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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Wednesday, June 21, 2017

दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'! हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़। देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्

दलित राष्ट्रपति का हकीकतःगुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ'!

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

 

पलाश विश्वास

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।जिसे आप आगे पूरे ब्यौरे के साथ पढ़ेंगे।

दलित अस्मिता की राजनीति धुंआधार है और चूंकि संघ परिवार ने दलित कार्ड खेल दिया है,तो विपक्ष का खेल खत्म है।

दूसरी ओर,संघ की बुनियादी हिंदुत्व प्रयोगशाला में दलितों की स्थिति यह है।

गोरक्षा कार्यक्रम में जैसे मुसलमान मारे जा रहे हैं,वैसे ही दलित मारे जा रहे हैं।

राजकाज का असल योगाभ्यास यही है।

राजनेताओं को दलितों की कितनी परवाह है,उनके वोट के सिवाय, इसका खुलासा उसी तरह हो रहा है कि मुसलमानों की परवाह कितनी है मुस्लिम वोट बैंक के सिवाय,यह निर्मम हकीकत।

वनवासी कल्याण कार्यक्रम से सलवा जुड़ुम का रिश्ता घना है।आदिवासी फिर भी लड़ रहे हैं बेदखली के खिलाफ अपने हकहकूक के लिए।

दलितों का राष्ट्रपति फिर बन रहा है।

ओबीसी के कितने तो मुख्यमंत्री हैं और अब सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री भी है।

मुसलमान प्रधानमंत्री नहीं बने,बहरहाल राष्ट्रपति,उपराष्ट्रपति बनते रहते हैं तो कभी कभार मुख्यमंत्री भी।

सत्ता में भागेदारी का मतलब यही है।

जाहिर है कि दलित नहीं लडे़ंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि ओबीसी नहीं लड़ेंगे अपने हकहकूक के लिए।

जाहिर है कि मुसलमान नहीं लड़ेगे अपने हक हकूक के लिए।

लड़ेंगे तो राष्ट्रद्रोही बनाकर मार दिये जायेंगे।

देश में मेहनतकश तबका, देश के किसान, बहुजन समाज, बहुसंख्य आम जनता इसी तरह अलग अलग इसी तरह बंटे हुए हैं।छात्र युवा स्त्री तमाम सामाजिक शक्तियां इसी तरह बंटी हुई है।

निजीकरण,विनिवेश और एकाधिकार कारपोरेट नरसंहारी रंगभेदी राजकाज का प्रतिरोध इसलिए संभव नहीं है।

हर छोटे बड़े चुनाव में चुनाव में इसी तरह सैकडो़ं,हजारों बंटवारा होता है और सत्ता वर्ग की एकता,उनके हित अटूट हैं।

दलितों की परवाह विपक्ष को पहले थी तो उसने संघ परिवार से पहले दलित उम्मीदवार की घोषणा क्यों नहीं कर दी?

अगर विचारधारा का ही सवाल है तो संघ परिवार की विचारधारा और हिंदुत्व के एजंडे के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विरोधियों को राष्ट्रपति पद पर संघ की सहमति से उम्मीदवार चुनने की नौबत क्यों आयी?

अब चूंकि मायावती ने कह दिया है कि राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार ही उन्हें मंजूर होगा तो पहले से लगभग तय विपक्ष के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी को बदलकर पहले मीरा कुमार,सुशील कुमार सिंधे और बाबासाहेब के पोते प्रकाश अंबेडकर के नाम चलाये गये और विपक्षी एकता ताश के महल की तरह तहस नहस हो जाने के बाद अब स्वामीनाथन का नाम चल रहा है।

यानी हिंदुत्व के दलित कार्ड के मुकाबले वाम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष दलित कार्ड का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी?

समता ,न्याय,सामाजिक न्याय का क्या हुआ?

