतवाद पर कुठाराघात होते रहे और किसान आंदोलनों के तहत मेहनतकश बहुजनों का राजनीतिक उत्थान होने लगा।

यह साझा इतिहास अब हमारी मुट्ठी में बंद सात समंदर का खून है।

हमारे दिलो दिमाग में अब मुक्तबाजार का युद्धोन्माद है।

हम आत्मध्वंस के कार्निवाल में शामिल हम कबंध नागरिक हैं और इस युद्धोन्माद के खिलाफ अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता एक दूसरे को भी देने को तैयार नहीं है।फासिज्म की पैदल सेना में तब्दील हमारी देशभक्ति का यही युद्धोन्माद है।



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