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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, March 17, 2017

देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विर�

देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है

क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विरोध करेंगे . आपको तब ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो पूरी क्रूरता के साथ आपके लिये गरीबों के संसाधन लूट कर लाकर आपकी सेवा में हाज़िर कर दे .

अब बस देखना यह है कि इस सब में खून कितना बहेगा ?


पलाश विश्वास

https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/1650543891640680/?l=9008385826331427057


असम की 15 वर्षीय युवा गायिका नाहिद आफरीन को गाने से रोकने के प्रयास की दसों दिशाओं में निंदा हो रही है।हम भी इसकी निंदा करते हैं लेकिन असहिष्णुता के इसी एजंडा के तहत संघ परिवार ने असम में विभिन्न समुदायों के बीच जो वैमनस्य, हिंसा और घृणा का माहौल बना दिया है,उसकी न कहीं निंदा हो रही है और न बाकी भारत को उसकी कोई सूचना है।

इसी तरह मणिपुर में इरोम शर्मिला को नब्वे वोट मिलने पर मातम ऐसा मनाया जा रहा है कि जैसे जीतकर पूर्वोत्तर के हालात वे सुधार देती या जो सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून मणिपुर में नागरिक और मानवाधिकार को,संविधान और कानून के राज को सिरे से खारिज किये हुए आम जनता का सैन्य दमन कर रहा है,जिसके खिलाफ इरोम ने चौदह साल तक आमरण अनशन करने के बाद राजनीति में जाने का फैसला किया और नाकाम हो गयी।

मणिपुर में केसरिया सुनामी पदा करने के लिए नगा और मैतेई समुदायों के बीच नये सिरे से वैमनस्य और उग्रवादी तत्वों की मदद लेकर वहां हारने के बाद भी जिस तरह सत्ता पर भाजपा काबिज हो गयी,उस पर बाकी देश में और मीडिया में कोई च्रचा नहीं हो रही है।इसीतरह मेघालय, त्रिपुरा, समूचा पूर्वोत्तर,बंगाल बिहार उड़ीसा दजैसे राज्यों को आग के हवाले करने की मजहबी सियासत के खिलाफ लामबंदी के बारे में न सोचकर निंदा करके राजनीतिक तौर पर सही होने की कोशिश में लगे हैं लोग।

मुक्त बाजार में भारतीय जनमानस कितना बदल गया है,जड़ और जमीन से कटे सबकुछ जानने समझने वाले पढ़े लिखे लोगों का इसका अंदाजा नहीं है और कोई आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है कि खुद हम कहीं न कहीं सेट होने,पेरोल के मुताबिक वैचारिक अभियान चलाकर अपनी साख कितना खो चुके हैं।

चुनावी समीकरण का रसायनशास्त्र सिरे से बदल गया है।

गांधीवादी वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता उपभोक्ता संस्कृति के शिकंजे में फंसे शहरीकृत समाज के जन मानस का शायद सटीक चित्रण किया है।शहरीकरण के शिकंजे में महानगर,उपनगर ,नगर और कस्बे ही नहीं हैं,देश में मौजूदा अर्थव्स्था के मुताबिक देहात में जो पैसा पहुंचता है और वहां बाजार का जो विस्तार हुआ है,वह भी महानगर के भूगोल में खप गया है और जनपदों का वजूद ही खत्म है।

हिमांशु जी ने जो लिखा है,वह अति निर्मम सच है और हमने अभी इस सच का समाना किया नहीं हैः