इसमें कोई शक नहीं है कि स्वामीनाथन बेशक बेहतर उम्मीदवार हैं तमाम राजनेताओं के मुकाबले।तो पहले विपक्ष को उनका नाम क्यों याद नहीं आया,यह समझ से परे हैं।

जब मोहन भागवत और लालकृष्ण आडवाणी के नाम चल रहे थे ,तब भी क्या विपक्ष को समझ में नहीं आया कि किसी स्वयंसेवक को ही राष्ट्रपति बनाने के पहले मौके को खोने के लिए संघ परिवार कतई तैयार नहीं है।

यह जानना दिलचस्प होगा कि संघ परिवार की ओर से पेश किस नाम पर विपक्ष आम सहमति बनाने की उम्मीद कर रहा था?

मोहन भागवत?

लाल कृष्ण आडवाणी?

मुरली मनोहर जोशी?

सुषमा स्वराज?

सुमित्रा महाजन?

प्रणव मुखर्जी?

गौरतलब है कि विपक्षी मोर्चाबंदी में ताकतवर नेता ममता बनर्जी ने भागवत और जोशी के अलावा बाकी सभी नामों का विकल्प सुझाव दिया है।

दार्जिलिंग में जैसे आग लगी हुई है और उस आग को ईंधन देने में लगा है संघ परिवार और बंगाली सवर्ण उग्र राष्ट्रवाद,अगर बंगाल का विभाजन कराने में कामयाब हो गया संघ परिवार,तो दीदी की अनंत लोकप्रियता काअंजाम क्या होगा कहना मुश्किल है।

संघ परिवार और केंद्र की जांच एजंसियों ने जैसी घेराबंदी दीदी की की है,बचाव के लिए संघम शरणं गच्छामि मंत्र के सिवाय कोई चारा उनके पास

नहीं बचा है।

दीदी फिलहाल विदेश यात्रा पर हैं और दार्जिलिंग के साथ साथ सिक्किम भी बाकी देश से कटा हुआ है।आज स्कूलों को खाली करने के लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने बारह घंटे की मोहलतदी है।दीदी की वपसी तक हालात कितने काबू में होंगे कहना मुश्किल है।

जैसे प्रणव मुखर्जी का प्रबल विरोध करने के बाद दीदी ने वोट उन्हीं को दिया था,बहुत संभव है कि इस बार भी कम से कम दार्जिलिंग बचाने के लिए दीदी नीतीश की तरह संघ परिवार के साथ हो जाये।वैसे वे संघ परिवार के पहले मंत्रिमंडल में भारत की रेलमंत्री भी रही हैं।

प्रणव मुखर्जी और संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत की शिष्टाचार मुलाकात पर हम पहले ही लिख चुके हैं।

संघ परिवार चाहता तो विपक्ष उनके नाम पर भी सहमत हो जाता,क्योंकि सहमति के इंतजार में उसने गोपालकृष्ण का नाम तय होने पर भी घोषित नहीं किया जबकि सहमति न होने की वजह यह बतायी जा रही है कि संघ परिवार ने पहले से नाम नहीं बताया।

अब संघ परिवार ने नाम बताया तो विपक्ष अपना प्रत्याशी बदलकर दलित चेहरे की खोज में लगा है।

हिंदुत्व के एजंडे के मुकाबले गजब का दलित एजंडा है।जिससे समूचा विपक्ष तितर बितर है और संघ के खेमे में दलित हितों के बहाने एंट्री और रीएंट्री की दौड़।

सत्ता की राजनीति, वोटबैंक की राजनीति,सत्ता में साझेदारी,संसदीय राजनीति में विचारधारा के ये विविध बहुरुपी आवाम हैं,जिसकी शब्दावली बेहद फरेबी हैं लेकिन इससे निनानब्वे प्रतिशत भारतवासियों, किसानों, मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, मुसलमानों और बहुसंख्य हिंदुओं और स्त्रियों के भले बुरे,जीवन मरण का कुछ लेना देना नहीं है।

राष्ट्रपति चुनाव का दलित कार्ड दरअसल वोटबैंक का एटीएम कार्ड है और इसे सत्ता की चाबी भी कह सकते हैं।

पिछले लोकसभा चुनाव में ओबीसी कार्ड खेलने के बाद संघ परिवार राष्ट्रपति चुनाव में दलित कार्ड भी खेल सकता है,विपक्ष के हमारे धुरंधर राजनेताओं को इसकी हवा क्यों नहीं लगी?

