चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के छद्म ने चारू बाबू की हत्या की
28 July 2010 No Comment
विश्वजीत सेन। पटना में रहने वाले चर्चित बांग्ला कवि व साहित्यकार। पटना युनिवर्सिटी से इंजिनियरिंग की पढ़ाई। बांग्ला एवं हिंदी में समान रूप से सक्रिय। पहली कविता 1967 में छपी। अब तक 6 कविता संकलन। पिता एके सेन आम जन के डॉक्टर के रूप में मशहूर थे और पटना पश्िचम से सीपीआई के विधायक भी रहे।
♦ विश्वजीत सेन
चारू मजूमदार का संपूर्ण मूल्यांकन होना अभी बाकी है। शायद इसलिए कि उस मूल्यांकन के लिए बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास को खंगालना होगा। यह काम आसान नहीं है। खुदीराम बोस से लेकर सूर्य सेन (चट्टगांव) तक के दौर ने बंगाल के सामाजिक-आर्थिक चिंतन पर जो छाप छोड़ा है, वो अमिट है। आज भी वो बेताबी, वो बेचैनी बंगाल के हर राजनीतिक दल की कार्यशैली में दिखती है। बुद्धदेव भट्टाचार्या हों या ममता बनर्जी, हर कोई उसी मनःस्थिति और विरासत को ढो रहा है। इस विरासत ने बंगाल के जनवादी आंदोलन को गौरवान्वित किया है और यदाकदा शर्मसार भी। जनवादी परिसर में अतिवादी चिंतन को जगह नहीं मिलनी चाहिए। जनवादी आंदोलनों ने अतिवाद को छिन्न-भिन्न किया है। क्रांति को बेसब्र होकर अंजाम नहीं दिया जा सकता है। हो सकता है, बेसब्री में की गयी कार्रवाई कुछ युवा हृदयों को प्रफुल्लित करे, लेकिन नतीजे के रूप में वही ढाक के तीन पात हाथ लगते हैं।
चट्टगांव (पूर्वी बंगाल) में सूर्यसेन ने जिस युवा विद्रोह को अंजाम दिया, उसके अधिकांश कार्यकर्त्ता आगे चलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शमिल हो गये। जलालाबाद की पहाड़ी पर हाथ में राइफल लिए अंग्रेजी फौज से लड़ते हुए टेगरा-टाईगर-बल शहीद हो गये। उस समय उनकी उम्र थी 13 साल। उनके सगे बड़े भाई लोकनाथ बल बाद में कांग्रेसी कार्यकर्त्ता बन गये, कलकत्ते के किसी वार्ड के कौंसिलर बने और मृत्युपर्यंत कांग्रेसी ही रहे। अजय घोष, भगत सिंह तथा चंद्रशेखर आजाद के साथी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जेनरल सेक्रेटरी बने और उसी पद पर रहते हुए अपने ढंग से क्रांति से प्रतिबद्धता उन्होंने भी निभायी। संभव है आपकी सोच, उनकी सोच से भिन्नता रखती हो। लेकिन वे बेईमान कदापि नहीं रहे।
अतिवादी सोच के साथ समस्या ये है कि उसकी जड़ें गहरे तक धंसी होती हैं। इसलिए भगत सिंह के पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन सर उठाता है। ज्योति बसु के बंगाल की धरती 'माओवाद' से पट जाती है। इस बात का गवाह इतिहास है कि खालिस्तानी आंदोलनकारियों के हत्थे जितने सिक्ख चढ़े, उनमें से अधिकांश भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। आज हमारी आंखों के सामने माओवादियों के हाथों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्त्ता मारे जा रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि मरने वालों में अधिकांश आदिवासी हैं और मारने वाले भी आदिवासी ही हैं। और माओवादी इन कुकृत्यों को उचित ठहराने के लिए दुहाई भी आदिवासियों की ही देते हैं।
विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किये गये स्तालिन के मूल्यांकन से जो असंतोष पैदा हुआ, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने उससे भरपूर लाभ उठाया। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी स्तालिन के प्रति कितनी ईमानदार थी, वो तो एक अलग बात है। हां, उसमें यह लालसा जरूर थी कि विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का नेता गिनाये। बहरहाल, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी क्रांतिकारी छवि से लाभ उठाते हुए हर देश की कम्युनिस्ट पार्टी को विभाजित कर दिया। उसकी इस 'क्रांतिकारिता' से किसे लाभ पहुंचा, यह सभी को पता है। अमेरिकी साम्राज्यवाद ढहने से तो रही। आज भी इराक में उसके खूनी पंजे दिखाई पड़ रहे हैं। चीन में पूंजीवाद फख्र के साथ शासन पर काबिज है, चोरी छुपे नहीं, खुलेआम। अवश्य ही उसने अपने नाम के साथ 'समाजवाद' भी जोड़ लिया है… बाजार समाजवाद यानी मार्केट सोशलिज्म। जिस समाजवाद का जन्म ही बाजार के विरुद्ध हुआ, वह कैसे 'बाजार' की गोद में जाकर बैठ गया, यह समझ में आने लायक बात नहीं है।