आप को मोदी को स्वीकार करना ही पड़ेगा . क्योंकि आपको विकास चाहिये और ऐसा विकास चाहिये जिसमे आपको शहर में ही बिना पसीना बहाए ऐशो आराम का सब सामान मिलता रहे . इस तरह के विकास के लिये आपको ज़्यादा से ज़्यादा संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों पर कब्ज़ा करना ही पड़ेगा . लेकिन तब करोंड़ों लोग जो अभी इन संसाधनों अर्थात जंगलों , खदानों , नदियों और गावों के कारण ही जिंदा हैं आपके इस कदम का विरोध करेंगे . आपको तब ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये जो पूरी क्रूरता के साथ आपके लिये गरीबों के संसाधन लूट कर लाकर आपकी सेवा में हाज़िर कर दे . इसलिये अब कोई लोकतांत्रिक टाइप नेता आपकी विकास की भूख को शांत कर ही नहीं पायेगा .इसलिये आप देखते रहिये आपके ही बच्चे मोदी को चुनेंगे . इसी विकास के लालच में ही आजादी के सिर्फ साठ साल बाद का भारत आदिवासियों के संसाधनों की लूट को और उनके जनसंहार को चुपचाप देख रहा है .

क्रूरता को एक आकर्षक पैकिंग भी चाहिये . क्योंकि आपकी एक अंतरात्मा भी तो है . इसलिये आप अपनी लूट को इंडिया फर्स्ट कहेंगे . लीजिए हो गया ना सब कुछ ?

कुछ लोगों को आज के इस परिणाम का अंदेशा आजादी के वख्त ही हो गया था पर हमने उनकी बात सुनी नहीं .

अब बस देखना यह है कि इस सब में खून कितना बहेगा ?

हिमांशु जी के इस आकलन से मैं सहमत हूं कि अपनी उपभोक्ता हैसियत  की जमीन पर खड़े इस देश के नागरिकों के लिए देश का भूगोल बहुत छोटा हो गया है।लोग अपने मोहल्ले या गांव,या शहर हद से हद जिला और सूबे से बाहर कुछ भी देखना सुनना समझना नहीं चाहते।

बाकी जनता जिंदा जलकर राख हो जाये,लेकिन हमारी गोरी नर्म त्वचा तक उसकी कोई आंच न पहुंचे,यही इस उपभोक्ता संस्कृति की विचारधारा है।

सभ्यता के तकाजे से रस्म अदायगी के तौर पर हम अपना उच्च विचार तो दर्ज करा लेना चाहते हैं,लेकिन पूरे देश के हालात देख समझकर नरसंहारी संस्कृति के मुक्तबाजार का समर्थन करने में कोताही नहीं करेंगे,फिर यही भी राजनीति हैं।

हमारे मित्र राजा बहुगुणा ने उत्तराखंड के बारे में लिखा है,वह बाकी देश का भी सच हैः

इस बार के चुनाव नतीजे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि उत्तराखंड में भाजपा-कांग्रेस संस्कृति की जडें और गहरी हुई हैं।दोनों दलों को मिलने वाले मत जोड़ दिए जाएं तो साफ तस्बीर दिखाई दे रही है।इसका मुख्य कारण है कि अन्य राजनीतिक ताकतो में स़े कुछ तो इसी कल्चर की शिकार हो खत्म होती जा रही हैं और अन्य के हस्तक्षेप नाकाफी साबित हो रहे हैं ? इस लूट खसौट संस्कृति का कसता शिकंजा तोड़े बिना उत्तराखंड की बर्बादी पर विराम लगना असंभव है ?

पहाड़ से कल तक जो लिखा जा रहा था,उसके उलट नया वृंदगान हैः

त्रिवेन्द्र सिंह रावत जी को उत्तराखंड के 9वें मुख्य मंत्री बनने पर हार्दिक शुभकामनाये । आशा है की आप कृषि मंत्री रहते हुए किया गया कमाल । मुख्य मंत्री रहते हुए नही दोहराएंगे ।

हम त्रिवेंद्र सिंह रावत जी को नहीं जानते।गनीमत है कि ऐन मौके पर पालाबदल करने वाले किसी दलबदलू बड़े नेता को संघ परिवार ने नेतृत्व के लिए चुना नहीं है।