नाथूराम गोडसे को महानायक बनाने पर आमादा संघ परिवार जिस तेजी से गांधी नेहरु का नामोनिशान मिटाने पर तुला हुआ है,ऐसी हालत में गोपाल कृष्ण गांधी के वह कैसे राष्ट्रपति बनने देता?

तमिलनाडु,ओड़ीशा,तेंलगना और आंध्र के क्षत्रपों ने पहले से संघी कोविंद को अपना समर्थन दे दिया है।

समाजवादी मुखिया मुलायम पहले से ही राजी रहे हैं और वे मायावती अखिलेश समझौते के खिलाफ हैं।

नीतीश कुमार के जदयू ने लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राजद की परवाह किये बिना संघ परिवार का समर्थन कर दिया और जाहिर है कि वे देर सवेर संघ परिवार से फिर नत्थी होने की जुगत लगा रहे हैं।

वे पहले भी संघ परिवार के साथ रहे हैं और उनके इस कदम से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए।शरद यादव तो अटल जमाने में संघी गठबंधन के मुखिया भी रहे हैं।

अब चाहे दलित उम्मीदवार भी विपक्ष कोई खड़ा कर दें, देश का पहला केसरिया राष्ट्रपति बनना तय है और प्रधानमंत्री के साथ भारत के राष्ट्रपति भी स्वयंसेवक ही बनेंगे।वे दलित हों न हों,केसरिया होंगे कांटी खरा सोना,इसमें कोई शक नहीं है।

जाहिर है कि चुनाव में प्रतिद्वंद्विता अब प्रतीकात्मक ही होगी जिसके लिए सिर्फ वामपंथी अडिग हैं।जबकि हकीकत यह है कि  वामपंथी बंगाल में सत्ता गवांने के बाद राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर चले जाने के बाद ऐसी कोई ताकत नहीं हैं कि अकेले दम संघियों से पंजा लड़ा सके।

वाम का सारा दम खम कांग्रेस के भरोसे हैं।उनकरी विचारधारा अब कुल मिलाकर कांग्रेस की पूंछ है जिसका केसरिया रंगरोगन ही बाकी है।

गौरतलब है कि कांग्रेस के साथ वे दस साल तक सत्ता में नत्थी रहे हैं।

पांच साल के मनमोहन कार्यकाल के दौरान परमाणु संधि को लेकर समर्थन वापसी में नाकामी के बावजूद उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ा नहीं है।तब सोमनाथ चटर्जी को पार्टीबाहर कर दिया लेकिन परमाणु संधि या भारत अमेरिकी संबंध या कारपोरेट हमलों की जनसंहार संस्कृति के खिलाफ कुछ भी जन जागरण उन्होंने नहीं किया है।उनकी धर्मनिरपेक्षता का जरुर जलवा बहार है।

वैसे आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार में संघी खास भूमिका में थे,तब वाम ने उस सरकार का समर्थन दिया था और वीपी मंत्रिमंडल के समर्थन में वाम और संघ परिवार दोनों थे।इसलिए वैचारिक शुद्धता का सवाल हास्यास्पद है। इसी वैचारिक शुद्धता के बहाने कामरेड ज्योति बसु को उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से रोका था।लेकिन केंद्र की सत्ता से नत्थी हो जाने में उनकी वैचारिक शुद्धता वैदिकी हो जाती है।

इस पर भी गौर कीजिये कि सोशल मीडिया पर बहुत लोगों ने लिखा है कि सिख नरसंहार के वक्त सिख राष्ट्रपति जैल सिंह थे तो गुजरात नरसंहार के दौरान मुसलमान राष्ट्रपति थे।

सत्ता में जो लोग इस वक्त दलितों के जो राम श्याम मंतरी संतरी हैं,वे देश में दलितों,दलित  स्त्रियों  के खिलाफ  रोजाना हो रहे अत्याचारों के खिलाफ कितने मुखर हैं,संसद से लेकर सड़क तक सन्नाटा उसका गवाह है।

