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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Tuesday, May 23, 2017

जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता। सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए। वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान म�

जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता।

सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए।

वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान में हम समता और न्याय के लक्ष्य को हासिल कर लें।


पलाश विश्वास

प्रायोजित घटनाओं और वारदातों की क्रिया प्रतिक्रिया में कयमाती फिजां की तस्वीरें सिरे से गायब हैं।

सुनहले दिनों के तीन साल पूरे होने के बाद रोजी रोटी का जो अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है,डिजिटल इंडिया के नागरिकों,बेनागरिकों की नजर उसपर नहीं है।

सारी नजरें सरहद पर है।

दुश्मन को फतह करने का मौका बनाया जा रहा है और अंध राष्ट्रीयता और देशभक्ति की सुनामी ऐसी चला दी गयी है कि सरहदों में कैद वतन की जख्मी लहूलुहान जिस्म पर किसी का ध्यान नहीं है।

पिछले तीन साल में रोजार पिछले दस साल के मुकाबले कम है।

कृषि विकास दर 1.6 प्रतिशत है।

मेहनतकश तबके की रोजमर्रे की जिंदगी में रोजी रोटी का अता पता नहीं है। असंगठित क्षेत्रों में रोजगार खत्म हो रहा है तो संगठित क्षेत्र में छंटनी की बहार है। अकेले आईटी सेक्टर में साढ़े छह लाक युवाओं पर छंटनी की तलवार लटक रही है।

दस फीसद इंजीनियर रोजगार के लायक नहीं है,कारपोरेट दुनिया ने ऐलान कर दिया है।

मेहनकशों के हकहकूक सिरे से खत्म हैं और उत्पादन प्रणाली तहस नहस है।

डिजिटल इंडिया में खुली लूट,धोखाधड़ी,साइबर अपराध की ई-टेलिंग हैं तो खुदरा बाजार में मरघट का सन्नाटा है और किसानों, खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या दर बेहद बढ़ गयी है।

रक्षा,हथियार,आंतरिक सुरक्षा,परमाणु ऊर्जा सेक्टर निजी देशी विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया गया है और उनके मुनाफे के लिए युद्ध गृहयुद्ध अनिवार्य हैं।

मीडिया वही माहौल बना रहा है और आम जनता की तकलीफों की तस्वीर कहीं नहीं है।मीडिया में अब कंप्यूटर के सिवाय मनुष्ट हैं ही नहीं।

आम जनता को अपनी तकलीफों का ख्याल नहीं है और पढ़े लिखे लोग नागरिक और मानवाधिकार को तिलांजलि देकर सैन्य राष्ट्र के युद्धोन्माद की  मजहबी सियासत की भाषा में जुमलेबाजी कर रहे हैं और उसकी प्रतिक्रिया में जवाबी तरक्कीपसंद सियासती तौर पर बराबर जुमलेबाजी की आंधी चल पड़ी है।

रोजी रोटी का सवाल कहीं नहीं है।

न संसद में और न सड़क पर।

शिक्षा चिकित्सा और बुनियादी सेवाओं और जरुरतों पर चर्चा नहीं है।

न संसद में और न सड़क पर।

हमारे मुद्दे बेहद शातिराना ढंग से सत्ता वर्ग तय कर रहा है और हम उन्ही मुद्दों पर उनकी भाषा में तमाम माध्यमों और विधाओं में बोल लिख रहे हैं।

हम बुनियादी ज्वलंत मुद्दे पर न बोल रहे हैं और न लिख रहे हैं।

अपने बोलते और लिखते रहने की आदत पर हमें घिन होने लगी है।

सिर्फ आदत से मजबूर हैं वरना आत्महत्या और नरसंहार के कार्निवाल उपभोक्ता समय में किसी को पढ़ने सुनने की फुरसत कहां है?

यकीनी तौर पर हमारी लहूलिहान चीखेँ आपतक पहुंच नहीं सकती।फिर भी हम खामोश यूं हाथ पर हाथ धरे तमाशबीन बने नहीं रह सकते।क्योंकि मारे जा रहे और मारे जाने वाले तमाम लोग हमारे अपने हैं और खून भी हमारा ही लहू का समुंदर है।

इसी बीच चीन से खबर आयी है कि उनकी असल जनसंख्या 129 करोड़ है और भारत की असल जनसंख्या उससे ज्यादा है।

2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक और आजादी के बाद जन्म मृत्युदर औसत के मुताबिक यह दावा बेबुनियाद नहीं है।

इसी बीच मशहूर वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग ने चेतावनी दे दी है कि सौ साल में यह दुनिया इंसानों की रिहाइश के लायक नहीं रहेगी।इससे पहले वे एक हजार साल तक पृथ्वी के बने रहने की बात कर रहे थे।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद अब वे कह रहे हैं कि इस दुनिया के लोगों को किसी और सौर्यमंडल के किसी अजनबी ग्रह में ले जाना होगा और तभी मनुष्यता बच सकेगी।