संघ परिवार नेतृत्व बदलने के लिए अब लगातार तैयार दीख रहा है जबकि उसके विरोध में चुनाव हारने वाले राजनीतिक दल पुराने नेतृ्त्व का कोई विकल्प खोज नहीं पा रहे हैं।क्योंकि इन दलों का संगठन संस्थागत नहीं है और न्यूनतम लोकतंत्र भी वहां नहीं है।

जनता जिन्हें बार बार आजमाकर देख चुकी है,मुक्तबाजार की अत्याधुनिक तकनीक, ब्रांडिंग,मीडिया और मार्केटिंग के मुकाबले उस बासी रायते में उबाल की उम्मीद लेकर हम फासिज्म का राजकाज  बदलने का क्वाब देखते रहे हैं।

हमने पहले ही लिखा है कि चुनाव समीकरण से चुनाव जीते नहीं जाते। जाति,नस्ल,क्षेत्र से बड़ी पहचान धर्म की है।संघ परिवार को धार्मिक ध्रूवीकरण का मौका देकर आर्थिक नीतियों और बुनियादी मुद्दों पर चुप्पी का जो नतीजा निकल सकता था, जनादेश उसी के खिलाफ  है,संघ परिवार के समर्थन में या मोदी लहर के लिए नहीं और इसके लिए विपक्ष के तामाम राजनीतिक दल ज्यादा जिम्मेदार हैं।

अब यह भी कहना होगा कि इसके लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं है।

हम फिर दोहराना चाहते हैं कि गैर कांग्रेसवाद से लेकर धर्मनिरपेक्षता की मौकापरस्त राजनीति ने विचारधाराओं का जो अंत दिया है, उसीकी फसल हिंदुत्व का पुनरूत्थान है और मुक्तबाजार उसका आत्मध्वंसी नतीजा है।

हम फिर दोहराना चाहते हैं कि हिंदुत्व का विरोध करेंगे और मुक्तबाजार का समर्थन,इस तरह संघ परिवार का घुमाकर समर्थन करने की राजनीति के लिए कृपया आम जनता को जिम्मेदार न ठहराकर अपनी गिरेबां में झांके तो बेहतर।

हम फिर दोहराना चाहते हैं किबदलाव की राजनीति में हिटलरशाही संघ परिवार के हिंदुत्व का मुकाबला नहीं कर सकता,इसे समझ कर वैकल्पिक विचारधारा और वैकल्पिक राजनीति की सामाजिक क्रांति के बारे में न सोचें तो समझ लीजिये की मोदीराज अखंड महाभारत कथा है।

अति पिछड़े और अति दलित संघ परिवार के समरसता अभियान की पैदल सेना में कैसे तब्दील है और मुसलमानों के बलि का बकरा बनानाे से धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र की बहाली कैसे संभव है,इस पर आत्ममंथन का तकाजा है।

मोना लिज ने संघ परिवार के संस्थागत संगठन का ब्यौरा दिया है,कृपया इसके मुकाबले हजार टुकड़ों में बंटे हुए संघविरोधियों की ताकत का भी जायजा लें तो बेहतरः

60हजार शाखाएं

60 लाख स्वयंसेवक

30 हजार विद्यामंदिर

3 लाख आचार्य

50 लाख विद्यार्थी

90 लाख bms के सदस्य

50लाख abvp के कार्यकर्ता

10करोड़ बीजेपी सदस्य

500 प्रकाशन समूह

4 हजार पूर्णकालिक

एक लाख पूर्व सैनिक परिषद

7 लाख, विहिप और बजरंग दल के सदस्य

13 राज्यों में सरकारें

283 सांसद

500 विधायक

बहुत टाइम लगेगा संघ जैसा बनने में...

तुम तो बस वहाबी देवबंदी-बरेलवी ,,शिया -सुन्नी जैसे आपस में लड़ने वाले फिरकों तक ही सिमित रहो.........और मस्लक मस्लक खेलते रहो........ ... एक दूसरे में कमियां निकालते रहो।

अकेले में बैठकर सोचें कि आप अपने आने वाली नस्लों के लिए क्या छोड़कर जा रहे हैं।




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