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की छद्मक्रांतिकारिता के शिकार हुए चारू बाबू। उनमें ईमानदारी की कमी नहीं थी, लेकिन धीरज की कमी अवश्य थी। 'पार्टी' बनाने में उन्होंने जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी की, इस बात को उनके प्रशंसकों ने भी स्वीकारा। पश्चिम बंगाल के एक छोटे से कस्बे से उठकर भारत जैसे देश की कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वमान्य नेता बनने के लिए जितनी सलाहियत की आवश्यकता होती है, वह उनमें नहीं थी। देखते ही देखते उनकी कम्युनिस्ट पार्टी असंख्य गुटों में तब्दील गयी, जो एक दूसरे के खून के प्यासे थे। हर गुट, दूसरे को 'वर्ग दुश्मन' समझने लगा और खुद को क्रांतिकारी। आज भारत में कितने नक्सलपंथी गुट हैं, इसकी गिनती करना भी मुश्किल है।
चारू मजूमदार के मरणोपरांत 'न्यू ऐज' साप्ताहिकी में डांगे ने उनका 'स्मृतिशेष' लिखा था। यह भी आश्चर्य की ही बात है क्योंकि 'भारतीय संशोधनवाद' के पिता, बकौल चारू बाबू, डांगे ही थे। लेकिन डांगे ने उनका मूल्यांकन करते हुए एक वाक्य लिखा था, जो आज भी प्रासंगिक है। डांगे ने लिखा था 'चारू मजूमदार ने पहली बार भूमिहीन खेत मजदूरों की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया था'। यह बात सौ फीसदी सच है। चारू बाबू अगर भविष्य में याद रखे जाएंगे, तो सिर्फ इसलिए, न कि उन अतिवादी हरकतों के लिए, जिन्हें उनके शिष्यों द्वारा अंजाम दिया जा रहा है।
(28 जुलाई चारू मजूमदार की शहादत तारीख है…)
उड़ान में हमारे किस्से
रामकुमार सिंह ♦ हम अपनी आत्मकथा के चुनिंदा अंश "उड़ान" से चुरा सकते हैं, जो अपने पिताओं की महत्वाकांक्षाओं के शिकार होने से बचने की कोशिश करते रहे।
परंपरा का परिवार
संदीप जोशी ♦ बोलना-बतियाना, मिलना-मिलाना, सुनना-सुनाना और खाना-खिलाना शायद आज उद्देश्य नहीं माने जाते हैं। प्रभाष जोशी के जीवन में ये भी उद्देश्य रहे।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
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विश्वजीत सेन ♦ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की छद्मक्रांतिकारिता के शिकार हुए चारू बाबू। उनमें ईमानदारी की कमी नहीं थी, लेकिन धीरज की कमी अवश्य थी। 'पार्टी' बनाने में उन्होंने जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी की, इस बात को उनके प्रशंसकों ने भी स्वीकारा। पश्चिम बंगाल के एक छोटे से कस्बे से उठकर भारत जैसे देश की कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वमान्य नेता बनने के लिए जितनी सलाहियत की आवश्यकता होती है, वह उनमें नहीं थी। देखते ही देखते उनकी कम्युनिस्ट पार्टी असंख्य गुटों में तब्दील गयी, जो एक दूसरे के खून के प्यासे थे। हर गुट, दूसरे को 'वर्ग दुश्मन' समझने लगा और खुद को क्रांतिकारी। आज भारत में कितने नक्सलपंथी गुट हैं, इसकी गिनती करना भी मुश्किल है।
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ओम थानवी ♦ जब थोड़े सफर, थोड़े नाश्ते और कुछ गंभीर बातों से लोग सुस्त-से दीखने लगे, वात्स्यायनजी ने ताली बजाकर सबका ध्यान खींचा। फिर सबसे आगे, दरवाजे तक चले गये। मुड़े तो एक बाजीगर की-सी चंचलता और फुर्ती उनके चेहरे पर चढ़ चुकी थी। बोले, हमारे दौर के अनेक कवियों को सुनने का आपको मौका न पड़ा होगा। आपको उनकी कुछ झलक दिखलाये देते हैं। और वे दरवाजे के साथ दीवार से निकले मेज-नुमा फट्टे पर चढ़ बैठे। ये मेजें कुर्सीयान में सबसे आगे की पंक्ति के मुसाफिरों की सुविधा के लिए बनी होती हैं। एक-एक कर उन्होंने कुछ कवियों के पाठ की 'सस्वर' नकल उतारी। सबसे मजेदार, सही शब्दों में हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देने वाली नकल भगवतीचरण वर्मा के गीत की थी।
