केवल एक यौन अपराध नहीं है बलात्कार इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं
अशोक कुमार पाण्डेय
कुछ दिनों पहले कवि और प्रकाशक अरुण चन्द्र राय ने एक वाकया सुनाया। दिल्ली के पास एक फैक्ट्री के सर्वे के समय उन्हें कुछ किशोर वय के मज़दूर लड़के मिले। फैक्ट्री में उनके काम करने के घण्टे दस से बारह थे। सब यमुना पार की झुग्गियों में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहते थे, बिहार और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों से आये इन किशोरों की औसत आय रोज़ के सौ रुपये के आस-पास थी। इनके पास मनोरंजन का न तो कोई साधन था न ही कोई समय। बस एक चीज़ थी। चाइना के सस्ते मोबाइल और उन सबके मोबाइल पर पोर्न क्लिप्स भरे हुये थे। काम के बीच में थककर बीड़ी-तम्बाकू पीते हुये वे इन क्लिप्स को देखा करते थे। अमूमन कड़ाई से काम कराने वाले मालिक और सुपरवाइजर इस बात पर कोई एतराज़ नहीं करते थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि 'इस से रिफ्रेश होकर लड़के फिर पूरे जोश से काम करते हैं' ! हाँ एक और चीज़ थी उनके पास काम के बाद रिलेक्स होने के लिये – ड्रग्स और शराब!
बहुत पहले कहीं परसाई जी को पढ़ा था जहाँ उन्होंने एक घटना बयान की थी जिसमें एक ऐसे जवान लड़के का वाकया बयान किया गया था जिसने किसी शो रूम के शीशे में लगे एक महिला के बुत को गुस्से में तोड़ डाला था और वज़ह पूछने पर बताया कि 'साली बहुत सुन्दर लगाती थी'! इन दो घटनाओं को जोड़कर देखते हुये पिछले दिनों देश के अलग-अलग इलाकों में हुयी बलात्कार की घटनाएं जेहन में घूम गयीं। ऐसा नहीं कि बलात्कार की ये घटनाएं ग़रीब और वंचित लोगों द्वारा ही घटित हुयीं लेकिन इन घटनाओं में इस वर्ग के लोगों की संलिप्तता भी अनेक बार पाई गयी। इसलिये इन्हें थोड़ा अलग से और थोड़ा सबके साथ जोड़कर देखे जाने की ज़रूरत है।
थोड़ा पीछे जाकर देखें तो इस देश में यूरोप की तरह कभी कोई बड़ी सामाजिक क्रान्ति नहीं हुयी। सामन्ती शासन व्यवस्था से सत्ता छीन कर जो औपनिवेशिक व्यवस्था यहाँ आयी उसका मूल उद्देश्य अपने पितृदेश के लिये अधिकतम सम्भव मुनाफ़ा कमाना था। 1857 के बाद से तो अँग्रेज़ी शासन ने किसी सामाजिक सुधार की जगह पूरी तरह से यहाँ की उत्पीड़क सामाजिक संस्थाओं का दोहन अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया। यह समाज को धार्मिक तथा जातीय आधारों पर बाँटे रहने का सबसे मुफ़ीद तरीक़ा था। आप देखेंगे कि जहाँ पूरे यूरोप के साथ-साथ इंग्लैण्ड में उस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवर्तनों की बयार चल रही थी, भारत में अँग्रेज़ी शासन के अन्तर्गत ऐसी कोई बड़ी पहल इस दौर में सम्भव नहीं हुयी। सती प्रथा विरोध जैसे जो कुछ समाज-सुधार आन्दोलन 1857 के पहले थे भी वे बाद के दौर में नहीं दीखते। सामाजिक संरचना पूरी तरह से सामन्ती मूल्य-मान्यताओं पर आधारित रही। देश में पूँजीवाद आया भी तो औपनिवेशिक शासक के हितों के अनुरूप कमज़ोर और बीमार। यह किसी सक्रिय क्रान्ति की उपज नहीं था जो अपने साथ सामाजिक संरचना को भी उथल-पुथल कर देती। दक्षिण में रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में और फिर फुले तथा अम्बेडकर के नेतृत्व में जातिगत भेदभाव विरोधी आन्दोलनचले भी लेकिन जेण्डर को लेकर कोई बहुत मज़बूत पहल कहीं दिखाई नहीं दी। आप देखेंगे कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की मुख्यधारा में शामिल