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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, January 16, 2017

प्रतिरोध की कहानियां


डा.अरविंद कुमार को धन्यवाद क्योंकि उन्होंने महतोष मोड़ आंदोलन पर लिखी और 1991 मेरी कहानी सागोरी मंडल अभी मंडल अभी जिंदा है,को अपने संकलन प्रतिरोध की कहानियां में हिंदी के तमाम दिग्गज और मेररे अत्यंत प्रिय कथाकारो की कहानियों के साथ शामिल किया है।मैंने करीब सोलह सत्रह साल से कोई कहानी नहीं लिखी है,हांलांकि शलभ श्रीराम सिंह की पहल पर मेरा दूसरा कहानी संग्रह ईश्वर की गलती  2001 में छपा है।मैंने अनछपी कहानियां या कविताएं किसी को इन सोलह सत्रह सालों में कहीं छपने के लिए भेजी नहीं है।
मरे लिे यह सुखद अचरज है कि कमसकम कुछ लोग कहानी कविता के सिसिले में मुझे अब भी याद करते हैंं।
अरविंद कुमार जी से पिछले दिनों लंबा गपशप हुआ था और तब भी उन्होंने मेरी कहानी का जिक्र नहीं किया था,अलबत्ता चुनिंदा कहानियों का संग्रह भेजने के लिए मेरा पता लिखवा लिया था।
सागोरी मंडल बांग्ला में अनूदित है।यह कहानी किन किन पत्रिकाओं में छपी है,मुझे अभी याद नहीं है।आदरणीय गीता गैरोला जी ने बीच में इस कहानी के बारे में पूछा था,जिसकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है।हालांकि वह मेरे अंडे सेंते लोग कहानी संग्रह में छपी है।इसके अलावा सामाजिक यथार्थ की कहानियां जैसे शीर्षके के किसी संकलन में भी यह कहानी संकलित हुी है।उसकी प्रति भी मेरे पास नहीं है।
गीता जी ने बताया कि उत्तरा में यह कहानी छपी थी।मुझे नहीं मालूम है।बहरहाल उत्तरा में बंगाल की मौसी ट्रेनों पर एक कथा अक्टोपस उत्तरा में छपी थी,उसकी याद है।
इस संकलन में शामिल कहानीकारों में हमारे पुरातन मित्र संजीव की बेहतरीन कहानी ापरेशन जोनाकी भी है।पंकज बिष्ट की कहानी हल,विद्यासागर नौटियाल जी की कहानी भैंस का कट्या,मधुकर सिंह की दुश्मन,शिवमूर्ति की कहानी सिरी उपमा जोग,देवेंद्र सिह की कहानी कंपनी बहादुर,जयनंदन की कहानी विश्वबाजार का ऊंट,विजेंद्र अनिल की कहानी फर्ज,विजयकांत की कहानी राह,अवधेश प्रीत की कहानी नृशंस भी शामिल हैं।
उम्मीद है कि हिंदी के पाठकों को हिंदी कहानी का भूला बिसरा जमाना याद आयेगा।अरविंद जी का आभार।
प्रकाशक अनामिका पब्लिशर्स को धन्यवाद।
331 पेज की इस किताब की कीमत आठ सौ रुपये रखी गयी है।यह मुझे ठीक नहीं लग रहा है।
बांग्ला  में इतने पेज की किताब की कीमत ढाई सौ रुपये केआसपास होती है।कोई रचनासमग्प्रर भी किफायती दाम पर पाठको के लिए उपलब्काध है।प्रकाशक से सीधे लेने पर किताबब की कीमत दो सौ रुपये के आस पास बैठती है।बांग्ला और दूसरी भारतीय भाषाओं की किताबों की सरकारी खरीद नहीं होती,इसलिए वे पाठकों का ख्याल रखते हैं।मराठी,उड़िया और असमिया में भी किताबें पाठकों तक पहुंचाने की गरज होती है।
हम नहीं जानते कि इतनी महंगी किताबें कौन पढ़ेंगे।बहरहाल हमारी को चुनने के लिए आभारी जरुर हूं।
हो सकता है कि हिंदी में किताब छपने की लागत ज्यादा बैठती हो।अरसे बाद कोई कहानी छपी भी तो आम पाठकों तक पहुंचने की उम्मीद कम है।मेरे लिए यह अहसास सुखद नहीं है।
पलाश विश्वास
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