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राजेंद्र यादव ♦ बुद्धिजीवियों का यह कौन सा आचरण है कि वे दूसरे पक्ष की बात सुनेंगे ही नहीं। यह विचारों का लोकतंत्र नहीं, बौद्धिक तानाशाही है। "मैं तुम्हारे विचारों को एक सिरे से खारिज करता हूं, मगर मरते दम तक तुम्हारे ऐसा कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा।" यह कहा-बताया जाता है लोकतंत्र के पुरोधा वॉल्टेयर का। दूसरे को बोलने ही न दो, यह कैसा फासीवाद है? क्या हमारे तर्क इतने कमजोर हैं कि "दुश्मन" के सामने ठहर ही नहीं पाएंगे? इस वैचारिक तानाशाही का एक कुत्सित रूप कुतर्कों का पिंजड़ा खड़ा करना भी है। आप किसी भी विषय पर बात कीजिए, वे तर्क देंगे कि जब किसान हजारों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हों, तब आप एसी कमरों में बैठकर एक फालतू मुद्दे पर मगजपच्ची कर रहे हैं – यह भयानक देशद्रोह है।
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कलियुगी वेदव्यास ♦ कृपाचार्य: जिसका घर में सम्मान नहीं, उसका बाहर भी सम्मान नहीं हो सकता, वत्स। यह सब अमेरिकी पूंजीवादी षडयंत्र है और दक्षिणपंथी दुष्प्रचार। देखा नहीं, कैसे वह कुलद्रोही क्रूर, दक्षिणपंथी, माफिया साधु के हाथों पुरस्कार ले आया और तमाम भर्त्सना के बावजूद अपने इस कृत्य पर इतराता रहा। जो गुरुद्रोही होता है, उसका यही हश्र होता है पुत्र। उसे पागल कुत्ते की तरह घेरकर मारा जाता है। वह नरक का भागी होता है। याद रखो कि गुरु ही पिता है, गुरु ही माता है, गुरु ही भ्राता है, गुरु ही प्रेमी है और गुरु ही पति भी। ऐसा हमारे शास्त्रों में लिखा है। जॉक देरिदा, जॉक देरिदा, जॉक देरिदा। शिष्य: यह कौन सा मंत्र है गुरुदेव, जिसका आप लगातार सोते-जागते जाप करते रहते हैं?
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ओम थानवी ♦ हिंदी में अनेक शब्द अज्ञेय ही चलन में लाये। मसलन यायावर, जिजीविषा, पूर्वग्रह, लोकार्पण। लोकार्पण के लिए विमोचन शब्द उन्हें नाकाफी लगता था। एक दिन बोले, पुस्तक का विमोचन तो छापेखाने में ही हो चुका होता है! विमोचन के विकल्प की खोज शुरू हो चुकी थी। कुछ रोज 'संतारण' (पार उतरना) पर अटके, फिर शब्द दिया 'लोकार्पण'। आज हिंदी में हर पुस्तक का 'लोकार्पण' ही होता है। भोपाल में भारत भवन के एक आयोजन समवाय – 1 में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित 'पूर्वग्रह' के विशेषांक का 'लोकार्पण' कर अंक अज्ञेय को सौंपते हुए नामवर सिंह जी ने कहा था – यह अंक उनके हाथों में देता हूं, जिन्होंने हमें पूर्वग्रह और लोकार्पण दोनों शब्द दिये हैं।
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डेस्क ♦ दैनिक भास्कर समूह से जुड़े पत्रकार उर्मिलेश को राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति का चेयरमैन मनोनीत किया गया है। यह पहली बार है, जब हिंदी के किसी पत्रकार को राज्यसभा की मीडिया सलाहकार समिति चेयरमैन बनाया गया है। उर्मिलेश अपनी तीखी राजनीति रपटों के लिए जाने जाते रहे हैं और उनकी कई किताबें भी आ चुकी हैं। इससे पहले अंग्रेजी के पत्रकार ही इस समिति का नेतृत्व करते थे। पंद्रह सदस्यीय मीडिया सलाहकर समिति में उर्मिलेश के अलावा एनडीटीवी के राहुल श्रीवास्तव को वाइस चेयरमैन, वार्ता (तेलुगु) के आर राजगोपालन को सचिव और द टेलीग्राफ की राधिका रामाशेषन को संयुक्त सचिव मनोनीत किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया को भी सलाहकार समिति में जगह दी गयी है।
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प्रमोद रंजन ♦ नीतीश कुमार पिछड़ी जाति से आते हैं। यह तथ्य, उस मासूम उम्मीद की मुख्य वजह बना था कि वह सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करेंगे। समान स्कूल प्रणाली आयोग तथा भूमि सुधार आयोग के हश्र तथा अति पिछड़ा वर्ग आयोग व महादलित आयोग के प्रहसन को देखने के बाद यह उम्मीद हवा हो चुकी है। इसके विपरीत नीतीश कुमार बिहार में पिछड़ा राजनीति या कहें गैरकांग्रेस की राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने वाले मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। 2005 में राश्ट्रपति शासन के बाद अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार भारी बहुमत से चुनाव जीत कर आये थे। उसके बाद से जिस रफ्तार से उनकी लोकप्रियता गिरी है, उसी गति से कांग्रेस का उठान हुआ है।
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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