कोविंद बेशक राष्ट्रपति बनेंगे।लेकिन उनसे पहले आरके नारायण भी राष्ट्रपति बन चुके हैं,जो दलित हैं,उनके कार्यकाल में दलितों पर अत्याचार बंद हुए हों या समता और न्याय की लड़ाई एक इंच आगे बढ़ी हो,ऐसा सबूत अभी तक नहीं मिला है।

मायावती चार बार मुख्यमंत्री यूपी जैसे राज्य की बनी रहीं,बाकी देश की छोड़िये ,यूपी में दलितों का क्या कायाकल्प हुआ बताइये।होता तो दलित संघी कैसे हो रहे हैं?

स्त्री अस्मिता की बात करें तो इस देश में स्त्री प्रधानमंत्री, सबसे शक्तितशाली प्रधानमंत्री का नाम इंदिरा गांधी है।तो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील भी बनी हैं।

सुचेता कृपलानी से अब तक दर्जनों मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन पितृसत्ता को तनिक खरोंच तक नहीं आयी।स्त्री आखेट तो अब कारपोरेट खेल है।

बाबासाहेब दलित थे,भारत के संविधान का मसविदा उन्होंने रचा और राजकाज राजनीति में कांग्रेस के बाद अब संघ परिवार भी परमेश्वर बाबासाहेब हैं,इसलिए नहीं कि उन्होंने संविधान रचा,इसलिए कि उनके नाम पर दलितों के वोट मिलते हैं। बाबासाहेब के संवैधानिक रक्षाकवच के बादवजूद दलितों,पिछडो़ं,आदिवासियों और स्त्रियों पर अत्याचार का सिलसिला जारी है।

पंचायत से लेकर विधानसभाओं और संसद से लेकर सरकार और प्रशासन में आरक्षण और कोटे के हिसाब से जाति,धर्म,लिंग,भाषा,नस्ल, क्षेत्र के नाम जो लोग पूरी एक मलाईदार कौम है,वे अपने लोगों का भला कैसे साध रहे हैं और उनपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ किस तरह सन्नाटा बुनते हैं,इसे साबित करने की भी जरुरत नहीं है।

जाहिर सी बात है कि ओबीसी प्रधानमंत्री हो या दलित राष्ट्रपति,ओबीसी या दलितों के हित साधने के लिए वे चुने नहीं जाते हैं,उनके चुनने का मकसद विशुद्ध राजनीतिक होता है।

जैसे अब यह मकसद हिंदू राष्ट्र का कारपोरेट एजंडा है।

जाति के नाम पर कोविंद का समर्थन और विरोध दोनों वोटबैंक की राजनीति है,इससे दलितों पर अत्याचार थमने वाले नहीं हैं।

गुजरात पुलिस ने बलात्कार की शिकार दलित पीड़िता से कहा 'जाओ जाकर पहले कास्ट सर्टिफिकेट लेकर आओ',जिग्नेश मेवाणी ने फेसबुक वाल पर बाकायदा एक प्रेस बयान जारी किया है।कृपया पढ़ लेंः

गुजरात के बनासकांठा जिले के डिशा तहसील के बुराल गांव की 18 साल की दलित लड़की जब स्वच्छता अभियान के सारे नारो के बावज़ूद जब घर पर टॉयलेट नही होने के चलते खुले में शौच करने गई तब दबंग जाति के एक इंसान रूपी भेड़िये ने उस के साथ बलात्कार किया।

10 जून दोपहर के 12 बजे यह घटना घटी।

पीड़िता ने घर जाकर अपने माँ बाप को यह बात बताई।

दोपहर के 2 बजे पीड़िता, उस के माता-पिता और बराल गांव के कुछ लोग डिशा रूरल पुलिश थाने में मामले कि रिपोर्ट दर्ज करवाने गए।