अधिकाँश लोगों के भाषणों,आचार-व्यवहार और नीतिगत निर्णयों में पितृसत्तात्मक तथा ब्राह्मणवादी नज़रिया साफ़-साफ़ झलकता है। काँग्रेस के सबसे प्रमुख नेताओं मोहनदास करमचन्द गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, राजेन्द्र प्रसाद से लेकर हिन्दूवादी नेताओं जैसे मदन मोहन मालवीय तक में यह स्वर कभी अस्पष्ट तो कभी मुखर रूप से दिखाई देता है। इस दौरान पनपे हिन्दू तथा मुस्लिम दक्षिणपन्थी संगठनों में तो यह स्वाभाविक ही था कि महिलाओं को लेकर बेहद संकीर्ण दृष्टि अपनाई जाती। उदाहरण के लिये आर एस एस के दूसरे सरसंघचालक गोलवरकर ऑर्गेनाइज़र के 2 जनवरी 1961 के अंक के पेज़ 5 पर कहते हैं "आजकल संकर प्रजाति के प्रयोग केवल जानवरों पर किये जाते हैं। लेकिन मानवों पर ऐसे प्रयोग करने की हिम्मत आज के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में भी नहीं है। अगर कुछ लोगों में यह देखा भी जा रहा है तो यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नहीं अपितु दैहिक वासना का परिणाम है। आइये अब हम यह देखते हैं कि हमारे पुरखों ने इस क्षेत्र में क्या प्रयोग किये। मानव नस्लों को क्रॉस ब्रीडिंग द्वारा बेहतर बनाने के लिये उत्तर के नंबूदरी ब्राह्मणों को केरल में बसाया गया और एक नियम बनाया गया कि नंबूदरी परिवार का सबसे बड़ा लड़का केवल केरल की वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र लड़की से शादी कर सकता है। एक और इससे भी अधिक साहसी नियम यह था कि किसी भी जाति की विवाहित महिला की पहली संतान नंबूदरी ब्राह्मण से होनी चाहिये और उसके बाद ही वह अपने पति से संतानोत्पति कर सकती है। आज इस प्रयोग को व्याभिचार कहा जायेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो पहली संतान तक ही सीमित है।"
ब्राह्मणवाद और पितृसत्तात्मक सोच का इससे क्रूर उदाहरण क्या हो सकता है? फिर इस बात पर क्या आश्चर्य किया जाये कि ऐसे गुरु के शिष्य आज भी बलात्कार की वजूहात स्त्रियों के पहनावे से लेकर उनके आचार-व्यवहार, नौकरी और सौन्दर्य तक में तलाश करते हैं? खैर, इस तरह आज़ादी की पूरी लड़ाई मर्दों की लड़ाई बनी रही। औरतों की बेहद मानीखेज़ भागीदारी के बावजूद उनके मुद्दे हमारे नेतृत्वकारी निकाय के सामने कभी बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं रहे। नतीजतन सामाजिक संरचना मोटे तौर पर सामन्ती बनी रही और विद्यालयों से लेकर परिवारों तक में पितृसत्तात्मक मूल्य आदर्श की तरह स्थापित किये जाते रहे।
इसी के साथ उस दौर की औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों से जिस तरह आर्थिक और क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुयी वह आज़ादी के बाद भी बदस्तूर चलती रही। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उडीसा जैसे पिछड़े क्षेत्रों के भयानक वंचना के शिकार लोग विस्थापित होकर महानगरों में आने को मज़बूर हुये जहाँ की चकाचौंध वे देख तो सकते थे लेकिन उसमें प्रवेश वर्जित था। इन महानगरों में उन्हें मिली नारकीय झुग्गी-झोपड़ियों की रिहाइश, अमानवीय रोज़गार स्थितियाँ और दोयम दर्जे की नागरिकता जहाँ उन्हें कोई भी अपमानित कर सकता था, प्रताड़ित कर सकता था। अपराधी मानसिकता के फलने-फूलने में ये परिस्थितियाँ कैसी भूमिका निभाती हैं इसे अस्सी के दशक में लिखे गये जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यास'मुरदा घर' में तो हाल में आये अरविन्द अडिगा के उपन्यास 'द