Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, November 20, 2017

खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी। पलाश विश्वास

खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

पलाश विश्वास

https://www.facebook.com/palashbiswaskl/videos/vb.100000552551326/1919932074701859/?type=2&theater


खोज रहा हूं खोया हुआ गांव,मैदान,पहाड़,अपना खेत।अपनी माटी।

बाजार का कोई सिरा नजर नहीं आाता,न नजर आता कोई घर।

किसी और आकाशगंगा के किसी और ग्रह में जैसे कोई परग्रही।


सारे चेहरे कारपोरेट हैं।गांव,देहात,खेत खलिहान,पेड़ पहाड़ सबकुछ

इस वक्त कारपोरेट।भाषा भी कारपोरेट।बोलियां भी कारपोरेट।

सिर्फ बची है पहचान।धर्म,नस्ल,भाषा,जाति की दीवारें कारपोरेट।

कारपोरेट हित से बढ़कर न मनुष्य है और न देश,न यह पृथ्वी।


गायें भैंसें और बैल न घरों में हैं और न खेतों में- न कहीं गोबर है

और न माटी कहीं है।कड़कती हुई सर्दी है,अलाव नहीं है कहीं

और न कहीं आग है और न कोई चिनगारी।संवाद नहीं है,राजनीति है बहुत।

उससे कहीं ज्यादा है धर्मस्थल,उनसे भी ज्यादा रंग बिरंगे जिहादी।


महानगर का रेसकोर्स बन गया गांव इस कुहासे में,पर घोड़े कहीं

दीख नहीं रहे।टापों की गूंज दिशा दिशा में,अंधेरा घनघोर और

लापता सारे घुड़सवार।नीलामी की बोली घोड़े की टाप।

पसीने की महक कहीं नहीं है और सारे शब्द निःशब्द।

फतवे गूंजते अनवरत।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।


न किसी का सर सलामत है और नाक सुरक्षित किसी की।हवाओं में

तलवारें चमक रहीं है।सारे के सारे लोग जख्मी,लहुलुहान।लावारिश।


घृणा का घना समुंदर कुहासे से भी घना है और है

चूंती हुई नकदी का अहंकार। सबकुछ निजी है और

सार्वजनिक कुछ भी नहीं।सिर्फ रोज रोज बनते

युद्ध के नये मोर्चे जैसे अनंत धर्मस्थल।

सारे महामहिम, आदरणीय विद्वतजन बेहद धार्मिक है इन दिनों।


धर्म बचा है और क्या है वह धर्म भी,जिसका ईश्वर है अपना ब्रांडेड और जिसमें मनुष्यता की को कोई सुगंध नहीं।कास्मेटिक धर्म की कास्मेटिक

सुगंध में मनुष्यता निष्णात।बचा है पुरोहिततंत्र।


सारा इतिहास सिरे से गायब।मनुष्यता,सभ्यता की सारी विरासतें

बाजार में नीलाम। न संस्कृति बची है और न बचा है समाज।

असामाजिक समाजविरोधी प्रकृतिविरोधी सारे मनुष्य।


घना कुहासा। सूरज सिरे से लापता और खेतों पर दबे पांव

कंक्रीट महानगर का विस्तार,गांव में अलग अलग किलों में कैद

अपने सारे लोग,सारे रिश्ते नाते,बचपन।सन्नाटा संवाद।


सरहदों की कंटीली बाड़ घर घर कुहासा में छन छनकर चुभती,

लहूतुहान करती दिलोदिमाग।मेट्रो की चुंधियाती रोशनी चुंचुंआते

विकास की तरह पिज्जा,मोमो,बर्गर पेश करती जब तब-

सारे किसान आहिस्ते आहिस्ते लामबंद एक दूसरे के खिलाफ।


अघोषित युद्ध में हथियार डिजिटल गैजेट और वजूद आधार नंबर।

अपने ही गांव के महानगरीय जलवायु में कुहासा घनघोर।


मैदान पहाड़ इस कुहासे में एकाकार,जैसे पहाड़ कहीं नहीं हैं

और न मैदान कहीं है कोई हकीकत में और न नदी कोई।


पगडंडियां और मेड़ें एकाकार।बल खाती सर्पीली सड़के डंसतीं

पोर पोर।खेतों में जहरीली फसल से उठता धुआं और आसमान

से बरसता तेजाब।घाटियां बिकाउ बाजार में और सारे पेड़ ठूंठ।


चारों तरफ तेल की धधक।तेज दौड़ते अंधाधुंध बाइक कुहासे में।

कारों के काफिले में मशीनों का काफिला शामिल और इंसान सिरे से

लापता हैं जैसे लापता हैं सूरज और आग।धमनियों में जहर।


सरहदों के भीतर सहरहद कितने।सेनाएं कितनी लामबंद सेनाओं के खिलाफ।

मिसाइलों का रिंगटोन कभी नहीं थम रहा।सारे लोकगीत

खामोश हैं और बच्चों की किलकारियां गायब है।गायब चीखें।


परमाणु बमों का जखीरा हर सीने में छटफटाता और रिमोट से

खेल रहा कोई कहीं और सरहद के भीतर ही भीतर।आगे पीछे के

सारे पुल तोड़ दिये।महानगर सा जनपद,क्या मैदान,क्या पहाड़-

अनंत युद्धस्थल है और सारे लोग एक दूसरे के खिलाफ लामबंद।



No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...