थाना इन्चार्ज मौजूद नही थे।

डयूटी पर बैठे पुलिस स्टेशन ऑफीसर ने कहा कि थाना इन्चार्ज (पुलिस इंस्पेक्टर) वापस आएंगे उस के बाद ही करवाई होगी।

पीड़िता, उसके माता पिता और गांव के लोग बारबार गिड़गिड़ाते रहे,

लेकिन रिपोर्ट दर्ज नही करी गई।

फिर पीड़िता के माता-पिता ने लोकल एडवोकेट मघा भाई को थाने बुलाया।

वकील साहब ने कहा कि मामला इतना संगीन है,

बलात्कार हुआ है और आप पुलिस इंस्पेक्टर का इंतजार कर रहे हो, यह कैसे चलेगा ?

इसके बाद भी कोई कार्यवाही नही हुई।

पुलिस स्टेशन ऑफिसर ग़लबा भाई ने कहा कि इंस्पेक्टर साहब आपको धानेरा तहसील के एक चौराहे पर मिलेंगे।

बलात्कार का शिकार यह दलित लड़की अपने मां-बाप और गांव के लोगो के साथ रोती गिड़गिड़ाती हुई धानेरा हाई वे पर पहुंची और अपनी आपबीती सुनाई।

सुनकर पुलिस इंस्पेक्टर डी. डी. गोहिल ने कहा - बलात्कार हुआ और तू दलित है तो जा जाकर पहले अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट लेकर आ।

यह है गुजरात का गवर्नेन्स,

यह है गुजरात मॉडल,

यह है दलितो के साथ गुजरात पुलिस का रवैया,

बाद में पीड़ित लड़की अपने मां बाप के साथ 24 किलोमीटर दूर अपने गांव वापस गई और कास्ट सर्टिफिकेट लेकर पुलिस थाने पहुंची।

फिर जो हुआ वह और भी भयानक है।

बगल के पुलिस थाने की शर्मिला नाम की एक महिला पुलिस कर्मी ने मामला दर्ज करवाने आई इस पीड़िता को एक अंधेरे कमरे में ले जाकर दो चांटे मारकर धमकी देते हुए कहा कि यदि बलात्कार का मामला दर्ज करवाया तो तुझे और तेरे मां-बाप को जेल में डाल देंगे।

बाद में इस थाने में IPC की धारा 376(Rape) के बजाय 354 (sexual abuse) के लिए मुकद्दमा दर्ज किया गया।

यहाँ तक कि इस पीड़िता के बारबार कहने के बावजूद उस की मेडिकल जांच नही करवाई गई।

यानी कुछ भी करके मामले को रफादफा करने की कोशिश की गई।

यहाँ उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले ही BJP के कुछ नेता नालिया सैक्स रैकेट में इनवॉल्व पाये गए थे और गुजरात पुलिस और बीजेपी के नेताओं का वास्तविक चरित्र उजागर हुआ था।

यह भी उल्लेखनीय है कि गुजरात में 2004 में 24 दलित बहनो के ऊपर बलत्कार हुए थे जो 2014 में 74 तक पहुंच गए।

हम लोगो ने पाटिदार समाज की नेता रेशमा पटेल और चिराग पटेल और बनासकांठा के साथी चेतन सोलंकी वगैरा के साथ मिलकर आज प्रेस कॉन्फ्ररेन्स के जरिये यह ऐलान किया है कि यदि 25 तारीख शाम के 6 बजे तक धारा 376 के तहत मुकदमा दर्ज नही किया गया और यदि थाना इन्चार्ज के खिलाफ एट्रोसिटी एक्ट की धारा -4 के तहत करवाई नही हुई तो हम सब मिलकर 26 तारीख को सुबह 11 बजे बनासकांठा जिले की बनास नदी के उपर का bridge (ब्रिज) और हाई वे बंद करवा देंगे।

बलात्कार के मामले में कोई समझौता नही चलेगा।

गुजरात सरकार तैयारी कर ले हमे रोकने की,

हम तैयारी कर लेंगे रास्ता रोकने की।

इंकलाब ज़िन्दाबाद।

Jignesh Mevani की वाल से

 

 

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