व्हाईट टाइगर' में देखा जा सकता है। नब्बे के दशक के बाद ये प्रक्रिया और बढ़ी। आर्थिक असमानता की खाई तो चौड़ी हुयी ही साथ में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो थोड़ी-बहुत इमदाद मिलती थी वह भी बन्द हो गयी। आवारा पूँजी से भरे बाज़ार ने एक तरफ चकाचौंध को कई गुना बढ़ा दिया तो दूसरी तरह मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा धीरे-धीरे ख़त्म की जाने लगी। खेती नष्ट हुयी और गाँवों से रोज़गार की सम्भावनायें भी। नतीजतन गाँवों और छोटे कस्बों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ा और बड़ी संख्या में लोग उन्हीं परिस्थितियों में रहने और काम करने को मज़बूर हुये जिसका ज़िक्र मैंने पहले वाकये में किया है।
इसके बरक्स दूसरी दुनिया में समृद्धि ही नहीं आयी बल्कि पूरा सांस्कृतिक परिवेश भी बदल गया। उदाहरण के लिये फिल्मों को देखें। आदर्श वे कभी नहीं रहीं। लेकिन आवारा पूँजी के बेरोकटोक आगमन के बाद उनके चरित्र में बहुत बदलाव आया। अश्लीलता और नारी देह के कमोडीफिकेशन को एक मूल्य की तरह स्थापित किया गया। आइटम साँग के रूप में जिन बोलों के साथ बेहद अश्लील नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं उनकी लोकेशंस को जरा गौर से देखिये। अक्सर आपको वह पैसे लुटाते लोगों के सामने खुद को प्रस्तुत करती स्त्री का है। साथ में है भव्य विदेशी लोकेशंस पर उच्च-मध्यवर्गीय या फिर उच्च-वर्गीय जीवन का स्वप्नजगत जो ललचाता है, सपने जगाता है और सीख देता है कि पैसे से कुछ भी ख़रीदा जा सकता है और पैसे कमाने के लिये कुछ भी किया जा सकता है। स्त्री यहाँ कोई सकर्मक रोल अदा करने की जगह एक ऐसे लक्ष्य की तरह है जिसे या तो पैसे या फिर ताक़त की तरह प्राप्त किया जा सकता है और उसे ऐसा बनाया जाता है मानो वह खुद को प्रस्तुत करने के लिये सदा तैयार है, बस पात्र के भीतर इन दोनों में से कोई एक योग्यता हो। याद कीजिये डियो का वह विज्ञापन जिसमें लड़कियाँ बैगपाइपर के पीछे भागते चूहों की जगह ले लेती हैं और इस सांकेतिकता के बरक्स अधिक फैला हुआ संसार है पोर्न फिल्मों और वीडियो क्लिप्स का। इंटरनेट ऐसी सामग्री से भरा पड़ा है। हमने उस वाकये में देखा कि किस तरह वह इस अशिक्षित, विस्थापित, वंचित और शोषित समूह के लिये अफीम का काम करता है। लेकिन यहाँ यह ध्यान देना ज़रूरी होगा कि ऐसा सिर्फ उनके साथ नहीं है। सम्पन्न घरों के मित्र और लक्ष्य विहीन बच्चों से लेकर बड़ों तक यह असर साफ़ दिखाई देता है। एक तरफ सामन्ती पारिवारिक संरचना जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है तो दूसरी तरफ ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें स्त्री को सिर्फ देह, वह भी किसी भी तरह पाई जा सकने वाली देह बनाकर पेश किया जाता है। यह सब मिलकर स्त्री के प्रति एक हिंसक मानसिकता को जन्म देता है जिसका परिणाम हम कभी खाप पंचायत के रूप में देखते हैं, कभी बलात्कारों के रूप में तो कभी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक के 'डिस्टर्ब' क्षेत्रों में लोगों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिये सैनिकों द्वारा महिलाओं पर किये गये अत्याचार के रूप में। …और इन सबके बीच होती है अपनी रोज़ाना की जद्दोजेहद में लगी औरत। घर से निकलती हुयी, अपने हकूक के लिये ही नहीं सर्वाइवल के लिये भी जद्दोजेहद करती, इस बाज़ार में अपने लिये काम तलाशती, इस थोड़ी सी आज़ादी को सेलीब्रेट करती और इस सारी प्रक्रिया में पुरुष के साथ प्रतियोगिता में उतरती तो घर के भीतर अपनी पारम्परिक भूमिका के साथ कभी एडजस्ट तो कभी विरोध करती तथा रोज़ ब रोज़ इस मानसिकता की आँखों में काँटा बनती! मुक्ति की तलाश में नौकरी से लेकर प्रेम तक वह जहाँ भी जाती है उसे अक्सर इसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है।
