Thursday, 26 September 2013 10:06 |
मृणालिनी शर्मा, छठे वेतन आयोग में एक और अनोखी सुविधा दी गई है, और वह है, दो वर्ष तक की 'चाइल्ड केयर लीव'। यकीन मानिए यह छोटे कर्मचारियों के लिए पैदा नहीं की गई, इसका भरपूर उपयोग उच्च पदों पर बैठी महिला अधिकारी कर रही हैं। अपने अधीन निम्न स्तर की महिला कर्मचारियों, पीए या क्लर्क को यह इतनी आसानी से नहीं मिलती। इस दौरान भी पूरी तनख्वाह, भत्ते, मकान, वरिष्ठता सब कुछ। आनंद ही आनंद। इनके पुरुष सहकर्मी भी खुश होते हैं, क्योंकि इस बीच उनकी जगह दूसरे अधिकारी को पदोन्नति मिल जाती है। संक्षेप में, कुछ और सुविधाएं, जो पिछले दस सालों में लगातार बढ़ी हैं। बच्चों की फीस का पैसा मिल जाता है, उन्हें हॉस्टल में रखने का भी। टेलीफोन, मोबाइल मुफ्त। हर अधिकारी को कंप्यूटर नोटबुक मिल गई हैं और घर पर इंटरनेट की सुविधा भी। कुछ विभागों में सरकारी कार, बंगला और चपरासी भी। बंगला उन्हें देश के हर महानगर में अंग्रेजी हुकूमत के अंदाज में एक से एक पॉश जगह पर मिला है। आश्चर्य की बात है कि जो सरकार नीचे के कर्मचारियों की संख्या लगातार कम करती जा रही है, ठीक उसी समय दिल्ली के मोतीबाग से लेकर कनॉटप्लेस के वीआइपी इलाकों में सैकड़ों बड़े बंगले इन अधिकारियों के लिए क्यों बनाए जा रहे हैं। विशेषकर अर्थव्यवस्था की ऐसी हालत में, जब सरकार स्कूल बनाने या उसमें शौचालय की सुविधा देने के नाम पर झर-झर रोने लगती है या कटोरा लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आगे जा खड़ी होती है। सस्ती दरों पर अब लाखों का ऋण भी अपनी कोठी बनाने के लिए। पूरी उम्र इतनी शान से रहने के बाद दो कमरों के फ्लैट में रहना, क्या इनकी सेवाओं की बेइज्जती नहीं है! इस देश का कोई आम आदमी पूछ सकता है कि जब बच्चे की पढ़ाई से लेकर इलाज तक का सारा खर्च सरकार देती है तो उन्हें लाखों की तनख्वाह किसलिए? फटीचर गरीब वोटरो! इतनी भी समझ नहीं है। इसी पैसे से तो बड़ी-बड़ी कारें खरीदी जाएगी। पांचवें वेतन आयोग ने इनकी कार की ख्वाहिश भी पूरी की और छठे वेतन के इस पैसे से हर साल लगभग पंद्रह लाख बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं। भूमंडलीकरण इसीलिए तो हुआ। अब ये लोग भारतीय रेल में भी यात्रा नहीं करते। हवाई यात्रा की सुविधा भी ज्यादा अधिकारियों को उपलब्ध है और दौरे के नाम पर मंदिर, मस्जिद के दर्शन के लिए निकलने पर एक से एक आलीशान होटल में रहने की सुविधा भी। आखिर सरकार को पर्यटन, होटल उद्योग और एअर इंडिया को भी तो चलाना है। फिर भी, विदेश में चिकित्सा की बात बड़ी विचित्र लगती है, क्योंकि सरकारी अस्पतालों में जाने की अनिवार्यता तो पिछले दिनों से लगभग खत्म ही हो चुकी है। आप मनमर्जी निजी अस्पताल चुनिए अपोलो, एस्कॉर्ट से लेकर मेदांता, गंगाराम, मैक्स। सरकारी डॉक्टर आपकी नौकरी, पद को देख कर तुरंत वहीं भेज देंगे और सारा खर्च सरकार से ले लेंगे। इन निजी अस्पतालों में भी विदेशी पैसा ही है। लेकिन इन अधिकारियों, नेताओं को फिर भी संतोष नहीं। ठीक उसी वक्त ये यहां के अस्पतालों, स्कूलों-कॉलेजों में गंदगी, गिरावट से लेकर अर्थव्यवस्था की हालत ठीक न होने या राजकोषीय घाटे का रोना रोने लगते हैं। सवर्ण दलितों को दोष देंगे तो दलित उन्हें सताने की शताब्दियों को। कोई पूछे, आखिर क्यों डूबे ये अस्पताल, विश्वविद्यालय, कोर्ट-कचहरी। हर जगह कुछ न कुछ तो नौकरशाह हैं ही, इस्पात प्राधिकरण के विज्ञापन की तर्ज पर। नीचे के कर्मचारी कम हो रहे हैं, ऊपर के पदों में तो पिछले दशक में कई गुना वृद्धि हुई है। ये चाहते तो ये संस्थान बेहतर हो सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने आकाओं के साथ ऐसा गठजोड़ किया और ऐसी नीतियां बनार्इं, जिनसे देश का पैसा और संस्थान दोनों ही देश से बाहर जा रहे हैं। विदेशी धंधेबाजों की नजर भारत के बाजार पर यों ही नहीं है। इस देश की एक सौ बीस करोड़ की आबादी का क्रीमीलेयर अपनी भुक्खड़ आदतों से कई विदेशी मुल्कों को जिंदा रखे हुए है। इन दस करोड़ लोगों को कार चाहिए और हर तीसरे वर्ष नया मॉडल भी। इन्हें मोबाइल हर अगले वर्ष बदलना है। सरकारी स्कूल की जगह वातानुकूलित अंग्रेजी स्कूल। लेकिन इस बार तो अति ही हो गई। क्या अधिकारियों और नेताओं की ही जान महत्त्वपूर्ण है? ऐसे समय जब केरल, तमिलनाडु, गुजरात आदि राज्यों में दिल, गुर्दे और दूसरी बीमारियों के सस्ते इलाज के लिए अफ्रीका, इंग्लैंड तक से लोग आ रहे हों, तब हम अपने सक्षम डॉक्टरों, अस्पतालों का रुख न कर, विदेश भागें, यह कैसी नीति है! जिस दिन इन अमीरों और राजनेता, नौकरशाह क्रीमीलेयर के लिए विशिष्ट सुविधाएं बंद हो जाएंगी, हमारे स्कूल, अस्पताल सब ठीक होने लगेंगे। आम आदमी का दर्द ये तभी जानेंगे।
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Thursday, September 26, 2013
विदेश में इलाज का मर्ज
विदेश में इलाज का मर्ज
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