तेजी से दुनिया के तबाह होने की सबसे बड़ी वजह जनसंख्या विस्फोट बता रहे हैं तो दूसरी वजह ग्लोबल वार्मिंग,प्रदूषण,जल संकट,जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरण समस्याओं को बता रहे हैं।

एक हजार साल की मोहलत को सौ साल की जिंदगी बताने वाले वैज्ञानिक हाकिंग जाहिर है कि कोरी बकवास नहीं कर रहे हैं।

विकसित देश और विकसित देश संसाधनों पर एकाधिकार कायम करके जिस अंधाधुंध तरीके से उनका इस्तेमाल कर रही है, एक पृथ्वी तो क्या दस दस पृथ्वी के विनाश और विध्वंस के लिए वह पर्याप्त है।

जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है,उसी तेजी से संसाधनों पर कारपोरेट पूंजी और सत्ता वर्ग का एकाधिकार बढ़ रहा है।

अधिकांश जनगण रोजी रोटी से मोहताज कर दिये गये हैं।

कामगारों और मेहनतकशों के हक हकूक खत्म हैं तो युवाओं के लिए कोई मौका नहीं है।उनके हाथ पांव काट दिये गये हैं।

खेती और हरियाली खत्म होते जाने से, विकास के नाम अंधाधुंध शहरीकरण और आटोमेशन के कारण रोजगार और आजीविका खत्म है।

नैसर्गिक आजीविका या स्थानीय रोजगार हैं नहीं।

प्रकृति के खिलाफ युद्ध जारी है तो प्रकृति से जुड़े बहुसंख्य कृषिजीवी मनुष्यों की जल जंगल जमीन छीन लिये जाने से खुदकशी और मौत के अलावा उनके लिए तीसरा कोई विकल्प है नहीं।

राजकाज,राजनय और अर्थव्यवस्था ग्लोबल शैतानी दुश्चक्र की रंगभेदी नस्ली व्यवस्था के शिकंजे में है।

कारपोरेट पूंजी के वर्चस्ववादी एकाधिकार का तंत्र में राष्ट्र के सैन्य राष्ट्र के अवतार में उपनिवेश बन जाने से और सामंती जाति वर्ण वर्ग के कब्जे में सारे मौके और सारे संसाधन एकमुश्त हो जाने से बहुसंख्य जनसंख्या के लिए जीने की कोई सूरत ही नहीं है।

अन्याय और असमता की नरसंहार संस्कृति राजकाज,राजनय और वित्तीय प्रबंधन  का चरित्र है।

आजादी के बाद से बुनियादी मुद्दों को दबाने के लिए,आम जनता के दमन उत्पीड़न और सफाये के लिए लगातार युद्ध और युद्धोन्माद का प्रयोग बेहद कामयाबी के सात किया जाता है।

राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद के कारोबार में हथियारों की होड़ और युद्धतंत्र को मजबूत करने के लिए रक्षा सौदे और परमाणु समझौते के तहत लाखों करोड़ का न्यारा वारा होता रहा है,जो कालेधन की गंगोत्री है और देश में मजहबी सियासत की कारपोरेट फंडिंग भी उसी कालेधन से होती है।

लेकिन राष्ट्र और प्रतिरक्षा,आंतरिक सुरक्षा और देशभक्ति के नाम जब हम नागरिक और मानवाधिकार ,कायदे कानून, सभ्यता और मनुष्यता, बुद्धि विवेक विमर्श,बहुलता विविधता और सहिष्णुता तक को बलि चढाकर मजहबी नस्ली सियासत की कठपुतलियां बनकर नाच रहे होते हैं,तब इस तिलिस्म के टूटने के आसार कहीं नहीं है।

पृथ्वी विनाश के कगार पर है।इस पृथ्वी को बचाने के लिए मनुष्यता को बचाना बेहद जरुरी है।

यहीं बात गांधी से लेकर सुंदरलाल बहुगुणा,आइंस्टीन से लेकर तालस्ताय और रवींद्रनाथ लगातार दुनियाभर में कहते रहे हैं।लेकिन खासकर भारत में पर्यावरण चेतना सिरे से गायब है।

प्रकृति से जुड़े जिन समुदायों का संसाधनों पर स्वामित्व था,उन्हें न सिर्फ जल जंगल जमीन और आजीविका से बेधखल कर दिया जाता रहा है बल्कि उनका सफाया ही विकास का मूल मंत्र हैं।

प्राकृतिक संसाधनों से बेदखली और कारपोरेट एकाधिकार की वजह से नैसर्गिक रोजगार सिरे से खत्म हैं।

अपनी मातृभाषा में स्थानीय रोजगार के बदले दक्षता और अजनबी भाषा की अनिवार्यता के साथ रोजगार के शहरों और महानगरों में केंद्रित हो जाने से स्थानीय रोजगार भी कहीं नहीं है।

उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने से रोजगार सृजन भी नहीं हो रहा है।