ज़रा उस वर्ग के लिहाज से इन सब चीजों को एक साथ रखकर देखें जिस पर मैं यह लेख केन्द्रित करना चाहता हूँ। एक तरफ़ निजी जीवन में सौन्दर्य का पूर्ण अभाव बल्कि कहें तो कुरूपता का वर्चस्व। गन्दे घर, पहनने को अच्छे कपड़े नहीं, कारखानों, होटलों, बंगलों और दुकानों में हाड़तोड़ मेहनत और अपमान वाला नारकीय जीवन, विस्थापन और दारिद्र्य तो दूसरी तरफ चारों ओर फ़िल्मों और विज्ञापनों के बिलबोर्डों पर बिखरा, उन्हीं कारखानों के मालिकों और बड़े कारकूनों के यहाँ दिखता, सड़क पर महँगी कारों और दुकानों तथा होटलों में मुक्त भाव से पैसे लुटाता और घरों में ऐश्वर्य के सारे साधन जुटाता सौन्दर्य। इन सबके साथ मुक्तिदाता मनोरंजन के रूप में उपलब्ध पोर्न और नशा। क्या यह सब उस सौन्दर्य के प्रति नफरत पैदा कर देने के लिये काफ़ी नहीं? क्या यह सब उन्हें अमानवीय बना देने के लिये काफ़ी नहीं? इस अमानवीयता के परिणाम के रूप में उनका एक रूप बलात्कारी की तरह नज़र आता है तो इसमें आश्चर्य कैसा? अगर यह अमानवीयता मध्यवर्गीय निर्भया से लेकर उन्हीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली मासूम लड़कियों के साथ ऐसे अत्याचार के रूप में आ रहा है तो क्या सिर्फ दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देकर इस पर पाबन्दी लगायी जा सकती है? ज़ाहिर है कि इसका इलाज़ पट्टियाँ और टहनियाँ कतरने में नहीं जड़ पर प्रहार करने में है। उन अमानवीय स्थितियों को दूर करने में है।
लेकिन दिक्कत यह है कि इनकी जड़ें बहुत गहरे इस व्यवस्था के समृद्ध और प्रभावी लोगों से जुडी हैं जिनके व्यापारिक तथा सांस्कृतिक हित नशे और पोर्न के व्यापार से तथा ऐसी फ़िल्मों और ग़ैरबराबरी की ऐसी व्यवस्था से जुड़े हैं। यह सब मिलकर उनके मुनाफ़े को बढ़ाते हैं तथा उनके वर्चस्व को बनाये रखते हैम। इसलिये वे कभी नहीं चाहेंगे कि इन जड़ों पर सवाल उठे। तो वे एक तरफ ज़ोर-शोर से 'फाँसी दो' का उन्माद पैदा करते हैं तो दूसरी तरफ बिहारियों-उत्तर प्रदेशियों के ख़िलाफ़ इसे एक क्षेत्रीय मुद्दा बनाकर उन्हें निकाले जाने की माँग करते हैं। इस आड़ में वह मूल समस्या को तो धुँधला करते ही हैं साथ में अमीरजादों की ऐसी ही हरकतों या फिर परिवार के भीतर हो रही ऐसी घटनाओं पर भी पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। बलात्कार कोई भी करे या किसी के साथ भी हो, एक भयावह रूप से संगीन घटना है और इसके अपराधी को सज़ा मिलनी चाहिए, इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है? लेकिन यह हद से हद फौरी उपाय हो सकता है। यह याद रखना होगा कि बलात्कार केवल एक यौन अपराध नहीं है। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं। इसीलिये इसका कोई भी दीर्घकालिक तथा स्थाई निराकरण समाज के भीतर से अमानवीकरण के लिये जिम्मेदार परिस्थितियों तथा स्त्रीविरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता से एक फैसलाकुन जंग लड़े बिना मुमकिन नहीं है।
(यह लेख स्त्री मुक्ति' के लिये लिखा गया था, साभार -जनपक्ष)
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