भारत के सात प्रतिसत विकास दरके मुकाबले रोजागर सृजन सिर्फ एक प्रतिशत है।

भारत विभाजन और जनसंख्या स्थानांतरण के बाद जिस पैमाने पर सीमाों के आर पार शरणार्थी सैलाब उमड़ते रहे हैं,उससे ज्यादा प्रकृति और प्रकृति सेजुड़े समुदायों के खिलाफ निरंतर जारी युद्ध और गृहयुद्ध से विकास के नाम बेदखल विस्थापितों और स्थानीय,जिला या सूबे के स्तर पर नौकरियां,आजीविका और रोजगार के मौके खत्म हो जाने से जड़ों से उखड़े लोगों की संख्या बेहद ज्यादा है।

इक्कीसवीं सदा में जिस तेजी से तकनीक का विकास हुआ है,उसी तेजी से शिक्षा,ज्ञान विज्ञान का अवसान भी होता रहा है।उसी तेजी से मातृभाषा, दर्शन, संस्कृति,विचारधारा,संस्कृति और धर्म का अंत भी होता जा रहा है।

धर्म अब सिर्फ अस्मिता है,वर्चस्ववादी अस्मिता,अज्ञान का घऩा अंधेरा।

दर्शन विरोधी,विज्ञान विरोधी,प्रकृतिविरोधी और मनुष्विरोधी नस्ली नरसंहार अब धर्म का सबसे वीभत्स चेहरा है,जो राजकाज है,राजनय है और वि्ततीय प्रबंधन भी है।जो स्त्री विरोधी है।जो इतिहासविरोधी और भविष्विरोधी अतीतमुखी है।

आरण्यक और जनपद संस्कृति से की कोख से जनमे धर्म में ज्ञान की खोज मोक्ष की खोज ऐसी भारतीय परंपरा रही है।

अब अज्ञानता का अंधकार का धर्मोन्माद धर्म है।

मनुष्यता के जिन मूल्यों पर धर्म की बुनियाद खड़ी थी,वह ध्वस्त है।

धर्म भी कारपोरेट पूंजी और सियासत के शिकंजे में प्रकृति के विरुद्ध है।

इस सियासती नस्ली मजहब की वजह से दंगों का सिलसिला अनंत है।

दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार का सिलसिला अनंत है।

ग्लोबल कारपोरेट शैतानी दुश्चक्र जब पृथ्वी के सारे देशों और उनके संसाधनों पर एकाधिकार कायम कर चुका है,जब समूची पृथ्वी उसका उपनिवेश है।

तब इस पृथ्वी के इसी गति से प्रकृति और संसाधनों के विनाश के मद्देनजर से सौ साल तक भी बचे रहने के आसार सचमुच नहीं है।

मौसम,जलवायु,पर्यावरण इतने जहरीले हो गये हैं कि इस सच को समझने के लिए किसी वैज्ञानिक आइंस्टीन या स्टीफेन हाकिंग के स्तर के ज्ञान के उत्कर्ष की जरुरत नहीं है,यह मनुष्यता के सामान्य विवेक औरचेतना का मामला है।

तकनीकी विकास की जो गति है,ऐसा कतई असंभव भी नहीं है कि सौ दो सौ साल तक इस खतरनाक मरती हुई पृथ्वी से निकलकर किसी और सौर्यमंडल के किसी और ग्रह में सीरिया,मध्यपूर्व और बांग्लादेश के शरणार्थियों की तरह मनुष्यों के पुनर्वास के हालात बने।

फिलहाल आधी दुनिया शरणार्थी है।

जिनकी रोजी रोटी,शिक्षा चिकित्सा का कहीं कोई व्यवस्था नहीं है।

असमता और अन्याय की विश्वव्यवस्था में उनसे उनकी नागरिकता और उनके देश भी छीने जा रहे हैं।

अब इस पृथ्वी पर शरणार्थियों के लिए कोई शरणस्थल नहीं है।

ऐसे में इस पृथ्वी की समूची जनसंख्या भारत विभाजन के व्कत हुए जनसंख्या स्थानातंरण के असफल प्रयोग की तर्ज पर किस सौर्यमंडल और किस ग्रह में सुरक्षित सकुशल स्थानांतरित किये जायेंगे, आने वाली पीढ़ियों के लिए अब इसी ख्वाब के अलावा कुछ भी नहीं है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था और दुनियाभर में नरसंहार संस्कृति की वजह से तब तक शायद समूची गैर जरुरी प्रजातियों के साथ पिछड़ी अश्पृश्य और अश्वेत मनुष्यता के सफाये के साथ पृथ्वी की जनसंख्या कम से कम इतनी तो हो जायेगी कि बचे खुचे लोगों के लिए अंतरिक्ष की उड़ान में हम समता और न्याय के लक्ष्य को हासिल कर लें।

जनसंख्या सफाये के लिए इससे बेहतर राजकाज और राजधर्म नहीं हो सकता। सुनहले दिनों के जश्न में बेमतलबके मुद्दों पर बांसों उछलते रहिए।



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